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फूलन देवी की आत्मकथा : यातना की ऐसी दास्तान कि रूह कांप जाए

फूलन जाति की सत्ता, मायके के परिवार की सत्ता, पति की सत्ता, गांव की सत्ता, डाकुओं की सत्ता और राजसत्ता सबसे टकराई। सबका सामना किया, सबको चुनौती दी। फूलन सच्चे अर्थों में अब तक के भारतीय इतिहास की सबसे विद्रोहिणी महिला है, जैसा कि ‘टाइम मैगजीन’ ने उन्हें यह दर्जा दिया था। बता रहे हैं डॉ. सिद्धार्थ

फूलन देवी (10 अगस्त, 1963 – 25 जुलाई, 2001) पर विशेष

सामान्यत: पांच सौ पन्नों की अंग्रेजी किताब भी दो-तीन दिन में पढ़ लेता हूं। लेकिन फूलन देवी की आत्मकथा (‘आई, फूलन देवी : दी ऑटोबायोग्राफी ऑफ इंडियाज बैंडिट क्वीन’, स्फेयर, लंदन, 2012) के 504 पन्ने पढ़ने में करीब एक महीने लग गए। यह आत्मकथा फूलन के जन्म (1963) से लेकर तिहाड़ जेल से उनकी रिहाई (1994) तक की उनकी जीवन-यात्रा को बयां करती है। यानी फूलन के जीवन के करीब 31 वर्षों की कहानी। इन 31 वर्षों में वह करीब 11 वर्ष जेल में रहीं। सही अर्थों में, यह आत्मकथा फूलन के केवल 20 वर्ष के जीवन का सच है। जन्म से लेकर 20 वर्ष तक एक लड़की ने कितना झेला, कितना सहा, क्या झेला, क्यों झेला, किस तरह और कैसे अपने साथ हो रहे अन्यायों का प्रतिवाद और प्रतिरोध किया और उसके खिलाफ विद्रोह किया। इस प्रक्रिया में ‘टाइम मैगजीन’ (8 मार्च, 2011 का अंक) में मानव इतिहास की सर्वश्रेष्ठ 17 विद्रोही महिलाओं की सूची में उन्होंने शीर्ष चार महिलाओं में स्थान प्राप्त किया और भारत की ओर से एकमात्र महिला।

एक बार में फूलन की उपरोक्त आत्मकथा के दो पृष्ठों से अधिक पढ़ना लगभग नामुमकिन हो जाता था। इसे पढ़ते हुए उनके जन्म के समय से लेकर तिहाड़ जेल से छूटने तक की कहानी स्वयं फूलन की जुबानी सुनना कई बार असंभव-सा लगा। किसी लड़की को इतने अभाव, इतने अपमान, इतनी यातना, इतनी पिटाई और इतनी बार यौन-उत्पीड़न एवं बलात्कार से गुजरना पड़ सकता है कि उसे आप पढ़ भी न सकें, सुन न सकें। बस कुछ एक पन्ना पढ़कर किताब बंद कर देनी पड़ती थी। फिर किताब खोलने की हिम्मत नहीं होती। डर लगता कि फिर फूलन के उसी दर्द से गुजरना पड़ेगा, फिर उसके द्वारा सही गई यातना को महसूस करना पड़ेगा। फूलन को फिर भूख से बिलबिलाते, छोटी-छोटी चीजों के लिए तरसते, अपमान सहते, पीटे जाते और बलात्कार का शिकार होते देखना पड़ेगा। उसके साथ ही उसके मां-बाप और बहनों के अभाव और अपमान को भी देखना-पढ़ना पडे़गा। उसके साथ उसके समुदाय की अन्य लड़कियों-महिलाओं की यातना को देखना पड़ेगा। फूलन की जिंदगी के उस सच को आप पढ़ने की हिम्मत नहीं जुटा सकते, जो उस पर बीता था, जिसको उसने सहा। उसने उसका प्रतिवाद और प्रतिरोध भी किया। अंत में उसके खिलाफ विद्रोह कर बागी बन गई। फूलन की जिंदगी में खुशी और सुख कभी-कभार ही तपती रेत पर एकाध बूंद पानी की तरह आता था, और गिरते ही सूख जाता था।

