पूर्वी उत्तर प्रदेश का गोरखपुर लोकसभा सीट कई मामलों में महत्वपूर्ण है। एक तो इस वजह से कि यह सूबे व केंद्र में सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए प्रतिष्ठा की सीटों में से एक है। यहीं से उत्तर प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पांच बार सांसद रहे। योगी आदित्यनाथ ने पहली बार 1998 में यहां से जीत दर्ज़ की थी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद का शपथ लेने के बाद उनके लिए यह सीट महत्वपूर्ण बना रहा।
इस मामले में एक दिलचस्प घटना वर्ष 2018 में तब घटित हुई जब मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने के कारण योगी आदित्यनाथ द्वारा लोकसभा की यह सीट छोड़ने के बाद हुए उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार रहे प्रवीण निषाद ने 29 वर्षों से जारी भाजपा के वर्चस्व को तोड़ दिया था। हालांकि करीब एक वर्ष बाद जब 2019 में लोकसभा चुनाव हुए तब यहां से भाजपा के उम्मीदवार व भोजपुरी तथा हिंदी फिल्मों के प्रसिद्ध अभिनेता रविकिशन शुक्ला ने यहां जीत हासिल कर ली।
इस सीट के सामाजिक समीकरण पर बात करें तो यहां निषाद, यादव और दलित मतदाताओं की बहुलता है। इसके बावज़ूद यहां योगी आदित्यनाथ के हिंदुत्व की राजनीति परवान चढ़ती रही। जबकि वर्ष 1977 के चुनाव के समय से ही यह सीट कांग्रेसियों व समाजवादियों के लिए मुफीद रही। बड़ा परिवर्तन वर्ष 1989 में देखने को तब मिला जब हिंदू महासभा के महंत अवेद्यनाथ ने जीत हासिल की। इसके बाद से यह लोकसभा क्षेत्र हिंदुत्ववादी राजनीति का अभेद्य गढ़ बन गया।
खैर, वर्तमान में योगी आदित्यनाथ के स्थानीय समर्थक उन्हें देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं। इसके पीछे गोरखपुर की स्थानीय राजनीति है। उनके पहले उस समय मनोज सिन्हा भाजपा के कद्दावर नेता के होते हुए भी उनकी जगह भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। अब तो आलम यह है कि मनोज सिन्हा को जम्मू-कश्मीर का उपराज्यपाल बनाकर भाजपा ने उन्हें पूर्वांचल की राजनीति के हाशिए पर फेंक दिया।
बहरहाल, वाराणसी की तरह उत्तर प्रदेश में गोरखपुर भी हाई प्रोफाइल सीट है। भाजपा ने इस बार अपने निवर्तमान सांसद रविकिशन शुक्ला को एक बार पुनः टिकट दे दिया है। जबकि इंडिया गठबंधन की ओर से सपा की काजल निषाद उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। काजल निषाद भी भोजपुरी फिल्मों में काम कर चुकी हैं। इस प्रकार इस सीट पर भोजपुरी सिनेमा के दो कलाकारों के बीच मुकाबला देखने को मिल रहा है। जबकि बसपा ने प्रिंटिंग प्रेस व्यवसाय से जुड़े जावेद सिमनानी को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। सिमनानी छात्र जीवन से ही बसपा से जुड़े रहे हैं।
अब सवाल है कि क्या इस बार गोरखपुर लोकसभा चुनाव के परिणाम चौंकाने वाले हो सकते हैं?
