h n

नए प्रेस कानून से बढ़ी सरकारी निगरानी

पत्र-पत्रिकाओं के ऊपर केंद्र की निगरानी बढ़ा दी गई है और इस संदर्भ में राज्यों के अधिकारों का केंद्रीयकरण कर दिया गया है। एक तरफ प्रक्रिया के सरलीकरण के दावे किए गए तो दूसरी ओर मसविदे में ‘पेंच’ फंसा दिया गया है। बता रहे हैं अनिल चमड़िया

प्रेस एवं पत्र-पत्रिका पंजीकरण अधिनियम-2023 के क्रियान्वयन के लिए एक मसविदा प्रेस एवं पत्र-पत्रिका पंजीकरण नियम-2024 के रूप में केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा तैयार कर लिया गया है। बीते 5 जनवरी, 2024 को इस नए मसविदे को मंत्रालय द्वारा सार्वजनिक कर लोगों से टिप्पणियां आमंत्रित किया है। मसविदा में कहा गया है कि प्रकाशक और प्रिंटिंग प्रेस के व्यावसायिक परिसर में दस्तावेजों व अभिलेखों का भौतिक निरीक्षण किया जा सकेगा। हालांकि इसके लिए जो कारण बताए गए हैं, वे प्रेस की आजादी को सीमित करते हैं। 

मसलन मसविदा में यह कहा गया है कि वार्षिक विवरण नियमित रूप से प्रस्तुत नहीं करने पर प्रेस पंजीयक ऐसी कार्रवाई कर सकता है। इसके अलावा यदि वार्षिक विवरण के डेस्क ऑडिट में असाधारण परिस्थितियों के कारण इस तरह की सिफारिश की गई हो तो भी पत्र-पत्रिकाएं सरकार के निशाने पर रहेंगीं। इसके अलावा सरकार की नजर अब सीधे खबरों पर रहेगी। वजह यह कि मसविदा में कहा गया है कि यदि प्रेस पंजीयक को किसी पत्र-पत्रिका के विरूद्ध सूचना व संदर्भ आदि के संबंध में शिकायत मिलती है तो वह ऐसी कार्रवाई के आदेश दे सकता है।

खैर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का यह मसविदा अपेक्षित ही है। वैसे भी संसद में जिस तरह से कानून बनाए गए हैं, उसके दूरगामी असर देखने को मिल सकते हैं। लेकिन उसकी चिंता लोगों के बीच बहस-मुबाहिसे में दूर-दूर तक नहीं दिखती है। ऐसे ही एक विधेयक – पत्र-पत्रिका पंजीकरण विधेयक-2023 – को बीते 21 दिसंबर, 2023 को लोकसभा में पारित किया गया। इसके पहले यह विधेयक बीते 1 अगस्त, 2023 को राज्यसभा में पारित किया गया था। तदुपरांत राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के बाद गत 29 दिसंबर को यह पत्र-पत्रिका पंजीकरण अधिनियम-2023 का शक्ल अख्तियार कर चुका है तथा ‘प्रेस और पुस्तक पंजीकरण अधिनियम-1867’ अब इतिहास बन चुका है। नए अधिनियम में पुस्तक को इससे अलग कर दिया गया है। 

संसद में कानूनों को बदले जाने के पीछे जो भावना सबसे ज्यादा इस्तेमाल की जा रही है वह है– राष्ट्रवाद की भावना। अंग्रेजों की हुकूमत के खिलाफ आजादी की लड़ाई में विकसित हुई भावना का ‘हिंदुत्ववाद’ के राजनीतिक मकसद को हासिल करने के लिए बखूबी इस्तेमाल होते देखा जा सकता है। तमाम ऐसे कानूनों को इस जुमले के साथ – ब्रिटिश जमाने के कानून – कहकर बदला जा रहा है। लेकिन वह गणतांत्रिक लोकतंत्र के हित में है या नहीं, यह विमर्श में शामिल नहीं दिखता है। 

केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने उच्च सदन में नया ‘प्रेस और नियत कालिक पत्रिका रजिस्ट्रीकरण विधेयक-2023’ प्रस्तुत करते हुए इसके तीन कारण बताए। पहला तो यह कि “हमें औपनिवेशिक मानस से बाहर निकल कर आना है। उस समय छोटी-छोटी गलतियों को भी अपराध मान कर किसी को जेल में डाल दिया जाता था, दंड दिए जाते थे। नए प्रयास के तहत इस कानून में आपराधिक दंड की व्यवस्था को खत्म करने के लिए उचित कदम उठाए गए हैं।” 

