अपनी राजनीतिक असफलता की व्याख्या करते हुए हिंदुत्व-विरोधी अक्सर एक दिलचस्प बिंदु पर आत्मालोचना करते हैं। वे कहते हैं कि वे भारत के जनजीवन में हिंदू धर्म के महत्व को समझ ही नहीं सके और धर्मनिरपेक्षता जैसे पश्चिमी आदर्शों के पीछे भागते रहे। हमें बताया जाता है कि उनकी इसी नादानी के कारण हिंदुत्व की ताकतें मतदाताओं में अपनी पैठ बना सकी हैं।
इस तर्क को कई रूपों में प्रस्तुत किया जाता है। शशि थरूर और पवन के. वर्मा जैसे बुद्धिजीवी राजनीतिज्ञ हिंदू धर्म की विश्वदृष्टि के समावेशी चरित्र पर जोर देते हैं और हिंदुत्व तथा हिंदू धर्म को अलग-अलग करके देखने की बात कहते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि हनुमान सहित कुछ अन्य मिथकीय देवी-देवताओं के प्रति अपने श्रद्धाभाव की सार्वजानिक अभिवक्ति कर आम आदमी पार्टी ने कम-से-कम दिल्ली में भाजपा को करारा जवाब दिया है। यहां तक कि कुछ बुद्धिजीवी – जो एक दशक पहले तक अपनी धर्मनिरपेक्षता पर गर्वित थे – अब कहने लगे हैं कि असली भारतीय सभ्यता को खोजने के लिए भारत में औपनिवेशिक मानसिकता का व्यापक स्तर पर उन्मूलन आवश्यक है।
देरी से हुए इस आत्मबोध में कुछ सत्यता तो है। यह सही है धर्म और राष्ट्रवाद को धर्मनिरपेक्ष पार्टियों और स्वघोषित वामपंथी-उदारवादी बुद्धिजीवियों ने कभी गंभीरता से नहीं लिया। सन् 1992 में बाबरी मस्जिद के ढाहे जाने को उनकी राजनीति की असफलता के रूप में नहीं देखा गया। सांप्रदायिकता फ़ैलाने का सारा दोष हिंदुत्व के सिर पर मढ़ दिया गया और कहा गया कि धर्मनिरपेक्षता, भारतीय सामाजिक जीवन का मूलभूत और स्वाभाविक हिस्सा है। हिंदुत्व द्वारा फैलाई जा रही सांप्रदायिकता से निपटने के लिए जो योजना धर्मनिरपेक्ष ताकतों ने बनाई, उसमें हिंदू धर्म के लिए कोई जगह नहीं थी। इस दृष्टिकोण का हिंदुत्ववादी ताकतों को पूरा फायदा मिला और उन्होंने हिंदू संस्कृति, धर्म और सभ्यता पर अपना एकाधिकार जमा लिया।
अब जबकि धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की बुरी गत बन चुकी है, पेंडुलम विपरीत दिशा में खिसक गया मालूम होता है। ऐसा लग रहा है मानों सभी राजनीतिक दलों ने मंदिर-केंद्रित हिंदू धर्म को भारत की राष्ट्रीय अस्मिता की अभिव्यक्ति का वाहक स्वीकार कर लिया है। राजनेता और बुद्धिजीवी, हिंदुत्व, हिंदू धर्म और भारतीय सभ्यता को इतना महत्व दे रहे हैं कि ऐसा लग रहा है कि केवल धर्म (विशेषकर हिंदू धर्म) ही वह माध्यम है, जिसके ज़रिए हम भारतीयता को समझ सकते हैं। भारतीय राजनीति के ‘धर्मीकरण’ का गंभीर विश्लेषण आवश्यक है। इस संदर्भ में धर्म के राजनीति में प्रकटीकरण के दो पहलू महत्वपूर्ण हैं।
सबसे पहले हमें धर्मों के नैतिक-दार्शनिक सिद्धांतों और धार्मिक कर्मकांडों के बीच अंतर को उसकी संपूर्णता में समझना होगा। हमें यह भी याद रखा होगा कि धार्मिक कर्मकांडों का धर्म के दार्शनिक सिद्धांतों से कुछ-न-कुछ संबंध होता है। अपनी प्रसिद्ध रचना “जाति का विनाश” में डॉ. बी.आर. आंबेडकर इस अंतर को स्पष्ट करते हुई लिखते हैं– “… नियम व्यावहारिक आचरण के लिए होते हैं। वे एक नुस्खे के मुताबिक चीज़ों को करने के आदतन तरीके हैं। मगर सिद्धांत बौद्धिक होते हैं, वे चीज़ों को परखने के उपयोगी तरीके होते हैं … तो, जब मैं कहता हूं कि जीवन जीने की प्राचीन तरीकों का अंत कर दिया जाए, तो मैं यह कह रहा होता हूं कि उनकी जगह सिद्धांतों पर आधारित धर्म को लेना चाहिए। ऐसा धर्म ही सच्चा धर्म होने का दावा कर सकता है।”
आंबेडकर की धर्म की यह सिद्धांत-केंद्रित व्याख्या, धर्मावलंबियों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करती है कि वे धर्म के कर्मकांडी पक्ष का न केवल अध्ययन और उसका आकलन करें, बल्कि उसकी आलोचना भी करें क्योंकि अक्सर आध्यात्मिकता के नाम पर कर्मकांड उनके उपर थोपे जाते हैं।
