मेरा नाम डॉ. विक्रम हरिजन है और मैं इलाहाबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफ़ेसर हूं। अक्सर मुझे लेकर विवाद खड़ा कर दिया जाता है। मेरी एक पहचान दलित-बहुजन ग़रीब छात्रों के साथ खड़े होने वाले अभिभावक अध्यापक की रही है और एक पहचान पूर्वांचल क्षेत्र में मृत्युभोज के खिलाफ अभियान में सक्रिय कार्यकर्ता के रूप में है। एक पहचान आंबेडकरवादी मुखर वक्ता की भी है, जिसके चलते अक्सर मैं वर्चस्ववादियों के निशाने पर रहता हूं।
बहुजनवादी विचारधारा को अपनाने के लिए अपने जीवन में मैंने बहुत संघर्ष किया है। मीडिया यह कहती है कि मैं जहरीला ज्ञान परोसता हूं। जबकि मैं समानता, स्वतंत्रता, बंधुता, जनतंत्र और मानवाधिकार की विचाराधारा को फैलाने की बात करता हूं। इसे मैं बहुजनवादी विचारधारा कहता हूं।
मेरा बचपन यातनापूर्ण रहा है। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में मैंने जिस जाति में जन्म लिया है, वर्चस्ववादी समाज उस जाति के लोगों को इंसान मानने से ही इंकार करता आया है। यातना और शोषण से चमार जाति का पीछा आज तक नहीं छूटा है। क्या गांव और क्या शहर; आज भी हर घर, गली और मुहल्ले में ‘चोरी-चमारी’, ‘चमरकिट्टी’ आदि शब्दों का मैं रोज़-ब-रोज़ सामना करता हूं। दरअसल मैं रोज़ मरता हूं।
अगर गैर-चमार जातियों के भी किन्ही दो व्यक्तियों में झगड़ा हो रहा है तो वो एक दूसरे को कहते हैं – ‘चमार समझे हो क्या बे’। यहां तक कि विश्वविद्यालय के विभाग के कुछ लोगों ने भी मुझे इन शब्दों से संबोधित किया है। तो चोरी-चमारी, चूहड़ा जैसे शब्द आम हैं। वर्चस्ववादी समाज नहीं समझता कि इससे हमारी भी भावनाएं आहत होती हैं। क्या कभी उन्हें लगता है कि उन्हें भी माफ़ी मांगनी चाहिए चमार समाज से? या कभी उन्हें इसके लिए अपराधबोध भी होता है क्या? अभी हाल ही में राम-कृष्ण वाले मामले में मीडिया मेरे पीछे पड़ गई। यूनिवर्सिटी ने बार-बार कारण बताओ नोटिस भेजा, लेकिन यूनिवर्सिटी ने कभी इस बात का संज्ञान नहीं लिया कि कैंम्पस में इस तरह की जातीय घटनाएं क्यों घटती हैं?
