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स्मृति शेष : आजीवन हाशिये का मजबूत स्वर रहे बाबूलाल मधुकर

हिंदी और मगही के शीर्ष साहित्यकार व बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य रहे बाबूलाल मधुकर का निधन गत 14 जुलाई काे हो गया। उनके जीवन-संघर्ष, साहित्यिक व राजनीतिक योगदानों को श्रद्धांजलि स्वरूप स्मरण कर रहे हैं अरुण नारायण

बाबूलाल मधुकर का इसी महीने की 14 जुलाई को निधन हो गया। वह महीने भर से कंकड़बाग, पटना के एक निजी अस्पताल में भर्ती थे। दलित-बहुजन परंपरा से आनेवाले वे ऐसे राजनीतिक कर्मी और साहित्यकार थे, जिन्होंने सदैव अपने रचनात्मक लेखन से हिंदी के जातीय और संकीर्ण परिवेश को लोकतांत्रिक बनाने का जतन किया। उनके पिता कलकत्ता के चटकल में मजदूर थे और दादा पलासी के युद्ध में बड़ी भूमिका के लिए जाने गये थे। इनके बड़े भाई बालगोविंद पासवान सुभाष चंद्र बोस के संगठन आजाद हिंद फौज से जुड़े थे और जब सुभाषचंद्र बोस बिहार के दौरे पर आए थे, तब वे उनके साथ थे।

बाबूलाल मधुकर पर मां का गहरा प्रभाव था। इनके पिता चाहते थे कि बाबूलाल कलकत्ता में ही पढ़ें और चटकल में ही काम करें, लेकिन उनकी मां को यह पसंद नहीं था। वह साफ कहती थीं कि पति की तरह अपने बच्चों को चटकल की गुलामी नहीं करने दूंगी।

बाबूलाल मधुकर की शख्सियत के दो पक्ष थे। एक उनकी सामाजिक, राजनीतिक सक्रियता का पक्ष और दूसरा उनकी साहित्यिक सक्रियता का पक्ष। आजीवन वह समाजवादी धारा की राजनीति में सक्रिय रहे और कर्पूरी ठाकुर के कारण 1978 में बिहार विधान परिषद् के सदस्य बने। बिहार की समाजवादी राजनीति में वह खुद को लोहिया के ज्यादा करीब पाते थे और उनकी जाति नीति के परम प्रशंसक थे। यह अकारण नहीं कि बिहार की सामंती और जातिवादी जड़ता को तोड़ने के अभियान से वे कभी अलग नहीं हुए। बिहार आंदोलन में जिन कवि, लेखकों ने कविता के मंच से सत्ता विरोधी लहर पैदा की, उनमें एक मजबूत स्तंभ बाबूलाल मधुकर भी रहे। 1974 के जेपी आंदोलन के दौरान फणीश्वरनाथ रेणु के सान्निध्य में नागार्जुन, रामप्रिय मित्र लालधुआं आदि कवियों के साथ सड़क, नुक्कड़, चौक-चौराहों पर अपनी आंदोलनधर्मी कविताओं के पाठ के कारण उन्हें कारावास की सजा हुई। इन घटनाओं ने उन्हें राजनीतिक रूप से और मुखर कर दिया। उन्होंने राहुल सांकृत्यायन, नलिन विलोचन शर्मा, अनूपलाल मंडल, शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामप्रिय मित्र लालधुआं और फणीश्वरनाथ रेणु के साथ पटना के साहित्यिक परिदृश्य को गुलजार किया।

मगही में अपने उपन्यास ‘रमरतिया’ और ‘अलगंठवा’ के माध्यम से उन्होंने मध्य बिहार की जमीनी हकीकत को जिस रूप में अभिव्यक्त किया, वह न सिर्फ अलग से ध्यान खींचनेवाला था, अपितु मगही साहित्य के आभिजात्य परिवेश को सबॉल्टर्न विमर्श में तब्दील करनेवाली घटना थी। उनके ‘रमरतिया’ उपन्यास का रूसी सहित दर्जनों भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ।

बाबूलाल मधुकर (31 दिसंबर, 1941 – 14 जुलाई, 2024)

