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बिहार : राजपूतों के कब्जे में रूपौली, हारे ओबीसी, जिम्मेदार कौन?

भाजपा ऊंची जाति व हिंदू वर्चस्ववाद को बढ़ावा देने वाली पार्टी के रूप में मानी जाती है। उसका राजनीतिक कार्य व व्यवहार इसी लाइन पर चलता है। उसे जैसे ही लगता है कि माहौल अनुकूल है तो वह उच्च जाति हिंदू वर्चस्ववादी ताकतों के पक्ष में कभी शिथिल तो कभी सक्रिय हो जाती है। बता रहे हैं हेमंत कुमार

बिहार में पूर्णिया जिले की रूपौली विधानसभा क्षेत्र के उपचुनाव का नतीजा नीतीश कुमार को और अधिक कमजोर कर गया है। विधानसभा के भीतर उनकी ताकत घट गई है। तीसरे नंबर की उनकी पार्टी जनता दल यूनाईटेड (जदयू) के विधायकों की संख्या 45 से घटकर 44 हो गई है। लोकसभा चुनाव में पूर्णिया की सीट हारने के बाद पूर्णिया के इलाके में नीतीश कुमार की यह दूसरी पराजय है। नीतीश का कमजोर होना जदयू के लिए चिंता का विषय हो सकता है। लेकिन भाजपा की सेहत पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है। उसे तो कमजोर नीतीश ही पसंद हैं। सन् 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव इस बात को साबित कर चुका है।

कायदे से रूपौली विधानसभा क्षेत्र में हुए उपचुनाव में मिली हार एनडीए (जदयू, भाजपा, लोजपा-रामविलास, हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा और उपेंद्र कुशवाहा नीत राष्ट्रीय लोकमंच) की संयुक्त हार है। लेकिन द्विज वर्चस्ववादी मीडिया इसे नीतीश की हार के रूप में प्रचारित कर रहा है। उसके इस कुटिल प्रचार में उसकी खुशी भी झलक जा रही है। आरएसएस और भाजपा समर्थक मतदाता समूह में खुशी की लहर है, ऐसा बताया जा रहा है।

सवाल उठता है कि अगर भाजपा के जनाधार में खुशी की लहर है तो भाजपा के भीतर क्या चल रहा है? जाहिर है कि एनडीए का घटक होने के नाते भाजपा नीतीश की पार्टी की हार पर खुशी तो नहीं जता सकती है। तब एक और सवाल उठता है कि क्या भाजपा समर्थक मतदाता समूह या दूसरे शब्दों में कहें तो भाजपा के कोर वोटरों में खुशी की लहर से भाजपा का कोई लेना-देना है या नहीं?

इस सवाल का सीधा जवाब तो यह है कि भाजपा अपने मतदाता समूह की खुशी में शामिल है। केवल इसका इजहार नहीं कर पा रही है। भाजपा ऊंची जाति व हिंदू वर्चस्ववाद को बढ़ावा देने वाली पार्टी के रूप में मानी जाती है। उसका राजनीतिक कार्य व व्यवहार इसी लाइन पर चलता है। लेकिन वह इस लाइन पर बहुत संभल-संभल कर चलती है। उसे जैसे ही लगता है कि माहौल अनुकूल है तो वह उच्च जाति हिंदू वर्चस्ववादी ताकतों के पक्ष में कभी शिथिल तो कभी सक्रिय हो जाती है।

बाएं से रूपौली विधानसभा उपचुनाव के विजेता निर्दलीय शंकर सिंह, राजद की उम्मीदवार बीमा भारती व जदयू के उम्मीदवार कलाधर मंडल

रूपौली में ऐसा ही हुआ है। पिछड़ा-अति पिछड़ा और अल्पसंख्यक बहुल रूपौली विधानसभा क्षेत्र में राजपूत जाति के शंकर सिंह चुनाव जीत गए। जबकि अति पिछड़ा समुदाय की गंगोता जाति के दोनों उम्मीदवारों (जदयू के कलाधर प्रसाद मंडल और राजद की बीमा भारती) को पराजय का सामना करना पड़ा।

