2024 के लोकसभा चुनाव के परिणाम इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि कमंडल या हिंदुत्व के ध्वजवाहक घोड़े पर न केवल लगाम कस दी गई है, बल्कि वह लंगड़ा भी हो गया है। अब वह बैसाखी के बिना चल भी नहीं सकता। भाजपा को अपने दम पर सरकार बनाने के लिए जरूरी न्यूनतम सीटें (272) भी नहीं मिली हैं और उसे और उसके गठबंधन के सारे सहयोगियों (एनडीए) को भी कुल मिलाकर सिर्फ 293 सीटें मिलीं। पूरा एनडीए मिलकर भी 300 का आंकड़ा नहीं पार कर पाया है।
सवाल यह है कि कमंडल के ध्वजवाहक घोड़े पर किसने लगाम कसी और किसने उसे लगड़ा बनाया? इसका जवाब स्पष्ट है कि इस घोड़े पर लगाम लगाने और उसे लंगड़ा बनाने का काम मंडल ने किया है। उस मंडल ने जिसकी विचारधारा, एजेंडे और राजनीति को बहुत सारे उदार, वामपंथी चिंतक-विश्लेषक अप्रासंगिक घोषित कर चुके थे। कुछ तो कमंडल के उभार और उसके ताकवर होने के लिए मंडल को ही जिम्मेदार ठहरा रहे थे। लेकिन आखिरकार उसी मंडल ने मोदी के विजय अभियान को रोका और उन्हें नीतीश या चंद्रबाबू नायडू जैसे लोगों की बैसाखी के सहारे खड़े होने (सरकार बनाने) और चलने के लिए बाध्य कर दिया है।
अगला सवाल यह उठता है कि आखिर किन तथ्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मंडल ने कमंडल पर नकेल कसी? इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव और चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी के खिलाफ राहुल गांधी ने सबसे पहले एक ऐसा सकारात्मक नॅरेटिव गढ़ा, जो धीरे-धीरे ही सही पूरे देश का एक नॅरेटिव बन गया। सच तो यह है कि 2014 और 2019 के बाद पहली बार विपक्ष मोदी के खिलाफ कोई कारगर नॅरेटिव खड़ा करने में सफल हुआ। यह नॅरेटिव था– जातिगत जनगणना और उसके साथ ही सामाजिक-आर्थिक सर्वेक्षण का। अपने इसी नॅरेटिव की व्याख्या करते हुए राहुल गांधी ने सार्वजनिक संस्थानों और संस्थाओं में बहुजनों की हिस्सेदारी का सवाल उठाया, जिसके उदाहरण के रूप में केंद्र सरकार के सचिवों में कितने एससी-एसटी और ओबीसी हैं, यह तथ्य रखा। उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालयों में इन वंचित समुदायों की हिस्सेदारी की बात की। मीडिया में इनकी अनुपस्थिति को रेखांकित किया, यहां तक की निजी क्षेत्र में आरक्षण की जरूरत पर जोर देने लगे। राहुल गांधी की इन सब बातों में कोई भी ऐसी बात नहीं थी, जो मंडल आयोग की रिपोर्ट या राजनीति के एजेंडे में पहले से ही न रही हो। बहुत लंबे समय से दलित-बहुजन आंदोलन और दलित-बहुजन राजनीति यानी मंडल राजनीति इन सवालों को उठाती रही है और इसके लिए सड़क से लेकर संसद तक संघर्ष करती रही है।
राहुल गांधी ने मंडल आंदोलन और राजनीति के इन सवालों को कांग्रेस और अपने सवालों की तरह प्रस्तुत किया और उसे देशव्यापी मुद्दा बना दिया। इसके साथ उन्होंने यह कहा कि भारत के संविधान और लोकतंत्र के चलते ही एससी-एसटी और ओबीसी को प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी मिली हुई है। उन्होंने यह तथ्य भी रेखांकित किया कि संविधान और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का इस्तेमाल करके ही इस प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी को बढ़ाया जा सकता है।
