गत 22 जनवरी, 2024 को जो कुछ हुआ वह महज पॉलिटिकल इवेंट साबित हुआ। मसलन, पत्थर की मूरत में प्राण-प्रतिष्ठा और फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का मंदिर के मंच से देश को संबोधन ने विपक्षी दलों के इस तर्क को सही साबित कर दिया कि यह धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक कवायद थी, जिसके दो अहम लक्ष्य थे। पहला तो यह कि लोकसभा चुनाव के पहले अपने पक्ष में माहौल बनाना और दूसरा गणतंत्र दिवस के महत्व को कमतर साबित करना।
कहने की आवश्यकता नहीं कि प्राण-प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में सब कुछ पूर्वनिर्धारित अपेक्षाओं के अनुरूप हुआ। एक तो यह कि इसमें संवैधानिक मर्यादाओं को तार-तार कर दिया गया। हालांकि यह पहली बार नहीं हुआ। इसके पहले भी जब 5 अगस्त, 2020 को प्रधानमंत्री ने अपने पद की गरिमा को किनारे करते हुए अयोध्या में भूमि पूजन को अंजाम दिया। यह तभी तय हो गया था कि भले ही केंद्र सरकार ने राम मंदिर के निर्माण के लिए ट्रस्ट का गठन किया हो, लेकिन वास्तव में यह सत्ता द्वारा संपोषित ही होगा। साथ ही, यह भी तय हो गया था कि इसके उद्घाटन की रूपरेखा क्या होगाी। स्मरण रहे कि तब भी नरेंद्र मोदी के साथ मोहन भागवत मौजूद थे और प्राण-प्रतिष्ठा के समय भी वे मौजूद रहे।
मैंने अपनी किशोर अवस्था से बालिग़ होने की उम्र के बाद पांच साल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के रूप में बिताये। मैं मुख्य शिक्षक, कार्यवाह, ज़िला कार्यालय प्रमुख की जिम्मेदारी निभाते हुए पहली कारसेवा हेतु भी गया। आरएसएस में काम करते हुए मैंने यह महसूस किया था कि राम की बात हो या कृष्ण की अथवा अन्य किसी भी देवी देवता की, उनकी बात सिर्फ़ तभी होती थी, जब कोई विवाद की बात होती थी। तब युद्ध या शस्त्रों के प्रयोग का मामला आता अथवा राम जन्मभूमि व कृष्ण जन्मभूमि और काशी विश्वनाथ मंदिर का मुद्दा आता। उन्हीं दिनों में आरएसएस और विहिप ने राम जन्मभूमि का मामला अपने हाथ में लिया था और उस पर देशव्यापी बहस खड़ी की थी। यह वही वक़्त था जब बाबरी मस्जिद के ताले खोले गए और शिलान्यास हुआ। राम शिलाएं घर-घर घुमाई गईं और राम रथ यात्रा चली। पहली कारसेवा का भी मैं साक्षी रहा।
यह वह समय था जब पूरा देश सिर्फ राम के नाम पर उद्वेलित था। माहौल काफ़ी डरावना था और चारों तरफ़ रामजन्म भूमि की बातें होती थी। लगभग हर दूसरे दिन कहीं-न-कहीं राम के नाम पर कोई कार्यक्रम होता ही था। तब भी मैंने यह कभी नहीं देखा कि आरएसएस के कार्यालय अथवा संचालन या एकत्रीकरण और प्रशिक्षण कार्यक्रमों में राम की तस्वीर लगती हो या उनकी पूजा होती हो। राम के प्रति भक्तिभाव या आध्यात्मिक आकर्षण तो बिल्कुल भी नहीं था।
संघ कार्यालय पर भारत माता की तस्वीर के साथ महाराणा प्रताप, शिवाजी महाराज और केबी हेडगेवार एवं गुरु गोलवलकर की तस्वीरें रखी जाती थी। राम और कृष्ण पर किताबें वग़ैरह होती थीं, जो इन विवादों के बारे में जानकारी देती थी। लेकिन मुझे कभी राम के प्रति श्रद्धा या भक्ति के भाव से किया गया आयोजन याद नहीं पड़ता है।
हिंदुत्ववादियों के लिए राम उस समय भी उपयोग के लिए ही थे और आज भी मैं यह साफ़ देख रहा हूं कि वे राम का अधिकतम उपयोग और उनके नाम का दोहन करने में लगे हैं। धर्म, आस्था व धार्मिक प्रतीकों के नाम पर उनकी नौटंकी तब भी चलती थी और आज भी चल ही रही है।
दरअसल, आरएसएस की कार्यशैली को समझना आवश्यक होगा। उसके लिए हिंदू राष्ट्र और मनु का विधान मायने रखता है। वह वर्चस्ववाद को अहमियत देता है और हिंदू धर्म के देवी-देवता उसके लिए औजार से अधिक कुछ भी नहीं। फिर चाहे वह राम हों, शंकर हों या फिर कृष्ण। वह इन देवताओं की स्तुति राजनीतिक फायदे को ध्यान में रखे बगैर नहीं करता। यह बहुत पुरानी बात नहीं है जब मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले उज्जैन में और उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले काशी में शंकर के नाम पर कॉरिडोर बनाए गए और इवेंट आयोजित किए गए।
निश्चित तौर पर यह एक निर्विवाद सत्य है कि भारतीय समाज एक उत्सवों को पसंद करनेवाला समाज है। इसमें आस्था भी शामिल है। लेकिन यह भी सत्य है कि वैचारिक स्तर पर संघर्ष जारी रहा है और इसकी लंबी परंपरा रही है। यह परंपरा बुद्ध से चली आ रही है, जिन्होंने हिंदू धर्म की मूल मान्यताओं को चुनौती दी तथा वर्ण और जाति को खारिज किया। यह परंपरा कबीर-रैदास से होते हुए जोतीराव फुले और आंबेडकर तक पहुंचती है, जिसने वर्ण आधारित वर्चस्ववाद को चुनौती दी। ऊंची जातियों के वर्चस्व को यह चुनौती आजादी के बाद भी मिलती रही और निर्णायक तौर पर 14 अक्टूबर, 1956 को डॉ. आंबेडकर द्वारा हिंदू धर्म का परित्याग कर बौद्ध धम्म स्वीकारने के रूप में सामने आया।
अब जिस तरह का नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की जा रही है, वह यह है कि प्राण-प्रतिष्ठा के कार्यक्रय के बाद ब्राह्मणवाद की निर्णायक जीत की तरफ़ देश कुछ और कदम आगे बढ़ चुका है। निश्चित तौर पर यह सत्य है कि न्याय, समानता, भाईचारे और आज़ादी पर आधारित लोकतांत्रिक भारत को कमजोर करने की कोशिशें की जा रही हैं और आलम यह है कि एक निर्वाचित प्रधानमंत्री राजा अथवा सम्राट का सर्वनाम पाकर राजर्षि के ख़िताब पा रहा है और उसे तपस्वी, ओजस्वी, मनस्वी के अलंकारों से देश के नागरिक ही नहीं; बल्कि संत, महात्मा, साधु, बाबा के रूप में विभूषित किया जा रहा है।
जाहिर तौर पर यह भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में 22 जनवरी, 2024 को 6 दिसंबर, 1992 के जैसे ही काला दिवस के रूप में याद किया जाएगा, जिस दिन आरएसएस की शह पर बाबरी मस्जिद को कारसेवकों द्वारा ढाह दिया गया था। प्राण-प्रतिष्ठा के दिन भी यही हुआ कि सत्ता में शीर्ष पर बैठे लोगों ने अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों को भुलाकर संविधान की अवहेलना की।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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