अब जबकि इस बार के लोकसभा के सातों चरण के मतदान संपन्न हो चुके हैं और मतगणना के पूर्व विभिन्न मीडिया कंपनियों व सर्वेक्षण कंपनियों के मतगणना पूर्व रूझान सामने आ चुके हैं तथा वास्तविक परिणाम आने में अब चौबीस घंटे से भी कम का समय बचा है, हमें दलित-बहुजनों के असली सवाल पर पुनर्विचार करना चाहिए।
रूझानों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की बढ़त दिखाई गई है। ध्यातव्य है कि सामाजिक न्याय की धारा की पार्टियों से इतर सामाजिक न्याय के एजेंडे को लेकर कांग्रेस का घोषणापत्र चुनाव में चर्चा में रहा। घोषणा पत्र की शुरुआत ही हिस्सेदारी न्याय से हुई। राहुल गांधी सबसे ज्यादा सामाजिक न्याय को लेकर चर्चा में रहे। वे सामाजिक न्याय के एजेंडा को लेकर मुखर रहे और अगुआ भूमिका अदा की। जाहिर तौर पर सामाजिक न्याय के एजेंडा पर कांग्रेस को लेकर ढ़ेर सारी आशाएं हैं तो आशंकाएं भी हैं।
यह महत्वपूर्ण सवाल है कि अब चुनाव बाद भी कांग्रेस सामाजिक न्याय के मुद्दों के साथ कितनी दूर तक जाएगी?
सबसे पहले कांग्रेस द्वारा उठाये जा रहे सामाजिक न्याय के एजेंडे पर गौर करते हैं। राहुल गांधी भागीदारी का सवाल उठाते हुए एससी, एसटी और ओबीसी के साथ ईडब्ल्यूएस की भी बात करते हैं। जबकि यह स्पष्ट है कि सामाजिक न्याय या वंचित समुदायों की हिस्सेदारी का सवाल तथाकथित आर्थिक रूप से गरीब सवर्णों का सवाल नहीं है। यह कांग्रेस की दृष्टिगत गड़बड़ी को ही अभिव्यक्त करता है। ईडब्ल्यूएस आरक्षण के आर्थिक आधार को बनाए रखते हुए इसमें एससी, एसटी व ओबीसी को भी शामिल करने का प्रस्ताव है। दूसरी तरफ, ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस ने सामाजिक न्याय के उन तमाम मुद्दों को संबोधित किया है, जो लंबे समय से उठ रहे हैं। साथ ही, जो नए सवाल उभर कर आए हैं, उनमें अभी भी बहुत कुछ छूटा हुआ है। यहां तक कि महिला आरक्षण में ओबीसी कोटा, निजी क्षेत्र में रोजगार में आरक्षण जैसे सवाल का जिक्र घोषणापत्र में नहीं हैं। कांग्रेस का घोषणा पत्र पसमांदा आंदोलन के सवालों और अतिपिछड़ा पहचान व उसकी आकांक्षाओं-सवालों को संबोधित करने से बचकर निकल गया। राहुल गांधी भी सामाजिक न्याय के दायरे में खड़े इन सवालों पर नहीं बोले। इस मामले में वे सामाजिक न्याय की धारा की राजनीतिक पार्टियों की कमजोरियों से उभरते हुए सामने नहीं आए।
पसमांदा और अतिपिछड़ों के सवालों को संबोधित करते हुए राहुल गांधी सामाजिक न्याय के एजेंडा को पुनर्परिभाषित करने की चुनौती स्वीकार करने से बचकर निकल गए। इस मामले में अंतिम तौर पर कहा जा सकता है कि कांग्रेस सामाजिक न्याय के एजेंडा को संबोधित करने के मामले में अब भी पीछे ही चल रही है। नई और खास बात केवल यही है कि कांग्रेस और उसके नेता राहुल गांधी ने सामाजिक न्याय के एजेंडा के प्रति पहली बार इस कदर राजनीतिक संवेदनशीलता प्रदर्शित की।
