h n

राजनीति की बिसात पर धर्म और महिलाएं

पिछले सौ सालों में समाज और परिवेश धीरे-धीरे बदला है। स्त्रियां घर से बाहर निकलकर आत्मनिर्भर हुई हैं, पर आज भी पढ़ी-लिखी स्त्रियों का एक बड़ा वर्ग उन्हीं पुरानी मान्यताओं और रूढ़ियों में बंधा जी रहा है। पढ़ें, सुधा अरोड़ा का यह आलेख

बात महिलाओं के सशक्तिकरण पर करनी है, पर देख रही हूं कि आज के समय में महिलाओं का एक बड़ा वर्ग धर्म की खुमारी में डूबा है। सुबह सबेरे आसपास के घरों से घंटियों और मंत्रोच्चारण की गूंज पहले से ज़्यादा बढ़ गई हैं। मंदिरों में चढ़ावे पहले से ज़्यादा आ रहे हैं। महिलाओं की श्रद्धा और आस्था के बिना कोई मंदिर सुसज्जित नहीं होता। महिलाएं ही धर्म-ध्वजा की सबसे मजबूत वाहक रही हैं, इसमें अब कोई संदेह नहीं रह गया। धर्म जब जेहन पर काबिज हो जाए तो यह सशक्तिकरण की निशानी नहीं है।

आज मित्रों और परिवारजनों में होड़ लगी है कि कौन सबसे पहले अयोध्या धाम जाकर रामलला का दर्शन करेगा। जिस उत्फुल्लता से वे फ्लाइट की टिकटों के लिए लालायित हैं, उसमें भक्ति-भाव कम और गर्व-भाव ज़्यादा है। उनके लिए महत्वपूर्ण है कि किसने पहले अयोध्या के रामलला के दर्शन किए। लगता है, रईस परिवारों को घूमने के लिए एक नया खूबसूरत डेस्टिनेशन मिल गया है। अयोध्या पहुंच कर रिक्शे की सवारी और मंदिर के बाहर की भव्य सजावट की पृष्ठभूमि में पीली नारंगी रेशमी वेशभूषा में वे अपनी तस्वीरें और सेल्फी इंस्टाग्राम पर पोस्ट कर रहे हैं। अहा! कैसी मुदित कर देने वाली छवियां हैं! दूसरी ओर आठों पहर, चारों दिशाओं में, महीने भर से दूरदर्शन के परदे पर लगातार गूंज रही हैं ये पंक्तियां– “मेरी झोपड़ी के भाग आज खुल जाएंगे, राम आएंगे… राम आएंगे, आएंगे… राम आएंगे…”

इतना सुरीला मधुर स्वर और मीठी धुन कि आप इस संगीत लहरी की मिठास से बच ही नहीं सकते। आज हर मधुर कंठ वाली महिला इस भजन को गुनगुना रही है। पर उसके आराध्य राम क्या सचमुच अब झोपड़ी वालों के भाग खोल रहे हैं? क्या ये “राम राम भइया” और “जै सियाराम” बोलने वाले आम जन के राम ही हैं? निश्चित रूप से वे हैं और कण-कण में हैं। यह अलग बात है कि शबरी वाले राम से अलग अयोध्या वाले रामलला, अब एक भव्य राजमहल में, सर से पैर तक आभूषणों से लदे-फंदे, स्थानांतरित हो गए हैं, जिनके इस नूतन गृहप्रवेश में देश के अमीर उमराव अंबानी-अडानी से लेकर फिल्म जगत के सुपरस्टार तक अपने पूरे ताम-झाम के साथ शरीक हुए हैं। इन नएनवेले भगवान की प्राण-प्रतिष्ठा का सबसे बड़ा जश्न रईस उच्च मध्यवर्गीय सोसाइटी में रहने वाली महिलाओं ने हाथ में भगवा झंडा लहराकर अपनी रिहायशी इमारत की परिक्रमा करते हुए बाकायदा “जै श्रीराम” की हुंकार के साथ मनाया है। उनके चेहरे पर ऐसी चमक का जुनून है कि लगता है जैसे जुलूस में शामिल हर महिला ने राम पर अपना कॉपीराइट दर्ज करवा लिया है।

