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अमेरिका के विश्वविद्यालयों में हिंदू पाठ्यक्रम के मायने

यदि हिंदू दर्शन, जिसे वेदांतवादी दर्शन का नाम भी दिया जाता है, भारत की सरहदों से बाहर पहुंचाया जाता है तो हमें इसके विरुद्ध यही उज्र नहीं होगा कि उसे दूसरे देशों में पढ़ाया जा रहा है, बल्कि सबसे बड़ी आपत्ति यह होगी कि इसके बहाने ब्राह्मणवाद की पोंगापंथी, जिसमें तमाम प्रकार की असमानता को शास्त्रीय कवच पहनाया गया है, को भी सीमाओं से बाहर पहुंचाया जा रहा है। बता रहे हैं द्वारका भारती

कायदे से यह समाचार सुन कर प्रत्येक भारतीय को गर्व से भर जाना चाहिए था कि अमेरिका जैसे देश की प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटियों हार्वर्ड, येल, एमआईटी, ब्राउन और कोलबिंया आदि में पिछले दो वर्षों से हिंदू स्टडीज कोर्स (हिंदू धर्मग्रंथों पर आधारित पाठ्यक्रम) पढ़ाए जा रहे हैं। अमेरिका में बसे भारतीयों की दूसरी पीढ़ी के छात्र इन कोर्सों को पढ़ रहे हैं। 

यह सूचना दैनिक भास्कर द्वारा गत 19 मई, 2024 को न्यूयार्क से उसके संवाददाता मोहम्मद अली की प्रकाशित रपट से मिलती है। उनकी रपट यह भी बताती है कि अमेरिका में हिंदू यूनिवर्सिटी ऑफ अमेरिका और इंटरनेशनल हिंदू यूनिवर्सिटी में पिछले दस साल से हिंदू स्टडीज के छात्रों की संख्या लगभग चार गुणा बढ़ गई है। बताया गया है कि इन दोनों विश्वविद्यालयों में दस साल पहले 3699 छात्रों ने नामांकन कराया था, जो कि इस साल 2024 में बढ़कर 14,296 हो गया है। इनमें से इस साल रिकॉर्ड यानि 5970 छात्र श्वेत अर्थात् यूरोपियन मूल के हैं।

यह सूचना ध्यान देने योग्य है कि इस हिंदू स्टडीज के तहत संस्कृत, भगवत गीता, हिंदू संस्कृति का इतिहास और हिंदू धर्मग्रंथों के चार वर्षीय कोर्स करवाए जा रहे हैं। इन दोनों विश्वविद्यालयों के अमेरिका के 50 राज्यों के 80 शहरों में सेंटर भी हैं, जिनमें लगभग 15 हजार शिक्षक पूरे साल वर्कशॉप का संचालन करते हैं।

इसके साथ ही धर्म सिविलाइजेशन फाउंडेशन (डीसीएफ) ने साउथ कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी व क्लेयरमोंट लिंकन यूनिवर्सिटी के साथ मिलकर इस सत्र के लिए दो रिसर्च सेंटर भी शुरू किए हैं।

अमेरिकी शहर न्यूयार्क में एक पार्क में एक दशक पहले स्थापित सरस्वती की प्रतिमा। इसका निर्माण विश्व हिंदू परिषद द्वारा कराया गया है।

इस खबर में यह आशा भी व्यक्त की गई है कि अगले सत्र से यहां चीन व जापान के छात्रों की संख्या बढ़ने की संभावनाएं भी हैं। इससे पहले हिंदू स्टडीज में मास्टर्स और पीएचडी के बाद छात्र यूरोप और एशिया के शैक्षिक संस्थानों में जाते हैं।

