सियासी पलटमारियां अब शायद ही किसी को हैरान करती हैं, लेकिन राष्ट्रीय लोकदल (आरएलडी) के नेता चौधरी जयंत सिंह के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की तरफ जाने के फैसले की आशंका कम ही लोगों को थी। अभी कुछ दिन पहले सबकुछ ठीकठाक नज़र आ रहा था। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने आरएलडी के साथ सात सीटों पर समझौता हो जाने का ऐलान कर दिया था। लेकिन फिर अचानक ख़बरें आने लगीं कि जयंत चौधरी की भाजपानीत एनडीए के साथ गठबंधन की बात चल रही है। आख़िर इस बीच में ऐसा क्या हुआ, जिसने 2022 से चले आ रहे इस मज़बूत गठबंधन में दरार डाल दी?
यह तक़रीबन तय था कि सपा और आरएलडी मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। इसकी कई वजहें थीं। वर्ष 2022 में आरएलडी के ख़राब प्रदर्शन के बावजूद अखिलेश और जयंत के बीच अच्छी जुगलबंदी जारी थी। किसान बेल्ट माने जाने वाले पश्चिम उत्तर प्रदेश में भाजपा के ख़िलाफ किसान आंदोलन के दौरान उपजी नाराज़गी अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई है। वर्ष 2022 में जिस तरह पश्चिम यूपी के मुसलमान वोटरों ने आरएलडी का समर्थन किया, उसके मद्देनज़र माना जा रहा था कि जाट और मुसलमान का अजेय गठजोड़ फिर से पश्चिम की सियासत में उभर रहा है।
इसके अलावा आरएलडी के भाजपा के साथ न जाने के दो ऐतिहासिक कारण और भी थे। पहला, जिस तरह दिल्ली में उनके पिता अजीत सिंह से सरकारी बंगला ख़ाली कराया गया था, वह पार्टी के किसी भी कार्यकर्ता के गले नहीं उतरा था। स्वर्गीय अजीत सिंह 12 तुग़लक रोड के सरकारी बंगले को चौधरी चरण सिंह स्मारक बनाना चाहते थे, लेकिन 2014 में केंद्र की सत्ता में आई भाजपा ने उनकी एक न सुनी। यह बंगला चौधरी चरण सिंह के ज़माने से उनके पास था। सितंबर 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने न सिर्फ यह बंगला जबरन ख़ाली करवाया, बल्कि अजीत सिंह से जुर्माना भी वसूल किया।
अजीत सिंह के इस अपमान की अनदेखी भी कर दी जाए तो ख़ुद जयंत सिंह के साथ भाजपा सरकार का बर्ताव बहुत अच्छा नहीं रहा है। अक्टूबर, 2020 में हाथरस जाते समय पुलिस ने जयंत सिंह पर जमकर लाठिया बरसाईं। ख़ुद जयंत ने इस मुद्दे पर कई बार अपना दुखड़ा मीडिया के सामने रखा। इसके अलावा 2021 में किसान आंदोलन के दौरान सरकार ने जिस तरह का रवैया अपनाया, उसे लेकर आरएलडी के कोर वोटर माने जाने वाले जाट समुदाय में भाजपा के ख़िलाफ नाराज़गी की ख़बरें अभी तक भी आ रही थीं।
हालांकि जयंत के भाजपा के पाले में जाने की ख़बरें नई नहीं हैं। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान इस तरह की ख़बरें आई थीं कि आरएलडी के कई नेता भाजपा के साथ संपर्क में हैं। ख़ुद भाजपा वाले बार-बार कहते थे कि आख़िर में चौधरी जयंत सिंह उनकी तरफ ही आएंगे। भाजपा की तरफ से जयंत अच्छा लड़का है, जैसे बयान भी आए। इन अफवाहों पर आख़िरकार जयंत के ही एक बयान ने रोक लगाई। जनवरी, 2022 में उन्होंने मथुरा की एक जनसभा में कहा कि “मैं कोई चवन्नी थोड़े हूं, जो पलट जाउंगा।”
लेकिन चवन्नी पलट गई। भारत सरकार की तरफ से उनके दादा और भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने का ऐलान हुआ तो जयंत सिंह ने इस पर कहा कि प्रधानमंत्री ने “दिल जीत लिया।” सोशल मीडिया पर यह टिप्पणी तीन ही शब्दों की थी, लेकिन लोग समझ गए कि एनडीए ने एक और दल जीत लिया। अब सवाल यह है कि जयंत ने एनडीए के साथ जाने का फैसला क्यों किया और इस फैसले का पश्चिम उत्तर प्रदेश की सियासत पर क्या असर पड़ेगा?
