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किसान संगठनों में कहां हैं खेतिहर-मजदूर?

यह भी एक कटु सत्य है कि इस देश के अधिकतर भूमिहीन समाज के सबसे उपेक्षित अंग इसलिए भी हैं, क्योंकि वे निम्न जाति से हैं। इनके बिना खेती का काम तो चलता नहीं, लेकिन इनके पास अपने खेत नहीं होते– यह आज का भी सच है और सदियों पूर्व भी था। पढ़ें, द्वारका भारती का यह आलेख

एक बार फिर अपनी मांगों का बोझ उठाए दिल्ली निकला किसान शंभू व खनौरी बार्डर पर सरकारी दमन का शिकार होकर बुरी तरह कराह रहा है। आंसू गैस के गोलों और सरकारी बंदूक से निकली गोलियों को झेलता हुआ किसान अपने एक नौजवान किसान तथा तीन अन्यों को खो चुका है। 

हम नहीं जानते कि इतिहास इसे किस दृष्टि से देखेगा, लेकिन इस प्रकार के सरकारी दमनों का इतिहास बहुत पुराना है। कहा जा सकता है कि संसार भर का किसान सरकारी दमन को झेलता आया है। जागीरदारों से लेकर सामंतों ने किसान का दोहन किया है, उसे लूटा-खसोटा है। फसल से लेकर किसान के ढोरों ने भी इस सामंतशाही का कहर झेला है। अंग्रेजों के लगान को कौन भूल सकता है? अंग्रेजी साम्राज्य में पनपे नील आंदोलन में तीन-कठिया फरमान का विरोध करनेवाले किसानों ने कितना कहर झेला, यह इतिहास हमें आज भी बताता हुआ दहल जाता है। वर्ष 1859 में प्रारंभ हुए इस आंदोलन की बात करें तो यह पूर्णतया अहिंसक था। आज का किसान आंदोलन भी अहिंसक है, लेकिन सरकार की हिंसा अपने चरम पर है। किसानों को दिल्ली आने से रोकने के लिए यह सरकार अंग्रेजी साम्राज्य से भी दो कदम आगे दिखाई दे रही है।

किसानों की बेचारगी का इतिहास भी बहुत पुराना है। खेती देहाती अर्थव्यवस्था का ढांचा बनी रही है। उत्पादन का एकमात्र साधन पुरातन काल से ही कृषि बनी रही है। यह भी एक इतिहास का काला पक्ष है कि यही कृषि उत्पादन का साधन बनते ही इससे होने वाली उपज की बिक्री बिचौलियों के हाथों में आने से किसानों की बेचारगी का दौर शुरू होता है। देहाती अर्थव्यवस्था इन बिचौलियों के हाथों में होने से किसान कर्जदार होते चले गए। इस विषय पर लिखे गए साहित्यिक वर्णन आज भी सनद हैं और दहला देते हैं।

धान की फसल रोपते खेतिहर मजदूर

यह भी एक त्रासदी रही है कि अंग्रेजी साम्राज्य से पहले और बाद में भी देश की उर्वर भूमि पर उनलोगों का कब्जा रहा है, जो स्वयं किसान नहीं थे। वे स्वयं कृषि कार्य करते हुए देखे गए हैं। आज भी देश के बड़े-बड़े भूपति आमतौर पर देहातों में रहते हुए नहीं देखे जाते। सामंती युग का दूसरा नाम भूमि पर स्वामित्व होना ही था। इतिहास हमें यह सूचना भी देता है कि अंग्रेजों के आने के बाद बहुत-से सामंतों ने अपनी जिम्मेदारियां छोड़ कर पूंजीवादी-भूस्वामी बन गए। इसके निशान हमें आज भी पंजाब और हरियाणा प्रांत में बड़े-बड़े भूपतियों में देखने को मिल जाते हैं। उनकी जागीरदारी प्रथा ने उस वर्ग को जन्म दिया है, जो अपने पेट की भूख मिटाने के लिए इन भूपतियों के यहां बंधुआ मजदूर के रूप में अपना जीवन जीने को विवश रहे। इसे देश के इतिहास का काला अध्याय ही माना जाना चाहिए।

