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संविधान के पुनर्लेखन, आरक्षण के खात्मे का एजेंडा नहीं त्यागेंगे भाजपा-आरएसएस

संविधान में बदलाव का खतरा अभी टला नहीं है। हाल में संपन्न लोकसभा चुनावों के नतीजों ने संविधान के पुनर्लेखन और आरक्षण की समाप्ति की भाजपा की परियोजना पर केवल अस्थाई विराम लगाया है। पढ़ें, प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड का यह आलेख

अठाहरवीं लोकसभा के लिए चुनाव के दौरान यह बार-बार और लगातार कहा जाता रहा कि यदि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) 400 से अधिक सीटें हासिल कर लेगी तो उसकी सरकार संविधान का पुनर्लेखन करेगी और आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त कर देगी।

“अबकी बार चार सौ पार” का नारा देकर प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं इस नॅरेटिव को पंख दिए। इस नारे के चलते भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कई नेताओं ने यह दावा किया कि लोकसभा में पूर्ण बहुमत मिलने के बाद भाजपा संविधान को सिरे से बदल देगी।

संविधान व आरक्षण पर केंद्रित नॅरेटिव 

इन दावों की पृष्ठभूमि में भाजपा ने अपना चुनाव घोषणापत्र जारी किया। घोषणापत्र का शीर्षक कुछ अजीब-सा था– ‘मोदी की गारंटी’। इस शीर्षक से जनता में यह संदेश गया कि अकेले मोदी पूरे भाजपा-आरएसएस पर भारी हैं और ऐसी अफवाहों को जन्म दिया कि भारत में तानाशाही का आगाज़ होने जा रहा है तथा साथ ही यह भी कि देश के राजनीतिक ढांचे में मूलभूत बदलाव लाए जाएंगे।

किसी को कोई अंदाज़ा नहीं था कि क्या परिवर्तन होंगे और देश में किस प्रकार की राजनीतिक प्रणाली लागू की जाएगी, मगर गैर-भाजपा मतदाताओं का एक बड़ा तबका सशंकित था कि जो भी होगा, वह देश के लिए अच्छा नहीं होगा।

इसके काफी पहले से अन्य पिछड़ा वर्गों (ओबीसी), दलितों और आदिवासियों में यह धारणा तेजी से मजबूत होती जा रही थी कि संघ और भाजपा की जोड़ी आरक्षण की व्यवस्था को समाप्त करने की तरफ बढ़ रही है। इस धारणा ने तब और जोर पकड़ा जब भाजपा ने नेतृत्व वाली सरकार ने आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए केवल सवर्णों तक सीमित 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की और सार्वजनिक क्षेत्र की कई बड़ी कंपनियों का निजीकरण करना शुरू कर दिया।

भाजपा, आरएसएस का मंडल विरोध

अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार ने भाजपा के कई पुराने वादों और इरादों को पूरा किया। इनमें शामिल था जम्मू-कश्मीर से संबंधित संविधान के अनुच्छेद 370 का हटाया जाना और आनन-फानन में अयोध्या में राममंदिर का उद्घाटन। इससे ऐसा लगा कि अगले कार्यकाल में भाजपा आरक्षण समाप्त करने के अपने इरादे को भी पूरा कर लेगी।

1990 के दशक में संघ और भाजपा ने मंडल आरक्षण का किस कदर विरोध किया था, उसका मैं प्रत्यक्षदर्शी हूं, क्योंकि उस समय भी मैं प्रतिबद्ध मंडल-समर्थक कार्यकर्ता और लेखक था।

मगर समय के साथ इस मामले में दोनों ने अपना रुख नरम कर लिया। कारण यह कि उन्हें यह अहसास हो गया कि अगर उनका नेतृत्व मंडल आरक्षण का विरोध करता रहेगा तो बड़ी संख्या में शूद्र, जिन्हें ओबीसी भी कहा जाता है, उनकी पार्टी छोड़कर चले जाएंगे।

मंडल आयोग के मामले में 1992 के सर्वोच्च न्यायलय के निर्णय और आयोग की सिफारिशों के अनुरूप केंद्र सरकार एवं सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने के तत्कालीन पी.वी. नरसिम्हाराव सरकार ने निर्णय के बाद संघ परिवार को यह समझ में आया कि आरक्षण के मसले को हल्के में नहीं लिया जा सकता।

