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सिंगारवेलु चेट्टियार का संबोधन : ‘ईश्वर’ की मौत

“गांधी का तथाकथित अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम, जनता में धार्मिक विश्वासों को मजबूत करने का एक उपकरण मात्र है। लगभग 6 करोड़ जनसंख्या वाले अछूत आर्थिक रूप से गरीब, विपन्न, दलित हैं। उन्हें किसी ईश्वर या धर्म की आवश्यकता नहीं है, उन्हें भरपेट भोजन और सम्मानजनक आजीविका मिलनी चाहिए।” पढ़ें, सिंगारवेलु चेट्टियार द्वारा वर्ष 1933 में दिया गया यह संबोधन

[मछुआरा परिवार में जन्मे मलयपुरम सिंगरावेलु चेट्टियार (18 फरवरी, 1860 – 11 फरवरी, 1946) को दक्षिण भारत में साम्यवाद का पितामह कहा जाता है। अपने सार्वजनिक जीवन का आरंभ उन्होंने बौद्धधर्म के प्रचार से किया था। रूसी क्रांति के बाद वे ‘साम्यवाद’ से जुड़े। दर्जनों श्रमिक आंदोलनों में हिस्सा लिया, हड़तालों का मार्गदर्शन भी किया। भारत में पहले साम्यवादी दल ‘लेबर एंड किसान पार्टी ऑफ हिंदुस्तान’ के गठन का श्रेय उन्हीं को जाता है। इसके अलावा 1 मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाने, देश में पहली बार लाल झंडा फहराने, पहली बार ‘कामरेड’ संबोधन का श्रेय भी उन्हीं के नाम है। वे तमिलनाडु के प्रसिद्ध गैर-ब्राह्मण नेताओं में से एक थे। वर्ष 1931 में वे पेरियार के ‘स्वाभिमान आंदोलन’ से जुड़े और उनकी पत्रिका ‘कुदी आरसु’ के लिए लिखना शुरू किया, जिन्होंने आगे आने वाले नेताओं की पूरी पीढ़ी को प्रभावित किया, जिनमें पी. जीवानंदन, अन्नादुरै आदि शामिल हैं।

प्रस्तुत आलेख अनीश्वरवाद के पैरोकार रहे चेट्टियार का अध्यक्षीय संबोधन है, जिसे उन्होंने मद्रास में 31 दिसंबर, 1933 को आयोजित प्रथम नास्तिक सम्मेलन में दिया। मूल तमिल से अंग्रेजी में इसका अनुवाद मुरुगेशन ने किया तथा हिंदी में इसका अनुवाद ओमप्रकाश कश्यप ने किया है]

प्यारे साथियो,

मैं सोचता हूं कि यह पूरे भारत में अपनी किस्म का अनूठा सम्मेलन है। कोई भी खुलेआम जोश से भरकर यह दावा कर सकता है कि इस सम्मेलन से अपने देश और यहां की जनता का भला होने वाला है। खेद की बात है कि कुछ लोग अपनी अज्ञानता के कारण इस सम्मेलन की हंसी उड़ा रहे हैं। स्वाभाविक रूप से जो आस्तिक हैं, वे निंदा करने में लगे हैं। नौकरशाही किसी-न-किसी बहाने दमन का षड्यंत्र रचती ही रहती है। यह कोई नई बात नहीं है। इतिहास में इस तरह के प्रगतिगामी सम्मेलनों का उपहास करने के अनेक उदाहरण हैं।

सच तो यह है कि उन्हें केवल उपहास करने से ही संतुष्टि नहीं मिलती। पागल और अज्ञानी दुनिया ने वैज्ञानिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार में निरंतर बाधाएं खड़ी की है। रास्ते का रोड़ा बनी है। अमेरिकी अनीश्वरवादी इंगरसोल का उनके जीवन में किसी ने भी संज्ञान नहीं लिया। लेकिन अब उनकी याद के लिए अमेरिका में उनके जन्मदिवस मनाए जा रहे हैं। ब्रिटेन में वहां के अनीश्वरवादी ब्रेडलॉफ को ताउम्र जेल की सलाखों के पीछे रखा गया था। लेकिन वहां क्या हुआ? आज ब्रिटेन में ब्रेडलॉफ के सम्मान में स्मृति दिवस का आयोजन किया जा रहा है। मुझे पूरा विश्वास है कि आने वाले समय में इस देश में भी इससे भी कहीं बड़े और शानदार सम्मेलन आयोजित किए जाएंगे। यह संभव है कि आने वाले समय में लोग अनीश्वरवादियों का नाम-पता भूल जाएं। लेकिन यह तय है कि उनके विचार लोगों के दिलो-दिमाग पर हमेशा छाए रहेंगे।

