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सामाजिक न्याय की जीत है अयोध्या का जनादेश

जीत का श्रेय समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव को भी दिया जाना चाहिए। उन्होंने बहुत ही बड़ा क़दम उठाया और एक दलित समाज से आने वाले लीडर को सामान्य सीट से अपना उम्मीदवार बनाया। बता रहे हैं अभय कुमार

गत 4 जून को जब आम चुनाव के नतीजे सामने आए, तो सबसे बड़ा उलटफेर फैजाबाद (अयोध्या) सीट पर देखने को मिला। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के दो बार लगातार सांसद रहे लल्लू सिंह हार गए और दलित समुदाय के अवधेश प्रसाद समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में जीत गए। चूंकि इस बार भाजपा की रणनीति के केंद्र में राम और अयोध्या थी। इसलिए भाजपा उम्मीदवार की इस हार को भारत के सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और संविधान की जीत बताया जा रहा है। और यह भी कहा जा रहा है कि यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा के पतन की शुरुआत है।

इस बार के चुनाव में खतरनाक थे कट्टरपंथियों के मंसूबे

खैर, रोजी-रोटी और लोक कल्याण के प्रश्नों को हिंदुत्व की सरकारों ने लगातार नजरअंदाज किया है। उनके शासनकाल में कमजोर वर्गों के हितों पर गहरी चोट की गई है। जहां एक तरफ़ निजीकरण की वजह से वंचित समाज पर सब से ज़्यादा मार पड़ी है, वहीं हिंदुत्व के उभार ने जातिवादी शक्तियों को काफ़ी मज़बूती दी है। लेकिन इस बार हुए चुनाव में कट्टरपंथियों के मंसूबे बहुत ही ख़तरनाक थे। भाजपा और आरएसएस की ऊंची जाति की एक ताक़तवर लॉबी भी संविधान बदलने की मंशा रखती थी। उन्हें उस घड़ी का इंतज़ार था कि कब भाजपा 400 के आसपास या इससे अधिक सीटें हासिल कर ले ताकि वे बिना किसी बाधा के संविधान में मनमाफिक संशोधन कर आरक्षण खत्म करने की स्थिति में हों। लेकिन इस बार देश में अमन-चैन और संविधान को पसंद करनेवाली जनता ने उनकी मंशा पूरी नहीं होने दी। यही फैजाबाद (अयोध्या) की जनता ने भी किया।

मानीखेज है सामान्य सीट से दलित उम्मीदवार की जीत

स्मरण रहे कि फैजाबाद (अयोध्या) संसदीय सीट सामान्य सीट है। यह भी भारत में राजनीतिक ‘जातिवाद’ का एक प्रतीक है कि आरक्षित सीटों से ही दलितों और आदिवासियों को टिकट दिया जाता है, सामान्य सीटों से नहीं। ऐसी अधिकांश सामान्य सीटें, खासकर ऊंची जाति के लोगों की ‘निजी संपत्ति’ समझी जाती हैं।

मिसाल के तौर पर, सवर्ण जातियों की आबादी भारत में 15 प्रतिशत से भी कम बताई जाती है। मगर वर्तमान लोकसभा में उनके समुदाय से आने वाले सांसदों का अनुपात 25 फ़ीसद से भी ज़्यादा है। मतलब सवर्ण जातियों को अपनी आबादी से लगभग दोगुना ज़्यादा प्रतिनिधित्व हासिल है। दूसरी तरफ़ ओबीसी, जिनकी आबादी 50 फ़ीसद से भी ज़्यादा है, उनको लोकसभा में सिर्फ़ 25 प्रतिशत हिस्सा मिला हुआ है। अर्थात् पिछड़ों का आधा से ज़्यादा हिस्सा हड़प लिया गया है। अल्पसंख्यक मुसलमानों का हाल तो और भी बुरा है। उनकी आबादी 14 फीसदी से ज़्यादा है, मगर 18वीं लोकसभा में उनकी हिस्सेदारी सिर्फ़ 4 प्रतिशत रह गई है। मतलब यह कि उनका दो-तिहाई से ज़्यादा हक़ मार लिया जा रहा है। जिसकी ‘जितनी संख्या भारी उसकी उनती हिस्सेदारी’ के आधार पर न्याय किए बग़ैर लोकतंत्र मज़बूत नहीं हो सकता है। यह इसलिए कि लोकतंत्र भीड़तंत्र नहीं है और न ही यह एक ख़ास धर्म और ऊंची जाति की जागीर है। सच्चा लोकतंत्र तो वह है, जहां सभी वंचित और अल्पसंख्यक समुदायों को उनकी आबादी के अनुसार अधिकार और हिस्सेदारी मिले।