इस संदर्भ में हार्वर्ड के हिंदू स्टडीज के एक छात्र मयंक शर्मा ने बताया कि मेनस्ट्रीम यूनिवर्सिटी में भी भारतीय संस्कृति से जुड़े कोर्स होने से छात्रों को अब भारत नहीं जाना पड़ता है। इस छात्र के नाम से हम कम-से-कम यह अंदाजा तो लगा ही सकते हैं कि हिंदू स्टडीज का कोर्स करनेवाले अधिकतर भारतीय छात्र ऊंची जाति से ही संबंधित होंगे, जो भारतीय संस्कृति की तथाकथित महानता व सनातनता से अभिभूत व प्रेरित होकर इन संस्थानों में पौराणिकता के तत्व ढूंढने की लालसा से ग्रस्त होंगे। 

एक-दूसरे देश की संस्कृति, इतिहास जानने की परंपरा बहुत पुरानी है। लगभग सदियों पुरानी। इसी जिज्ञासा ने यायावरों को तमाम खतरे उठाते हुए हजारों मीलों का सफर करने को प्रेरित किया है। भारत को ढूंढ़ने निकले कोलंबस से अमेरिका की खोज करवा दी थी। बहुत कम लोग जानते हैं कि विदेशियों के लिए भारत एक लंबी परंपराओं के अवशेषों वाला सपनों का देश रहा है। वह भी इन अर्थों में कि वहां आज भी बहुत से अनुष्ठान स्पष्ट रूप से पाषाण कालीन हैं। लेकिन भक्तगण, जिनमें अक्सर आधुनिक व शिक्षित लोग भी आते हैं, अविश्वसनीय रूप से इतने लंबे समय से इन बातों से सचेत नहीं होते। ऐसे रिवाजों का आधार भले ही ब्राह्मण धर्मग्रंथों पर आधारित न दिखाई देते हों, पर सांस्कृतिक कर्मकांडों के अन्य हिस्सों से उतने ही आदिम संस्कारों के चिह्न मिलते हैं, जिनको कि लगभग हरेक कालखंड में अंगीकार करते हुए अभी तक अपनाया गया है। हम देखते हैं कि एक रूढ़िवादी हिंदू विवाह और दाह संस्कार के अवसर पर ऊंची जातियों में ऋग्वेद की ऋचाओं का अब भी पाठ होता है।

यह भी एक आश्चर्यजनक सत्य है कि अरब के लोग जिस समय बौद्धिक दृष्टि से संसार में सबसे प्रगतिशील और सक्रिय थे, उस समय उन्होंने अपने चिकित्साग्रंथ, और काफी हद तक गणित के ग्रंथ भी, भारतीय स्त्रोतों के आधार पर तैयार किए। इतिहासकारों की मानें तो एशियाई संस्कृति और सभ्यता के दो प्राथमिक प्रतिमान चीन और भारत ही हैं।

प्राचीन भारत के बारे यह पढ़ कर भी हैरानी होती है कि यूनानी पर्यवेक्षकों की दृष्टि ने तथा अन्य कई विदेशियों के लिए भारत एक अद्भुत देश था। एक प्रकार का कल्पना लोक था। यहां हाथी जैसे अद्भुत और भीमकाय पशु थे। यहां पेड़ों पर कपास उगने की कहानियां, विशालकाय सरकंडे (बांस) और सफेद रवा अर्थात शक्कर के मीठेपन की लुभावनी चर्चाएं दूसरे देशों में प्रचलित रहीं, जिसने भारत को एक सपनों का देश का दर्जा दिया। सबसे हैरानीजनक बात यहां की यह मानी जाती रही थी कि यहां सब काम क्रीत दासों अर्थात गुलामों के बिना होते थे। गुलाम परंपरा वाले यूनान के लिए यह सब हैरान करने वाला लगता था।

इन सबके होते हुए भी हमें भारत के इतिहास के लिखित पन्ने मुगलों के आक्रमण के बाद ही मिलते हैं। ईसा पूर्व पांचवीं और चौथी सदियों के काल का कोई साहित्य, लेखा-जोखा तथा तिथियुक्त शिलालेख नहीं मिलता। 327 ई.पू. में सिकंदर के हमले के साथ पहली बार एक निश्चित तिथि की जानकारी मिलती है।