अनीश्वरवाद/बुद्धिवाद बहुत पुराने दर्शनों में से एक है। इसका उदय आस्तिकता/ईश्वरवाद के साथ-साथ उसके समानांतर हुआ था। जब लोगों के दिलों में ईश्वर की धारणा पनपी, उन्हीं दिनों ईश्वर न होने का विश्वास भी उनके दिमाग में पैदा हुआ था। जिस समय मनुष्य ने बोलना शुरू किया, जब उसे अपने विचारों को अभिव्यक्त करने की कला आई, उस समय तक मनुष्य किसी भी ईश्वर को नहीं जानता था। कुछ जनजातीय लोगों ने खुलेआम स्वीकार किया है कि वे किसी ईश्वर को नहीं जानते। ऐसे लोगों को हम आदिम निरीश्वरवादी कह सकते हैं।

धर्म के इतिहास के बारे में मजेदार किस्सा है। हरेक धर्म की ओर से दावा किया जाता था कि दूसरे धर्मों के जितने भी अनुयायी हैं, वे सभी अनीश्वरवादी हैं। किसी हिंदू के लिए गैर-हिंदू अनीश्वरवादी है। मुसलमान के लिए जो गैर-मुसलमान हैं, वे अनीश्वरवादी हैं। इसी तरह ऐसे ही अन्य बहुत से लोगों को अनीश्वरवादी या नास्तिक घोषित कर दिया गया था। मैं कहना चाहूंगा कि ऐसा होना एक नास्तिक के लिए सचमुच गर्व की बात है। नास्तिक केवल अधार्मिक ही नहीं होता, वह ईश्वर के अस्तित्व को भी नकार देता है।

नास्तिकवाद का जन्म संस्कृत के मूल शब्द ‘नास्ति’ से हुआ है। जिसका अर्थ है– नहीं; अथवा यह विश्वास कि किसी परासत्ता का कोई अस्तित्व नहीं है। लेकिन इसका उपयोग ऐसे व्यक्ति के संदर्भ में किया जाता है जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास करने से इंकार करता है। हम देखेंगे कि यह विचार कितना भरोसेमंद हो सकता है। हिंदुओं में जो वैष्णव हैं, वे शिव में विश्वास नहीं करते। इसी तरह शैव विष्णु के अस्तित्व को नकारते हैं। हमारे सामने शिव, विष्णु या दोनों में ही अविश्वास को लेकर कोई समस्या नहीं है! (हम दोनों को नकारते हैं।) अतः कोई आश्चर्य नहीं कि सभी प्रकार के धर्मांध और कट्टरपंथी सब नास्तिकवाद का विरोध करते हैं।

ईश्वर बहुत पुराना शब्द है। यह न तो अस्तित्ववान (पदार्थ) है और न ही किसी अस्तित्ववान वस्तु को दर्शाता है। आज तक किसी ने भी ईश्वर को न तो देखा है, न सुना है, न स्पर्श किया है और न ही सूंघकर अनुभव किया है। कोई भी वास्तविक ऐंद्रियिक अनुभूति ईश्वर को नहीं पकड़ पाई है। बावजूद इसके हमें बताया जाता है कि वह हिरण के, बैल के या किसी भी अन्य जीव के रूप में उपस्थित हो सकता है। सच तो यह है कि आजकल कोई बच्चा भी इन कहानियों पर विश्वास नहीं करेगा। किंतु ईश्वर नाम में जो डर और सम्मान की भावना अंतर्निहित है, वह किसी की भी परिकल्पना से परे है। करोड़ों लोग प्रतिदिन इस नाम को दोहराते हैं। इस शब्द की खातिर अनेक युद्ध लड़े गए हैं। ईश्वर के नाम पर लोगों का शोषण और दमन किया जाता रहा है। उन्हें जुल्मों का निशाना बनाया गया है। बावजूद ईश्वर और ईश्वरत्व पर लोगों के अटल-अटूट-अथाह प्रभाव की त्रासदी यह है कि किसी ने भी न तो ईश्वर को देखा है और न ही वह ईश्वर की पसंदों के बारे में जानता है। यह कुछ ऐसा ही है जैसे कोई अंधा, अंधेरे-बंद कमरे में काली बिल्ली खोजने की कोशिश में लगा हो। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं कि आस्तिकों ने उसे ‘मारई पोरुल’ (अलभ्य-अलक्षित) कहा है। विशिष्ट परंपरा और संस्कृति में पले-बढ़े लोग ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं। इसी को आस्तिक होना या आस्तिकता कहा जाता है। उनके विश्वास को निराधार बताना ही नास्तिकता या नास्तिक होना है।