सपा नेता अखिलेश यादव व फैजाबाद से नवनिर्वाचित सांसद अवधेश प्रसाद

यदि हम फैजाबाद (अयोध्या) संसदीय क्षेत्र के परिणाम पर विचार करें, एक बार फिर इसने उम्मीद की रोशनी जलाई है कि दलित-पिछड़े और अल्पसंख्यक के बीच में अगर एकता हो जाये, तो ‘अपराजेय’ कही जाने वाली हिंदुत्व की राजनीति को धूल चटाई जा सकती है।

नहीं चली राम के नाम पर मोदी की राजनीति

यह मंज़र सभी ने देखा कि आम चुनाव से चार महीने पहले, आधे-अधूरे बने राम मंदिर का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ख़ुद अपने हाथों से किया। जिस प्रधानमंत्री ने धर्मनिरपेक्ष संविधान की शपथ ली थी, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए उसी ने उसको किनारे कर दिया। पूरे देश की मीडिया को इकट्ठा कर वह पूजा करने लगा और यह संदेश देने की कोशिश की कि वह ही ‘हिंदू सम्राट’ है। इसके बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के कार्यकर्ता देश भर में घूम-घूम कर प्रचार कर रहे थे कि “जो लोग राम को लाएं हैं, उन्हें दोबारा सत्ता में लाना है” और जो “देश के गद्दार” हैं, उन्हें जेल में डालना है। 

इससे बड़ा मज़ाक़ और क्या हो सकता है कि जो भाजपा 1980 में जन्मी, उसने यह दावा एक बार नहीं लाखों बार किया है कि उसी ने भगवान राम की घर वापसी कराई है। दूसरों को कौन कहें, खुद प्रधानमंत्री मोदी ने चुनावी रैलियों के दौरान कई बार यह बात कही है कि अगर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी जीत गई, तो वे राम मंदिर में ताला जड़ देंगे। फैजाबाद (अयोध्या) के पास बाराबंकी में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए मोदी ने सारी हदें पार कर कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो वे राम मंदिर को बुलडोज़र से गिरा देंगे। प्रधानमंत्री की ‘न्यायप्रियता’ का आलम यह था कि जिस उत्तर प्रदेश में अनेक मुसलमानों के घर को बुलडोज़र से गिरा कर मलबे में तब्दील कर दिए गए, उनके हक़ में एक शब्द बोलने की ज़हमत उन्होंने नहीं उठाई। यह दिखलाता है कि “सब का साथ और सब का विकास” का उनका नारा एक चुनावी जुमले से ज़्यादा और कुछ नहीं है।

चुनावी रैलियों में भाजपा के नेतागण यह कुतर्क दे रहे थे कि धर्मनिरपेक्ष पार्टियां “हिंदू विरोधी” हैं। वे दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों से आरक्षण छीनकर मुसलमानों को देने के लिए साज़िश कर रही हैं, इसलिए उनको किसी भी हालत में सत्ता से दूर रखा जाना चाहिए। मगर भाजपा के नेता कभी यह नहीं बतलाते कि उनके शासंककाल में कितने हज़ार आरक्षित सीटों को ख़त्म करके उसे ‘संविदा’ की श्रेणी में कर दिया गया है।

आख़िर क्यों मोदी के दौर में कॉलेजों व विश्वविद्यालयों में सवर्ण जातियों का वर्चस्व बढ़ा है। क्या यह सवाल आवश्यक नहीं कि दलित, आदिवासी, ओबीसी और अल्पसंख्यक समुदाय के कितने लोगों को प्रोफेसर और कुलपति बनाया गया है? आज भी वंचित तबके की हिस्सेदारी को हड़प लिया जा रहा है। मोदी को चुनाव के दौरान यह याद आता है कि वह पिछड़े समाज से आते हैं, मगर जब उनको नीति बनानी होती है, तब वह संघ के कार्यकर्ता बन जाते हैं।

खैर, इस बार फैजाबाद (अयोध्या) में भाजपा ने पूरी तैयारी कर ली थी। एक तरफ़ लल्लू सिंह जैसे पुराने भाजपाई नेता को टिकट दिया गया और वही प्रोपेगेंडा का ढोल बजाया गया कि कांग्रेस और सपा मुसलमानों की पार्टियां हैं। मगर जब परिणाम सामने आया, तो नफरत पर आधारित मंदिर की राजनीति की करारी शिकस्त हुई।