नए कानून से बढ़ी केंद्र की निगरानी

सूचना एवं प्रसारण मंत्री के अनुसार– ब्रिटिश शासन के दौरान पांच ऐसे प्रावधान किए गए थे, जिनके तहत एक छोटी-सी गलती भी हो जाती थी, तो जुर्माने के साथ-साथ 6 महीने की जेल भी हो जाती थी। लेकिन अब केवल एक ही केस में ऐसा होता है, जहां आपने अगर बगैर अनुमति के प्रेस चलाई या पत्रिका निकाली। आप पब्लिशर बने और आपने सूचना नही दी, तो आपको नोटिस दिया जाता है कि 6 महीने के अंदर आप इसको बंद कीजिए, क्योंकि 6 महीने का समय पर्याप्त होता है। अगर उस समयावधि में उसे बंद नहीं किया जाता है, तब कार्रवाई करके जेल में डाला जा सकता है। 

इसके साथ ही सूचना एवं प्रसारण मंत्री ने इस बात पर भी जोर दिया कि मौजूदा कानून के तहत किसी पत्र-पत्रिका को शुरू करने के लिए रजिस्ट्रार के समक्ष पत्र-पत्रिका के शीर्षक और पंजीकरण के लिए आठ चरणों से गुजरना पड़ता था। अब नए विधेयक में केवल एक बार में ही सभी प्रक्रिया पूरी करने का ऑनलाइन प्रावधान किया गया है। 

लोकसभा में यह विधेयक उस हालात में पारित किया गया जबकि विपक्ष के सांसदों को एक-एक कर बाहर किया गया। लेकिन राज्य सभा में इस विधेयक पर चर्चा के दौरान दर्जन भर सदस्यों ने हिस्सा लिया था। लेकिन यह जानकर हैरानी हो सकती है कि ये सारे सदस्य भारतीय जनता पार्टी के अलावा उन पार्टियों से थे जो लोकसभा में नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव का विरोध करने का फैसला लिया था और सत्ताधारी खेमे के साथ जुड़े हैं। मजे की बात यह है कि सभी वक्ताओं ने इस विधेयक का एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर समर्थन किया। इसके साथ इस मौके का लाभ उठाते हुए प्रेस की आजादी के खिलाफ कांग्रेस के रूख के ब्यौरे प्रस्तुत किए। इसके साथ दक्षिणपंथी विचारधारा की पत्र-पत्रिकाओं एवं उनसे जुड़े पत्रकारों को प्रेस की आजादी के लिए संघर्ष करने और बलिदानी साबित करने की पूरजोर कोशिश की। 

विधेयक के राजनीतिक पक्ष पर बातचीत के बजाय तकनीक के महत्व को पूरी बहस का चेहरा बनाया गया। ‘प्रेस और नियत कालिक पत्रिका पंजीकरण विधेयक-2023’ में पत्र-पत्रिकाओं के शीर्षक के आवंटन और पंजीकरण के लिए ऑनलाइन करने की प्रक्रिया पर ही पूरी चर्चा केंद्रित देखी गई। 

गणतंत्र के आधार को छोटा किया गया   

भारतीय गणतंत्र का राजनीतिक आधार नागरिक अधिकारों की स्वतंत्रता और केंद्र-राज्य संबंध है। इन दोनों ही राजनीतिक पहलुओं पर नए कानून में जो प्रावधान किए गए हैं, वह काबिल-ए-गौर है। मसलन, ‘प्रेस और नियत कालिक पत्रिका पंजीकरण विधेयक-2023’ लाने के पीछे राष्ट्रवाद की भावना और तकनीकी विकास को सामने रखा गया, जबकि यह कानून संविधान में नागरिक अधिकारों और गणतंत्र के विचार को प्रभावित करता है।

बताते चलें कि भारत में पत्र-पत्रिकाओं के कुल 1,64,285 शीर्षक स्वीकृत हैं। इनमें 1,49,266 प्रकाशन पंजीकृत हैं। नए अधिनियम में राज्यों में जिलाधिकारियों की भूमिका को निष्क्रिय करने की कोशिश दिखती है। राज्य स्तरीय प्रशासन केवल सूचना प्रदाता में बदलते दिखते हैं। अनुराग ठाकुर के मुताबिक, “डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के सामने ऑनलाइन प्रक्रिया करनी है, आरएनआई में भी ऑनलाइन करना है। अगर 60 दिन के अंदर डीएम ने जवाब नहीं दिया, तो आरएनआई का जो हमारा रजिस्ट्रार जनरल है, प्रेस रजिस्ट्रार है, वह अपनी मर्जी से उनको अनुमति दे सकता है।” 

सूचना एवं प्रसारण मंत्री के अनुसार ब्रिटिश शासकों की मंशा यह थी कि जिलाधिकारियों के माध्यम से ही कोई भी प्रेस चले। प्रेस हों या पब्लिशर, उन सबके ऊपर एक कंट्रोल बनाकर रखने के लिए इस तरह का कानून बनाया गया था, लेकिन आज राज करने की नहीं, बल्कि कर्तव्य निभाने की बात की जाती है। जिलाधिकारी के रोल को थोड़ा कम किया गया है और उनका पत्र-पत्रिकाओं के नाम और पंजीकरण में रोल बहुत कम हुआ है, लेकिन उनके पास जो जानकारी जानी है, वह अभी भी पूरी जाएगी। 