जिस जाति और जिस परंपरा के साये में मेरा जन्म हुआ, उसमें मैं इंसान नहीं, एक जानवर के रूप में जन्मा था। इंसानों के खाने की एक परंपरा होती है कि वह सुबह में नाश्ता करेगा, दोपहर में लंच करेगा, शाम को डिनर करेगा और सो जाएगा। वह अच्छा कपड़ा पहनेगा। जूते-चप्पल पहनेगा। कहीं जाना होगा तो नहा-धोकर जाएगा। लेकिन मैंने तो इस तरह का जीवन कभी देखा नहीं, कभी जीया नहीं। मेरे बचपन में अथाह ग़रीबी थी। सिर्फ़ मेरे यहां ही नहीं, बल्कि मेरी पूरे क़ौम में। हम कच्चा सूअर (बाध) नमक लगाकर खाते थे। मुझे ये नहीं पता था कि सूअर में मसाले भी पड़ते हैं। जब हम बंगाल गए और पिताजी सूअर लेकर आए और सूअर में मसाले डाले और मैं खाने बैठा तो महसूस किया की जो सूअर का मांस गांव में खाया और जो वहां खा रहा हूं, दोनों के स्वाद में फर्क़ है। तो जीवन में पहली बार मसाले का स्वाद मुझे तब मिला जब मैं 12 साल का हुआ। तब समझ आया कि मसालों से खाने में कितना अंतर आ जाता है। जबकि गांव में बचपन में मरे जानवर का मांस खाया और वह भी बिना तेल-मसाले के। वह बनता भी हांड़ी में था। नमक डालकर सूअर का जूस पीता था। तो जैसे जानवर कच्चा मांस खाता है, वैसे ही हम खाते थे। कई बार तो पता ही नहीं चलता कि किसका मांस है। कई बार लोग मरी बकरी लाकर चमरौटी के पास फेंक जाते थे। कई बार मरे हुए बड़े जानवरों को कहीं फेंक जाते और चील-कौओं को वहां उड़ते देखकर हम लोग वहां भागकर जाते और जानवर को उठाकर लाते। तो ऐसी परंपरा से हमलोगों ने जन्म लिया। ऐसी जिंदगी जीने वाला तो कभी सोच ही नहीं सकता कि वह कभी पढ़ेगा, या सिनेमा जाएगा या खुद को इंटरटेन करेगा। समझ ही नहीं पाया।
बड़े भाई खेतों से चूहा मारकर लाते और हम भूनकर केवल नमक डालकर खा जाते। बिना यह सोचे कि हम इंसान हैं और हमें चूहा नहीं खाना चाहिए। गोबरही रोटी से पेट भरते थे। पूरे चमरौटी में गोबरही रोटी खाने की परंपरा थी। जब बाबू साहेब लोगों की गाय-भैंस गेहूं खा लेते और उनके गोबर में जो गेहूं आता था उसे धोकर जो रोटी बनती थी, उसे ही हमारी कौम में गोबरही रोटी कहा जाता था। तो मैं उस परंपरा से हूं, जिन्हें इंसान नहीं समझा जाता है।
मेरे पिता की जिंदगी मुझसे ज्यादा खराब थी। वह चोरी भी कर लिया करते थे। वह हरवाही करते थे। एक तरह से बंधुआ मज़दूर थे। हमारा क्षेत्र ठाकुर बहुल है। पूरे चमरौटी के लोग बाबू साहेब के खेतों में हल चलाते थे। और खाली समय में उनके घरों में जाकर उनके गाय-भैंसों को चराते थे तथा उसके बदले में उन्हें कुछ खाने को मिलता था। मेरे पिता को जो खाना दिया जाता था, वह जूठा होता था। आप ज़रा सोचिए कि जूठा खाना कुत्ते को दिया जाता है, जानवरों को दिया जाता है। वह ज़मींदारी व्यवस्था थी, जिसमें इंसान को इंसान नहीं समझा जाता था। मेहनत के बदले जूठा खाना देखकर पिताजी भागकर बंगाल गए। वहां उस समय नक्सलवादी आंदोलन चल रहा था। वे उस आंदोलन में शामिल हो गए। मेरे पिता वहां बम बनाते थे। लेकिन जैसा कि भारत में हर आंदोलन की एक समस्या रही है कि उसकी बागडोर ऊंची जाति के लोगों के हाथ में होती है। वैसे ही वामपंथी आंदोलनों की लीडरशिप हमेशा ऊंची जातियों के पास रही है। बम बनाने से किसी का पेट तो भरता नहीं था अतः पिताजी ने बम बनाना छोड़कर एक कोयला खदान में नौकरी कर ली। नौकरी मिलने के बाद वह मुझे भी गोरखपुर से बंगाल ले गए।