इतिहास का अर्थ सिर्फ बड़ी-बड़ी लड़ाइयों और कुछ खास अहंकारी नामों का सिलसिला मात्र नहीं है। अगर यही इतिहास है तो भारत का इतिहास लिखना बहुत मुश्किल है। इतिहासकारों का मानना है कि किसी राजा के नाम की बजाय यह जानना अधिक महत्वपूर्ण है कि उसके राज्य के किसान हल का इस्तेमाल करते थे या नहींहमारे इतिहास में यह जानकारी तमाम प्रमाणों के साथ मौजूद है कि खेत में खेती-मजदूर कैसे अस्तित्व में आता है। भूमिहीन व्यक्ति कब और कैसे कृषि-मजदूर बन कर खेतों में सिल्ला बीजने तक सीमित रह जाता है, यह भी इतिहास से हम जान सकते हैं। इतिहास हमें बताता है कि यह भूमिहीन देहाती अपनी शौच-निवृत्ति के लिए भी एक जमींदार की जमीन का इस्तेमाल करता हुआ पकड़ा गया तो उसके मानमर्दन की तमाम सीमाएं पार कर दी गईं। यह भी एक ऐतिहासिक तथ्य है कि किसी भूमिहीन व्यक्ति का सामाजिक बहिष्कार करते समय सबसे पहले उसकी शौच-निवृत्ति से रोका गया, जो कि एक भूपति की जमीन पर ही की जाती थी।

आज भी देहाती इलाकों में सबसे ज्यादा प्रबल है जातिप्रथा। इस प्रथा का सबसे ज्यादा प्रमाण कृषि कर्म में ही देखने को मिलता आया है। इस प्रथा का अर्थ है– समाज के ऐसे विभक्त समूह, जो पास-पास तो रहते हैं, लेकिन मिलजुल कर रहते हुए दिखाई नहीं देते। यह भी एक कटु सत्य है कि इस देश के अधिकतर भूमिहीन समाज के सबसे उपेक्षित अंग इसलिए भी हैं, क्योंकि वे निम्न जाति से हैं। इनके बिना खेती का काम तो चलता नहीं, लेकिन इनके पास अपने खेत नहीं होते– यह आज का भी सच है और सदियों पूर्व भी था। साहित्य की दुनिया में इसको देखना हो तो हम पंजाबी के एक प्रसिद्ध साहित्यकार सरूप सियालवी की आत्मकथा में देख सकते हैं। खेत की फसल कटाई में जुटे भूमिहीन जब दोपहर का खाना खाने बैठते हैं, जिसे खेत के स्वामी द्वारा तैयार कराया जाता है। दाल के लिए उन्हें अपने घर से बर्तन लाना होता है। रोटियां हाथ में पकड़ा दी जाती हैं। एक मजदूर के पास एक दिन अपना बर्तन नहीं होता है तो उसे उस खेत की जमीन को खोदकर ही कटोरीनुमा आकृति बनाकर दाल लेनी पड़ती है। बहुत से गांवों में यह प्रथा आज भी जिंदा जीवाश्म के रूप में मिल जाती है। इस देश का खेतिहर मजदूर इन अर्थों में दोहरा संताप झेलता हुआ किसान आंदोलन में कंधा मिलाता हुआ चल रहा है। यहां इस वस्तुस्थिति को जानना आवश्यक होगा एक भूमिहीन जब अपना घर छोड़ता है तो वह अपने घर को या तो किसान के रहम-ओ-करम पर छोड़ता है या अपने ही हालातों पर। त्रासदी यह है कि दोहरी-मार झेलने से भूमिहीनों की विशेषताओं तथा दशा पर बहुत कम काम हुआ है। बहुत ढूंढने पर हमें डॉ. अनूप सिंह सागवान का एक शोधपत्र देखने को मिलता है, जिसका शीर्षक है– ‘खेतिहर मजदूर : दशा व दिशा’। डॉ. अनूप सिंह राजकीय विश्वविद्यालय, फरीदाबाद में सहायक अध्यापक हैं। अपने शोधपत्र में उन्होंने स्पष्ट किया है कि कृषि सुधार की योजना में कृषि श्रमिकों को भी शामिल न करना देश की अर्थव्यवस्था के भयंकर घाव को बिना मरहम-पट्टी के छोड़ देने के समान है। 