भारत में समाचार पत्रों के पंजीयक की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है। इस विधेयक में पंजीयक को जो अधिकार दिए गए हैं, उनके बारे में अनुराग ठाकुर ने सदन में जो जानकारियां दी हैं , वे निम्न हैं–

  1. मान लीजिए कि आपने दैनिक समाचार पत्र कहा, तो आपको 365 दिन छापने हैं। अगर आप 50 परसेंट, यानी उसके आधे दिन भी नहीं छापेंगे, तो वह [पंजीयक] आपके खिलाफ कार्रवाई कर सकता है, उसको बंद करने की कार्रवाई कर सकता है। इसी तरह से अगर आपने 15 दिन में एक बार छापना है और आप उसे नहीं छाप रहे हैं, तब भी प्रेस रजिस्ट्रार जनरल आपके खिलाफ कार्रवाई कर सकता है।
  2. सर्टिफिकेट को कैंसल कैसे करेगा, उसके बारे में भी जैसे मैंने कहा कि आप कहीं पर एक नाम से छाप रहे हैं, वह नाम उसी राज्य में किसी और के पास है या अन्य राज्य में किसी और के पास है, तब भी उसके पास यह अधिकार है कि वह उसको खत्म करे या किसी और भाषा में भी किसी और राज्य में है, वैसा ही या मिलता-जुलता नाम है, तब भी उसको [पंजीयक] वह कैंसल कर सकता है। राज्य या केंद्र शासित प्रदेश कहीं पर भी हो। 
  3. प्रेस रजिस्ट्रार जनरल के पास यह अधिकार है कि वह किसी नियतकालिक को पांच लाख रुपए तक की सजा भी दे सकता है, लेकिन वह बेहद गंभीर मामले में है। लेकिन शुरू में तो 10 हज़ार, 20 हज़ार तक पहली चूक के लिए सज़ा है और अधिकतम गलतियां करने पर, और अगर वह बार-बार गलतियां करता है, तो उसको हम दो लाख रुपए तक करने जा रहे हैं। यह हमने पब्लिशर के लिए किया है।

दरअसल, ब्रिटिश जमाने के कानून में नागरिकों को पत्र-पत्रिकाएं निकालने से रोकने की जो व्यवस्था नहीं थी, वह अब नए कानून में कर दी गई है। इनमें यह भी शामिल है कि मालिक व प्रकाशक को कोई न्यायालय द्वारा सजा सुना दी जाती है, जैसे किसी आतंकवादी कार्रवाई में या किसी ऐसी गतिविधि में, जो देश के खिलाफ हो, तब उसकी वजह से भी रजिस्ट्रार लाइसेंस को रद्द कर सकता है।

कुल मिलाकर पत्र-पत्रिकाओं के ऊपर केंद्र की निगरानी बढ़ा दी गई है और इस संदर्भ में राज्यों के अधिकारों का केंद्रीयकरण कर दिया गया है। एक तरफ प्रक्रिया के सरलीकरण के दावे किए गए तो दूसरी ओर मसविदे में ‘पेंच’ फंसा दिया गया है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

अनिल चमड़िया

वरिष्‍ठ हिंदी पत्रकार अनिल चमडिया मीडिया के क्षेत्र में शोधरत हैं। संप्रति वे 'मास मीडिया' और 'जन मीडिया' नामक अंग्रेजी और हिंदी पत्रिकाओं के संपादक हैं

संबंधित आलेख

जेएनयू में जगदेव प्रसाद स्मृति कार्यक्रम में सामंती शिक्षक ने किया बखेड़ा
जगदेव प्रसाद की राजनीतिक प्रासंगिकता को याद करते हुए डॉ. लक्ष्मण यादव ने धन, धरती और राजपाट में बहुजनों की बराबर हिस्सेदारी पर अपनी...
बिहार : भाजपा के सामने बेबस दिख रहे नीतीश ने की कमर सीधी, मचा हंगामा
राष्ट्रीय स्तर पर जातीय जनगणना और बिहार में बढ़ा हुआ 65 फीसदी आरक्षण लागू कराना जहां नीतीश के लिए बड़ी चुनौती है तो भाजपा...
कोटा के तहत कोटा ले लिए जातिगत जनगणना आवश्यक
हम यह कह सकते हैं कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय में केंद्र सरकार को उसी तरह की जातिगत जनगणना करवाने का निर्देश दिया गया...
सिंगारवेलु चेट्टियार का संबोधन : ‘ईश्वर’ की मौत
“गांधी का तथाकथित अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम, जनता में धार्मिक विश्वासों को मजबूत करने का एक उपकरण मात्र है। लगभग 6 करोड़ जनसंख्या वाले अछूत...
एक आयोजन, जिसमें टूटीं ओबीसी की जड़ताएं
बिहार जैसे राज्‍य में जातीय दायरे की परंपरा विकसित होती जा रही है। आमतौर पर नायक-नायिकाओं की जयंती या पुण्‍यतिथि उनकी जाति के लोग...