आस्था का उदय

लाखों वर्ष पहले मनुष्य के पास कोई भाषा नहीं थी। इसलिए उन दिनों ईश्वर नामक शब्द का प्रयोग न तो रहा होगा न ही हो सकता था। वैज्ञानिकों का मानना है कि धरती पर लगभग 10 करोड़ वर्ष पहले जीवन की उत्पत्ति हुई थी। इस अवधि यानी बीते करोड़ों वर्षों में अरबों प्राणी जन्मे और मृत्यु को प्राप्त हुए। उन दिनों ईश्वर नामक शब्द की न तो जरूरत थी, न उसका कोई अस्तित्व रहा होगा। समय के साथ-साथ मनुष्य का विकास हुआ। पेड़ों से उतरकर उसने धीरे-धीरे जमीन पर चलना आरंभ किया और प्रकारांतर में अपनी वर्तमान देह-यष्टि को उसने प्राप्त किया। उसके हजारों वर्ष बाद उसने बोलना सीखा। भाषा को विकसित करने और अपने विचारों के आदान-प्रदान की कला आने में उसे हजारों वर्ष और लग गए। विचारों की सटीक अभिव्यक्ति विकसित होने के बाद ही उसने पहली बार ईश्वर शब्द का उच्चारण करना सीखा। विख्यात नृवंशशास्त्री फ्रेजर ने मानवीय विकास के विभिन्न चरणों की सविस्तार व्याख्या की है। कहने की जरूरत नहीं है कि ईश्वर शब्द मानव जाति के अस्तित्व में आने के बाद ही प्रचलन में आया। उस समय आया जब मनुष्य अपने विकास की एक मंजिल को तय कर चुका था। आदिम मनुष्य तो अल्लम-गल्लम कुछ भी, यानी आबरा का डाबरा जैसी सस्ती जादूगरी हरकतों को ही ईश्वर मान लेता है। वे उसे पांच आंखों वाला आदमी, ग्यारह सिर वाला देवता कहकर संबोधित करने लगते हैं। लाखों वर्ष बीत जाने के बाद भी, यह ईश्वर नामक शब्द आज भी बहुसम्मानित और पूज्य बना हुआ है। ऐसा है इस शब्द का चमत्कार।

यह चमत्कार क्यों और कैसे?

जंगली जानवरों से घिरा आदिमानव उनसे वैसे ही भयभीत होता जैसे बारिश, तूफान, चक्रवात, गरज, बिजली आदि से भयभीत होता था। इस भय से अपने साथियों को आगाह करने के लिए वह संकेतों का प्रयोग करता। मनुष्य जिन शक्तियों/घटनाओं के आगे खुद को असहाय मान ले, जिनपर उसका कोई वश न चलता हो– उनसे डर लगना स्वाभाविक है। इससे उसके मन में इस विचार ने जन्म लिया कि कुदरती ताकतें जो धूप, बारिश, आंधी, तूफ़ान आदि के लिए जिम्मेदार हैं, वे उससे कहीं ज्यादा ताकतवर हैं। इस निष्कर्ष से ईश्वर नामक रूढ़ अवधारणा तथा उससे जुड़े मिथकों का विकास हुआ।

उसके बाद जब मानव-समाज के अभिव्यक्ति-सामर्थ्य का विकास हुआ, लोग आसानी से अपनी बात एक-दूसरे तक पहुंचाने लगे। तब उसने ऐसे कई साधनों/संसाधनों का विकास किया जो शब्दों की मदद से विचारों के संप्रेषण करने में सहायक थे। कालांतर में तो ईश्वर की परिकल्पना को तरह-तरह के, अजीब-अजीब नामों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाने लगा। मनुष्य का दिमाग मानो ईश्वर के लिए नए-नए, अजीब-अजीब नाम गढ़ने की मशीन बन गया। तोते की तरह मनुष्य शताब्दियों से इसी शब्द को दोहराता आ रहा है।

