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फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन के विरुद्ध है मराठा आरक्षण आंदोलन (दूसरा भाग)

मराठा आरक्षण आंदोलन पर आधारित आलेख शृंखला के दूसरे भाग में प्रो. श्रावण देवरे बता रहे हैं वर्ष 2013 में तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण द्वारा गठित नारायण राणे समिति के बारे में और यह भी कि कैसे इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर मराठों को स्वतंत्र रूप से 16 प्रतिशत आरक्षण देने का एलान किया गया

पहले भाग से आगे

राणे समिति का सच जब सामने आया

संसार में ब्राह्मण जाति के समान लचीली कोई अन्य जाति नहीं मिलेगी। अपनी जाति के व्यापक हित के लिए अपनी ही जाति के व्यक्तियों तक की हत्या करने/करवाने का महान एवं पवित्र कार्य केवल ब्राह्मण जाति के लोग ही कर सकते हैं। 

इसी प्रकार, बहुजनों के बीच अपनी ही ब्राह्मण जाति के विरोध में बोलने वाले लोगों को तैयार करना या ब्राह्मणवादी वर्चस्व की आलोचना करने के लिए बहुजनों के बीच से संगठन बनाने का काम भी केवल ब्राह्मण ही कर सकता है। सवाल है कि बहुजन समाज में ब्राह्मणवादी वर्चस्व का विरोध करनेवाले संगठनों/व्यक्तियों का निर्माण ब्राह्मण समाज के लोग क्यों करते हैं? इसका जवाब है कि उनके द्वारा तैयार किए गए बहुजनों के बीच के व्यक्ति या संगठन उनके नियंत्रण में रहते हैं और उन्हें सही समय पर सही जगह पर इस्तेमाल करके बहुजनों में फूट डालने का काम किया जा सकता है। इनका उपयोग ब्राह्मणों के व्यापक हित में किया जा सकता है। जब ब्राह्मण विरोधी लड़ाई जोरों पर होती है तो ये बहुजन संगठन बहुजनों से दगाबाजी करते हैं, अपनों से गद्दारी करते हैं और अपने छोटे स्वार्थ के लिए ब्राह्मणी छावनी को मजबूत करते हैं। दलित-बहुजन समाज में ऐसे अनेकानेक उदाहरण हैं। मराठों के बीच भी ऐसे संगठनों की भरमार है। हाल ही में उजागर हुआ सबसे बड़ा उदाहरण है ‘मराठा सेवा संघ’।

मराठा सेवा संघ ब्राह्मणों के आशीर्वाद से बना था। यह मराठा सेवा संघ के सदस्यों ने 1988 में आंबेडकर की किताब ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ का दहन और मंडल आयोग की अनुशंसाओं के लागू किए जाने का विरोध करके सिद्ध कर दिया था। इसलिए मराठा जाति अकेली पड़ गई और ओबीसी ने उन्हें आसानी से हरा दिया। मंडल आयोग की अनुशंसाएं लागू करवाकर ओबीसी विजयी हुआ। इसलिए विरोधियों ने यह मान लिया कि अब मंडल आयोग के खिलाफ लड़ने से कोई फायदा नहीं है। लेकिन उन्होंने ओबीसी के लिए आरक्षण के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी।

इसके बाद ओबीसी सूची में मराठा जाति को दर्ज करने अथवा सीधे-सीधे कुनबी जाति की ओबीसी में घुसपैठ कराने का निर्णय लिया गया। यह लड़ाई बड़ी और नए स्वरूप की थी। इसके प्रथम चरण में मराठा सेवा संघ की लड़ाई जाति-द्वेष और दबंगई से लड़ी गई। इसके लिए संघ के मराठों को कोई नई रणनीति बनाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।