राहुल गांधी खुद कांग्रेस की गलतियों को स्वीकारते हुए कहते हैं कि कांग्रेस को अपनी राजनीति में बदलाव लाना होगा। यह सच है कि बदलाव से गुजरे बगैर कांग्रेस सामाजिक न्याय के मुद्दों के साथ बहुत आगे बढ़ने में सक्षम नहीं है। इन मुद्दों पर कांग्रेस के ढांचे में भी संघर्ष है, जिसका अंतिम फैसला होना बाकी है। जरूर ही कांग्रेस को विचारधारात्मक और संरचनात्मक बदलाव से गुजरना होगा। सामाजिक न्याय के एजेंडे पर आगे बढ़ने के लिए कांग्रेस के सामने वैचारिक दृष्टि को बदलने और राजनीति को पुनर्परिभाषित करने की चुनौती है। सामाजिक न्याय की सच्ची व सुसंगत राजनीति सवर्ण/ब्राह्मणवादी हिंदू पहचान के निषेध के रास्ते ही वह आगे बढ़ सकती है। ब्राह्मणवादी हिंदू पहचान को चुनौती पेश किए बगैर सामाजिक न्याय के एजेंडा पर बहुत आगे नहीं बढ़ा जा सकता है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि सामाजिक न्याय की राजनीति मूल संघर्ष को आगे बढ़ाने की राजनीति है। इसके लिए बहुजन विचारधारा, पहचान व विरासत के साथ खड़ा होने की चुनौती है। यह कांग्रेस के क्रांतिकारी कायाकल्प होने से जुड़ा प्रश्न है, जिसका जवाब बहुत आसान नहीं है। यह इसलिए कि कांग्रेस की वैचारिक जड़ें गहरी हैं। उसका एक लंबा इतिहास है, जिससे छुटकारा पाना आसान नहीं होगा।
इस बीच दो नजरिये सामने आ रहे हैं। राहुल गांधी को सामाजिक न्याय का नया मसीहा घोषित किया जा रहा है और कांग्रेस के क्रांतिकारी कायाकल्प की बढ़ी-चढ़ी उम्मीदें की जा रही है। इसके उलट दूसरा नजरिया यह है कि भाजपा नागनाथ है तो कांग्रेस सांपनाथ या दोनों को एक ही सिक्के का अलग-अलग पहलू मानते हुए भाजपा के खिलाफ लड़ाई में कांग्रेस से भी दूरी बनाकर रखा जाए।
याद करिए पिछले दौर में भाजपा के उग्र हिंदुत्व का मुकाबला कांग्रेस नरम हिंदुत्व के मैदान से करने की कोशिश कर रही थी। वहीं, राहुल गांधी भी जनेऊ दिखाते हुए मंदिर की परिक्रमा कर रहे थे। 2019 लोकसभा चुनाव के कांग्रेस के घोषणा पत्र में सामाजिक न्याय का एजेंडा स्पष्टता व व्यापकता में प्राथमिकता के साथ मौजूद नहीं था। जाति जनगणना का तो जिक्र तक नहीं था। दरहकीकत, परिस्थिति और चुनौती ने कांग्रेस सहित अन्य विपक्षी पार्टियों को सामाजिक न्याय के एजेंडा के साथ खड़ा कर दिया है, जिसे पिछले दस वर्षों में दलित-बहुजनों के जागरण और दावेदारी ने खड़ा किया है।
विशेष परिस्थिति में एक खास मोड़ पर सामाजिक न्याय के मुद्दों के साथ कांग्रेस, सामाजिक न्याय धारा की पार्टियां और वामपंथी पार्टियां एक साथ खड़ी हैं। तो इसकी वजह यह है कि आज भाजपा से मुकाबले के लिए इन शक्तियों के सामने कोई दूसरा रास्ता भी नहीं है।
बहरहाल, अब लोकसभा चुनाव 2024 का परिणाम चाहे कुछ भी हो, मूल बात यह है कि नए सिरे से उभरते हुए बहुजन आंदोलन का एजेंडा अब मुख्य राजनीति का एजेंडा बन गया है। जरूर ही यह बहुजन आंदोलन के लिए उपलब्धि है। यह चुनौती के बीच से उसके लिए अवसर है। बड़ी उपलब्धियां हासिल करने के लिए यहां से आगे बढ़ने की संभावना बनी है। सामाजिक न्याय के एजेंडा को राजनीति के केंद्र में बनाए रखने और उसके समाधान के लिए बहुजन आंदोलन को ताकतवर बनाने और क्रांतिकारी धार देने की चुनौती है। इसके लिए बहुजन आंदोलन को इस खास मोड़ से दीर्घकालिक लड़ाई के परिप्रेक्ष्य में व्यवस्थित व सुसंगठित होकर आगे बढ़ना होगा। यदि सत्ता बदलती भी है तब भी राजनीतिक पार्टियों के आगे इस पहलकदमी को सरेंडर नहीं करना होगा। अंतिम फैसला एजेंडा के आगे बढ़ने और हल होने का निर्णय अंतत: बहुजनों के जागरण, एकजुटता और दावेदारी से होगा। लिहाजा नए दौर के दलित-बहुजन आंदोलन के सामने चुनौती है अपने एजेंडा पर डटे रहने की और बदलती परिस्थिति में एजेंडा को पुनर्परिभाषित कर प्रस्तुत करने की ताकि बहुजन आंदोलन की स्वतंत्र दावेदारी बनी रहे।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)