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चुनाव के तुरंत बाद अरुंधति रॉय पर शिकंजा कसने की कवायद का मतलब 

आज़ादी के आंदोलन के दौर में भी और आजाद भारत में भी धर्मनिरपेक्षता और वास्तविक लोकतंत्र व सामाजिक न्याय के सवाल को ज्यादातर निर्णायक समयों पर बहुसंख्यकवादी दबाव के मातहत ही रहना पड़ा है। बता रहे हैं मनीष शर्मा

प्रख्यात लेखिका अरुंधति रॉय और प्रोफेसर शौकत हुसैन वर्ष 2010 में कश्मीर पर दिए अपने भाषणों के लिए मोदी सरकार के निशाने पर हैं। सवाल है कि 14 साल पहले के एक मामले में अब अनलॉफुल एक्टिविटिज (प्रिवेंसन) एक्ट (यूएपीए) के तहत कार्रवाई करने के पीछे सरकार की क्या मंशा हो सकती है? लोगों के मन में यह सवाल भी है कि 2024 लोकसभा चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा गंवा चुके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आखिर इस तरह का कदम क्यों उठा रहे हैं? 

आम तौर पर अरुंधति राय बहुत सारे जनपक्षीय प्रश्नों व पीड़ित समूहों पर विचार करती व अभिव्यक्त करती रही हैं, जिनके बारे में भारत का शासक वर्ग चुप रहना पसंद करता रहा है। देखा जाय तो मुख्यधारा से इतर, जनपक्षीय विचारों को भारत विरोधी विचार के बतौर देखे जाने की राजनीति, राज्य की बुनियाद में शुरुआती दिनों से मौजूद रही है।

लेकिन 2014 के बाद से सत्ता-व्यवस्था का यह चरित्र और ज्यादा ताकतवर होकर देश के सामने हाज़िर हुआ है। वर्चस्ववादी मिजाज, सबसे पहले वैचारिक अभियान चलाकर पीड़ित समूहों के मुख्य विचार को हाशिए पर धकेलता है, फिर उनके जरूरी बुनियादी मांग व सोच को राष्ट्र विरोधी करार देकर उन समूहों को अप्रासंगिक बना देता है।

जैसे कश्मीरी तथाकथित महान भारतीय लोकतंत्र के बारे में क्या सोचते हैं? इस देश के आदिवासी राष्ट्र के तथाकथित विकास की क्या कीमत चुका रहे हैं या अल्पसंख्यक खासकर मुस्लिम, आज के दौर में कहां से कहां पहुचा दिए गए हैं?

राज्य के बतौर भारत को असहज कर देने वाले ऐसे प्रश्नों को उठाने वाली अरुंधति रॉय व ऐसे ही अन्य आवाजों को मुख्यधारा द्वारा अतिवादी क़रार दे दिया जाता है और इसके ज़रिए पहले से ही हाशिए पर धकेल दिए गए समूहों के अस्तित्व को ही नकार दिया जाता है।

अरूंधति रॉय

मुख्यधारा द्वारा नकार दिए जाने के बावजूद, संघर्षरत पीड़ित समूह न केवल अपना अस्तित्व बरकरार रखता है, बल्कि अपनी भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न विचार के जरिए राज्य सत्ता से बराबर टकराव की मुद्रा में रहता है और बार-बार अपनी उपस्थिति भिन्न-भिन्न रूपों में दर्ज कराता रहता है। 

इसी प्रक्रिया में, राज्य के अनवरत दमनात्मक रवैए के चलते पीड़ित समुदायों के अंदर कुछ विचार स्थायित्व ग्रहण कर लेते हैं, जो बार-बार सामने आते रहते हैं। जैसे मुख्यधारा से अलग कश्मीरी समाज का बड़ा हिस्सा भारतीय गणतंत्र से लगाव कम, अलगाव ज्यादा महसूस करता है। ठीक इसी तरह आदिवासी समाज के अंदर मुख्य विचार यह बना हुआ है कि भारतीय राज्य बाहरी ताकतों का प्रतिनिधित्व करता है और उसने हमारे हक़-अधिकार के खिलाफ बर्बर युद्ध छेड़ रखा है। और इसी तर्ज पर अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों को राज्य तंत्र के संरक्षण में व्यवस्थित तरीके से चुन-चुन कर हमलों के आरोप को भी मुख्यधारा झुठलाने की स्थिति में नहीं है।