चूंकि ये शब्द मनुष्य की अपनी रचनाएं थीं, इसलिए उसने कथित ईश्वर के नाम पर घर (मंदिर) बनाना शुरू कर दिया। जैसे वह अपने बुजुर्गों और वरिष्ठों का सम्मान करता था, उसी तरह वह ईश्वर का सम्मान करने लगा। नृत्य, संगीत, अनुष्ठान, दावतें वगैरह जो भी चीज़ें उसने अपने सुख-सुविधा के लिए ईजाद की थीं, वे सभी ईश्वर को भी अर्पित की जाने लगीं। इस प्रकार जैसे-जैसे मनुष्य आगे बढ़ा, उसी तरह ईश्वरत्व का प्रभाव भी और ज्यादा गहरा, डरावना और स्थायी होता गया। उन्हीं दिनों कुछ धूर्त्त एवं चालाक लोगों ने कमाई का आसान तरीका ढूंढ लिया। ईश्वर जो अभी तक महज शब्द या ज्यादा से ज्यादा अवधारणा मात्र था, उसे मूर्ति में बदलने का मार्ग प्रशस्त किया जाने लगा। इस तरह बिचौलिये के रूप में पुरोहित वर्ग का जन्म हुआ। पुरोहितों का जीवन इसी के सहारे था। इसलिए मानव-मन में ईश्वर के भय को चिरस्थायी बनाने के लिए उसने अपनी पूरी ताकत झोंक दी।

इन पुजारियों का अस्तित्व पूरी तरह लोगों के भय और अज्ञान पर टिका था। उन्हीं के बल पर ये फलते-फूलते थे। धीरे-धीरे काल्पनिक ईश्वर के चारों ओर धर्म, धार्मिकता और धर्माचार्यों का पूरा तंत्र विकसित हो गया। सवालों से बचने के लिए अनुष्ठानों और प्रार्थनाओं को लेकर दार्शनिक प्रणाली खड़ी गई। मूल प्रश्न आज भी वही है। ईश्वर नामक इस शब्द का वास्तविक लाभ क्या है? न जाने कितने समय से ईश्वर के नाम पर युद्धों का सिलसिला चलता आया है। इतने सारे देवताओं के बावजूद या इतने शक्तिशाली ईश्वर के होते, मनुष्य के लालच, दूसरों की संपत्ति और भू-संपदा को हड़पने की चाहत जैसी बुराइयों की क्या कोई कमी हो पाई है? क्या चोर, बलात्कारी और हत्यारे भी भगवान से प्रार्थना नहीं करते?

सिंगारवेलु के द्वारा आयोजित पहले भारतीय मई दिवस स्मृति के रूप में ट्रिप्लिकेन के नजदीक मरीन बीच पर स्थापित स्मारक प्रतिमा

मानव-पीड़ाएं

युद्ध, महामारियों, अग्निकांड, बाढ़ और दूसरी आपदाओं के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या इनके लिए कोई राक्षस जिम्मेदार है? यदि राक्षस ही जिम्मेदार है तो उस राक्षस को किसने पैदा किया था? चीता गाय पर हमला कर उसे मारकर खा जाता है। चीते को किसने बनाया और किसने बनाया गाय को? सांप मेंढकों को खा जाता है। मेंढक और सांपों को बनाने वाला कौन है? यदि मानव समाज के दुखों के लिए कोई दैत्य जिम्मेदार है, तो ईश्वर ने दैत्य को बनाया ही क्यों था? सबसे बुरी बात यह कि इस सबके बावजूद ईश्वर को दयालु और करुणामय कहा जाता है। क्या कोई आस्तिक उपर्युक्त प्रश्नों में से किसी एक का भी उत्तर दे सकता है? नहीं, इनका उत्तर उनके पास नहीं है।

क्या यह विडंबना नहीं है कि सबसे दयालु ईश्वर के नाम पर ही सबसे खूनी जंगें इस धरती पर लड़ी गई हैं? ईश्वर के नाम पर ही हजारों जैनों को जिंदा जला दिया गया था[1], मंदिरों को मिट्टी में मिला दिया गया, शताब्दियों तक धर्मयुद्ध चलते रहे। इसका एकमात्र लाभ यह हुआ कि पंडित और पुरोहित ईश्वर के नाम पर खुशहाल जीवन जीते आए हैं।

ये पंडित लोग एक ही सवाल उठाते हैं, सवाल क्या सीधी धमकी है। उनका दावा है कि यदि मनुष्य के दिमाग से ईश्वर का डर चला गया तो समाज में अत्याचार बढ़ जाएंगे। असामाजिक गतिविधियों में वृद्धि हो जाएगी। मानव समाज अपने नैसर्गिक सौंदर्य, उम्मीदों, प्रेम, सदाचार और नैतिकता से वंचित हो जाएगा। यह कितना सच है?