लेकिन दूसरे चरण में मराठा सेवा संघ की लड़ाई बिना नई रणनीति अपनाए हो ही नहीं सकती थी, क्योंकि इस लड़ाई में उन्हें दलितों का साथ चाहिए था। ब्राह्मणवाद का विरोध पर ही दलित हमारे साथ आएंगे, इस बात का यकीन मराठों और ब्राह्मणों दोनों को था। लेकिन वे जानते थे कि ब्राह्मणवाद का विरोध करने के लिए उनके धर्मशास्त्रों का अध्ययन करना होगा। इसके अलावा उन्हें जोतीराव फुले, शाहूजी महाराज और डॉ. आंबेडकर को पढ़ना होगा। इन सबके लिए मराठा सेवा संघ ने विद्वानों की एक फौज खड़ी की। इनमें प्रवीण दादा गायकवाड, श्रीमंत कोकाटे, प्रभाकर पावड़े, मा. म. देशमुख, बनबरे, सालुंखे आदि शामिल रहे। मराठा सेवा संघ के संस्थापक-अध्यक्ष पुरूषोत्तम खेडेकर स्वयं एक विचारक, लेखक एवं साहित्यकार थे। खेडेकर साहब ने स्वयं ब्राह्मणों के विरुद्ध अत्यंत आक्रामक पुस्तकें लिखी हैं। कहना अतिशयोक्ति नहीं कि इसलिए बामसेफ जैसे दलित संगठन आसानी से मराठा सेवा संघ के गले मिल गए।

ठाणे में मराठों को ओबीसी कैटेगरी में आरक्षण देने का विरोध करते ओबीसी संगठनों के सदस्य

यह ब्राह्मणी षड्यंत्र दलितों का समर्थन हासिल करने के लिए रचा गया था और वे इसमें सफल भी हुए।

कोई व्यक्ति अथवा संगठन छुपा हुआ ब्राह्मणवादी है, यह सिद्ध करने के लिए उनकी पत्रिका अथवा इसी तरह का कोई एक दस्तावेज ही पर्याप्त होता है। मसलन, मराठा सेवा संघ के रजत जयंती कार्यक्रम में कट्टर संघी नितिन गडकरी और देवेंद्र फड़णवीस मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे, लेकिन उनके मित्र संगठन बामसेफ के नेताओं को मंच पर आने तक की अनुमति नहीं थी। ओबीसी तो खैर कहीं भी नहीं था।

ओबीसी में घुसपैठ करने के लिए मराठों के सामने बड़ी चुनौती यह साबित करने की थी कि वे पिछड़े हैं। इसके लिए विभिन्न पिछड़े वर्ग आयोगों की रपटों की आवश्यकता होगी। यानी उन्हें अपने पिछड़ेपन को कानूनी रूप में दर्शाना होगा। इसके लिए दिल्ली और मुंबई में वकीलों की फौज खड़ी करनी होगी। उन्होंने ऐसा किया भी। बेशक, इन वकीलों की फीस पर महाराष्ट्र सरकार के खजाने से लाखों रुपए खर्च किए गए। लेकिन चूंकि ब्राह्मण-मराठा जाति का शासन था, इसलिए सरकारी खजाने पर उनका निजी स्वामित्व था।

नतीजा यह हुआ कि ‘कुनबी-मराठा’ और ‘मराठा-कुनबी’, जिस जाति का कोई अस्तित्व ही नहीं था, उस जाति को ओबीसी सूची में डालकर घुसपैठ करने का पहला प्रयास 2004 में हुआ जो 2013 तक चला।

लेकिन ‘मराठा’ शब्द के कारण इस घुसपैठ में बाधा आ रही थी। इसलिए वर्ष 2013 में जब पृथ्वीराज चव्हाण (मराठा) मुख्यमंत्री थे, तब ऐन चुनाव के मौके पर नारायण राणे की अध्यक्षता में ‘राणे समिति’ का गठन किया गया। हालांकि यह समिति वैध नहीं थी। इसकी वजह यह कि जब राज्य में पहले से ही एक आधिकारिक ‘राज्य पिछड़ा आयोग’ मौजूद था, तो एक और पिछड़ा समिति का गठन करना न केवल अवैध था, बल्कि अनैतिक भी था। दूसरी वजह यह कि सुप्रीम कोर्ट के 1992 के फैसले के मुताबिक कोई जाति पिछड़ी है या नहीं, इसका फैसला सिर्फ राज्य पिछड़ा आयोग ही कर सकता है, दूसरा कोई और नहीं।