रूपौली की सीट जदयू की परंपरागत सीट रही है। साल 2000 में निर्दलीय चुनाव जीतने वाली बीमा भारती 2005 से इस क्षेत्र से लगातार जीत दर्ज करती रही हैं। हालांकि 2005 के फरवरी महीने में हुए बिहार विधानसभा चुनाव में लोजपा के प्रत्याशी रहे शंकर सिंह ने बीमा भारती को हरा दिया था। लेकिन सरकार नहीं बनने के कारण उसी साल नवंबर महीने में दुबारा चुनाव हुआ और बीमा ने जीत हासिल की। तबसे प्रत्येक चुनाव में बीमा रूपौली में शंकर सिंह को बड़े अंतर से हराती रहीं। बीमा भारती साल 2000 में निर्दलीय चुनाव जीतने के बाद राजद में शामिल हो गई थीं। लेकिन 2010 में वह जदयू में चली गई थीं। 2024 में राजद में वापसी से पहले तक जदयू के टिकट पर चुनाव जीतती रहीं। पिछले 2020 के चुनाव में बीमा को 64,374 वोट मिले थे। जबकि शंकर सिंह 44,994 वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे थे। शंकर सिंह को 2010 में 27,171 मत मिले थे, जबकि बीमा भारती को 64,887 मत मिले थे। साल 2015 में बीमा भारती ने भाजपा प्रत्याशी को 10 हजार से अधिक वोटों के अंतर से हराया था। रूपौली में बीमा अजेय दिख रही थीं। उनकी प्रत्येक जीत में उनके पति अवधेश मंडल का बड़ा हाथ माना जाता रहा है। अवधेश बाहुबली बताये जाते हैं। उनके खिलाफ कई मामले दर्ज हैं। उपचुनाव से पहले पूर्णिया के भवानीपुर के एक बड़े कारोबारी की हत्या में आरोपित होने के बाद अवधेश मंडल और उनके पुत्र फरार चल रहे हैं। हालांकि इस मामले में नाम आने पर अवधेश ने खुद को निर्दोष बताते हुए कहा था कि साज़िश के तहत उनका नाम डाला गया ताकि बीमा को चुनाव में हराया जा सके।

बीमा भारती से लगातार हारने वाले शंकर सिंह दबंग अगड़ी जातियों की निजी सेना नॉर्थ बिहार लिबरेशन आर्मी के अध्यक्ष बताए जाते हैं। हलफनामे के मुताबिक इनके खिलाफ 19 आपराधिक मामले दर्ज हैं। शंकर सिंह इस बार फिर से लोजपा के टिकट पर रूपौली उपचुनाव लड़ना चाहते थे। लेकिन बात बनी नहीं और वह निर्दलीय मैदान में उतर गये। दूसरी और नीतीश कुमार ने कलाधर मंडल को उम्मीदवार बना दिया। कलाधर और बीमा भारती दोनों ही गंगोता जाति से आते हैं। गंगोता उस क्षेत्र में परंपरागत रूप से लड़ाकू जाति मानी जाती है। सवर्ण खासकर राजपूत जाति की दबंगई के खिलाफ संघर्ष की अगुवाई गंगोता जाति के लोग ही करते रहे हैं। बीमा भारती के पति इसी संघर्ष की उपज बताए जाते हैं।

रूपौली के उप चुनाव में दोनों गठबंधनों से गंगोता जाति का उम्मीदवार उतारे जाने से पिछड़ा, अति पिछड़ा और मुस्लिम वोटरों में विभाजन होना तय माना जा रहा था। इस विभाजन के भीतर शंकर सिंह के समर्थकों को उम्मीद की किरण दिखी।