संविधान व लोकतंत्र और इस पर आधारित प्रतिनिधित्व और हिस्सेदारी को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा से खतरा है, इसको उन्होंने जोर-शोर से पूरे देश में प्रचारित और प्रसारित किया। यह कारगर भी साबित हुआ। इसके साथ उन्होंने कहा कि संविधान को बचाए बिना एससी-एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा नहीं की जा सकती है। अपने इसी नॅरेटिव को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि संविधान और लोकतंत्र बचाने के लिए भाजपा को हराना जरूरी है। उनका यह नॅरेटिव हिट हो गया। वे अपनी हर जनसभा में संविधान को हाथ में लेकर उसे बचाने की बात करने लगे। बाद में वे संविधान के प्रतीक व्यक्तित्व बन चुके डॉ. आंबेडकर की तस्वीरों को भी अपने हाथों में लहराने लगे। यह इतना हिट हो गया कि नरेंद्र मोदी को अपना पूरा चुनाव अभियान इसी नॅरेटिव को खारिज करने या इसे डायवर्ट करने पर केंद्रित करना पड़ा। नरेंद्र मोदी इससे इतने बदहवास हो गए कि उन्होंने मंगल सूत्र, दो भैंसों में से एक छीनने और अधिक बच्चा पैदा करने वाले लोगों को संपत्ति देने जैसी ऊलजलूल बातें करने लगे। सबको यह समझ में आ रहा था कि इन बातों का उद्देश्य एससी-एसटी और ओबीसी की हिस्सेदारी के सवाल को भी हिंदू-मुस्लिम के सवाल में तब्दील कर देना है।
क्या संविधान बचाने का एजेंडा या नॅरेटिव राहुल गांधी का खड़ा किया हुआ था? इसका जवाब है– नहीं। संविधान और लोकतंत्र को आरएसएस-भाजपा से खतरा है। यह अभियान पिछले 10 वर्षों से दलित-बहुजन चला रहे थे। इसके लिए कई सारे संगठन और व्यक्ति बड़े पैमाने पर आंदोलन चला रहे थे। इन संगठनों और व्यक्तियों ने बहुजनों के एक बड़े हिस्से तक इस बात को पहुंचा दिया था। लोग नरेंद्र मोदी सरकार की संविधान विरोधी कारगुजारियों को देखकर भी यह अनुभव कर रहे थे। साफ है कि संविधान बचाने का नॅरेटिव भी दलित-बहुजन (मंडल) आंदोलन की देन थी। हां राहुल गांधी ने राजनीति में अपने कद और कांग्रेस के अखिल भारतीय संगठन का इस्तेमाल करके संविधान बचाने के इस एजेंडे को एक बड़ा चुनावी एजेंडा बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाई।
स्पष्ट है कि राहुल गांधी ने जिन एजेंडों या नॅरेटिव के आधार पर व्यापक जनसमर्थन या लोकप्रियता हासिल की उसका मुख्य आधार मंडल आंदोलन और मंडल राजनीति थी। यह जरूर है कि उन्होंने इसके साथ अन्य मुद्दों और एजेंडों को भी जोड़ा। मंडल को मुख्य आधार बनाकर राजनीति कर रही राजनीतिक पार्टियों का व्यापक गठबंधन कायम हुआ। इंडिया गठबंधन के सबसे महत्वपूर्ण घटक दल समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, द्रमुक मुनेत्र कड़गम, और झारखंड मुक्ति मोर्चा आदि पहले से ही मंडल की राजनीति कर रहे थे। हां राहुल गांधी और इंडिया गठबंधन ने उन्हें यह आश्वस्त जरूर किया कि अब हमारा एजेंडा भी यही है। इससे सपा, राजद, डीएमके और जेएमएम को और ताकत जरूर मिली। वामपंथी पार्टियों का भी एक हिस्सा मंडल के एजेंडों को पहले ही अपना चुका था, जैसे सीपीआई (एमएल-लिबरेशन) आदि। अन्य वामपंथी पार्टियों ने भी इसे अपने एजेंडे में जोड़ा और मुखरता से इसके साथ खड़ी हुईं।
