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बिहार में भूमिहीनता सामाजिक न्याय के एजेंडे में क्यों नहीं?

बिहार में भूमि सुधार का मुद्दा गौण हो गया है। नीतीश कुमार ने बंद्योपध्याय कमीशन का गठन किया था लेकिन उसकी रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। आज इस बात पर लालू भी कुछ नहीं बोलना चाहते। बता रहे हैं विद्या भूषण रावत

चल रहे लोकसभा चुनावों के पहले चरण से पहले मुझे एक कार्य के सिलसिले में बिहार जाने का अवसर मिला। मैं पटना से बेगूसराय, खगड़िया, मुंगेर, भागलपुर, सुल्तानगंज, कटिहार आदि इलाकों से होकर गुजरा तथा लोगों से बातचीत की। उससे कुछ समय पूर्व ही मैंने सारण और मुजफ्फरपुर का दौरा भी किया था। सारण के पड़ोस में गोपालगंज जिला भी है जो कि उत्तर प्रदेश के देवरिया जनपद से बिलकुल सटा है। यहां हमारा ‘प्रेरणा केंद्र’ है। 

वैसे तो राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक लड़ाई जारी है लेकिन बिहार में इस समय सबसे बड़ा राजनीतिक युद्ध है और यह माना जा सकता है कि तेजस्वी यादव के नेतृत्व में महागठबंधन मजबूती से लड़ाई लड़ रहा है। हालांकि अभी कुछ दिनों पूर्व बिहार के ही सासाराम में रहनेवाले एक साथी ने फोन पर बातचीत करते हुए कहा कि बिहार में अभी विचारों की राजनीति कम और व्यक्तियों तथा जातियों की राजनीति अधिक होती है। इसलिए आप लाख दूसरी ओर देखें और नकारने की कोशिश करें, लेकिन नीतीश के गठबंधन का अभी भी पलड़ा भारी है। ऐसा कहनेवाले मेरे ये मित्र सवर्ण बिरादरी के नहीं, कुर्मी (पिछड़े वर्ग) थे। 

मुझे लगता है कि उनकी बातों में बहुत दम है, क्योंकि सामाजिक न्याय की तमाम बातों के बावजूद भी अंततः हम सभी जातीय निष्ठाओं से दूर नहीं हो पा रहे हैं। ये चुनाव का समय है और बिहार भारत का सबसे महत्वपूर्ण राज्य है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां के लोगों की राजनीतिक समझ दूसरे प्रांतों से बहुत अधिक है। लेकिन क्या जो कहा जाता है, वह वाकई में सत्य है या मात्र जातियों की गोलबंदी है, जिसे राजनीतिक चेतना कहा जा रहा है? 

हालांकि यह बात केवल बिहार के मामले में ही सत्य नहीं है, वरन् पड़ोसी राज्य उत्तर प्रदेश में भी ओबीसी के विभिन्न जातियों की गोलबंदी हुई है और एक हद तक अब दलित वर्गों की जातियों में भी देखने को मिल रही है। इन गोलबंदियों से बेशक कोई एक नेता के बतौर व्यक्तिगत तौर पर मजबूत होता है, लेकिन जनता असहाय और निराश रह जाती है। अगर ऐसा नहीं होता तो संसद में दलित, पिछड़ी, आदिवासी समुदायों के सांसदों की संख्या 300 से ऊपर ही है, लेकिन संसद में उनके हितों से संबंधित कानून पास नहीं होते और सरकारी संपत्ति के निजीकरण पर कोई सवाल नहीं उठाया जाता। 

बिहार की राजधानी पटना के एक दलित बहुल गांव में एक घर का दृश्य

असल में सत्ता समर्थक विशेषज्ञ अपनी सुविधा के अनुसार सत्य ‘गढ़ते’ रहते हैं और आम जनता उनको केवल इसलिए स्वीकारती और झेलती रहती है क्योंकि वह समझती है कि वह ‘हमारे’ बीच का है या ‘हमारा’ है। इस ‘अस्मितावादी’ राजनीति या विचारनीति का सबसे बड़ा लाभ ऐसे ‘मौसम वैज्ञानिकों’ ने ही उठाया है, जो पहले ही यह अंदाज लगा लेते हैं कि सत्ता किस ओर जा रही है। 