इस तरह के या इससे मिलती-जुलते अन्यान्य संबंधी विचार व इनका प्रतिनिधित्व करने वाले समूह भारतीय नागरिकों के बीच लंबे समय से मौजूद हैं, जो भारतीय गणतंत्र की बुनियाद पर सवाल खड़े करते रहते हैं।

पर इन समूहों से बाहर भारत के लोकतंत्र से जुड़े इतने महत्वपूर्ण सवालों पर कुछ चंद नागरिक समूहों द्वारा संचालित बहसों व समर्थन को अगर छोड़ दिया जाए तो चौतरफ़ा इतना सन्नाटा क्यों है, इस पर जरूर विचार किया जाना चाहिए।

धर्मनिरपेक्षता व लोकतंत्र जैसे गंभीर मसलों पर सन्नाटे का सवाल नया नही है। आज़ादी के आंदोलन के दौर में भी और आजाद भारत में भी धर्मनिरपेक्षता और वास्तविक लोकतंत्र व सामाजिक न्याय के सवाल को ज्यादातर निर्णायक समयों पर बहुसंख्यकवादी दबाव के मातहत ही रहना पड़ा है। और ठोस रूप में कहें तो हिंदू धर्म के ऊंची जातियों के वैचारिक वर्चस्व के इर्द-गिर्द ही पक्ष और कमोबेश विपक्ष को भी रहना पड़ता है।

इस लोकसभा चुनाव पर भी अगर ठीक से नज़र डालें तो सामाजिक न्याय, संविधान और आरक्षण जैसे प्रश्नों पर तो विपक्ष पहले से कहीं ज्यादा मुखर होकर सामने आया है, लेकिन इस दौरान भी ईडब्ल्यूएस जैसे मसले पर चुप्पी बनी रही। फिर भी सामाजिक न्याय की दिशा में विपक्ष ने एक हद तक साफ़ रूख़ लिया है। नीचे से जनता ने भी इन मुद्दों को केंद्र में ले आने में एक बड़ी भूमिका ली, जिसके चलते ही इस चुनाव में भाजपा को बैकफुट पर भी जाना पड़ा है।

लेकिन ठीक इसी दौर में विपक्ष धर्मनिरपेक्षता के सवाल पर एक बार फिर कन्नी काटता हुआ दिखा। कहना अतिरेक नहीं कि हिंदू दायरे में ही पूरा चुनाव लड़ा गया। अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों के सवाल सिरे से गायब कर दिए गए। उनके जलते मुद्दों को सामने लाने की बात तो छोड़िए, खुद उस समाज को ही पूरे चुनाव से ओझल कर दिया गया। यानि हिंदुत्व के मोर्चे पर इस बार भी विपक्ष की तरफ से कोई माकूल जवाब नही दिया गया। यह ऐतिहासिक कमज़ोरी इस बार भी बनी रह गई और इस कमज़ोरी ने संघ-भाजपा को फिर से यह इशारा दे दिया कि आने वाले समय में भी हिंदुत्व का कार्ड बार-बार नए जनमत का निर्माण करने, विपक्ष को चुप कराने और पीछे धकेलने के काम आता रहेगा।

चुनाव के तुरंत बाद अरुंधति रॉय व प्रो. शौकत हुसैन पर यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की मंजूरी जब दिल्ली के उपराज्यपाल ने दी तब लगभग समूचा उदार, प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष दायरा बैकफुट पर आ गया है। अधिकतर ने मोदी सरकार की कार्रवाई की निंदा तो की है, पर लगे हाथ अरुंधति से अपनी असहमति को भी दर्ज़ करा दिया है। इस सोच के चलते ही एक कमजोर सरकार के विरुद्ध नागरिक व राजनीतिक विपक्ष की ओर से जितना ताकतवर प्रतिवाद देशव्यापी स्तर पर दिखना चाहिए, वह नदारद है।