फूलन देवी की आत्मकथा का आवरण पृष्ठ

किसी के जीवन की कहानी इतनी दर्दनाक हो सकती है कि आप की कल्पना से भी परे हो। आप यह जानते हुए कि यह पूरा का पूरा सच है, लेकिन वह सच आप स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो पाएं। मैं इस तरह के दर्द-यातना, उत्पीड़न और उससे पैदा हुए आक्रोश से इससे पहले ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा का पहला खंड ‘जूठन’ पढ़ते हुए गुजरा था। लेकिन एक सच यह भी है कि फूलन की आत्मकथा को पढ़ते हुए उससे सौ गुना ज्यादा यातना और दर्द से गुजरा।

फूलन की जिंदगी में ‘जूठन’ के आत्मकथाकार की तरह छुआछूत की वह इंतहां तो नहीं है, जहां एक इंसान अपना इंसानी वजूद खो देता है, उसे घृणास्पद जीव बना दिया जाता है। मल्लाह बिरादरी में पैदा होने के चलते फूलन को छुआछूत का इस कदर सामना नहीं करना पड़ा था। यदि इस बात के अलावा फूलन का जीवन ओमप्रकाश वाल्मीकि के जीवनकथा से बहुत ज्यादा अभाव, दर्द और अपमान से भरा हुआ है। बार-बार का बलात्कार और यौन उत्पीड़न उसे खुद की नजर में वहां पहुंचा देता हैं, जहां वह अपने लिए अगले जन्म में कुत्ता-बिल्ली के रूप में पैदा होने की बात सोचने लगती है। वह इच्छा करने लगती है कि इंसान का ऐसा जीवन उसे फिर कभी न मिले।

फूलन की आत्मकथा को पढ़ते हुए मुझे सिर्फ एक किताब याद आई। वह किताब है– विक्टर ह्युगो का उपन्यास ‘ले मिजेरआब्ल’। यह उपन्यास सन् 1862 में प्रकाशित हुआ था, जो हिंदी में ‘विपदा के मारे’ नाम से प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास फ्रांस, विशेषकर पेरिस के मेहनतकश गरीबों की जिंदगी को सामने लाता है, जिसे पढ़कर भीतर ऐसी सिहरन होती है कि व्यक्ति भीतर से हिल जाता है।

फूलन की आत्मकथा में जीवन का जो यथार्थ सामने आता है, उसकी तुलना मैं सिर्फ विक्टर ह्युगो के उपन्यास के पात्रों और उसके उस समाज के यथार्थ से कुछ हद तक कर सकता हूं। खासकर उसमें सामने आने वाली कुछ मेहनतकश महिलाओं के दिल दहला देनेवाले जीवन से। लेकिन ‘विपदा के मारे’ की महिलाएं सिर्फ वर्गीय और लैंगिक शोषण-उत्पीड़न सह रही हैं, वहीं फूलन को वर्गीय और लैंगिक शोषण-उत्पीड़न के साथ जातीय शोषण-उत्पीड़न का भी भयानक तरीके से शिकार होना पड़ता है। फूलन के मामले में तीनों एक साथ मिलकर उनके जीवन को ‘विपदा के मारे’ उपन्यास की महिलाओं से ज्यादा दुष्कर और असहनीय बना देते हैं। दूसरी बात यह कि वह एक उपन्यास है, जिसमें एक चरित्र में कई चरित्रों का मेल किया जाता है या मेल हो सकता है। लेकिन फूलन की आत्मकथा सौ फीसदी एक ही लड़की जिंदगी की तथ्यपरक सच्ची कहानी है।

फूलन के सिर्फ 20 वर्ष के जीवनकथा को पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे भारतीय समाज का खासकर हिंदी पट्टी का असली क्रूर मर्दवादी, जातिवादी और वर्गीय चरित्र प्रस्तुत कर दिया गया हो।

फूलन लड़की होने, निम्न जाति (मल्लाह) की होने और इसके साथ दिन-रात खटने वाले मेहनतकश वर्ग की होने के चलते जो सहती है और झेलती है, उसकी कल्पना ‘जूठन’ और ‘विपदा के मारे’ पढ़कर भी नहीं की जा सकती। फूलन लिंग, जाति और वर्ग तीनों की मार एक साथ सहती है। ऊपर से वह पूरी तरह निरक्षर है। उसने सिर्फ एक दिन के लिए स्कूल का मुंह देखा था।