अपने ही देश के बारे में अधिकतर जानकारी हमें अलबरुनी तथा इब्नबतूता और चीनी यात्री ह्वेनसांग जैसे यायावरों के यात्रा वृतांतों से मिलती है। यदि ये लोग अपने यात्रा वृतांत न कलमबद्ध करते तो भारत सिर्फ एक किंवदंती ही बना रहता।

एक दूसरे देश के बारे में जानने तथा वहां जाकर ज्ञान प्राप्त करने की परंपरा में हम जवाहर लाल नेहरू, डॉ. अंबेडकर और गांधी जैसे कई लोगों का नाम ले सकते हैं।

विश्व के सभी चिंतक इस दुनिया के लिए ज्ञान के नए मार्ग प्रशस्त करते रहे हैं। सुकरात जैसे दार्शनिक इस विश्व को यदि अपने क्रांतिकारी विचारों से अनूठी ऊर्जा प्रदत्त करते रहे हैं तो बुद्ध जैसे व्यक्तित्व अपने अनित्यवाद के अनूठे सिद्धांत के साथ-साथ वैचारिक स्वतंत्रता को अधिमान देते रहे हैं और मानसिक दासता के विरुद्ध अपनी मानववादी पहुंच का परिचय देकर वेदांतवाद को खुली चुनौती देते रहे हैं।

चार्वाक दर्शन अपने भौतिकवादी दर्शन के साथ पुरोहितवाद को खुली चुनौती देता रहा है। इन अर्थों में भारत का दर्शन पाश्चत्य दर्शन से कहीं पुरातन व धारदार रहा है। तमाम खतरे उठाते हुए इन दर्शनों ने भारतीय दार्शनिक परंपरा को निरंतर समृद्ध किया है। अब यदि इस प्रकार के दर्शन को देश की सीमाओं से बाहर पहुंचाने से भला किसे ऐतराज हो सकता है?

लेकिन यदि हिंदू दर्शन, जिसे वेदांतवादी दर्शन का नाम भी दिया जाता है, भारत की सरहदों से बाहर पहुंचाया जाता है तो हमें इसके विरुद्ध यही उज्र नहीं होगा कि उसे दूसरे देशों में पढ़ाया जा रहा है, बल्कि सबसे बड़ी आपत्ति यह होगी कि इसके बहाने ब्राह्मणवाद की पोंगापंथी, जिसमें तमाम प्रकार की असमानता को शास्त्रीय कवच पहनाया गया है, को भी सीमाओं से बाहर पहुंचाया जा रहा है।

पहली नजर में इससे होने के खतरों का अहसास नहीं होता, लेकिन यह उस संस्कृति के बीज धीरे-धीरे बोता है जो तभी दिखाई देता है, जब इससे छायादार पेड़ नहीं, बल्कि ऐसे कैक्टस का जन्म होता है, जिसकी चुभन समाज में एक विषाणु की भांति पसर जाती है।

इस प्रकार के शास्त्रों में वर्णित विधान इस देश को गर्त में धकेल चुके हैं। क्या विश्व इस की कुदृष्टि से बच पाएगा? यह एक ऐसी आफत है जो मनुष्य द्वारा जनित है, न कि प्राकृत। जब तक किसी समाज में इस प्रकार के दर्शन, धर्म और संस्कृति को लादे एक भी व्यक्ति रहेगा, वह दूसरे को संक्रमित करता रहेगा।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

द्वारका भारती

24 मार्च, 1949 को पंजाब के होशियारपुर जिले के दलित परिवार में जन्मे तथा मैट्रिक तक पढ़े द्वारका भारती ने कुछ दिनों के लिए सरकारी नौकरी करने के बाद इराक और जार्डन में श्रमिक के रूप में काम किया। स्वदेश वापसी के बाद होशियारपुर में उन्होंने जूते बनाने के घरेलू पेशे को अपनाया है। इन्होंने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का सराहनीय कार्य किया है तथा हिंदी में दलितों के हक-हुकूक और संस्कृति आदि विषयों पर लेखन किया है। इनके आलेख हिंदी और पंजाबी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में इनकी आत्मकथा “मोची : एक मोची का अदबी जिंदगीनामा” चर्चा में रही है

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