ज़ाहिर है, चौधरी चरण सिंह को भारत रत्न देने का ऐलान इतना बड़ा नहीं है कि जयंत तुरंत गुलाटी मार जाएं। बावजूद इसके कि चौधरी चरण सिंह, और आरएलडी संस्थापक अजीत सिंह की सियासी निष्ठाएं भी समय के साथ बदलती रहती थीं, जयंत के हाल के फैसले के पीछे कई और कारण हैं। इनमें से एक मुज़फ्फरनगर और कैरान लोकसभा सीट पर उम्मीदवारों का मसला भी था। सपा ने गठबंधन में आरएलडी को सात सीटें दी ज़रूर थीं, लेकिन कम-से-कम तीन सीटें ऐसी हैं, जहां अखिलेश आरएलडी के सिंबल पर समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार उतारना चाहते थे। इनमें कैराना और मुज़फ्फरनगर के अलावा बिजनौर की सीट भी थी। लेकिन असली पेंच फंसा था मुज़फ्फरनगर सीट पर।
2019 के लोकसभा चुनाव में अजीत सिंह इस सीट पर आरएलडी उम्मीदवार थे। बसपा और सपा के गठबंधन के बावजूद अजीत सिंह तक़रीबन 6 हज़ार वोट से चुनाव हार गए। भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री संजीव बालियान इस सीट से मौजूदा सांसद हैं। अखिलेश यादव यहां से हरेंद्र मलिक को चुनाव लड़ाना चाहते थे, लेकिन सूत्रों का दावा है कि जयंत सिंह यहां से पहलवान साक्षी मलिक की उम्मीदवारी का वादा कर चुके थे। लेकिन स्थानीय लोगों का दावा है कि हरेंद्र मलिक से निजी खुन्नस के चलते जयंत सिंह अड़ गए। दूसरी तरफ अखिलेश भी अपनी ज़िद पर क़ायम रहे।
इसी तरह कैराना सीट का मामला भी दिलचस्प है। जयंत यहां के पूर्व मंत्री अमीर आलम ख़ान या उनके बेटे नवाज़िश आलम की उम्मीदवारी चाहते थे, जबकि अखिलेश का मानना था कि यहां के पूर्व सांसद तबस्सुम हसन या उनकी बेटी इक़रा हसन जिताऊ उम्मीदवार हैं। बहरहाल जो भी मसला रहा हो, मज़ेदार तथ्य यह है कि भाजपा से गठबंधन के बावजूद कैराना और मुज़फ्फरनगर सीट आरएलडी के खाते में जाना तक़रीबन नामुमकिन है। जयंत को बाग़पत के अलावा मथुरा, अमरोहा या फिर बिजनौर सीट दी जा सकती है।
अब यह समझना ज़रूरी है कि जयंत के भाजपा के साथ जाने का पश्चिम यूपी की राजनीति पर क्या असर पड़ेगा और ‘इंडिया’ गठबंधन को इसका कितना नुक़सान हो सकता है। राजनीति को अगर नॅरेटिव के नज़रिए से देखें तो यक़ीनन चुनाव से पहले एक मज़बूत साझीदार खो देना किसी भी गठबंधन के लिए बड़ा झटका है। लेकिन वोटों के नज़रिए से इस फैसले का बहुत ज़्यादा असर शायद ही हो। इसकी दो वजहें हैं। एक तो आरएलडी का कोर वोटर माना जाने वाला जाट वोट बैंक इस इलाके में पहले से ही बीजेपी के पाले में है।
वर्ष 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद से बाग़पत, शामली, मुज़फ्फरनगर, मेरठ, और बिजनौर ज़िलों में जाट वोटरों की बड़ी तादाद भाजपा की तरफ चली गई। आरएलडी के साथ वही जाट बचे हैं जो किसानों के मुद्दे पर या सेक्युलर पृष्ठभूमि के चलते भाजपा के साथ नहीं जाना चाहते। ज़ाहिर है कि ये वोटर जयंत के साथ भी भाजपा में नहीं जाएंगे। उल्टा 2022 के चुनाव में मुसलमानों की बड़ी तादाद आरएलडी के साथ आई थी। मीरापुर, शामली, थाना भवन, और फिर खतौली विधानसभा क्षेत्र में मुसलमान वोटों के बिना आरएलडी जीत के क़रीब भी नहीं पहुंच पाती। ज़ाहिर है आरएलडी के इन वोटरों से हाथ धोना पड़ेगा।
आरएलडी के जाने से सबसे ज़्यादा फायदा कांग्रेस को होने वाला है। इसके साथ ही कांग्रेस की बसपा से गठबंधन की संभावना भी बढ़ गई है। लोगों का मानना है कि जाट और जाटवों के बीच जिस तरह की सामाजिक दूरी है, उससे आरएलडी के जाने का फायदा सपा और कांग्रेस उठा सकती हैं। ‘इंडिया’ गठबंधन आरएलडी के साथ गए वोट की भरपाई दो तरीक़े से कर सकता है। एक दलितों को अपनी तरफ लुभाकर, दूसरे नाराज़ किसान वोटरों के बीच जाकर।
अगर टिकटों का वितरण ठीक से हो तो इंडिया गठबंधन सहारनपुर, कैराना, मुज़फ्फरनगर, बिजनौर, नगीना, मुरादाबाद, अमरोहा, बुलंदशहर, मुरादाबाद, संभल, आंवला, बदायूं, अलीगढ़ और रामपुर में मज़बूत दावेदारी पेश कर सकता है। अगर नॅरेटिव का ही खेल है तो मायावती या मल्लिकार्जुन खरगे में से कोई भी एक नगीना लोकसभा सीट से चुनाव लड़ जाए तो पश्चिम यूपी में सियासी हवा बदली जा सकती है। लेकिन इस तरह का फैसला लेने के लिए मज़बूत इच्छाशक्ति की ज़रूरत है जो फिलहाल विपक्षी पार्टियों में नज़र नहीं आ रही है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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