अखिलेश ने किया सामाजिक न्याय में विश्वास

इस चुनाव में जीत का श्रेय समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव को भी दिया जाना चाहिए। उन्होंने बहुत ही बड़ा क़दम उठाया और एक दलित समाज से आने वाले लीडर को सामान्य सीट से अपना उम्मीदवार बनाया। अयोध्या में सवर्णों के दबदबे के बारे में कौन नहीं जानता। उनके पास सारे संसाधन मौजूद हैं। ऊपर से धर्म की राजनीति भी उन्हीं को फ़ायदा पहुंचाती है। मगर इन तमाम बातों को अखिलेश यादव ने नज़रअंदाज किया और सामाजिक न्याय के सिद्धांत में अपना विश्वास कायम रखा। उन्होंने अपने दल के संस्थापक नेताओं में से एक और अयोध्या से नौ बार के विधायक रहे अवधेश प्रसाद को मैदान में उतारा।

बाराबंकी के पासी परिवार में जन्मे हैं अवधेश प्रसाद

अवधेश प्रसाद के चुनावी सफ़र की शुरुआत बड़े किसान नेता और देश के पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह की ‘भारतीय क्रांति दल’ के साथ हुई थी। चौधरी चरण सिंह उनके राजनीतिक गुरु थे। लेकिन 1992 में जब मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी का गठन किया था, तो वे सपा के साथ खड़े थे।

अवधेश प्रसाद का जन्म उत्तर प्रदेश के बाराबंकी जनपद के रामनगर प्रखंड के सुरवारी गांव में 31 जुलाई, 1945 काे हुआ था। उनके पिता का नाम दुखी राम था। वह दलित समाज के पासी जाति से संबंध रखते हैं। उन्होंने एमए और एलएलबी किया है। वे वकालत, अध्यापन और पत्रकारिता में भी रुचि रखते हैं। उनका शुमार इस इलाक़े के शिक्षित और लोकप्रिय नेता के तौर पर होता है। हालांकि उन्होंने कानून की पढ़ाई की है, लेकिन उन्होंने राजनीति को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। लेकिन वह एक बात जो भाजपा और उसके समर्थकों की आंखों में सबसे ज़्यादा चुभ रही है, वह यह कि कैसे एक पासी जाति से आने वाले नेता ने राम की ‘पुण्य धरती’ पर जीत हासिल की। भगवा कैंप के समर्थक इस बात से आहत हैं कि इसी अयोध्या में चार महीने पहले राम मंदिर का उद्घाटन किया गया था। ख़ुद प्रधामंत्री मोदी वहां पूजा पर बैठे थे। लेकिन अयोध्या की जनता ने उनके चेहरे पर लगे नक़ाब को उतार दिया।

दरअसल, फैजाबाद लोकसभा चुनाव का परिणाम इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि भारत के चुनावी इतिहास में ऐसा अवसर बार-बार नहीं आता है, जहां एक दलित या आदिवासी को सामान्य सीट से मैदान में उतारा गया हो और उसने जीत हासिल की हो।

अयोध्या में भाजपा की हार वास्तव में सामाजिक न्याय और भारत के हज़ारों सालों पुरानी गंगा-जमुनी सभ्यता की जीत है। 

अवधेश प्रसाद की जीत से भड़के भगवावादी

दूसरी ओर जैसे ही अयोध्या से सपा के दलित उम्मीदवार की जीत की खबर आई, भगवा समर्थक गुस्से से लाल हो गए। उन्होंने अयोध्या के मतदाताओं, विशेषकर दलितों को राम का “गद्दार” कहकर अपमानित किया। सोशल मीडिया पर कई पोस्ट सामने आ रहें हैं, जिसमें अयोध्या दर्शन पर गए राम भक्तों से अपील की गई कि वे स्थानीय दुकानों से कुछ भी न खरीदें और राम, राष्ट्र और धर्म को धोखा देने के लिए उन्हें दंडित करें। हिंदुत्व की कट्टर लॉबी ने अयोध्या के स्थानीय हिंदू समुदाय के “आर्थिक बहिष्कार” की भी अपील की है। यही सांप्रदायिक तत्व मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार की मांग करते-करते आज हिंदुओं को भी लपेट लिया। यह सब दर्शाता है कि राम के नाम पर राजनीति करने वाले लोग शुद्ध रूप से “राजनेता” हैं। उनको राम के नाम पर ख़ुद के निजी स्वार्थों के पूरा करना है। देश के नाम पर वह देश का कम और अपने और अपने परिवार और जातियों के बारे में ज़्यादा सोचते हैं। ऐसे स्वार्थी लोग न तो एससी, एसटी, ओबीसी के हितैषी हो सकते हैं और न ही मुसलमानों के। उन्हें हिंदू समाज के विकास की भी परवाह नहीं है। इन सांप्रदायिक तत्वों का उपद्रव इस हद तक बढ़ गया है कि अयोध्या के नवनिर्वाचित दलित सांसद अवधेश प्रसाद को गालियां और धमकियां मिल रही हैं। समाजवादी पार्टी ने उत्तर प्रदेश गृह विभाग को पत्र लिखकर मांग की है कि प्रसाद को जेड-प्लस सुरक्षा मुहैया कराई जाए।