किसी कारागार में सजा काट रहे कैदियों के बारे में सोचिए, क्या वे नास्तिक हैं या आस्तिक? क्या सतयुग में कोई पाप या अपराध नहीं होता था? क्या तब अपराधियों को निर्ममतापूर्ण दंडित नहीं किया जाता था? क्या आजकल के पूंजीवादी मजदूरों का शोषण कर उनकी कानूनन तय मजदूरी के साथ बेईमानी कर हजम नहीं कर जाते हैं? और पूंजीवादी कौन हैं? क्या वे ईश्वरवादी नहीं है? क्या व्यापारी खाने-पीने की वस्तुओं में मिलावट करके ग्राहकों को धोखा नहीं देते? फिर ये व्यापारी कौन हैं? वे नास्तिक हैं या आस्तिक? कौन है जो मंदिर के उत्सव के दौरान मिलने वाले चढ़ावे को हड़प कर लेते हैं? पूंजीवादी, व्यापारी और दुकानदार मंदिरों तथा उनके भगवान के नाम पर लाखों रुपये खर्च करते हैं? लूटा और हड़पा हुआ धन, वह धन जो मजदूरों और आम आदमी की आंखों में धूल झोंककर जमा किया गया है, उसे मंदिरों पर खुलेआम लुटाया जाता है।

क्या अब हमें इस समस्या की जड़ पर विचार नहीं करना चाहिए? आखिर वे कौन-सी वजहें हैं, जो मनुष्य को सामाजिक अपराधों तथा दूसरे छल-कपट की ओर ले जाती हैं? इसका मूल कारण है लोगों की सामाजिक प्रस्थिति तथा सामूहिक संचेतना। यदि वर्तमान सामाजिक स्थितियों को बदल दिया जाए तो वे समाज के सोच उसकी विचारधारा में बदलाव की प्रेरणा भी जगाएंगीं। लोगों के विचारों में बदलाव होने लगेगा और याद रखिए, केवल यही एक रास्ता है, जिसपर चलकर समाज को अपराधों और पाप-कर्मों से बचाया जा सकता है। छल-कपट और अपराधों का कथित ईश्वर से कोई लेना-देना नहीं है।

ईश्वरवादी दुबारा बहस करेगा, ‘स्वर्ग और नर्क का डर बना रहना अत्यावश्यक है। वह न हुआ तो कोई गरीब को भीख नहीं देगा। जरूरतमंद की मदद के लिए उठने वाले हाथ पीछे रह जाएंगे।

इस प्रश्न के आलोक में हमारा उत्तर है– कथित दान-पुण्य मानवीय गरिमा के लिए अवमाननाकारी है। यह दानदाता और दान लेने वाले, दोनों को ही अनैतिकता की ओर ले जाता है। फिर यह भिक्षा क्यों दी जाती है? क्या भीख मांगने से किसी की गरीबी दूर हुई है? यदि ऐसा है तो समाज में गरीबी क्यों है? क्या इसका कारण समाजार्थिक असमानता नहीं है? वही गरीबी की जननी है, जो एक व्यक्ति को दूसरों के आगे हाथ फैलाने को विवश कर देती है। फिर इस असमानता का कारण क्या है? पूंजीपति मजदूरों की मजदूरी में कटौती करता है, इस तरह वह मालदार हो जाता है। मजदूरों की चुराई गई मजदूरी का बहुत मामूली हिस्सा वह भिक्षा और दान के नाम पर दूसरों को देता है। यह दिन-दहाड़े डकैती के सिवाय और कुछ भी नहीं है।

तीसरे, आस्तिक दावा करता है कि ईश्वरीय अनुभूति सौंदर्य, मानव-मूल्य, नैतिकता, सच्चाई और सदाचार से जुड़ी होती है। एक बार ईश्वरीय बोध मरा नहीं कि मानव-मूल्यों का पूरा का पूरा किला धम्म से जमीन पर जा गिरेगा। हमें इससे आपत्ति है। सौंदर्य, जीवन-मूल्य, नैतिकता आदि मूल्य एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक बदलते रहते हैं। एक मादा-बिच्छु नर बिच्छु को अतीव सुंदरी नज़र आती है, परंतु हमें उसमें सिर्फ कुरूपता नज़र आती है। किसी व्यक्ति को जो चीज सुंदर नज़र आती है, वह दूसरों को भी उतनी ही सुंदर नज़र आए, यह आवश्यक नहीं है। इसलिए सुंदरता और कुरूपता व्यक्ति-विशेष की अपनी रुचि पर निर्भर करती हैं। ईश्वर की बनाई कोई वस्तु किसी व्यक्ति के लिए सौंदर्य की प्रतिमूर्ति हो सकती है, लेकिन जरूरी नहीं कि वह दूसरे को भी उतनी ही सुंदर और मनभावन नज़र आए।

