मुख़्तार अंसारी की मौत के साथ पूर्वांचल की राजनीति का एक अध्याय हमेशा के लिए बंद हो गया। इस बहस से परे कि मुख़्तार अंसारी ग़रीबों का मसीहा था या दुर्दांत माफिया, उनकी मौत के सियासी मायने हैं। उनकी मौत को लेकर हो रही राजनीति इस बात का सबूत है। ऐसे में यह समझना ज़रूरी है कि मुख़्तार अंसारी की मौत का पूर्वांचल की सियासत पर कितना असर पड़ेगा।
अतिरेक नहीं कि मुख़्तार अंसारी का व्यक्तित्व तमाम विरोधाभासों से भरा रहा। मीडिया से हमें पता चलता है कि मुख़्तार बेहद दुर्दांत माफिया था, जिसके डर से पूर्वांचल में लोग थर-थर कांपते थे। पुलिस रिकॉर्ड बताते हैं कि उनके ऊपर 65 से ज़्यादा मुक़दमे दर्ज थे। जेल का रिकॉर्ड बताता है कि वे पिछले तक़रीबन बीस साल से जेल में थे। चुनावी रिकॉर्ड बताता है कि तमाम विरोधों के बावजूद ग़ाज़ीपुर और मऊ ज़िलों में अंसारी परिवार का सियासी दबदबा लगातार बरक़रार है। इस चुनाव में भी मुख़्तार के भाई अफज़ाल अंसारी ग़ाज़ीपुर सीट से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार हैं। ख़बर है कि मुख़्तार का बेटा अब्बास पड़ोस की मऊ (घोसी) सीट से अपनी दावेदारी पेश कर सकता है।
लेकिन एक और रिकॉर्ड है जिसे लेकर तमाम तरह की अटकलबाज़ियों का दौर जारी है।
निधन के पहले मुख़्तार अंसारी उत्तर प्रदेश के बांदा ज़िले के जेल में बंद थे। बीते 28 मार्च की शाम रानी दुर्गावाती मेडिकल कॉलेज में उन्हें भर्ती कराया गया। अस्पताल के मेडिकल बुलेटिन के मुताबिक़ 63 साल के मुख़्तार अंसारी को मेडिकल कॉलेज के इमर्जेंसी वार्ड में शाम 8.45 बजे भर्ती कराया गया था। उस वक़्त उन्हें उल्टी की शिकायत थी। जिस वक़्त उन्हें अस्पताल लाया गया, वह बेहोशी की हालत में थे। उसके बाद हृदयाघात की वजह से उनकी मौत हो गई।
मुख़्तार के परिजनों ने आरोप लगाया है कि उन्हें जेल में ज़हर दिया गया है। हालांकि बाद में आई ऑटोप्सी रिपोर्ट में ज़हर देने की संभावना से इंकार किया गया, लेकिन यह विवाद थमता नहीं दिख रहा। ऐसा इसलिए कि स्वयं मुख़्तार अंसारी ने ख़ुद अपनी हत्या की आशंका ज़ाहिर की थी। पिछले साल दिसंबर में भी उनके परिजनों ने उनकी हत्या की आशंका जताते हुए एक याचिका दायर की थी।
परिजनों का कहना है कि उनकी आशंका निराधार नहीं थी। अंसारी परिवार का कहना है कि उसरी चट्टी नरसंहार मामले में मुख़्तार की गवाही होनी थी। बृजेश सिंह और त्रिभुवन सिंह इस मामले में आरोपी हैं। अगर गवाही हो जाती तो आरोपियों को सज़ा मिलनी तय थी।
बहरहाल, इससे पहले मुख़्तार के साथी माने जाने वाले प्रेम प्रकाश उर्फ मुन्ना बजरंगी की 2018 में बाग़पत जेल में हत्या कर दी गई थी। इसके बाद मेराजुद्दीन और मुक़ीम काला को 2019 में चित्रकूट जेल के भीतर मार डाला गया। पिछले साल जून में मुख़्तार के सहयोगी रहे संजीव माहेश्वरी की लखनऊ अदालत परिसर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। इसके बाद से ही मुख़्तार अंसारी और उनके परिजन लगातार हत्या की आशंका जता रहे थे। अब भले ही मामले में सरकार या पुलिस कुछ भी दावा करे, लोगों के मन में शंका तो घर कर ही गई है।
बहरहाल मुख़्तार की संदेहास्पद मौत पर सियासत होना तय थी, सो हो रही है। भाजपा से जुड़े लोग मुख़्तार की मौत को आतंक का ख़ात्मा बताकर सियासी लाभ लेने की जुगत में हैं तो दूसरी पार्टियां उनकी मौत से उपजी सहानुभूति को भुनाने की फिराक़ में हैं। एआईएमआईएम के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी अंसारी परिवार से मिलकर अपनी संवेदना जता चुके हैं। समाजवादी पार्टी के नेता शिवपाल यादव मुख़्तार की मौत की न्यायिक जांच की मांग का समर्थन कर चुके हैं। बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने उनकी मौत पर दुख जताया है। कांग्रेस नेता पप्पू यादव ने भी उनकी मौत को संस्थानिक हत्या बताया है।