अगर भाजपा समर्थकों में ज़रा भी ईमानदारी होती तो वो अयोध्या के मतदाताओं को गाली देने के बजाय इस पर विचार करते कि आख़िर आम जानता को मोदी और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में क्या हासिल हुआ है। उनको अपने ग़ुस्से का इज़हार उन लोगों के ऊपर करना चाहिए, जो लोग सत्ता में बैठे हैं और उनके राज्य में “पेपर लीक” हो जा रहा है। उनको सत्तारूढ़ भाजपा से यह सवाल पूछना चाहिए कि शिक्षा, रोज़गार और चिकित्सा के लिए क्या क़दम उठाए गए हैं? यह सवाल भी तो भाजपा वालों से पूछा जाना चाहिए कि जब कमल के फूल का भारतीय राजनीति में अस्तित्व नहीं था, तब क्या हिंदू वाक़ई असुरक्षित थे?

यह है अयोध्या की वास्तिवकता

निष्कर्ष यह है कि अयोध्या के लोगों ने देश को एक बड़ा संदेश दिया है कि मंदिर और मस्जिद विवाद पर आधारित राजनीति को छोड़ देना चाहिए। उन्होंने धर्म की पहचान से ऊपर उठकर सामाजिक न्याय के मुद्दों के आधार पर वोट डाला है। अयोध्या की जनता ने दिखलाया है कि वे हिंदू और मुसलमान से पहले बहुजन हैं। उन्होंने यह पैग़ाम दिया है कि मुल्क को बगुला भक्तों से सावधान रहने की ज़रूरत है। अयोध्या के महान मतदाताओं ने रोज़ी-रोटी के सवाल को महत्वपूर्ण माना है। उन्होंने सत्ताधारी दलों के काम-काज के आधार पर फ़ैसला दिया है। पूरे उत्तर प्रदेश की कौन कहें, सिर्फ़ अयोध्या का ही मामला ले लीजिए। राम मंदिर निर्माण के नाम पर अयोध्या के स्थानीय लोगों की जमीनें हड़प ली गईं। सड़क को चौड़ा करने के नाम पर और “सौंदर्यीकरण” के बहाने गरीबों के घर तोड़ दिए गए और अयोध्या की पुरानी बस्तियों को मलबे के ढेर में बदल दिया गया। हज़ारों लोग बेघर हो गए और उनकी रोज़ी-रोटी छीन ली गई। लेकिन जब वहां दुकानें बांटी गईं तो कमजोर वर्गों की सबसे ज़्यादा उपेक्षा की गई। गरीबों से जो वादे किए गये थे, वह सब कुछ भुला दिया गया। घर टूटा दलित, पिछड़ा और गरीब मुसलमानों का, लेकिन जब मलाई काटने की बारी आई तो ऊंची जाति और पैसे वाले लोग सबका हक़ मार गए।

बात बहुत आसान है कि धर्म के नाम पर अयोध्या में बड़ी लूट-पाट हुई। राम को आगे रखकर माल बनाया गया और वंचितों और आम आदमी के हितों पर बुलडोज़र चला दिया गया। वोट देते वक्त मक़ामी (स्थानीय) लोगों को यह बात बखूबी याद रही कि राम का भव्य मंदिर बनने से उनके तमाम मुद्दे ख़त्म नहीं होंगे। जैसे अयोध्या के युवाओं को स्कूल, कॉलेज और रोज़गार भी तो चाहिए। उन्हें यह बात मालूम थी कि राम को लाने वाले शिक्षा, रोज़गार, चिकित्सा, आरक्षण का नाम सुनते ही भाग जाते हैं। अयोध्या के लोगों ने वोट देते वक्त यह भी याद रखा कि उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार लगातार आमलोगों की समस्याओं को नजरअंदाज कर रही है। यही वजह रही कि फैजाबाद (अयोध्या) की जनता ने अपने वोट की ताक़त से सांप्रदायिक शक्तिओं पर गहरी चोट की है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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