हालांकि यह समिति ओबीसी आयोग जैसी थी, फिर भी इस समिति का अध्यक्ष एक मराठा था और अधिकांश सदस्य मराठा थे। इसके अलावा इस समिति के गठन में सर्वोच्च न्यायालय के 1992 के मंडल मामले में दिए गए फैसले में निर्धारित मानदंडों का उल्लंघन किया गया। इस मानदंड के मुताबिक, राज्य पिछड़ा आयोग का अध्यक्ष हाई कोर्ट का सेवानिवृत्त न्यायाधीश होना चाहिए। लेकिन चव्हाण सरकार द्वारा गठित राणे समिति के अध्यक्ष नारायण राणे कांग्रेस के विधायक थे। साथ ही सुप्रीम कोर्ट के नियम और शर्तों के मुताबिक राज्य पिछड़ा आयोग के सदस्यों को विभिन्न क्षेत्रों का विशेषज्ञ होना जरूरी है। जबकि वास्तविकता यह थी कि राणे समिति में अध्यक्ष समेत कोई भी सदस्य संबंधित विषय का विशेषज्ञ नहीं था।

लेकिन मराठा मुख्यमंत्री चव्हाण ने ‘जाति के लिए’ अनैतिक आचरण करते हुए पहले तो इस समिति का गठन किया और फिर इस समिति की अनुशंसा पर मराठों को 16 प्रतिशत आरक्षण स्वतंत्र समूह के रूप में दे दिया।

किसी जाति के कल्याण के लिए काम करने में कुछ भी गलत नहीं है। तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण द्वारा मराठा जाति को आरक्षण देना गलत नहीं था। लेकिन यह आरक्षण नियमों के अनुरूप नहीं था, सभी की सहमति से नहीं था, संविधान का उल्लंघन करने वाला था और सुप्रीम कोर्ट की अवमानना ​​करनेवाला था। इसलिए इसे उचित कैसे कहा जा सकता है? यह ‘जाति के लिए’ अनैतिक आचरण करना कहा जाना चाहिए।

राणे समिति के गठन से मराठों की उम्मीदें बढ़ गईं। अब वे खुलेआम मांग करने लगे कि हम अलग से आरक्षण नहीं, सिर्फ ओबीसी कैटेगरी में ही आरक्षण चाहते हैं। 

मराठों की इस अनैतिक और असंवैधानिक मांग का विरोध करने के लिए हमलोगों ने डाॅ. नारायणराव मुंडे की अध्यक्षता में ‘आरक्षण बचाव समिति’ का गठन किया और 9 अप्रैल, 2013 को मुंबई के आजाद मैदान में धरना दिया।

इस धरने में शामिल होने वाले ओबीसी वर्ग के लोगों में दहशत पैदा करने के लिए जानबूझकर हमारे प्रदर्शन स्थल के बगल में मराठाओं ने भी अपना आयोजन किया। कानफोड़ू डीजे का इस्तेमाल करके परेशान किया गया। खूब नारेबाजी भी की गईं। लेकिन उस दबंगई की परवाह न करते हुए ओबीसी कार्यकर्ता इस धरना आंदोलन में सफल रहे। इसका असर निश्चित तौर पर राणे समिति के काम और रिपोर्ट पर पड़ा। ओबीसी कोटे से ही आरक्षण मिले, उनकी यह मांग हवा हो गई। साथ ही चुनाव के बाद हाई कोर्ट ने इस मराठा आरक्षण को अवैध घोषित कर दिया, क्योंकि हमलोगों ने बार-बार इस सवाल को उठाया कि राणे समिति किस तरह गैर-संवैधानिक है।

उस समय कमलाकर दराडे, एड. संघराज रूपवते, चंद्रकांत बावकर और प्रो. शंकरराव महाजन ने बड़ी बहादुरी से अदालती लड़ाई लड़ी और जीत भी हासिल की।

क्रमश: जारी

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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