उस समय बंगाल में कम्युनिस्ट सरकार थी। जातिगत व्यवस्था के आधार पर कालोनी होती थी। हमलोग जहां रहते थे, उसे हांड़ीपाड़ा कहते थे। यहां वाल्मीकि समाज के लोग रहते थे। उनकी परंपरा अलग थी। संथालपाड़ा में संथाली आदिवासी लोग रहते थे। मेरे घर के बग़ल वाले इलाके को माझीपाड़ा कहते थे। माझी भी एक आदिवासी होते हैं। हम लोग खुद दलित समाज से थे, लेकिन ऐसा अलग-थलग कर दिए गए थे कि हमलोग भी आदिवासियों से नफ़रत करते थे। हम कहते थे कि उऩकी खाने की परंपरा अलग है। मेरे पिता वहां जाने से मना करते थे। जबकि हम एक जैसे ही थे, लेकिन हममें उतनी चेतना नहीं थी।
वहां बंगाल में भी ग़रीबी थी। पैसा नहीं था। पिताजी की तनख्वाह से काम नहीं चलता था। वहां पर कोयला चोरी की परंपरा थी तो मैंने भी कोयला चोरी करना शुरू किया। हम दिन में पढ़ाई करते और रात में कोयला चोरी करके भागते थे। कोयला चोरी की ऐसी कई घटनाएं जेहन में हैं। चूंकि मैं खदान के नीचे जाने से डरता था तो नीचे जाता नहीं था। लेकिन मैंने यह पाया कि अवैध खनन के चलते हजारों लोग दबकर मारे गए। वहां छोटी जाति के लोग रहते थे। कुछ ओबीसी रहते थे और सब लोग जुआ खेलते थे। दीपावली और काली पूजा के मौसम में जुआ खेलने की परंपरा थी। मैं भी जुआ में कभी कुछ जीत लेता था। वह अलग ही माहौल था। रोज़ ही गाली-गलौज, रोज़ ही लड़ाई। पढ़ाई-लिखाई का कोई माहौल ही नहीं था। दिन भर सारे बच्चे गोली खेलते थे। एक कारखाना था, जहां लकड़ी का कारोबार होता था। दिन में छुट्टी मिलती थी तो हम लोग लकड़ी उतारने चले जाते थे। कई बार चोट भी लगी। इस प्रकार से मेरा बचपन बीता। मैं चोरी भी करता था। कोयला चोरी के अलावा किसी छात्र के पास कोई अच्छा कलम देखता तो उसे चुरा लेता था। कोई अच्छी किताब देखता था तो चुरा लेता था, क्योंकि उस समय मुझमें इतनी समझदारी नहीं थी, और मैं सोचता था कि मेरे पिता ये ख़रीद नहीं पाएंगे। इसलिए मैं चुरा लेता था। इन्हीं सब वातावरण के बीच मैंने अपनी पढ़ाई ज़ारी रखी।
जिस तरह से गोरखपुर में जातिगत घटनाएं मेरे साथ घटती थीं, उसी तरह बंगाल में भी घटित होती थीं। जैसे कि संजय यादव नामक एक लड़का था। वह जब भी मुझे देखता था तो ‘मारिया ओ मारिया’ गाने को बिगाड़कर ‘चमारिया ओ चमारिया’ कहता था। तो बचपन में ही मुझे समझ आ गया था कि चमार मतलब डिग्रेडड आदमी, और चमार का मतलब इंसान नहीं होना होता है। मैं कई बार अपनी जाति छिपाने की कोशिश भी करता था। लेकिन सब जानते थे। बंगाल में छुआछूत की परंपरा भी थी। अमूमन वहां जो यूपी और बिहार के लोग थे, वही छुआछूत करते थे। जैसे कि एक घटना याद आती है कि चापाकल पर मैं पानी भरने गया हुआ था। वहां एक लड़का खड़ा था संजय सिंह, जोकि मेरा दोस्त था। मैं उसके बगल में जाकर खड़ा हो गया। तभी उसके पिता रामेश्वर सिंह आए और डांटने लगे कि तुम चमार होकर पानी हाथ छुआकर पिओगे! मैं रोने लगा। ऐसे ही कई घरों में महज जाति की वजह से मुझे घर के बाहर बैठा दिया जाता था। एक मंदिर में सब लोग पूजा करने गए। वह शायद शिवरात्रि का कोई कार्यक्रम था। लेकिन मुझे बाहर ही रोक दिया गया। जबकि एक गंदे बच्चे को जाने दिया गया, क्योंकि वह ठाकुर था।
क्रमश: जारी
(सुशील मानव से बातचीत के आधार पर)
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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