मंडल ने ही कमंडल की नकेल कसी, इसका सबसे बड़ा उदाहरण उत्तर प्रदेश और सपा की राजनीतिक सफलता है। अखिलेश यादव का पूरा पीडीए फार्मूला (पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक) मंडल राजनीति का मूर्त रूप में साकार होना था। उन्होंने टिकट वितरण में बड़े पैमाने पर पिछड़ों की विभिन्न जातियों, अति पिछड़ों और दलितों को जगह दी। सपा यादवों और मुस्लिमों की पार्टी है, इस बात को अपने टिकट वितरण के तरीके से पूरी तरह खारिज कर दिया। उन्होंने संविधान खतरे में है, आरक्षण खतरे में है, लोकतंत्र खतरे में, यहां तक चुनाव और चुनावी प्रक्रिया भी खतरे में है – इसे बार-बार अपनी जनसभाओं में रेखांकित किया। संविधान, लोकतंत्र, आरक्षण और एससी-एसटी, ओबीसी और अल्पसंख्यकों के हक-हकूक को बचाने के लिए भाजपा को हराने का आह्वान किया। उन्होंने सवर्णों से भी अपील की वे भी भारत की उपलब्धि, संविधान और लोकतंत्र का बचाने के लिए आगे आएं। सच्चे अर्थों में अखिलेश यादव ने सपा को पूरी तरह मंडल की राजनीति की जमीन पर खड़ा कर दिया। गैर-यादव पिछड़ों को यादवों से अलग करने, अतिपिछड़ों को पिछड़ों से अलग-अलग करने और गैर-जाटव दलितों को जाटव दलितों से अलग करने की भाजपा की कार्यनीति का काट ढूंढ़ा और मंडल की राजनीति को सच्चे अर्थे में लागू करके भाजपा को कमंडल के जन्म स्थल अथवा कमंडल के गढ़ में शिकस्त दे दी।
अखिलेश यादव के नेतृत्व में सपा ने कमंडल के गढ़ में अपनी मंडल की राजनीति से कमंडल की रीढ़ पर ही गहरी चोट की। सबको भौंचक्क और आश्चर्यचकित करते हुए उत्तर प्रदेश में भाजपा को 33 सीटों पर समेट दिया। 2019 की तुलना में भाजपा को आधी कर दिया। किसी ने कल्पना भी नहीं की थी कि उत्तर प्रदेश में भाजपा 33 सीटों पर सिमट जाएगी। वह भी योगी-मोदी-अमित शाह की तिकड़ी के सारे षड्यंत्रों और कारगुजारियों के बाद। अखिलेश यादव ने कमंडल की काट के लिए उत्तर प्रदेश में मंडल के जिस फार्मूले को अपनाया उसने भाजपा को उत्तर प्रदेश में चारो खाने चित्त कर दिया। उन्होंने भाजपा को ऐसी पटकनी दी की वह उठ नहीं पा रही है। मंडल फार्मूला अपनाकर सपा ने खुद 37 सीटें हासिल की ही, अपने सहयोगी कांग्रेस के झोले में भी 6 सीटें डाल दी। जहां एक ओर राहुल गांधी ने अपने नॅरेटिव से सपा को मदद पहुंचाई, वहीं सपा ने मंडल के सामाजिक गणित से कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में खड़ा होने में पूरी मदद की। केंद्र में भाजपा को बहुमत से सिर्फ 32 सीटें कम हैं। अगर कहीं एक जगह उसकी इतनी सीटें कम हुईं, तो वह उत्तर प्रदेश है। पूरे देश के चुनावी परिणामों की गणित को देखें तो कहीं भाजपा खोई, तो कहीं कुछ हद तक इसकी भरपाई कर ली। लेकिन वह उत्तर प्रदेश की करीब 30 सीटों की भरपाई नहीं कर पाई।