धर्म का मूल आधार पुरुष सत्ता है। सत्ता कोई भी हो पितृसत्ता, अर्थसत्ता, राजनीतिक शक्तियां, जाति-वर्चस्व, धर्मसत्ता; सभी सत्ताएं एकजुट होकर काम करती हैं और एक-दूसरे के साथ गलबहियां डालकर चलती हैं। यह गठबंधन हमेशा से बहुत मज़बूत रहा है। बहुसंख्यक सांप्रदायिकता इसीलिए बढ़ रही है, क्योंकि इसमें पुरुषों के साथ-साथ महिलाओं की भी बराबर की भागीदारी है।

पिछले चार दशक की घटनाओं पर गौर करें तो यह हैरतनाक है कि सन् 1985 में धर्मसत्ता ने शाहबानो को भरण-पोषण का दावा करने पर अपना संघर्ष छोड़ने के लिए मजबूर किया। महिलाओं ने भी शाहबानो फैसले का विरोध किया। सन् 1987 में धर्म और पुरुषसत्ता ने रूपकंवर के अपने पति के मरने पर उसकी चिता के साथ सती होने पर जश्न मनाया और महिलाओं के एक बड़े वर्ग ने सतीप्रथा का समर्थन किया और देवराला में रूपकंवर की चीखों को नज़रअंदाज़ करते हुए उसे सती माता का दर्जा ही नहीं दिया, बल्कि उसे पूजना भी शुरू कर दिया। सन् 1993 में पितृसत्ता और जाति वर्चस्व ने राजस्थान के भटेरी गांव की सामाजिक कार्यकर्ता साथिन भंवरी देवी के खिलाफ उस सामूहिक आयोजन में भाग लिया, जहां भंवरी देवी के बलात्कारियों को सम्मानित किया गया। बलात्कारियों का स्टेज पर फूलमालाओं से स्वागत किया और मंच से नारे लगवाए– “मूंछ कटी किसकी नाक कटी किसकी? इज़्ज़त लुटी किसकी? राजस्थान के भटेरी गांव की।”

लगभग तीन दशक बाद इन सत्ताओं ने अमृत महोत्सव के दिन एकबार फिर सन् 2023 में बिलकिस बानो के बलात्कारियों को रिहा कर दिया। उनका भी फूलमालाएं पहनाकर स्वागत किया गया। आज इक्कीसवीं सदी में सत्ताओं के गठबंधन का यह सबसे घिनौना रूप हैं। क्या हम विश्वास करेंगे कि सन् 2002 के गुजरात दंगों में भी माया कोडनानी जैसी सांप्रदायिक महिलाओं ने भी दंगों में वीभत्स भूमिका निभाई? किसी भी देश की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा को महिलाएं भी समझ नहीं पातीं और इसे समर्थन देती हैं।

स्त्री का दोयम दर्जा सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं, हर धर्म ग्रंथ में तय है। कुरान हो, बाइबल हो या कोई और धर्मग्रंथ – सभी में स्त्रियों को हमेशा पुरुष से कमतर माना गया। वह आदम की पसली से पैदा हुई। मुस्लिम देशों में अरसे तक किसी अपराधी केस में महिला की गवाही को आधी गवाही माना गया। हिंदू धर्म ग्रंथों में भी स्त्री अधिकारों की बात कभी की ही नहीं गई। एक स्त्री पुरुष के शाप से शिला बन जाती है, पुरुष के ही स्पर्श से फिर से मानवी बन जाती है। पुरुष उसे अग्निपरीक्षा देने को कहता है, गर्भवती पत्नी को बनवास दे देता है, पुरुष की इच्छा से उसे वस्तु की तरह दांव पर लगा दिया जाता है। ये सारी कथाएं भारत के जनमानस में रची-बसी हैं और तरह-तरह के तर्कों से उसे न्यायसंगत ठहराया जाता है। हिंदू धर्म के कई ग्रंथों में स्त्री को नरक की खान, ताड़न की अधिकारी और क्या क्या नहीं कहा गया। हमारे यहां आज भी किसी की मृत्यु के बाद के अनुष्ठानों में गरुड़ पुराण का वाचन होता है जो स्त्री विद्वेष से अंटा हुआ है।

धर्म भारतीय महिलाओं की कमज़ोर नब्ज़ है

पुराने कालखंड को याद करें जब स्त्रियों के लिए किसी भी तरह की कोई आज़ादी नहीं थी, उनके ऊपर तरह-तरह की पाबंदियां थीं, उनके कर्तव्यों और ज़िम्मेदारी की सूची लंबी थी और अधिकारों का कहीं ज़िक नहीं था। भारतीय समाज में औरतें सप्ताह में एक सुनिश्चित दिन मंदिर जाने के लिए घर से बाहर निकला करती थीं। एक तरह से घर गृहस्थी संभालने वाली महिलाओं की यह आउटिंग होती थी। घर के कामकाज, घर की समस्याओं से निकलकर, कभी वे मंदिर की मूर्तियों के सामने बैठकर रोती थीं, कभी मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर अपनी गाथा अपनी सखी-सहेलियों से कहती थीं और अपना जी हल्का कर लौटती थीं। यह आस्था एक तरह से उनके लिए जिंदगी जीने का औजार थी, एक आसरा थी।