लिंग, जाति और वर्ग का मेल उसके लिए इतना यातनादायी इसलिए हो जाता है क्योंकि वह ऐसे गांव में और ऐसे परिवेश में रहती है, जिसमें वर्ण-जातिवादी सामंतवाद अपनी पूरी ताकत से मौजूद है, जहां भारत का संविधान और नियम-कानून नहीं लागू होता था। यह स्थिति उसके गांव की ही नहीं, बल्कि आस-पास के सभी गांवों की भी थी। सरपंच और गांव के ताकतवर लोग मिलकर किसी को भी जो चाहे दंड दे सकते हैं, कोई भी जुर्माना लगा सकते हैं, उसे गांव से बेदखल करने का फरमान जारी कर सकते हैं। मुट्ठी भर सवर्ण जातियां और गांव के अन्य ताकतवर लोग बहुसंख्यक मेहनतकश दलित-पिछड़ों से बेगारी करा सकते हैं। काम के बाद मजदूरी देने से इंकार कर सकते हैं। गांव के ताकतवर लोग मिलकर किसी की जमीन हड़प सकते हैं। बहुसंख्यक मेहतकशों और गरीब लोगों की बहन-बेटियों और अन्य महिलाओं को बड़ी आसानी से अपनी हवस का शिकार बना सकते हैं। उनका अपहरण कर उन्हें बीहड़ के डाकुओं को सौंप सकते हैं या डाकुओं से कहकर उसका अपहरण करा सकते हैं। डाकुओं के बीच भी ऐसी स्त्री को बलात्कार का शिकार होना पड़ता है। जातिवाद के क्रूरतम रूप का सामना करना पड़ता है। पुलिस-प्रशासन वर्चस्वशाली जातियों (अमूमन सवर्णों) और गांव के अन्य ताकतवर लोगों की चेरी (दासी) है। वैसे भी पुलिस-प्रशासन में ऐसे वर्ण-जातिवादी मानसिकता के लोग आज भी भरे पड़े हैं। उस समय तो सिर्फ उन्हीं का वर्चस्व था। उसका पूरा ढांचा और व्यवस्था ऐसी है कि मेहनतकश बहुजनों के पास न्याय पाने का कोई रास्ता, कोई उम्मीद और कोई रोशनी नहीं दिखाई पड़ती है। लेकिन एक लड़की के लिए तो यह और भी यातनादायी और दुष्कर था। ऐसी ही एक लड़की फूलन थी।

फूलन का जन्म ही उसके मां-बाप के लिए अभिशाप की तरह था, विशेषकर उसकी मां के लिए। उसकी मां मूला नहीं चाहती थी कि फिर एक बेटी पैदा हो। पहले से उसे एक बेटी थी। उसे पूरी उम्मीद थी कि इस बार बेटा पैदा होगा। लेकिन फूलन के रूप में बेटी पैदा हो गई, जो रूप-रंग और शक्ल सूरत में उनकी नजर में बदसूरत भी थी। बात सिर्फ बेटे की चाह तक सीमित नहीं थी और न ही रंग-रूप तक। उस परिवार में एक और बेटी के पैदा होने का मतलब उसके पेट भरने की चिंता, किशोर होते ही गांव के यौन-उत्पीड़कों और बलात्कारियों से उसे बचाने की भयावह कल्पना। इन सबके बाद उसकी शादी और उसके लिए दहेज जुटाने का पहाड़-सा बोझ।

फूलन के होश संभालते ही मां ने उसे पुरुषों (उसकी मां की नजर में दरिंदे) से हर हाल में बचने की चेतावनी दे दी। फूलन को इसका कारण नहीं पता था। लेकिन उसे पुरुषों के चंगुल से खुद को बचाना था। बचते-बचाते करीब साढ़े दस साल की उम्र में उसकी शादी 33 साल के दुहाजू जी के साथ कर दी जाती है। वह उसे इस छोटी-सी उम्र में अपने घर ले जाता है। फिर तो दस साल की बच्ची के साथ तथाकथित पति द्वारा यौन हमला और बलात्कार का सिलसिला शुरू होता है। प्रतिवाद और प्रतिरोध करने पर बुरी तरह से पिटाई होती है। गाय-भैंस के बथान में उसे बंद कर दिया जाता है। वह मौत के करीब पहुंच जाती है। किसी तरह उसके पिता देवीदीन उसे वापस ले आते हैं।