डार्विन ने इस समस्या के दूसरे पक्ष की विस्तार सहित व्याख्या की है। जीव-जंतु, कीड़े-मकोड़े, पशु-पक्षी – जो ईश्वर का नाम तक नहीं जानते – वे सुंदरता और प्रकृति का खूब आनंद उठाते हैं। इसका अर्थ है कि सुंदरता का आनंद लेने और उसकी सराहना करने का ईश्वर से कोई संबंध नहीं है। उदाहरण के लिए कोई भी शिकारी उस समय खुशी से उछल पड़ता है जब शिकार पकड़ने के लिए कोई नया विचार, कोई नई तरकीब उसके दिमाग में आ जाती है। एक कवि उस समय रोमांच से भर जाता है जब उसे अपनी कल्पना को अभिव्यक्त करने हेतु कोई नवीन उपमा सूझ पड़ती है। कुल मिलाकर जिसे खुशी कहते हैं, वह मनुष्य के निमित्त मानव-निर्मित रचना है।

ईश्वरवादी दावा करते हैं कि किसी व्यक्ति को प्रेम, करुणा, उदारता, दया आदि में विश्वास जगाने के लिए ईश्वरीय सत्ता में विश्वास दिलाना आवश्यक है। लेकिन हम देखते हैं कि पशु-पक्षियों का ईश्वरीय सत्ता में कोई विश्वास नहीं होता, फिर भी उनमें प्रेम, करुणा, उदारता, ममता जैसे गुण स्वतः होते हैं। ईश्वरीय वरदान या अनुकंपा तो उसी के पास धरी-की-धरी रह जाती है।

इतिहास के लंबे दौर में अनेक विश्वास और आस्थाएं दम तोड़ चुकी हैं। मुझे विश्वास है कि एक न एक दिन यह विश्वास यानी आस्था और आस्तिकता भी चलन-बाह्यः हो जाएगी। आप देखते हैं कि आज के ब्राह्मण अपने दैनिक कर्मकांड नहीं करते हैं। मंदिरों में जाने वाली भीड़ लगातार सिमटती; और ज्यादा सिमटती जा रही है। लोगों का ईश्वर के प्रति विश्वास निरंतर खंडित हो रहा है। डीन इंगे ने हाल ही में बढ़ती नास्तिकता पर खेद जताया है जो ईसाई जगत पर धीरे-धीरे अपनी पकड़ बना रही है।

कुछ ही अरसा पहले तमिलनाडु में समुद्री तूफान ने कहर बरपाया था। उस समय बजाय ईश्वर की प्रार्थना करने, कहर से बचाव करने की उम्मीद रखने के, लोग यह सोच रहे थे कि तूफान के शिकार हुए लोगों को किस प्रकार मदद पहुंचाई जाए। कैसे उनके दुख में ढांढस बंधाया जाए।

ईश्वरवाद का सबसे पहला और खतरनाक दुष्प्रभाव यह है कि इसके प्रभाव में मनुष्य अपनी कोशिशों की ओर से मुंह फेर लेता है। उसके भीतर अज्ञानता जड़ जमा लेती है। लोगों को वैज्ञानिक ज्ञान हासिल करने से रोक दिया जाता है। आस्तिकता न केवल एक नकारात्मक बुराई है, बल्कि वह सीधे-सीधे मनुष्य और समाज के लिए हानिकारक है। एक नास्तिक आस्तिक को चुनौती देता है कि वह कम-से-कम से एक उदाहरण ऐसा दे, जिसमें ईश्वरवाद मनुष्यता की भलाई की हो। पता चले कि वह मानव समाज के लिए सचमुच कल्याणकारी है। इस चुनौती को आज तक किसी आस्तिक ने स्वीकार नहीं किया है। एक कहावत है— “चर्च की जमीन शहीदों से, खून से रंगी है।…” ईश्वर का चाहे जो भविष्य हो, हम उसके अतीत को कभी नहीं भूल सकते, न ही उसे माफ कर सकते हैं।