मगर स्वाधीन भारत का राजनीतिक नेतृत्व आंबेडकर द्वारा इंगित इस विभेद को स्वीकार करने को तैयार नहीं था। राजनीतिक दलों ने सिद्धांतों पर आधारित धर्म की स्थापना में कोई रूचि नहीं दिखाई। कांग्रेस ने अपने धर्मनिरपेक्ष-आधुनिकतावादी मॉडल के अंतर्गत भारतीय संस्कृति के नाम पर धार्मिक आयोजनों को बढ़ावा दिया। यह सही है कि जवाहरलाल नेहरु की सरकार हिंदू कोड बिल लागू करने में सफल रही, मगर चुनावी राजनीति की मजबूरियों के चलते, कांग्रेस को हिंदुओं की भावनाओं को गंभीरता से लेना पड़ा। कांग्रेस ने बहुत विचारोपरांत यह राह चुनी, जिसने नेहरु के बाद के युग में हिंदू धर्म के श्रेष्ठी वर्ग को उसके साथ लाने में मदद की। धर्म का एक सांस्कृतिक ढांचे के रूप में प्रयोग मुस्लिम धार्मिक श्रेष्ठी वर्ग को भी भाया, जो पर्सनल लॉ को दैवीय बताना चाहता था। सन् 1970 के दशक की कुख्यात फतवा पॉलिटिक्स, देश की राजनीति का इस दिशा में अग्रसर होने का उदाहरण है।
हिंदुत्व परियोजना का उद्देश्य हिंदू धर्म के कर्मकांड-आधारित संस्करण के आधार पर भारतीयता को परिभाषित करना है। मजे की बात यह है कि हिंदुत्व के विरोधी भी इससे इत्तेफाक रखते हैं। वे भी हिंदू कर्मकांड में अपनी श्रद्धा दर्शाने को आतुर हैं। यह राजनीतिक एकरूपता इस आम धारणा से भी सहमत है कि इस्लाम एक पिछड़ा हुआ और विदेशी धर्म है। इस्लाम में सुधार लाने के प्रयासों या समान नागरिक संहिता पर विचार-विमर्श के बारे में भी कभी यह नहीं कहा जाता कि उनका उद्देश्य ‘सिद्धांत-आधारित धर्म’ के आंबेडकर के आदर्श को हासिल करने की दिशा में कदम हैं। उसकी जगह सियासी तबका कर्मकांड-आधारित हिंदू धर्म को समाज-सुधार के आधार और अन्य धार्मिक समुदायों के भारतीयकरण के औजार के रूप में प्रस्तुत करता है। यह दृष्टिकोण मुस्लिम धार्मिक श्रेष्ठी वर्ग को भी भाता है, क्योंकि उससे धार्मिक ग्रंथों के एकमात्र वैध व्याख्याकार और दमन के शिकार एक समुदाय के रक्षक के रूप में उनकी छवि और मज़बूत होती है।
दूसरे, कर्मकांडीय धर्म का संस्थानीकरण उसे एक राजनीतिक संस्था बना देता है। पिछले तीन दशकों में देश भर में और विशेषकर महानगरों में बड़ी संख्या में धार्मिक आराधना स्थलों का निर्माण हुआ है। इनमें मंदिर, मस्जिद, चर्च, मठ और आश्रम आदि शामिल हैं। ये नए धार्मिक भवन केवल पारंपरिक धार्मिक प्रयोजन के लिए नहीं होते, बल्कि वे सामुदायिक संस्थान बन जाते हैं जो अपने धार्मिक समुदाय के लोगों को कुछ निश्चित सामाजिक सेवाएं उपलब्ध करवाते हैं। धर्म की सामाजिक क्षेत्र में इस घुसपैठ से कर्मकांडीय धर्म के पहले से स्थापित ढांचे को और मजबूती मिलती है। राजनैतिक दलों को यह व्यवस्था बहुत उपयोगी लगती है, क्योंकि इससे उन्हें धार्मिक संस्थानों का व्यवस्थित और एक तरह का संस्थागत समर्थन हासिल हो जाता है।
राजनीति के बढ़ते धार्मिकीकरण की ये दो विशेषताएं – आस्था पर आधारित किसी भी समुदाय की पहचान के मुख्य पहचानकर्ता के रूप में कर्मकांडीय धर्म की स्वीकार्यता और धार्मिक प्रतिष्ठानों का संस्थानीकरण – धार्मिकता के नए उभरते स्वरुप से संगत हैं। प्यु रिसर्च सेंटर के एक अध्ययन “रिलिजन इन इंडिया : टॉलरेंस एंड सेग्रीगेशन” के अनुसार, अधिकांश भारतीयों के लिए धर्म का अर्थ है– कर्मकांड। सभी धार्मिक समुदायों के अधिकांश लोग नियति और ज्योतिष पर विश्वास करते हैं और जन्म, विवाह और मृत्यु के अवसरों पर धार्मिक संस्कार करते हैं। धार्मिक जुलूसों का आयोजन भी उनकी प्राथमिकताओं में होता है।
इसका सीधा सा अर्थ यह है कि निश्चित नियमों के पालन पर आधारित धर्म का भारत में बोलबाला है और सिद्धांतों पर आधारित धर्म की स्थापना की संभावनाएं बहुत कम हो गईं हैं।
(यह आलेख पूर्व में अंग्रेजी दैनिक टेलीग्राफ द्वारा 22 फरवरी, 2024 को प्रकाशित व यहां लेखक की अनुमति से हिंदी में प्रकाशित, अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल/अनिल)