पति का घर छोड़कर मायके आते ही वह कुलक्षणी घोषित कर दी जाती है। कुलक्षणी मतलब पति द्वारा छोड़ी गई, ससुराल में नहीं रह पाने वाली। इसके साथ ही, वह गांव के दबंगों (विशेषकर सवर्णों) के लिए सहज रूप से उपलब्ध मान ली जाती है। उससे छेड़छाड़ और बलात्कार की कोशिश उनका सहज अधिकार बन जाता है। पंचायत उसके नियति का फैसला करती है। फूलन और उसके मां-बाप के लिए उसकी जिंदगी बोझ बन जाती है। फूलन मरना चाहती है। उसके मां-बाप भी यही सोचते हैं कि काश वह मर जाती।

फूलन स्वयं और अपने मां-बाप के साथ होने वाले अन्यायों का प्रतिवाद और प्रतिरोध करती है। उसके और उसके मां-बाप व अन्य परिजनों का सबसे बड़ा उत्पीड़क स्वयं उसके पिता का सौतेला भाई और बाद में उसका बेटा मायादीन है, जो फूलन के पिता की सारे खेत हड़प चुका है। वह तरह-तरह से फूलन और उसके परिवार को तबाह करने की कोशिशें करता है। वह चाहता है कि यह परिवार गांव छोड़कर चला जाए, क्योंकि फूलन के पिता देवीदीन अपनी जमीन उससे हासिल करने के लिए उससे मुकदमा लड़ रहे थे। पूरे परिवार में एकमात्र फूलन उसके अन्यायों का विरोध करती, उसका जवाब देती थी, और समय-समय पर उसका मुकाबला करती थी। वह गांव के सरपंच और उसके बेटों की गंदी निगाहों और हरकतों के सामने भी रह-रह कर डटकर खड़ी होती थी।

मायादीन और सरपंच की साजिशों के चलते ही उसका विवाह 33 साल के अधेड़ से हुई थी। फिर वे लोग मिलकर फूलन को उसके पति के पास वापस भेजने की साजिश रचते हैं, ताकि उन्हें उसका सामना न करना पड़े, ताकि वे मनमाना व्यवहार उसके परिवार के साथ कर सकें। दुबारा उसे उसके उसी पति के पास जबर्दस्ती भेज दिया जाता है, जिससे वह घृणा करती है, जिसकी सूरत तक भी नहीं देखना चाहती। वह उसकी नजर में बलात्कारी था। इसके बावजूद वह एक बार फिर भेज दी जाती है। इस बार उसका पति ही उसे लावारिस हालात में मायके छोड़ जाता है।

इस प्रकार फूलन एक बार फिर अपने मां-बाप के घर आती है। दिन-रात मां-बाप के साथ खटती है। लेकिन वह गांव के दबंगों की नजर में चुभती रहती है। यहां तक कि उसे झूठे मुकदमे में फंसाकर जेल भी भेज दिया जाता है, तब वह करीब 15 साल की रही होगी। वहां पुलिस लॉकअप में उसे नंगा किया जाता है, मारा-पीटा जाता है, तरह-तरह से यातनाएं दी जाती हैं। यहां तक कि पुलिसवाले भी उसके साथ बलात्कार करतें हैं और वह भी उसके पिता के सामने। किसी तरह वह जेल से छूटती है। फिर गांव के ठाकुरों के बेटों के द्वारा बलात्कार का शिकार होती है। लेकिन वह प्रतिवाद और प्रतिरोध करती है।

सरपंच, मायादीन (फूलन का चचेरा भाई) और अन्य दबंग मिलकर डाकुओं से उसका अपहरण करने को कहते हैं। फूलन को उसके मां-बाप के सामने ही उसके घर से डाकू उठाकर ले जाते हैं। उसके मां-बाप की बुरी तरह पिटाई करते हैं।

लेकिन डाकुओं के बीहड़ में भी उसे बलात्कारियों से मुक्ति नहीं मिलती। गिरोह का सरगना बबलू गुर्जर उसके साथ बार-बार बलात्कार की कोशिश करता है। उसे गंदी-गंदी गालियां देता है। ऐसे समय में विक्रम मल्लाह जो कि उसी गिरोह का एक सदस्य होता है, उसका साथ देता है। वह तंग आकर एक दिन बबलू गुर्जर की हत्या कर देता है। तब फूलन के जीवन में पहली बार सुख और प्यार का एक फूल खिलता है। फूलन फूल सिंह बन जाती है। डाकुओं के गिरोह की एक सदस्य। विक्रम मल्लाह उससे शादी करता है। वह विक्रम मल्लाह की दूसरी पत्नी बनती है। उसे थोड़ा सम्मान और इज्जत मिलती है। लेकिन वह पुलिस और राज्य की नजर में एक नामी-गिरामी डकैत बन जाती है। यह सब कुछ फूलन के करीब 16-17 वर्ष की उम्र का किस्सा है।