पिछले सौ सालों में समाज और परिवेश धीरे-धीरे बदला है। स्त्रियां घर से बाहर निकलकर आत्मनिर्भर हुई हैं, पर आज भी पढ़ी-लिखी स्त्रियों का एक बड़ा वर्ग उन्हीं पुरानी मान्यताओं और रूढ़ियों में बंधा जी रहा है। स्त्रियों का यह वर्ग आज भी करवाचौथ और तीज त्यौहार, पति और बेटे की मंगलकामना के लिए व्रत रखता है और बेटियों पर अंकुश लगाता है। महिलाएं कभी यह नहीं समझ पातीं कि धर्म औरत को कब्जे में रखने का एक उपकरण है। धर्म भारत की महिलाओं की कमज़ोर नब्ज़ है। अगर आप जनता की सभी जरूरी मांगों का संज्ञान नहीं लेते, उनकी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते, तो आप उसका ध्यान भटकाने के लिए उसकी कमज़ोर नब्ज़ को थाम लेते हैं और उस कमजोर पक्ष की आड़ लेकर अपने को सत्ता में बनाए रखते हैं। औरत को बचना है और आगे निकलना है तो उसे पुरुषसत्ता के साथ-साथ धर्म की सत्ता को भी नकारना ही होगा।

धर्म में औरत को बराबरी के नागरिक का दर्जा कभी हासिल नहीं हुआ। कई मंदिरों में प्रवेश का निषेध इसी बिना पर है। सबरीमाला में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर लंबे समय तक एक अभियान चला है। धर्म की इन संकीर्णताओं और वर्जनाओं से लड़कर भी एक औरत क्या हासिल कर लेगी? सच तो यह है कि धर्म से पूरी तरह नकार में ही उसकी मुक्ति संभव है। दुनिया के धर्म में औरत हाशिए पर है। पितृसत्ता के सारे औजार इन्हीं पैगंबरों से आयातित हुए हैं, जिसे पितृसत्ता को जमाने में अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल किया गया है। इस्तेमाल करने के यही तरीके दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में धर्म कहे जाते हैं। स्त्रियां अगर सशक्त हो जाएं, अपनी लड़ाइयां खुद लड़ना सीख लें, अपने मन के भीतर जमे बैठे भय से निजात पा लें तो उन्हें किसी देवालय में जाने के प्रवेशपत्र की ज़रूरत नहीं है। वह प्रार्थनास्थल या सुकूनगाह उन्हें अपने घर या कार्यस्थली में ही मिल जाएगी।

विश्व के कई देशों में आज राजनीतिक सत्ता नागरिकों, श्रमिकों, महिलाओं और हाशिये पर पड़े लोगों पर अंकुश लगा रही हैं, उनके अधिकारों को संकुचित कर रही हैं और यह सब बेहद शातिराना अंदाज़ में किया जा रहा है। देशभक्ति और राष्ट्रवाद की आड़ में धर्म को शतरंज की गोटी की तरह इस्तेमल किया जा रहा है। सत्ता अपनी पहचान की राजनीति को हवा दे रही है, उसे चमकदार बनाकर प्रस्तुत कर रही है। असहिष्णुता और धर्म के संकीर्ण, सांप्रदायिक पक्ष को शासक स्थापित कर रहे है।

धर्म एक आध्यात्मिक विचारधारा से बढ़कर जब सत्ता की राजनीति का हिस्सा बन जाता है तो निरंकुश सरकारें धर्म को एक हथियार की तरह ही इस्तेमाल करती हैं। पिछली सदी में यूरोप में मुसोलिनी ने अपने शासनकाल में इटली और दूसरे देशों में कैथोलिक धर्म को अपने मुखपत्र में शामिल किया और सभी दूसरे समुदायों के खिलाफ प्रचार किया। आज भारत में भी वही स्थिति दिखाई दे रही है, जहां सभी अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों का खात्मा किया जा रहा है।