इस सवाल के पीछे यहां का जातीय समीकरण है। यहां पिछड़े और दलित मतदाताओं की संख्या सबसे ज़्यादा है। एक अनुमान के मुताबिक़ यहां पर क़रीब 4 लाख निषाद जाति के मतदाता हैं। यह आबादी पिपराइच और गोरखपुर के ग्रामीण क्षेत्रों में ज़्यादा है। यहां पर क़रीब 2 लाख यादव और लगभग इतने ही दलित मतदाता हैं। यहां मुस्लिम, ब्राह्मण और राजपूत समेत अन्य जातियों के मतदाता भी अच्छी संख्या में हैं, लेकिन दलित, पिछड़े और मुस्लिम वोटर मिलकर यहां का चुनावी गणित बदल सकते हैं।
रही बात स्थानीय मुद्दों की तो भाजपा के लोग विकास के नाम पर वोट मांग रहे हैं। वैसे यह सही है कि योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने पर गोरखपुर के शहरी इलाक़ों में कुछ विकास हुआ, लेकिन अन्य इलाक़े तो इससे बिलकुल अछूते ही हैं। यहां भाजपा की जीत का आधार हमेशा हिंदुत्व की राजनीति रही है, लेकिन इस बार हालात बदले-से हैं। शर्त बस इतनी है कि गैर-भाजपाई मतदाताओं में बिखराव न हो। हालांकि बसपा ने एक मुसलमान उम्मीदवार उतारकर बिखराव को हवा जरूर दिया है।
वैसे बसपा के प्रत्याशी जावेद सिमनानी ने बातचीत में बताया कि वे गोरखपुर के बेटे हैं। इस चुनाव में वे पूरे दमखम के साथ लड़ेंगे और जीत हासिल करेंगे। जनता बाहर के प्रत्याशियों को इस बार नहीं जिताने वाली है। भाजपा प्रत्याशी रविकिशन शुक्ला और सपा प्रत्याशी काजल निषाद दोनों बाहर के हैं, गोरखपुर की जनता यह अच्छी तरह से जानती है और यही वजह है कि जनता दोनों को पूरी तरह से इस चुनाव में नकार देगी।
राजेश कुमार मल्ल गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं तथा वामपंथी राजनीति से भी जुड़े रहे हैं। वे इस संबंध में बताते हैं कि “गोरखपुर सहित पूरा पूर्वांचल समूचे देश या कहें दुनिया के सबसे पिछड़े इलाक़ों में से एक है। यहां के मज़दूर देश-दुनिया भर में मज़दूरी करने के लिए जाते हैं। बाढ़ की विभीषिका तथा इंसेफेलाइटिस (मस्तिष्क ज्वर) जैसी महामारियों ने इस इलाक़े को तबाह कर दिया है। लेकिन यह सब कभी चुनाव का मुद्दा नहीं बनता। भाजपा और योगी आदित्यनाथ की हिंदुत्व की राजनीति ने यहां की राजनीति में जबर्दस्त ध्रुवीकरण किया है। यही कारण है कि चुनाव में विकास की राजनीति पर हिंदुत्व की राजनीति हावी हो जाती है। अयोध्या से नज़दीक होने के कारण भी यहां पर अयोध्या की घटनाओं का प्रभाव ज़रूर पड़ता है, लेकिन इस बार इसका कोई ख़ास प्रभाव चुनाव पर नहीं दिखाई दे रहा है। इसलिए नतीज़े चौंकाने वाले भी हो सकते हैं।”
पेशे से अध्यापक और पसमांदा मुस्लिम समाज के आज़म अनवर लंबे समय से गोरखपुर की सामाजिक व राजनीतिक गतिविधियों से जुड़े हैं। वे कहते हैं कि “बसपा उम्मीदवार जावेद सिमनानी का पसमांदा मुस्लिम समाज में कोई ख़ास असर नहीं है, जिसका इस इलाक़े में बहुमत है। भाजपा को आशा है कि वे मुस्लिमों का वोट काटकर इंडिया गठबंधन का गणित गड़बड़ा देंगे, लेकिन ऐसा नहीं है। मुस्लिम उसी को वोट देंगे, जो भाजपा को हरा सके। वैसे भी योगी आदित्यनाथ के कार्यकाल में गोरखपुर का जो विकास हुआ है, उससे पुराने गोरखपुर के मुस्लिम बहुल इलाक़े बिलकुल ही वंचित हैं।”
जबकि संघ से जुड़े अजय खरे कहते हैं कि इस बार भी जनता भाजपा को मौका देगी। योगी जी वीर बहादुर सिंह के बाद गोरखपुर में एक विकास पुरुष के रूप में उभरे हैं, इसलिए भाजपा को सभी जातियों और धर्मों का समर्थन मिल रहा है। सभी दलित-पिछड़े तथा मुस्लिम समाज का एक वर्ग भी उनके साथ है। वे इस बात का खंडन करते हैं कि गोरखपुर में भाजपा धार्मिक ध्रुवीकरण कर रही है।
खैर, परिणाम चाहे जो भी हो, लेकिन भाजपा के लिए गोरखपुर की प्रतिष्ठित सीट पर एक बार पुनः जीतना पिछले चुनाव की तरह बहुत आसान नहीं रह गया है, क्योंकि इस बार यहां लड़ाई पिछड़ा बनाम अगड़ा की हो चुकी है।
(संपादन : नवल/अनिल)