बिहार में ओबीसी नेता

आरएसएस का नेतृत्व सन् 1979 में जनता पार्टी सरकार द्वारा देश में पिछड़े वर्गों को चिह्नित करने के लिए नियुक्त आयोग के मुखिया बी.पी. मंडल और ओबीसी-समर्थक राजनेताओं, खासकर बिहार के, से खासा खफा था।

बिहार में आरएसएस ने ओबीसी समुदायों में से उभरे बी.पी. मंडल जैसे नेताओं की खिलाफत की। और बाद में 1990 के दशक में संघ ने कल्याण सिंह और मोदी जैसे ओबीसी नेताओं को बढ़ावा दिया, जो हिंदुत्व और राममंदिर एजेंडा के प्रचारक थे।

आज भी भाजपा के पास बिहार में कोई मज़बूत ओबीसी नेता नहीं है। हां, बिहार में कुछ बनियों ने ज़रूर ओबीसी प्रमाणपत्र हासिल कर लिए हैं। सीताराम केसरी और सुशील कुमार मोदी जैसे लोग इसके उदाहरण रहे।

राजीव से राहुल : कांग्रेस क्या कहती रही 

कांग्रेस ने भी वी.पी. सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की रपट को लागू करने के निर्णय का विरोध किया था, मगर इसका कारण यह नहीं था कि कांग्रेस विचारधारा के स्तर पर आरक्षण की विरोधी थी, बल्कि यह था कि राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस, वी.पी. सिंह के प्रति कड़वाहट से भरी थी, क्योंकि उन्होंने कांग्रेस के खिलाफ विद्रोह कर पार्टी को 1989 के आम चुनाव में पराजित कर दिया था।

यह इससे भी साबित है कि कांग्रेस ने ही सन् 2006 में उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश हेतु ओबीसी को आरक्षण दिया और निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रस्ताव भी किया।

इसके विपरीत, भाजपा हमेशा से निजी क्षेत्र में आरक्षण के खिलाफ रही है। यह भी एक कारण था कि एकाधिकारवादी व्यापारिक घरानों में से अधिकांश कांग्रेस के खिलाफ हो गए थे।

आरएसएस-भाजपा और कांग्रेस में मूल अंतर यही है कि भगवा पार्टी सांप्रदायिक के साथ-साथ जातिवादी भी है।

मोदी सरकार के दौर में राहुल गांधी कांग्रेस के चेहरे के रूप में उभरे। उन्होंने खुलकर आरक्षण का समर्थन किया। राहुल गांधी ने जाति जनगणना की वकालत की और उच्चतम न्यायालय द्वारा आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा को हटाने की मांग की।

आरक्षण बनाम मंदिर आंदोलन

मोदी अपनी ओबीसी पहचान के बल पर देश के प्रधानमंत्री बने। मगर वे हमेशा से आरक्षण के कट्टर विरोधी थे और राममंदिर आंदोलन के दौरान सक्रिय कार्यकर्ता थे। यह आंदोलन उस समय शुरू किया गया था जब ओबीसी का आरक्षण हासिल करने का संघर्ष अपने चरम था।

आरएसएस ने अपने ओबीसी नेताओं और कार्यकर्ताओं, जिनमें से कई भाजपा संगठन में पदाधिकारी थे, पर दबाव बनाया, जिसके चलते उन सबने मंदिर आंदोलन पर आक्रामक रवैया अपना लिया।

राष्ट्रीय स्तर पर ओबीसी के लिए आरक्षण, पेरियार की विचारधारा की जीत और आरएसएस-भाजपा की उच्च जाति के हिंदुओं के हितार्थ नीतियों और सोच की हार के रूप में देखा गया। आरएसएस को लगा कि अगर देश में जाति का उन्मूलन हो गया तो उसका कोई नामलेवा न बचेगा। वी.पी. सिंह ने ओबीसी के लिए आरक्षण लागू कर आंबेडकर की सोच को मानों पुनर्जीवित कर दिया। यह तत्कालीन आरएसएस-भाजपा नेताओं को बिलकुल पसंद नहीं आया।

राष्ट्रपति प्रणाली 

सन् 2024 के चुनाव में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए के पूर्ण बहुमत हासिल कर लेने के बाद यह चर्चा चली कि देश में राष्ट्रपति प्रणाली लागू की जाएगी।

इंडिया गठबंधन द्वारा ‘संविधान में बदलाव’ के नॅरेटिव को अपने चुनाव प्रचार का मुख्य आधार बनाने से भारत के मतदाताओं के मन में जो बात थी, वह सतह पर आ गई।