सवर्ण वर्चस्ववादी मीडिया ने शुरू से ही शंकर सिंह को इस उपचुनाव में बड़े खिलाड़ी के रूप में पेश करना शुरू किया। उसके पीछे एक वजह यह भी थी कि बीमा भारती पूर्णिया लोकसभा चुनाव में मात्र 27-28 हजार वोट ला पाई थीं। वह अपने क्षेत्र रूपौली में भी पिछड़ गई थीं। चुनाव प्रचार में यह बात नीचे तक गई कि मुकाबला शंकर सिंह और कलाधर मंडल के बीच है। बीमा भारती तीसरे नंबर पर पिछड़ रही हैं। इसका असर भाजपा समर्थक वोटरों पर सबसे अधिक दिख रहा था। खासकर भाजपा के कोर वोटर – अगड़ी जातियों के वोटरों को लगा कि इस क्षेत्र को पिछड़ों की पकड़ से मुक्त कराने का यह सुनहरा अवसर है। लिहाजा शंकर सिंह के पक्ष में अगड़ों की गोलबंदी ने मध्यवर्ती जातियों को भी आकर्षित किया।

लेकिन रूपौली को जीतने के लिए नीतीश कुमार और उनकी पार्टी पूरी ताकत झोंक रही थी। धमदाहा की विधायक और नीतीश सरकार में मंत्री लेसी सिंह जो राजपूत जाति से आती हैं, उनको अग्रिम मोर्चे पर लगाया गया था। नीतीश ने तीन-तीन सभाएं की। जदयू के कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष संजय झा, मंत्री विजय कुमार चौधरी, श्रवण कुमार समेत सभी मंत्री कैंप कर रहे थे। भाजपा की ओर से उपमुख्यमंत्री विजय सिन्हा भी क्षेत्र में थे। इतनी ताकत झोंकने के बाद भी एनडीए के नेता शंकर सिंह के पक्ष में हो रही गोलबंदी को रोक नहीं पाए। जदयू के कलाधर मंडल के पक्ष में भाजपा समर्थक वोटरों का झुकाव हुआ ही नहीं। यही वजह है कि राजपूत बहुल बूथों पर कलाधर मंडल को वोट नहीं मिला।

अब सवाल उठता है कि राजद अपने उम्मीदवार की जीत के लिए क्या कर रहा था? तेजस्वी यादव की एक चुनावी सभा हुई। वह भी अंतिम समय में। राजद ने महागठबंधन के सहयोगी दलों का सहयोग लेना जरूरी समझा ही नहीं। कांग्रेस या वामपंथी नेताओं को पूछा तक नहीं गया। पूर्णिया के सांसद पप्पू यादव से बनी दूरी पाटने की कोई कोशिश नहीं हुई। बीमा भारती अपने स्तर से पप्पू यादव से सहयोग मांगती रहीं। लेकिन राजद नेतृत्व ने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। ऐसे में पप्पू यादव की भूमिका कहीं दिखी ही नहीं।

अब अगर यह प्रचार किया जा रहा है कि पप्पू यादव ने सहयोग नहीं किया तो पूछा जा सकता है कि राजद ने जब उनसे सहयोग मांगा ही नहीं तो उनसे सहयोग की उम्मीद कैसे की जा रही थी? क़ायदे से देखा जाए तो रूपौली में राजद उम्मीदवार के पक्ष में वोट मांगने वाले या वोटरों को गोलबंद करने वाले लोग दिख ही नहीं रहे थे। ऊपरी प्रचार के सिवा जमीन पर कोई गोलबंदी दिख ही नहीं रही थी। लग रहा था कि राजद नेतृत्व ने चुनाव को ‘भगवान भरोसे’ छोड़ दिया था। ऐसे में भाजपा के कोर वोटरों के लिए भी यह एक सुनहरा अवसर साबित हुआ। रूपौली में जदयू का उम्मीदवार जीतता तो नीतीश मजबूत होते। भाजपा को इससे फर्क नहीं पड़ता। असलियत यही है कि भाजपा को मजबूत नहीं, बल्कि कमजोर नीतीश चाहिए।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

हेमंत कुमार

लेखक बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं

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