आज का भारत आज़ादी के अमृतकाल में बहुत तेज़ी के साथ आगे बढ़ रहा है और रोज़ नए कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। अमृत महोत्सव की शुरुआत में देश के प्रधानमंत्री लाल किले से अपने अद्भुत भाषण में नारी सम्मान और नारी सुरक्षा की बात करते हैं और उसी दिन सामूहिक बलात्कार की शिकार एक अल्पसंख्यक समुदाय की महिला के सजायाफ्ता बलात्कारियों को जेल से रिहा कर दिया जाता है और उनका फूल-मालाओं से स्वागत कर लड्डू बांटे जाते हैं। उस अमृतकाल के एक साल पूरा होने से पहले ही मणिपुर में सामूहिक रूप से एक महिला की नग्न परेड करवाई जाती है और नारी के सम्मान की घोषणा करनेवाले प्रधानमंत्री उस घटना की निंदा में एक शब्द नहीं बोलते।

महिलाओं की सुरक्षा और अल्पसंख्यकों की आजीविका खतरे में है। शाहीन बाग में प्रदर्शन और उनका दमन, दिल्ली के जंतर-मंतर पर सात महिला पहलवानों की सामूहिक याचिका को कैसे सत्ता ने दरकिनार कर दिया और मुख्य आरोपी अपनी पूरी दबंगई और अहंकार के साथ आज भी सत्ता में बना हुआ है। ऐसे ढेरों मामले हैं, वह उन्नाव का कुलदीप सिंह सेंगर हो या हाथरस का आरोपी या अंकिता हत्याकांड का मुजरिम, सत्ता के वरदस्त के नीचे सब फल-फूल रहे हैं। यहां तक कि डेराबाबा राम रहीम जैसे अपराधी साधु दोषी पाए जाने के बावजूद आए दिन पैरोल पर रिहा कर दिए जाते हैं। साहित्यकारों ने शुरू से ही धर्म के दोहरे चरित्र के बारे में लिखा। जनता को राह दिखाने की कोशिश की और धर्म की आड़ में इंसनियत का चोला ओढ़कर हैवानियत की सीमा पार करनेवाले भगवावस्त्रधारी आतताइयों का मुखौटा भी उतारा, जिन्होंने धर्म और आस्था को आड़ बनाकर अपनी रासलीला को अंजाम दिया। लेकिन आज इंसानियत की हार का समय चल रहा है जहां सिर्फ कौम, धर्म, जाति का घंटा बज रहा है और यह कहावत भी सच होती नजर आ रही है “जिसकी लाठी उसकी भैंस”। इसलिए युवा और नाबालिग बच्चियों का यौन शोषण करने वाले अपराधी संत खुलकर कहते हैं कि “हमारी सरकार में बहुत चलती है। हरियाणा व पंजाब के मुख्यमंत्री, केंद्रीय मंत्री हमारे चरण छूते हैं। राजनीतिज्ञ हमसे समर्थन लेते हैं, पैसा लेते हैं, वे हमारे खिलाफ कभी नहीं जाएंगे। हम तुम्हारे परिवार के नौकरी लगे सदस्यों को बर्खास्त कर देंगे। सभी सदस्यों को अपने सेवादारों से मरवा देंगे। सबूत भी नहीं छोड़ेंगे।” इन बाबाओं की ताकत, इनका साहस इतना बेखौफ है कि राजनीति, पुलिस और न्याय व्यवस्था इन्हें अपने सामने बौनी लगती है। ये किसी से नहीं डरते और जनता में खुद को पैगंबर बनाकर नहीं, भगवान बनाकर अहंकार से सिर उठाकर चलते हैं।

धर्म को जिस तरह राजनीति की बिसात पर शतरंज की गोटी की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है देखकर तथाकथित धार्मिक लोगों के प्रति वितृष्णा ही जगती है। एक ढोंगी बाबा धीरेंद्र शास्त्री ने किस तरह पढ़ी-लिखी युवा जमात को भी सम्मोहित कर रखा है, देखकर लाखों की भीड़ पर तरस आता है। इससे पहले आशाराम बापू, स्वामी चिन्मयानंद और डेराबाबा राम रहीम जैसे अनगिनत साधु-संतों के प्रपंच और कारनामे हम देख चुके हैं। राजनेता आखिर ऐसे यौन शोषण करनेवाले साधु-संतों के चरणों में विराजमान क्यों दिखते है? इसलिए कि इनके असंख्य चेलों की भारी-भरकम भीड़ में उन्हें अपना वोट बैंक दिखता है।