विक्रम के साथ और प्यार का यह समय ज्यादा दिन नहीं चलता। उस गिरोह के मुख्य सरगना श्रीराम और लाला सिंह जेल से छूटकर आते हैं तथा गिरोह की कमान संभाल लेते हैं। वे फूलन को अपनी रखैल बनाना चाहते हैं। फूलन और विक्रम दोनों इंकार कर देते हैं। वे आगबबूला हो जाते हैं कि कैसे एक मल्लाह की बेटी और एक मल्लाह उनकी बातों को मानने से इंकार कर सकते हैं। धोखे से श्रीराम और लाला सिंह दोनों मिलकर विक्रम मल्लाह की हत्या कर देते हैं तथा फूलन को 21 दिनों तक बंधक बनाकर अपने गांव बेहमई में रखते हैं। वहां 21 दिनों तक फूलन के साथ बलात्कार का सिलसिला चलता रहता है। उसके साथ गांव के अन्य ठाकुर भी बारी-बारी से तब तक बलात्कार करते हैं, जब तक कि वह बेहोश नहीं हो जाती। होश में आते ही फिर बलात्कार का सिलसिला शुरू हो जाता था। किसी तरह फूलन वहां से बच निकलने में कामयाब हो जाती है। अपना गिरोह बनाती है और इस तरह पहली बार स्वतंत्र रूप से वह बागियों के एक गिरोह की सरगना (नेतृत्वकर्ता) बनती है।

इसके बाद दुनिया भर में चर्चित बेहमई की घटना 14 फरवरी, 1981 को घटित होती है, जिसमें 20 ठाकुर मारे जाते हैं। कुछ घायल होते हैं। उसके बाद फूलन देवी दुनिया भर में चर्चा और भारतीय राज्य के लिए चिंता का सबब बन जाती है। बेहमई की इस घटना के समय फूलन की उम्र सिर्फ 18 वर्ष थी। आप कल्पना कीजिए। अठारह वर्ष की आयु में एक लड़की की जिंदगी में कितना कुछ घटित होता है। उसके बाद की कहानी यहीं छोड़ता हूं।

फूलन के लिए मर्दवादी सत्ता (पितृसत्ता) का कोई ऐसा रूप नहीं है, जिसकी मार उसने नहीं झेली हो। चाहे वह मायके के परिवार की पितृसत्ता हो, चाहे पति की पितृसत्ता हो, गांव की पितृसत्ता हो, जाति की पितृसत्ता हो, पुलिस की पितृसत्ता हो या डाकुओं की पितृसत्ता हो। इसी तरह वर्ण-जाति के वर्चस्व का कोई ऐसा रूप नहीं है, जिसका सामना फूलन ने न किया हो। चाहे वे गांव के ठाकुर हों, अगल-बगल के गांवों के ठाकुर हों, चाहे सवर्ण पुलिस हो और चाहे बबलू गुर्जर, चाहे श्रीराम सिंह और लाला सिंह जैसे ठाकुर हों या उसके साथ गांव, थाने में और बेहमई में बलात्कार करने वाले सवर्ण (विशेषकर ठाकुर) हों। इसी के साथ वर्गीय शोषण-उत्पीड़न और अन्याय का कोई रूप नहीं, जिसे फूलन को नहीं झेलना पड़ा हो। चाहे उस गांव का धनी उसका सौतेला चचेरा भाई मायादीन हो, जिसने उनके पिता की जमीन हड़प ली और विभिन्न तरीकों से उसके परिवार और उसके जीवन को नरक बना दिया हो। चाहे गांव धनी व्यक्ति सरपंच हो, उसके पिता की मजदूरी न देने वाले हों, चाहे फूलन और उसकी बहन काे मजदूरी न देने वाला भट्ठा मालिक हो, ऐसे बहुत सारे।