चार्ल्स ब्रेडलॉफ ने अपनी पुस्तक ‘मनुष्यता ने नास्तिकता से क्या पाया’ (ह्यूमेनिटी गेन फ्राम अनबिलीफ) में इस बारे में विस्तार से समझाया है–

  1. जिन दिनों सभी दर्शन गुलामी के प्रवर्त्तक बने हुए थे, केवल नास्तिकता या अनीश्वरवाद ही था जो मानव-मात्र की स्वाधीनता के समर्थन में तनकर खड़ा था। उसी ने मनुष्यता की रक्षा की थी।
  2. नास्तिकता ने सभी प्रकार के अंधविश्वासों के विरुद्ध जंग लड़कर मनुष्यता को अनेकानेक व्याधियों और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षित रखा।
  3. भविष्यवाणियां, भाग्य वाचन करना तथा दूसरे अनेक अंधविश्वासों में कमी लाने के लिए हम नास्तिकता के ही अहसानमंद हैं।
  4. भूत-प्रेत, चुडै़ल और बुरी आत्माओं से मुक्ति के नाम पर लोगों का उत्पीड़न अब समाप्त हो चुका है। इसके पीछे अनीश्वरवाद का ही योगदान है।
  5. नास्तिकता के कारण ही राजाओं की निरंकुशता और कोप को लगाम लग पाई है।
  6. ‘ईश्वर और उसके सत्तावाद के विरुद्ध कोई सवाल नहीं’, इस सिद्धांत को सबसे बड़ी चुनौती नास्तिकता की ओर से ही मिली। नास्तिकता ने ही मानव-मात्र के विकास, स्वतंत्रता और समानता की राह तैयार की।

मनुष्य में आत्मविश्वास का संचार करने का श्रेय केवल अनीश्वरवाद/नास्तिकता को जाता है। सिर्फ नास्तिकता ही दावा करती है कि सामाजिक और आर्थिक विषमताओं सहित जितनी भी त्रासदियां हैं, सब मानव-निर्मित हैं। इसलिए मनुष्य के लिए उचित होगा कि वह अपने विकास के लिए रास्ते की इन अड़चनों से जितनी जल्दी हो मुक्ति प्राप्त कर ले। उन सभी बाधाओं का दमन करे, जो उसकी प्रगति की राह का रोड़ा बनी हुई हैं। केवल और केवल नास्तिकता ही है, जो दावा करती है कि “हे मनुष्य! तू केवल मनुष्य बन! सिर्फ तुम्हीं हो जो इस धरती को स्वर्ग में बदल सकते हो।”

फ्रांसिसी खगोलविज्ञानी लॉप्लास ने आकाशगंगाओं के बारे में खोज की थी। जब सम्राट नेपोलियन ने लॉप्लास से पूछा कि उन्होंने अपनी परिकल्पना में ईश्वर का जिक्र क्यों नहीं किया? वैज्ञानिक ने भरे आत्मविश्वास से उत्तर दिया था– “ईश्वर आलतू-फालतू की चीज़ था, इसलिए उसे किनारे कर दिया गया है।”

द्रव्य करोड़ों परमाणुओं से मिलकर बनता है। विकासक्रम में ये आपस में मिलते हैं, धीरे-धीरे इसी से पृथ्वी का जन्म हुआ है। विकास की इसी प्रक्रिया के दौरान अनुकूल स्थितियों में जैव-प्रक्रिया की शुरुआत हुई, जिसने वन-वनस्पतियों और पशु-पक्षियों के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। उसके लाखों वर्षों के बाद वानर से मनुष्य का विकास हुआ, वह पेड़ से नीचे उतरा। धीरे-धीरे सीधा खड़ा होकर चलने लगा, उसके बाद वह जमीन पर रहने लगा। धीरे-धीरे उसने अपनी भाषा विकसित कर ली। आवश्यकतानुसार उसने उपकरण और औज़ार बनाए, जरूरत पड़ने पर उन उपकरणों में सुधार किया। उसके बाद पहले गांवों में और फिर शहरों में एक सुव्यवस्थित जीवन जीना शुरू किया। मनुष्य ने ही कानूनों को संहिताबद्ध किया, नैतिक और मानवीय आचार-संहिताएं गढ़ीं। इन सभी प्रक्रियाओं को मनुष्य ने अपने खुद के प्रयासों और कार्यों से विकसित किया। विकास प्रक्रिया के विशेष चरण में, जब मनुष्य प्रकृति की शक्तियों को समझने की स्थिति में नहीं था, तो वह डर गया। तभी ईश्वर की अवधारणा सामने आई। इस प्रकार मनुष्य ने ही ईश्वर का आविष्कार किया। अब उसी मनुष्य ने विज्ञान की ठोस उपलब्धियों के बल पर ईश्वर के अस्तित्व को नकार दिया है। आस्था की अभेद्य चट्टान पर नास्तिक ने विवेक की इमारत खड़ी कर ली है।