किसान की दशा इस देश में कभी भी अच्छी नहीं रही। यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि कृषि प्रधान कहे जाने वाले इस देश में किसान की हालत पतली होती गई है तो वहीं कृषि आधारित उद्योग खूब फले-फूले हैं। तय है कि यदि देश के किसान की हालत ठीक नहीं है तो किसान के उस मजदूर की स्थिति क्या होगी, जो पूर्णरूपेण किसान पर निर्भर है। यदि साहित्यिक भाषा में कहा जाए तो उस खेतिहर मजदूर की दुर्दशा ऐसी होगी जो किसान के मुंह से गिरे दानों को लपक कर अपना पेट भरता हो। यही कारण है कि अपनी दुर्दशा के कारण खेतिहर मजदूरों द्वारा की गई आत्महत्याओं की गिनती किसान से कहीं ज्यादा है। लेकिन त्रासदी यही है कि इसकी चर्चा बहुत कम देखते-सुनने को मिलती है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रपटों की मानें तो 2018 से लेकर 2022 के बीच भारत में खेती से जुड़े लोगों की आत्महत्याओं में निरंतर वृद्धि देखी जा सकती है। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 महामारी के बाद के दो वर्षों में खेतिहार मजदूरों की आत्महत्याओं की संख्या किसानों की तुलना में कहीं अधिक है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में भारत में कृषि क्षेत्र में 11,290 आत्महत्याएं हुईं, जो 2021 में रिपोर्ट की गई 10,881 की गईं आत्महत्याओं से 3.75 प्रतिशत अधिक हैं। 2022 में इन मृतकों में 5,207 किसान थे और 6,083 खेतिहर मजदूर थे। 2021 में खुदकुशी करनेवालों में 5,318 किसान और 5,563 खेतिहर मजदूर थे।

एनसीआरबी का एक और आंकड़ा डराने वाला है। इसके मुताबिक 2022 में आत्महत्याओं से हुई 11,290 मौतों में 53 प्रतिशत अर्थात् लगभग 6,083 मृतक कृषि मजदूर थे। यह आंकड़े इसलिए ही महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि एक सीमांत किसान परिवार की निर्भरता खेतों के उत्पादन से अधिक कृषि मजदूरों पर बढ़ती जा रही है।

इस आकलन में हम यदि यह कहें कि किसानों के इस आंदोलन में सिर्फ किसानों को ही दूरबीन लगा कर देखा जा रहा है, तो अतिरेक नहीं होगा। यद्यपि किसान-मजदूर की बात की जा रही है, लेकिन किसान संगठनों में खेतिहर-मजदूर का कोई प्रतिनिधित्व सामने नहीं आ रहा, जो केंद्र सरकार से हो रही बातचीत की मेज पर अपने सवाल रख सके।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

द्वारका भारती

24 मार्च, 1949 को पंजाब के होशियारपुर जिले के दलित परिवार में जन्मे तथा मैट्रिक तक पढ़े द्वारका भारती ने कुछ दिनों के लिए सरकारी नौकरी करने के बाद इराक और जार्डन में श्रमिक के रूप में काम किया। स्वदेश वापसी के बाद होशियारपुर में उन्होंने जूते बनाने के घरेलू पेशे को अपनाया है। इन्होंने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का सराहनीय कार्य किया है तथा हिंदी में दलितों के हक-हुकूक और संस्कृति आदि विषयों पर लेखन किया है। इनके आलेख हिंदी और पंजाबी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में इनकी आत्मकथा “मोची : एक मोची का अदबी जिंदगीनामा” चर्चा में रही है

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