मंडल फार्मूले को बिहार में राजद, कांग्रेस, सीपीआई (एमएल) और इंडिया गठबंधन के अन्य सहयोगियों ने मजबूती से अपनाया। बिहार में इसका नेतृत्व तेजस्वी यादव ने किया। भले ही चुनावी गणित में उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली, लेकिन एनडीए गठबंधन से करीब 9 सीटें छीन लेने में यह गठबंधन सफल हुआ। यहां मंडल की राजनीति करने वाली मुख्य पार्टी (राजद) को उत्तर प्रदेश की तुलना में सापेक्षिक तौर पर चुनावी परिणाम में कमजोर प्रदर्शन का परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस के लिए भी चुनावी परिणाम बेहतर नहीं रहा। वह भी सिर्फ एक सीट जीत पाई। यह तथ्य इस बात का प्रमाण है कि मंडल राजनीति की सफलता या असफलता का बड़ा हाथ कांग्रेस की सफलता और असफलता में रहा है। यहां इंडिया गठबंधन की आंशिक असफलता और एनडीए गठबंधन की उत्तर प्रदेश की सापेक्षिक तौर पर बेहतर सफलता का एक बड़ा कारण कमोबेश मंडल के आधार पर राजनीति करने वाली एक मजबूत पार्टी जदयू (नीतीश के नेतृत्व में) का भाजपा के साथ होना था। इसके बावजूद भी तेजस्वी के नेतृत्व में महागठबंधन भाजपा के वोटों को 8 प्रतिशत कम करने में सफल रहा। करीब इतना प्रतिशत वोट ही उत्तर प्रदेश में भी भाजपा का 2019 की तुलना में कम हुआ। लेकिन बिहार में भाजपा के साथ एक मंडलवादी आधार वाली पार्टी जदयू थी।
राजस्थान में कांग्रेस और सहयोगियों का तुलनात्मक तौर पर बेहतर प्रदर्शन का सबसे बड़ा कारण दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का उनके साथ खड़ा होना रहा है। यहां भी मंडल ही मुख्य रूप से काम किया। फिर भी 25 सीटों में से 14 सीटें भाजपा ने जीत लिया। कांग्रेस को 8 और उसके सहयोगियों को 2 सीटें तथा एक सीट भारत आदिवासी पार्टी को मिली। कांग्रेस और सहयोगियों को उन्हीं क्षेत्रों में सर्वाधिक सफलता मिली है, जहां दलित-आदिवासी और पिछड़े अधिक संख्या में हैं तथा पिछले 10 वर्षों से दलित और आदिवासी आंदोलन काफी जोर पकड़ रहा है। पिछले 7-8 सालों में भीम आर्मी की राजस्थान में व्यापक लोकप्रियता इसका एक सबूत है। वहीं 6-7 महीने पहले ही बनी भारत आदिवासी पार्टी द्वारा एक सीट जीतने की सफलता की वजह भी दक्षिणी राजस्थान में आदिवासी संगठनों द्वारा पृथक भील प्रदेश (मध्य प्रदेश, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र के भील जनजाति बहुल इलाकों को मिलाकर) की मांग और आदिवासी आंदोलनों का जोर पकड़ना है।
सीमित सफलता के बाद भी यही स्थिति झारखंड में भी रही है। यहां 14 सीटों में 5 सीटें इंडिया गठबंधन को और 8 सीटें भाजपा को मिलीं। आदिवासी बहुल इलाकों में ही इंडिया गठबंधन को सफलता मिली है। हरियाणा जाट, ओबीसी और दलित बहुल राज्य है। जहां कांग्रेस 5 सीटों पर सफलता पाने में कामयाब रही। 5 सीटें भाजपा को मिलीं। बहुजन-श्रमण परंपरा के नायक संत नानक के पंजाब ने तो भाजपा को इस बार खाता भी नहीं खोलने दिया। वहां 13 में 7 सीटें कांग्रेस को मिली हैं और 3 सीटें आम आदमी पार्टी को। दिल्ली में भाजपा के साथ आम आदमी पार्टी भी थोड़े नरम रूपों में सही कमोबेश कमंडल की तरह की राजनीति ही करती रही है। वहां मंडल राजनीति की कोई चुनौती नहीं थी। यहां कांग्रेस को भी कोई सीट नहीं मिली।