अब बिहार में जीतन राम मांझी को देखें। नीतीश कुमार ने उन्हें मुख्यमंत्री बनाया और फिर हटाया और विधान सभा में उनका मज़ाक भी बनाया, लेकिन अंतत: वे उनके ही गठबंधन में चले गए। बतौर हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (बिहार में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का एक घटक दल) उम्मीदवार अपना नामांकन पत्र भरने से पहले मार्च में जीतनराम मांझी ने अयोध्या में रामलला के दर्शन किये और उनसे अपना पुराना नाता बताया। ‘

ये वही जीतनराम मांझी हैं, जिन्होंने लगभग एक वर्ष पूर्व कहा था कि राम केवल रामायण के पात्र हैं और काल्पनिक हैं। प्रश्न यह नहीं है कि भगवान राम काल्पनिक हैं या असली। असल बात है वैचारिक ईमानदारी की। लेकिन इन प्रश्नों पर तो मुख्यधारा की मीडिया के पत्रकार सवाल नहीं पूछते, क्योंकि मांझी राजग में आ गए हैं। इसलिए उनके अयोध्या भ्रमण पर आरएसएस और राम जन्मभूमि ट्रस्ट के लोगों ने भी कोई प्रश्न नहीं पूछा कि आप तो पहले भगवान राम की आलोचना कर रहे थे और अब दर्शन करने आ गए? हां, उन्होंने इतना जरूर किया कि जीतन राम मांझी को रामलला की प्रतिमा के निकट जाने की इजाजत नहीं दी। आम श्रद्धालु के लिए बनाए गए बैरियर के बाहर से ही मांझी को रामलला के दर्शन करने पड़े।

असल में बिहार का संकट यही है और ये दूसरे प्रदेशों में भी ऐसा ही है। आप व्यक्ति और जाति के आधार पर वोट कर रहे हैं और अनेक विशेषज्ञ उसे ‘विचारधारा’ का स्वरूप पहना कर उसका महिममंडन कर रहे हैं। असल में वह शुद्ध राजनीति है और जातियों को अपनी ताकत दिखाने और वर्चस्व बनाए रखने के लिए जाति का नेता चाहिए। नेताओं ने गठबंधन अपनी जातीय ताकतों के हिसाब से किए हैं। ये जातीय गोलबंदी सामाजिक न्याय नहीं है, क्योंकि मुस्लिमों का प्रश्न आते ही इस गोलबंदी में बिखराव आ जाता है और उसकी स्वीकार्यता केवल तभी है, जब मुस्लिम केवल एक वोटर की भूमिका में हैं और नेतृत्व के सवाल से गौण रहे। दूसरी ओर भाजपा और आरएसएस अभी तक एक बात में पूरी तरह से कामयाब होते दीखते हैं और यह बात मुसलमानों के प्रतिनिधित्व से जुड़ी है। अब भाजपा तो खुले तौर पर मुस्लिम विरोध की राजनीति कर रही है, लेकिन उसने अन्य दलों को इतना डरा दिया है कि मुसलमानों के सवालों पर कोई भी बोलने से कतरा रहा है। 

इसी साल मार्च महीने के आरंभ में जब मैंने बिहार, झारखंड और बंगाल में गंगा से जुड़े क्षेत्रों की यात्रा की थी तो एक बात समझ में आई कि हालांकि जनता में उतना मन-भेद नहीं दिखाई देता है, लेकिन एक बात जो मेरे साथ हुई, उसे देखकर मुझे लगा कि सवाल केवल राजनीतिक मंचों से अच्छी बात बोलने तक ही सीमित नहीं है, सामाजिक गठबंधन का भी है। मुसलमानों में भी जाति-प्रथा है, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता। यह तो डॉ. आंबेडकर स्वयं से अपने शोध में बता चुके हैं। मुसलमानों के बड़े नेताओं और विशेषज्ञों ने कभी इस बात को स्वीकार नहीं किया कि उनके यहां जातीय भेदभाव है। असल में यह एक कटु सत्य है कि पाकिस्तान विभाजन का एक बड़ा कारण पंजाबी और उर्दू बोलने वाले सामंती पाकिस्तानी नेतृत्व ने पूर्वी पाकिस्तानियों या यह कहिए कि आज के बांग्लाभाषी मुसलमानों को कभी भी अपने समकक्ष नहीं माना। 