आज के नालंदा जिले के इस्लामपुर के पास ढेकवाहा गांव में पासवान जाति (दलित) के परिवार में 31 दिसंबर, 1941 को बाबूलाल मधुकर का जन्म हुआ। अपनी प्रारंभिक शिक्षा उन्होंने गांव के स्कूल से पाई। 1958 में उन्होंने नेताजी सुभाष हाई स्कूल, इस्लामपुर से मैट्रिक किया। फिर पटना आ गए। यहां टिके रहने के लिए कठिन संघर्ष किया। कपड़ा धोने से लेकर पलदारी (मंडियों में अनाज का बोरा ढोना) तक का काम किया, लेकिन उनकी परेशानी कम न हुई। उन्होंने पटना कॉलेज से इतिहास विषय में बी.ए (प्रतिष्ठा) किया। यहां अंसारी हॉस्टल में उन्हें ठौर मिला और यहीं से वे पटना के साहित्यिक और राजनीतिक वातावरण में घुल-मिल से गए। उन्होंने विशारद साहित्य रत्न की डिग्री इलाहाबाद तथा साहित्य अलंकार की डिग्री देवघर विद्यापीठ से पाई।

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बाबूलाल मधुकर की रचनात्मक उपलब्धियां – हिंदी और मगही – दोनों भाषाओं में समान रूप से रही। उन्होंने यूं तो नाटक, कविताएं, खंड काव्य, उपन्यास, औपन्यासिक जीवनी आदि कई विधाओं में लिखा, लेकिन मुख्य रूप से कविता और उपन्यास उनकी मानक विधा थी, जिससे उनकी एक पहचान बनी। अपनी एक कविता कठगर-रसगर दतवन में वह आदिवासी समाज और उनकी स्त्रियों की विडंबना को, जिस संवेदना और शिद्दत के साथ अभिव्यक्त करते हैं, वह अत्यंत मारक है। हिंदी में आदिवासी चेतना की यह एक प्रतिनिधि कविता है। हमारा सभ्य और नागर समाज अपने ही समाज की इन स्त्रियों के प्रति क्या सोच रखता है, यह कविता पाठकों को गहरे क्षोभ से भर देती है। कविता के अंत में कवि इन स्त्रियों में आशावाद का संचार करते लिखता है–

ओ संथाल परगना—सिंहभूमि की बेटियो!
तुम्हें क़तई निराश नहीं होना है
भाग्य-भरोसे क़तई नहीं सोना है
देखो पूरब में घन-घटा छा रही है
पढ़ो
बिजलियां इतिहास के अद्यतन
सुनहरे पृष्ठ पर
तुम्हारे ही नाम लिख रही हैं
और कड़क-कड़क कर कह रही हैं
दतवन के साथ-साथ
पर्वतास्त्र लाने के लिए
हां, पर्वतास्त्र
नगर-सभ्यता के बीचों-बीच
पटक देने के लिए—
सभ्यता-संस्कृति
अस्मत और क़िस्मत
की रक्षा के साथ-साथ
तुम्हारी भूख और ग़रीबी
मिटा देने के लिए!

‘नयका भोर’ नाम से उनकी पहली पुस्तक छपी, जो मगही में नाटक विधा की रचना थी। उसके बाद मगही में उनका एक काव्य संकलन ‘रूक्मीनी की पांती’ छपा और ‘रमरतिया’ और ‘अलगंठवा’ जैसा उपन्यास, जिसके कारण उनकी अपनी एक स्वतंत्र पहचान बनी। हिंदी में ‘लहरा’, ‘अंगुरी के दाग’ और ‘मसीहा मुस्कुराता है’ उनका काव्य संकलन। उन्होंने अपनी जीवनी दो खंडों में हिंदी में लिखी, जो ‘नंदलाल की औपन्यासिक जीवनी’ नाम से छपी। अंतिम दिनों में वे मक्खलि गोसाल और फातिमा शेख के जीवन-संघर्ष पर काम कर रहे थे, लेकिन अचानक उनके निधन से यह काम अधूरा ही रह गया। अपनी रचनात्मक उपलब्धियों के लिए उन्हें कई तरह के सम्मान से भी सम्मानित किया गया, जिनमें बिहार सरकार का ग्रियर्सन सम्मान मुख्य है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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