मध्य प्रदेश में कांग्रेस पूरी तरह साफ हो गई। सभी 29 सीटें भाजपा ने जीत ली, क्योंकि वहां मंडल राजनीति की कोई दमदार उपस्थिति कभी नहीं रही है और न है। कमलनाथ जैसे नेता मुख्यत: सवर्ण हिंदुत्व की राजनीति करते रहे हैं। यही हाल छत्तीसगढ़ का भी है, जहां कांग्रेस को सिर्फ एक सीट मिली है। 11 सीटों में से 10 सीटें भाजपा ने जीत ली। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस द्वारा अघोषित मुस्लिम विरोध को छोड़ दिया जाए तो भाजपा की तरह की राजनीति ही सत्ता और विपक्ष में रहते हुए करती रही है। कमलनाथ और भूपेश बघेल, दोनों ने मुख्यमंत्री रहते हुए करीब-करीब कमंडल की तरह की ही राजनीति की थी। गाय, गोबर, रामवन गमन पथ भूपेश बघेल की योजनाएं थीं। कमलनाथ तो इससे भी आगे बढ़कर राम के साथ खुले तौर पर सवर्ण राजनीति भी करते थे। सवर्ण बहुल वोटरों वाले राज्यों उत्तराखंड और हिमचाल प्रदेश में कांग्रेस एक सीट भी नहीं हासिल कर पाई। उत्तराखंड की पांचों सीटों और हिमाचल की चारों सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की। वहां कमंडल की राजनीति के बरक्स कमोबेश कमंडल की तरह की राजनीति ही प्रदेश के सवर्ण वोटरों को खुश करने के लिए कांग्रेस करती रही है, क्योंकि दोनों राज्यों में सवर्ण वोटर बहुमत में हैं। गुजरात की 26 सीटों में एक सीट को छोड़कर 25 सीटों पर भाजपा को जीत मिली है। गुजरात में भी बहुजन-दलित राजनीति का कोई मजबूत आधार नहीं रहा है। वहां गरम (भाजपा) और नरम (कांग्रेस) हिंदुत्व की राजनीति ही होती रही है।
बिना पूर्वाग्रह के यदि तथ्यों की रोशनी में देखा जाए तो 2024 के चुनाव में इंडिया गठबंधन अपने नॅरेटिव और एजेंडे में यदि नरेंद्र मोदी को चुनौती देने में सफल हुआ और भाजपा को 2019 की तुलना में 63 सीटें गंवानी पड़ी तो इसका मुख्य कारण कमंडल की राजनीति के सामने मंडल की राजनीति की दमदार चुनौती थी। कमंडल की राजनीति मंडल की राजनीति को खत्म करने के लिए ही पैदा हुई थी। मंडल की राजनीति को आरएसएस के मुखपत्र आर्गेनाइजर ने शूद्र क्रांति की संज्ञा दी थी। इस क्रांति को रोकने का आह्वान किया था। उसे रोकने के लिए कमंडल की राजनीति सामने आई थी। दो दशकों तक मंडल और कमंडल की राजनीति के बीच संघर्ष चलता रहा। उस दौर में मंडल की बहुजन राजनीति के अगुवा कांशीराम, मुलायम सिंह और लालू यादव आदि थे। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कमंडल की राजनीति ने मंडल की राजनीति पर निर्णायक हमला बोला। इसके लिए कमंडल की राजनीति ने मंडल की राजनीति का झीना-सा मुखौटा भी ओढ़ा (नरेंद्र मोदी, रामनाथ कोविंद, द्रौपदी मुर्मु आदि के रूप में)। 2014 और 2019 में कोई परिस्थिति कमंडल की राजनीति को चुनौती देने की नहीं बनी। तरह-तरह के नॅरेटिव विपक्ष ने खड़ा किया, लेकिन सब फेल हो गए। ऐसा कहा जाने लगा कि कमंडल की राजनीति ने मंडल की राजनीति को हमेशा-हमेशा के लिए कब्र में दफन कर दिया है। कई सारे लेफ्ट-लिबरल लोग भी मंडल की राजनीति के दफन होने पर जश्न मनाते दिखे। लेकिन आखिरकार मंडल की राजनीति ने ही कमंडल की राजनीति के घोड़े की नकेल कसी और उसे लंगड़ा कर दिया।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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