असल में संघ-भाजपा के लोग इस बात को अच्छी तरह समझते है कि लगभग अधिकांश नागरिक और राजनीतिक विपक्ष खुलकर कश्मीर पर कश्मीरियों के सोच को सामने लाने के लिए तैयार नही है। मुसलमानों पर चौतरफा हमले को विपक्ष जन-मुद्दा बनाने से अभी भी बचता है। उसी तरह भारतीय राज्य ने आदिवासियों के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है, यह मुद्दा भी सार्वजनिक बहस से, आम तौर पर बाहर रहता है।

चूंकि अरुंधति इन सभी मसलों को या संबंधित समूहों की सोच को बार-बार मुख्यधारा के बीच लेकर आती रही हैं, इसलिए जब आप अरुंधति से असहमति व्यक्त करते हैं तो असल में आप उन समूहों की पीड़ा से अपने को अलग कर लेते हैं और उन्हें नितांत अकेला छोड़ देते हैं। फिर आप स्वाभाविक तौर पर बहुसंख्यकवादी मुख्यधारा से ही ऑक्सीजन लेने लगते हैं।

बहरहाल, अरुंधति रॉय पर शिकंजा जरिए मोदी सरकार ने विपक्ष की कमजोरियों को फिर से सामने ला दिया है और अपने राजनीति और विचार की धार को नए सिरे से तेज करने की एक गंभीर कोशिश भी की है, जिसमें एक हद तक उसे शुरुआती सफलता मिलती दिख भी रही है।

मोदी सरकार के इस फैसले के पीछे की एक बड़ी वजह नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) द्वारा समय-समय किया जाने वाला हस्तक्षेप भी है। जाहिर तौर पर अरुंधति पर इस कार्रवाई के जरिए नागरिक समाज को भी एक संदेश दिया गया है।

मोदी काल में अखिल भारतीय स्तर पर चुन-चुन कर उन नागरिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों को भी निशाना बनाया गया, जो समाज के पक्ष में खड़े होते रहे। भीमा-कोरेगांव प्रकरण इसका एक सटीक उदाहरण है। धीरे-धीरे समूचे देश में जन-बुद्धिजीवियों व आंदोलनकारियों को भी अपना-अपना काम कर पाना मुश्किल होता जा रहा था। इसलिए यही वो हिस्सा था जो व्यवहारिक धरातल पर लोकतंत्र, संविधान व देश के धर्मनिरपेक्ष ढ़ांचे को ढ़हते हुए देख रहा था। आमतौर यह तबका चुनाव के दौर में सरकार बदलने-बनाने में सक्रिय हिस्सा नही लेता रहा है, लेकिन मोदी सरकार की कार्यशैली व नीतियों की वज़ह से जिस तरह का संवैधानिक व लोकतांत्रिक संकट खड़ा हो गया, नागरिक समाज भी राजनीतिक विपक्ष से इतर मोदी सरकार को सत्ता से बाहर करने की मुहिम में सीधे शामिल हो गया।

इस दिशा में नागरिक समाज का पहला ताकतवर हस्तक्षेप कर्नाटक विधानसभा चुनाव में देखा गया, जिसमें भाजपा को भारी नुक़सान उठाना पड़ा। और अगर ठीक से पड़ताल हो तो फिर 2024 लोकसभा चुनाव में भी मोदी सरकार को कमजोर करने में नागरिक समाज की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका सामने आ जाएगी।

इसलिए भी ठीक चुनाव के बाद नागरिक समूहों पर नए सिरे से जबरदस्त दबाव बनाने के लिहाज से ही प्रख्यात लेखिका अरुंधति राय और कश्मीरी प्रोफेसर शौकत हुसैन को चुना गया, और उन पर यूएपीए के तहत मुकदमा चलाने की इजाज़त दे दी गई है। वजह यह कि चुनाव के बाद जनता के बड़े हिस्से में व नागरिक समूहों में यह आम संदेश जा रहा था कि इस बार की मोदी सरकार बेहद कमजोर है, बड़े फैसले लेने में सक्षम नही है, मोदी सरकार को इस धारणा पर तत्काल कुठाराघात करना था, जो उसने किया भी।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

मनीष शर्मा

लेखक वाराणसी, उत्तर प्रदेश के सामाजिक कार्यकर्ता हैं

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