दरअसल, सवर्ण मुस्लिम नेतृत्व ने राजनीतिक और धार्मिक कारणों से जाति-प्रथा को कभी भी स्वीकार नहीं किया। ठीक वैसे ही जैसे ब्राह्मण एक तरफ अपनी श्रेष्ठता का बखान करते नहीं थकते और समय मिले तो यह ‘वसुधैव कटुंबकम्’ का मंत्र भी उच्चारित कर देते हैं। वे यह स्वीकारने को तैयार नहीं होते कि हिंदू धर्म में छुआछूत प्रथा है। आज भी यह तर्क ब्राह्मण वर्गों द्वारा धड़ल्ले से दिया जाता है कि समाज में जो जातिगत विभाजन है, वह कर्म के आधार पर है। लेकिन इससे वर्णाश्रम धर्म की जमीनी हकीकत नहीं बदल जाती। आज आरक्षण के सवाल के चलते दलितों के विभिन्न समुदायों के मध्य जबरन मतभेद पैदा किया जा रहा है। ईसाई दलितों और मुस्लिम दलितों के सवाल पर वैसे भी बहुत से संगठन पहले से अदालतों की शरण में हैं। इससे बहुत से सवाल खड़े किया जा रहे हैं। कुछ कहते हैं कि यदि मुस्लिम और ईसाई दलितों को आरक्षण मिल गया तो धर्म-परिवर्तन को कानूनी शह मिल जाएगी। इसके विपरीत लोग कहते हैं कि धर्म व्यक्ति का निजी मामला है और भारतीय उपमहाद्वीप के धर्मों में जाति विद्यमान है। इसलिए आरक्षण का आधार धर्म न होकर जाति है, जो कि सही है, लेकिन जाति-प्रथा को हिंदू धर्म तक सीमित कर दिया गया है। 

सवाल यह है कि हलालखोर और लालबेगी जैसी मुस्लिम जातियां मैला ढोने के काम में लगी हैं लेकिन उन्हें सरकारी संस्थानों या नगर निगम निकायों में काम नहीं मिलता। हो सकता है कि अब कुछ लोगों को दिहाड़ी या फिर संविदा के आधार पर काम मिलता हो, जिसमें बीमारी या छुट्टी पर पैसे काटे जाते हैं। 

आज सामाजिक न्याय का मतलब केवल सरकारी नौकरियों में आरक्षण तक सीमित नहीं होना चाहिए या फिर सत्ता में केवल भागीदारी से बात नहीं बनेगी, यह तो होना अवश्यंभावी है। रही बात बिहार की तो वहां जातियों की खेमाबंदी है और उसका लाभ केवल नेताओं को मिलता है, समाज को नहीं। 

एक उदाहरण यह देखिए कि बिहार में भूमि सुधार का मुद्दा गौण हो गया है। नीतीश कुमार ने बंद्योपध्याय कमीशन का गठन किया था लेकिन उसकी रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। आज इस बात पर लालू भी कुछ नहीं बोलना चाहते। बड़े-बड़े भूस्वामियों ने अपनी जमीनों को सीलिंग से बचाकर रखा है और अधिकांश मामले न्यायालय में लंबित हैं। मंदिरों, मस्जिदों, मठों, गौशालाओं, आश्रमों के नाम से लाखों एकड़ भूमि अभी भी कानून की गिरफ्त से बाहर है। विनोबा के भूदान यज्ञ में प्राप्त जमीनों का समुचित बंटवारा आजतक नहीं किया गया। इसके कारण बिहार में भूमिहीनता एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन यह सामाजिक न्याय की पार्टियों के एजेंडे में नहीं है। जबकि भूमिहीन परिवारों में केवल दलित ही नहीं हैं, अपितु पिछड़ा और अति पिछड़ा वर्ग के लोग भी आते हैं।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

विद्या भूषण रावत

विद्या भूषण रावत सामाजिक कार्यकर्ता, लेखक और डाक्यूमेंट्री फिल्म निर्माता हैं। उनकी कृतियों में 'दलित, लैंड एंड डिग्निटी', 'प्रेस एंड प्रेजुडिस', 'अम्बेडकर, अयोध्या और दलित आंदोलन', 'इम्पैक्ट आॅफ स्पेशल इकोनोमिक जोन्स इन इंडिया' और 'तर्क के यौद्धा' शामिल हैं। उनकी फिल्में, 'द साईलेंस आॅफ सुनामी', 'द पाॅलिटिक्स आॅफ राम टेम्पल', 'अयोध्या : विरासत की जंग', 'बदलाव की ओर : स्ट्रगल आॅफ वाल्मीकीज़ आॅफ उत्तर प्रदेश' व 'लिविंग आॅन द ऐजिज़', समकालीन सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों पर केंद्रित हैं और उनकी सूक्ष्म पड़ताल करती हैं।

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