इस सबसे परे पूर्वांचल की जनता का अपना एक अलग नज़रिया है। यहां मुख़्तार को लेकर धार्मिक आधार पर तो नहीं, लेकिन सामाजिक और जातीय आधार पर लोगों में बंटवारा साफ नज़र आता है। सवर्ण, ख़ासकर भूमिहार, कायस्थ और ब्राह्मणों में मुख़्तार की मौत को लेकर कोई ख़ास संवेदना नहीं है। हालांकि उनमें कोई उस तरह खुलकर ख़ुशी का इज़हार भी नहीं कर रहा है, जैसा अतीक़ अहमद के मामले में देखने को मिली थी। लेकिन आम मुसलमान और दलित-बहुजनों के एक बड़े तबक़े में मुख़्तार के लिए सहानुभूति साफ महसूस की जा सकती है।
इसकी एक वजह तो यह है कि मुख़्तार के पिता सुभानुल्लाह अंसारी कम्युनिस्ट आंदोलन से जुड़े रहे। इलाक़े के ज़मींदारों और सामंतवादियों के ख़िलाफ उनके संघर्ष की वजह से यहां धर्म से ज़्यादा वर्ग के आधार पर ध्रुवीकरण होता रहा है। मुख़्तार की छवि भी इलाक़े में रॉबिनहुड वाली रही। अतीक़ अहमद की तरह मुख़्तार अंसारी या उनके भाइयों पर कोई कमज़ोर आदमी शोषण, अवैध क़ब्ज़े, या ग़लत नीयत का आरोप नहीं लगाता। अपराध की दुनिया में दबदबे के बाववजूद मुख़्तार अंसारी और उनके परिजनों का आम जनता से संवाद आमतौर पर सरल और सभ्य ही रहा है।
मसलन, जौनपुर के शाहगंज इलाक़े में रहने वाले सौरभ सेठ के मुताबिक़, “उनके ज़िले में मुख़्तार का कोई ख़ास असर ऐसे भी नहीं रहा है। जौनपुर में एक तरह का अघोषित ध्रुवीकरण ऐसे भी रहता है। हालांकि मुख़्तार की मौत के बाद भाजपा और समाजवादी पार्टी इसको अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश करेंगी।” मऊ निवासी ज़ाहिद इमाम का दावा इसके एकदम उलट है। ज़ाहिद के मुताबिक़, “मुख़्तार की मौत के बाद दलित और मुसलमान जिस तरह की भावनात्मक बातें कर रहे हैं, उसका असर घोसी ही नहीं, बल्कि ग़ाज़ीपुर, लालगंज, आज़मगढ़, अंबेडकरनगर और वाराणसी में भी देखने को मिलेगा।”
लेकिन असर कितना होगा? वाराणसी शहर के रहने वाले श्रेयस द्विवेदी कहते हैं कि “भाजपा की राजनीति एक अंजाना डर पैदा करके, उस डर पर विजय दिखाकर, अपने हित में वोटरों को साधने की रही है। ज़ाहिर है उसके वोटर के सामने अतीक़ और मुख़्तार जिस तरह के विलेन बनाकर पेश किए गए, उनके लिए तो यह विजयदशमी सरीखा ही है।”
बनारस के ही सुरेश राय का कहना है कि “मुख़्तार की मौत के असर को प्रधानमंत्री मोदी यक़ीनन भुनाएंगे। आख़िर उनके सामने विपक्ष ने जिन अजय राय को उम्मीदवार बनाया है, उनके भाई अवधेश राय (1991) की हत्या का आरोप मुख़्तार पर ही लगा था।”
लेकिन चंदौली निवासी रामखिलावन डोम मुख़्तार की मौत से दुखी हैं। रामखिलावन के मुताबिक़ “मुख़्तार अंसारी ने मेरी ज़मीन पर से बदमाशों का अवैध क़ब्ज़ा हटवाया था। यह जानते हुए भी कि मैं उनका वोटर नहीं हूं।” ऐसे ही ग़ाजीपुर के आदिल अनवर का कहना है कि “मुख़्तार की मौत से पहले वोटरों के मन में संदेह था भी, लेकिन अब साफ है कि हमें किसे वोट देना है।” इसी तरह मोहम्मदाबाद इलाक़े के रहने वाले विजय राजभर का दावा है कि “मऊ से अगर मौजूदा उम्मीदवार राजीव राय के बदले मुख़्तार के बेटे को टिकट मिलता है तो उनके सामने कोई उम्मीदवार अब टिक नहीं पाएगा।”
इन बयानों को सुनकर ही समझ आता है कि मुख़्तार की मौत के पूर्वांचल के लिए क्या मायने हैं। ज़ाहिर है दलित, ओबीसी और मुसलमानों के बीच अंसारी परिवार के लिए सहानुभूति का माहौल है, जबकि सवर्णों की गोलबंदी भाजपा के पक्ष में होना तय है। हालांकि असल नतीजे तो वोटों की गिनती के बाद ही ज़ाहिर होंगे, मगर जिस तरह की राजनीति मुख़्तार अंसारी, उनके पिता, भाइयों, भतीजों और बेटों की रही है, ग़रीब और पिछड़े उनके पक्ष में बड़ी तादाद में आएंगे।
एक सवाल यह भी है कि क्या राम मंदिर या ज्ञानवापी यहां मुद्दा नहीं हैं? ज़ाहिर है अयोध्या और वाराणसी से क़रीबी की वजह से यह भी चुनावी मुद्दा हैं। लेकिन मुख़्तार की मौत के बाद जिस तरह तेज़ी से हालात बदले हैं उसके मद्देनज़र अंबेडकरनगर, ग़ाज़ीपुर, आज़मगढ़, मऊ, और ग़ाज़ीपुर में मुद्दा मुख़्तार भी हैं। अगर अयोध्या और बनारस से क़रीबी के बावजूद पूर्वांचल के इस इलाक़े में मंदिर के बदले मुख़्तार मुद्दा हैं तो यह भी अंसारी परिवार की ही जीत है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)