सवाल यह है कि इसका समाधान क्या है? क्या कानून व्यवस्था में परिर्वतन करने की जरूरत है क्योंकि अंधभक्ति में लीन जनता कानून को भी तोड़ रही है, भरी भीड़ में सबके सामने बेखौफ होकर हत्याएं कर रही है और उनके वीडियो बना रही है, या फिर हमारी जनता के सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक सोच में बदलाव लाने की जरूरत है? जनता सच के हक में खड़े होकर, पीड़ित औरतों को न्याय दिलाने के हक में आगे आए। सारे पूर्वाग्रहों को, धर्मिक अंधविश्वास को ताक पर रखकर इंसानियत के हक में खड़े हों तभी उम्मीद की एक किरण दिखाई देगी कि हमारा समाज भविष्य की ओर एक सकारात्मक कदम उठाएगा नहीं तो जिस तरह हम माता-पिता और गुरुजनों पर आस्था करते हैं और सवाल नही करते, उसी तरह धर्म भी एक आस्था है जो सवालों से परे है। धर्म उस फटे नोट की तरह है जिसे ब्राह्मणवाद अंधेरे में चलाता आ रहा है। जब तक अंधेरा कायम रहेगा, फर्जी नोट की तरह धर्म का सिक्का भी इसी तरह चलता रहेगा।

दुनिया जैसी आज है, वैसी पहले नहीं थी। पहले का इंसान डरा हुआ इंसान था। डर कर ही उसने ईश्वर की कल्पना की और ईश्वर के पूरे समाजशास्त्र को रच डाला। वही समाजशास्त्र आज धर्मशास्त्र बने हुए हैं। दुनिया को बदलने में मनुष्य के चिंतन ने बहुत बड़ा काम किया, उसी ने विज्ञान को जन्म दिया। विज्ञान ने मुक्ति का द्वार खोल दिया। औरतों की मुक्ति भी चिंतन के सहारे विज्ञान तक पहुंच कर ही संभव हो सकेगी।

इस वर्ग को कैसे जागरुक बनाया जाए, धर्म की इस अफीम और दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत के ज़हर को कैसे हटाया जाए, इस ओर ज़मीनी तौर पर सामाजिक कार्यकर्ताओं के कई समूह काम कर रहे हैं। वे कितना सफल हो पाएंगे, यह तो समय ही बताएगा।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

सुधा अरोड़ा

चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा स्त्री आन्दोलनों में भी सक्रिय रही हैं। अब तक उनके बारह कहानी संकलन तथा एक उपन्यास और वैचारिक लेखों की दो किताब। 'आम औरत : जि़ंदा सवाल’ और 'एक औरत की नोटबुक’ प्रकाशित हो चुकी हैं। सुधा जी की कहानियां भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी, ताजिकी भाषाओं में अनूदित।

संबंधित आलेख

सवर्ण व्यामोह में फंसा वाम इतिहास बोध
जाति के प्रश्न को नहीं स्वीकारने के कारण उत्पीड़ितों की पहचान और उनके संघर्षों की उपेक्षा होती है, इतिहास को देखने से लेकर वर्तमान...
त्यौहारों को लेकर असमंजस में क्यों रहते हैं नवबौद्ध?
नवबौद्धों में असमंजस की एक वजह यह भी है कि बौद्ध धर्मावलंबी होने के बावजूद वे जातियों और उपजातियों में बंटे हैं। एक वजह...
संवाद : इस्लाम, आदिवासियत व हिंदुत्व
आदिवासी इलाकों में भी, जो लोग अपनी ज़मीन और संसाधनों की रक्षा के लिए लड़ते हैं, उन्हें आतंकवाद विरोधी क़ानूनों के तहत गिरफ्तार किया...
ब्राह्मण-ग्रंथों का अंत्यपरीक्षण (संदर्भ : श्रमणत्व और संन्यास, अंतिम भाग)
तिकड़ी में शामिल करने के बावजूद शिव को देवलोक में नहीं बसाया गया। वैसे भी जब एक शूद्र गांव के भीतर नहीं बस सकता...
ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद के खिलाफ था तमिलनाडु में हिंदी विरोध
जस्टिस पार्टी और फिर पेरियार ने, वहां ब्राह्मणवाद की पूरी तरह घेरेबंदी कर दी थी। वस्तुत: राजभाषा और राष्ट्रवाद जैसे नारे तो महज ब्राह्मणवाद...