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बिहार : 65 प्रतिशत आरक्षण पर हाई कोर्ट की रोक, विपक्षी दलों की सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की मांग

राजद के राज्यसभा सदस्य प्रो. मनोज झा और भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की मांग की है। प्रो. झा ने अपने बयान में याचिकाकर्ताओं की सामाजिक पृष्ठभूमि पर भी सवाल उठाया है। पढ़ें, यह खबर

पटना हाई कोर्ट ने पिछले साल जातिगत सर्वेक्षण के उपरांत राज्य सरकार द्वारा एससी, एसटी, ओबीसी के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण को बढ़ाकर 65 प्रतिशत किए जाने के फैसले पर रोक लगा दिया है। इसे लेकर बिहार के विपक्षी दलों राजद और भाकपा-माले के सदस्यों ने राज्य सरकार से मांग की है कि वह हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे।

इस संबंध में राजद के राज्यसभा सांसद प्रो. मनोज झा ने कहा कि “आरक्षण को लेकर हाई कोर्ट का जो फैसला आया है, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की सरकार ने जो आरक्षण दायरा बढ़ाया था, उस पर जो रोक लगी है, इसे मैं बेहद दुर्भाग्यपूर्ण मानता हूं। सामाजिक न्याय की मंजिलों को हासिल करने में ऐसे फैसले फासले बढ़ाते हैं। हमें स्मरण है कि तमिलनाडु को भी अनेक वर्ष लगे, संघर्ष करना पड़ा था। हम भी तैयार हैं। लेकिन हम इतना जरूर कहेंगे कि ये जो याचिकाकर्ता हैं, उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि देखिए। परदे के पीछे से ये कौन लोग हैं, जो ये काम करवा रहे हैं, जिसमें वे बेहद ज्यादा उत्सुक और उत्प्रेरक की भूमिका निभा रहे हैं। हमने जातिगत जनगणना के दौर में भी यह देखा। मैं आग्रह करूंगा और हमारे नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव हर चुनावी सभा में यह कहते रहे कि इस कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में शामिल करिए। देखिए, ऐसा नहीं करने के नतीजे में क्या हासिल हुआ है। अभी भी हम आग्रह करेंगे कि नीतीश जी की कृपा से एनडीए की सरकार चल रही है इस वक्त तो उन्हें जन-आकांक्षाओं के अनुरूप इस मामले को उपर की अदालत में ले जाना चाहिए और एक बड़ी आबादी का जो हुकूक है, उसकी रक्षा की जानी चाहिए। मैं यह मानता हूं कि यह संघर्ष लंबा जरूर चलेगा, लेकिन हम कामयाब होंगे।”

वहीं भाकपा माले के राष्ट्रीय महासचिव दीपंकर भट्टाचार्य ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा है कि “मोदी सरकार ने सबसे पहले 10 प्रतिशत ईडब्ल्यूएस लागू करके 50 प्रतिशत की सीमा को पार किया और सुप्रीम कोर्ट ने इसे बरकरार रखा। बिहार की जाति जनगणना के बाद, विधानसभा और राज्य सरकार ने एससी/एसटी, ईबीसी और ओबीसी के लिए आरक्षण बढ़ाया। एससी/एसटी/ईबीसी/ओबीसी के लिए बढ़ाए गए आरक्षण को रद्द करने वाला उच्च न्यायालय का फैसला स्पष्ट रूप से प्रतिगामी है। बिहार की जनता अपना हक पाने के लिए संघर्ष करेगी।”

प्रो.मनोज कुमार झा, पटना हाईकोर्ट, दीपंकर भट्टाचार्य

जबकि भाकपा-माले के राज्य सचिव कुणाल ने बिहार में महागठबंधन की सरकार द्वारा दलित-वंचित समुदाय के आरक्षण की सीमा को 65 प्रतिशत करने के निर्णय को पटना उच्च न्यायालय द्वारा रद्द करने को वंचित समुदाय के प्रति घोर अन्याय बताया है।

उन्होंने कहा कि वंचित समुदाय के आरक्षण पर हो रहे संगठित हमले व उसे कमजोर किए जाने के इस दौर में महागठबंधन की सरकार ने जाति आधारित जनगणना के आधार पर ओबीसी, ईबीसी, दलित और आदिवासियों का आरक्षण बढ़ाकर 65 फ़ीसदी किया था, जो बिल्कुल न्याय संगत था। उच्च न्यायालय को यह समझना चाहिए था कि आरक्षण विस्तार का फैसला बहुत ही ठोस आधार पर किया गया था।

बताते चलें कि आरक्षण कोटे के विस्तार का आधार पिछले साल राज्य सरकार द्वारा जारी जाति सर्वेक्षण गणना रिपोर्ट थी, जिसमें पाया गया कि राज्य में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े सभी समुदायों (ईडब्ल्यूएस नहीं) की आबादी 85.5 प्रतिशत है। इनमें ओबीसी-ईबीसी की आबादी बिहार की कुल आबादी की 63.1 प्रतिशत बताई गई।  

कुणाल ने कहा कि भाजपा तो शुरू से ही जाति गणना की विरोधी रही है। बिहार की सत्ता हड़प लेने के बाद वह 65 प्रतिशत आरक्षण को रद्द करवाने के लिए काफी सक्रिय रही है। जाति गणना के खिलाफ उसके ही लोग न्यायालय में गए थे। उन्होंने यह भी कहा कि 10 प्रतिशत असंवैधानिक सवर्ण आरक्षण को तो हमारी न्याय व्यवस्था ने सही साबित कर दिया लेकिन दलितों-वंचितों के पक्ष में आरक्षण विस्तार को असंवैधानिक बता रही है। यह बहुत हास्यास्पद तर्क है। आज एक बार फिर साबित हो गया है कि जब तक भाजपा है, हमारा संविधान, लोकतंत्र और आरक्षण खतरे में है।

उन्होंने कहा कि इस अन्यायपूर्ण फैसले के खिलाफ बिहार सरकार से हमारा आग्रह है कि वह तत्काल सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाये और दलित-वंचित समुदाय के आरक्षण में हुए विस्तार की रक्षा की दिशा में ठोस कदम उठाए।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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