फूलन जाति की सत्ता, मायके के परिवार की सत्ता, पति की सत्ता, गांव की सत्ता, डाकुओं की सत्ता और राजसत्ता सबसे टकराई। सबका सामना किया, सबको चुनौती दी। फूलन सच्चे अर्थों में अब तक के भारतीय इतिहास की सबसे विद्रोहिणी महिला है, जैसा कि ‘टाइम मैगजीन’ ने उन्हें यह दर्जा दिया था।

मैंने अभी तक भारतीय जीवन-यथार्थ के बारे में जो किताबें पढ़ी हैं, उनमें फूलन की आत्मकथा भारतीय जीवन-यथार्थ को किसी भी किताब की तुलना में ज्यादा समग्रता, संश्लिष्टता और उसकी पूरी जटिलता के साथ अभिव्यक्त करती है। इन किताबों में मैं ‘गोदान’, ‘मैला आंचल’ और ‘जूठन’ को भी शामिल रहा हूं। शायद इसका कारण इसके केंद्र में एक स्त्री का होना है। एक ऐसी स्त्री, जो जाति (मल्लाह) और वर्ग (भूमिहीन मेहनतकश) दोनों रूपों में सबसे शोषित-उत्पीड़ित जाति और वर्ग ही है। इसके साथ ही वह स्त्री है। फूलन की आत्मकथा भारतीय जीवन-यथार्थ (विशेषकर हिंदी पट्टी, उसमें भी बुंदेल खंड) की सभी परतें खोल देती है। अंतर्विरोध के सभी रूप सामने ला देती है। ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ दोनों में केंद्रीय चरित्र पुरुष और किसान हैं। ये लोग मल्लाह जैसी सेवक जाति के नहीं हैं। मल्लाह जाति और भूमिहीन मेहनकश की बेटी है फूलन। लेकिन वह ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ के उच्चवर्गीय सवर्णों के वर्चस्व से उसी तरह घिरी हुई है, जैसे होरी और कालीचरण आदि घिरे हुए हैं। दूसरे शब्दों में, दमनकारी शोषक-उत्पीड़क शक्तियां ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ में से कम ताकतवर नहीं, और न ही उनकी क्रूरता और दमन उनसे कम है। बल्कि कई मामलों में ज्यादा है। लेकिन फूलन इस दमन को सहने वाली और उसका मुकाबला करने वाली एक मेहनतकश निरक्षर स्त्री है। फूलन की आत्मकथा हर उस व्यक्ति को पढ़नी चाहिए, जो भारतीय समाज को समझना और बदलना चाहता हो।

फूलन की यह आत्मकथा एक फ्रांसीसी प्रकाशक ने दो वर्षों में पेशेवर लेखकों से तैयार कराई थी। फूलन अपनी जीवन कथा कहती थीं, उसे दर्ज किया जाता था। बाद में यह सामग्री 2000 पृष्ठों की बनी। फिर पांच सौ पृष्ठों में संपादित होकर सामने आई। हर पेज पर एक-एक शब्द फूलन को सुनाकर उनके हस्ताक्षर लिए गए। ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उन्होंने जो कहा है, वही लिखा गया है। कुछ भी उसमें मिलावट नहीं की गई है। इस तरह यह आत्मकथा सामने आई। इस आत्मकथा के लिखे जाने की कहानी विस्तार से फिर कभी। यह संयोग या दुर्योग है कि फूलन के जीवन के सच को विदेशी लेखकों और प्रकाशकों ने सामने लाया। यही करीब-करीब अन्य बहुजन नायकों-नायिकाओं के मामले भी हुआ है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सिद्धार्थ

डॉ. सिद्धार्थ लेखक, पत्रकार और अनुवादक हैं। “सामाजिक क्रांति की योद्धा सावित्रीबाई फुले : जीवन के विविध आयाम” एवं “बहुजन नवजागरण और प्रतिरोध के विविध स्वर : बहुजन नायक और नायिकाएं” इनकी प्रकाशित पुस्तकें है। इन्होंने बद्रीनारायण की किताब “कांशीराम : लीडर ऑफ दलित्स” का हिंदी अनुवाद 'बहुजन नायक कांशीराम' नाम से किया है, जो राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित है। साथ ही इन्होंने डॉ. आंबेडकर की किताब “जाति का विनाश” (अनुवादक : राजकिशोर) का एनोटेटेड संस्करण तैयार किया है, जो फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित है।

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