सुखद यह कि, मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को यह समझ में आ गया कि संविधान वाकई खतरे में हो सकता है। चौराहों और नुक्कड़ों पर यह चर्चा आम हो गई कि भाजपा वर्तमान संविधान की आलोचक है और उसे बदलना चाहेगी।

लोगों को लगा कि जिस तरह सरकार ने अनुच्छेद 370 को हटाया, उसी तरह अगर उसका वश चला तो वह ओबीसी, एससी और एसटी के लिए आरक्षण समाप्त कर देगी। इसके चलते यह सोच जन्मी कि भाजपा को चुनाव में जीत हासिल करने से रोका जाना चाहिए।

लोकसभा चुनाव के बाद कन्याकुमारी में विवेकानंद स्मारक के पास ध्यान करते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी

निजीकरण पर जोर

मतदाता आंशिक रूप से सफल रहे और भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल न हो सका।

यह साफ़ था कि गौतम अडाणी और मुकेश अंबानी जैसे उद्योगपति पर्दे के पीछे से भाजपा को पूरा समर्थन दे रहे थे। चूंकि अधिकांश एकाधिकारवादी कंपनियों के मालिक उच्च जातियों से हैं, इसलिए उन्हें लगता है कि भाजपा के राज में निजीकरण को बड़े पैमाने पर बढ़ावा दिया जा सकता है।

उच्च जातियों के अनेक निजीकरण-समर्थक अर्थशास्त्रियों को भाजपा ने नीति आयोग जैसे आर्थिक संस्थानों में नियुक्त किया। अरविंद पनगढ़िया सहित अनेक अर्थशास्त्रियों, जिनमें से कई अमरीकी नागरिक हैं, को महत्वपूर्ण संस्थाओं का मुखिया नियुक्त किया गया। पनगढ़िया को बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय का कुलाधिपति बनाया गया है।

खतरा अभी टला नहीं है

संविधान में बदलाव का खतरा अभी टला नहीं है। हाल में संपन्न लोकसभा चुनावों के नतीजों ने संविधान के पुनर्लेखन और आरक्षण की समाप्ति की भाजपा की परियोजना पर केवल अस्थाई विराम लगाया है।

संघ परिवार धैर्यपूर्वक और पूरी लगन से किसी भी एजेंडा पर तब तक काम करता है जब तक कि वह पूरा नहीं हो जाता। यही उसकी ताकत है। उसने दशकों तक कश्मीर और राममंदिर के मुद्दों पर काम किया और अंततः अपना एजेंडा सफलतापूर्वक पूरा किया। 

इसलिए हम यह मान सकते हैं कि वे अपना एजेंडा इस तरह आगे बढ़ाएंगें कि उनके ओबीसी, दलित और आदिवासी कार्यकर्ताओं को यह विश्वास हो जायेगा कि कर्मभूमि और जन्मभूमि, संविधान और आरक्षण को बचाने से ज्यादा अहम है। 

संविधान हमारा मुक्तिदाता 

हिंदुत्व की विचारधारा गहरे तक अपनी पैठ बना लेती है। उसने जाति की सीमाओं को पार कर समाज पर अपनी पकड़ बना ली है। इतिहास गवाह है कि अपनी बड़ी आबादी के बावजूद शूद्रों/ओबीसी ने कभी उनके चौथे वर्ण के दर्जे और अधीनता पर आपत्ति नहीं की। मगर संविधान ने उन्हें सशक्त किया, सचेत किया और विद्रोह करने की प्रेरणा दी।

इसके बावजूद, उनमें द्विजों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य), जो आरएसएस और भाजपा को ही नहीं, वरन् हिंदू धार्मिक व्यवस्था को भी संचालित करते हैं, से सामाजिक-आध्यात्मिक समानता हासिल करने की लालसा उत्पन्न नहीं हुई। ओबीसी और दलितों को अब भी उस आध्यात्मिक लोकतंत्र के महत्व का इमकान नहीं है, जो वर्तमान संवैधानिक लोकतंत्र को जिंदा रखे हुए है।

आध्यात्मिक तानाशाही आज नहीं तो कल संवैधानिक लोकतंत्र को समाप्त करने की दिशा में काम करेगी। यही कारण है कि आंबेडकर ने इस खतरे की चेतावनी हमें बहुत पहले दे दी थी।

(यह आलेख पूर्व में ‘द फेडरल डॉट कॉम’ द्वारा अंग्रेजी में तथा लेखक की सहमति से यहां हिंदी में प्रकाशित, अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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