इस बार का लोकसभा चुनाव मेरे लिए कई मायनों में खास रहा। एक वजह यह कि मैं उत्तर प्रदेश के बांसगांव सुरक्षित लोकसभा क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार था। हालांकि मुझे केवल 4142 मत प्राप्त हुए और इस क्षेत्र से विजयी भाजपा के कमलेश पासवान व दूसरे स्थान कांग्रेस के सदल प्रसाद के बीच हार-जीत का अंतर केवल 3150 मतों का रहा। अंतिम सूची जो निर्वाचन आयोग की तरफ से जारी की गई, उसमें मैं पांचवें स्थान पर था। यहां मुझे इतने वोट भी नहीं मिले जितने कि नोटा (9021) को मिले।
जाहिर तौर पर मैं इतने कम वोटों की अपेक्षा नहीं कर रहा था। अनुमान था कि मुझे बड़ी संख्या में वोट मिलेंगे और यदि जीत नहीं भी पाया तो विरोधियों को अच्छी टक्कर जरूर दे सकूंगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जाहिर तौर पर मुझे प्राथमिक तौर पर निराशा भी हुई।
लेकिन अच्छी बात यह रही कि जो मुझे 4142 मत प्राप्त हुए, उनमें कम-से-कम तीन हजार वोटरों के बारे में मैं यह बात कह सकता हूं कि चाहे आंधी आए या तूफान वे मेरे साथ रहेंगे। ये बांसगांव लोकसभा क्षेत्र के वे लोग हैं जो मेरे द्वारा चलाए जा रहे जमीन आंदोलन के कारण मुझसे जुड़े हैं।
यदि मैं इसे दूसरे हिसाब से कहूं तो भूमिहीनों को जमीन देने के लिए चलाए जा रहे आंदोलन का असर पूरे पूर्वांचल में है। इसे बेशक मैं संख्या के तौर पर अभिव्यक्त नहीं कर सकता। लेकिन यह संख्या इतनी जरूर है कि अब हमलोगों के द्वारा उठाई जा रही मांग जन-राजनीति का एक अहम एजेंडा बन गया है।
लेकिन यदि मैं इस बार के चुनाव पर ही फोकस करूं तो मैं यह बताना चाहता हूं कि इस चुनाव में कई सारी बातें हुईं। एक तो यही कि इस बार के चुनाव में मुख्य मुद्दा संविधान बदलने और संविधान बचाने का था। भाजपा चार सौ से अधिक सीटें जीतने के बाद संविधान को बदलने की बात कह रही थी और दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन के द्वारा संविधान व लोकतंत्र को बचाने का नॅरेटिव प्रस्तुत किया गया।
यह एक मजबूत नॅरेटिव था। चुनाव के दौरान जब कई जगहाें पर गया तो लोगों ने बेहिचक कहा कि श्रवण कुमार निराला जी, आप निस्संदेह अच्छे उम्मीदवार हैं, लेकिन इस बार का चुनाव लोकतंत्र को बचाने का है।
दूसरी बात यह हुई कि इस बार लोकसभा चुनाव के ठीक पहले बहन मायावती जी ने मुझे लखनऊ बुलाकर न केवल यह कहा कि मैं चुनाव लड़ने की तैयारी करूं, बल्कि उन्होंने गोरखपुर मंडल प्रभारी के रूप में संगठन की जिम्मेदारी भी दी।
चुनाव के ठीक पहले उनके द्वारा दी गई जिम्मेदारी का निर्वहन करना बेहद चुनौतीपूर्ण काम था। बसपा के समर्थक पहले से ही मायूस नजर आ रहे थे। वे यह मान रहे थे कि बसपा इस चुनाव में कहीं नहीं है। ऐसे में मैंने बसपा के कार्यकर्ताओं में उत्साह बढ़ाया और धीरे-धीरे माहौल बनाना प्रारंभ किया कि बांसगांव लोकसभा क्षेत्र से बसपा चुनाव जीत सकती है। यह सब मैंने 51 दिनों में किया।
लेकिन फिर वही हुआ जो बसपा की रीति-नीति रही है। एक बार फिर मुझे बेटिकट कर दिया गया और टिकट उन्हें दे दिया गया जो पैसे वाले थे और इस मामले में पार्टी के हितों की पूर्ति करने में योग्य थे। लेकिन बसपा के कार्यकर्ताओं के बीच उनकी पहुंच नहीं थी।
हालांकि यहां से बसपा उम्मीदवार रहे रामसमझ जी को 64 हजार 750 मत प्राप्त हुए। इसमें मेरा अपना योगदान भी रहा। लेकिन अब मेरा दावा करने या नहीं करने का कोई मतलब नहीं है। जब बसपा प्रमुख ने मेरा टिकट काट दिया तब अपने समर्थकों का हौसला बुलंद रखने के लिए मुझे चुनाव लड़ना ही था।
मेरे लिए तीसरी सबसे बड़ी चुनौती दस दिनों के अंदर लोगों के बीच अपना चुनाव चिह्न ‘सिलिंडर’ छाप पहुंचाना रहा। एकदम ही अत्यंत कम संसाधनों के कारण यह मुमकिन भी नहीं था। यह इस कारण कि बांसगांव लोकसभा क्षेत्र में कुल मतदाताओं की संख्या करीब 21 लाख है और इसमें गोरखपुर जिले के तीन विधानसभा क्षेत्र चौरी चौरा, बांसगांव व चिल्लूपार और देवरिया जिले के दो विधानसभा क्षेत्र रूद्रपुर व बरहज शामिल हैं।
मैं अपने लोगों के भरोसे था, जो जमीन आंदोलन में मेरे साथ जुड़े रहे। आदमी बात चाहे कितनी बड़ी भी कर ले, लेकिन सच तो यही होता है कि अपना चुनाव चिह्न आप इतने बड़े लोकसभा क्षेत्र में लोगों तक नहीं पहुंचा सकते हैं। इसके अलावा एक तकनीकी समस्या भी हुई। वह यह कि बांसगांव से ही एक और उम्मीदवार को ‘गुब्बारा’ छाप चुनाव चिह्न आवंटित किया गया था और जो देखने में मेरे चुनाव चिह्न के समान ही था। तो कई लोगों ने मुझे फोन करके इसकी जानकारी दी कि उन्होंने गलती से ‘गुब्बारा’ छाप वाला बटन दबा दिया। इस तरह की तकनीकी समस्या ओमप्रकाश राजभर के बेटे साथ भी देखने को मिली, जिन्हें घोसी लोकसभा क्षेत्र में हार का सामना करना पड़ा। उन्हें ‘छड़ी’ चिह्न आवंटित था और एक निर्दलीय उम्मीदवार को ‘हॉकी’ आवंटित किया गया था।
खैर, मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं है कि बांसगांव लोकसभा क्षेत्र में मेरी हार हुई। लेकिन इस हार में ही मैं उस जीत की बुनियाद देख रहा हूं, जिसका केंद्र देश भर के दलित-ओबसी-आदिवासी समुदायों के भूमिहीनों को एक-एक एकड़ जमीन दिलवाना है। यह आंदोलन तेजी से पूर्वांचल में बढ़ा है। यह एक बड़ा लक्ष्य है, जो मेरे लिए महत्वपूर्ण है। आनेवाले दिनों में मैं और मेरे सभी सहयोगी इस आंदोलन को और तेज गति से बढ़ाएंगे।
(नवल किशोर कुमार से दूरभाष पर बातचीत के आधार पर)
(संपादन : राजन/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in