पिछली तीन शताब्दियों में विज्ञान ने जबरदस्त प्रगति की है। जब आस्तिकों ने कहा कि ईश्वर ने ब्रह्मांड का निर्माण किया, तो वैज्ञानिकों ने आकाशगंगाओं के सिद्धांत की मदद से इसे खारिज कर दिया। आस्तिकों ने जब यह दावा किया कि ईश्वर ने इस दुनिया का निर्माण किया है, तो भूवैज्ञानिकों ने इसका खंडन किया। ईश्वरवादियों का अगला तर्क था कि प्राणियों को रचने वाला ईश्वर है, तो डार्विन ने उनके इस सिद्धांत को पलीता लगा दिया। एक के बाद एक पराजय झेलने के बाद उन्होंने मोर्चा बदल लिया है। अब वे दावा करते हैं कि पदार्थ जीवन से भिन्न है। विज्ञान ने इसका भी खंडन किया है। विज्ञान ने सिद्ध कर दिया है कि जीवन भौतिक पदार्थ से अलग नहीं है। बल्कि यह कई परमाणुओं का संयोजन है। विकास के एक विशेष चरण में जीवन विकसित होता है, यह भी सिद्ध हो चुका है कि जीवन पदार्थ का गुण है।

इस तरह ईश्वरवाद पर एक के बाद एक, नीचे से लेकर ऊपर तक लगातार प्रहार होते गए। इधर ईश्वरवादियों ने नया मोर्चा खोल दिया है, जैसे चेतना। अपनेआप में यह भी एक संकल्पना ही है। आखिर चेतना क्या है? यह केवल अलग-अलग इंद्रियों की विभिन्न गतिविधियों की सम्मिलित देन है। वैज्ञानिकों का कहना है कि यदि आप अपने विचारों को शब्दों के माध्यम से व्यक्त करते हैं तो यह वाणी-स्वरूप है, लेकिन अगर आप गहराई से सोचें तो यह चेतना है।

इस प्रकार विज्ञान अपने क्षितिज का विस्तार कर रहा है। फलस्वरूप आस्तिकता आज कटघरे में खड़ी है। ईश्वरवाद का औचित्य आज सवालों के घेरे में है। इसे अपनी रही-सही जमीन भी छोड़नी पड़ेगी। विज्ञान नास्तिकता/अनीश्वरवाद की प्रामाणिकता को  साबित कर चुका है।

साथियो! निर्णायक लड़ाइयां हमारे सामने हैं। इसलिए अब हम अपने-अपने किनारे खड़े होकर तमाशा नहीं देख सकते। ईश्वरवाद पर हालांकि नज़र रखी जा रही है, मगर उसे पूरी तरह नष्ट नहीं किया जा सका है। राजनीति, अर्थसत्ता, धर्मसत्ता और प्रचार तंत्र वगैरह, आज भी आस्तिकता के पक्ष में खड़े हैं। उनके अलावा अधिकांश लोग अज्ञानतावश आज भी ईश्वरवाद के समर्थन में खड़े हैं। हमें अनीश्वरवाद की दावेदारी को फिर मजबूत करना होगा। आवाज उठानी होगी उसके पक्ष में। शासक वर्ग ईश्वरवाद को बनाए रखने के पक्ष में है। कोई आश्चर्य नहीं कि धर्म और ईश्वरवाद सदैव एक-दूसरे के पक्ष में, एक-दूसरे के मददगार बनकर खड़े रहते हैं। सत्ता और पैसे की ताकत के बल पर ईश्वरवादी मानवीय विकास और प्रगति के लिए किये जा रहे प्रयासों को रोकने का बार-बार प्रयास कर सकते हैं। इसका ठोस उदाहरण हिटलरवाद और फासीवाद का विकास है, जिसकी आड़ में रूढ़ धार्मिक विश्वासों तथा अन्य सदियों पुराने रूढ़िवादी विचारों को लोगों के दिमाग में बिठा दिया गया है।

यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है

गांधीजी द्वारा व्यक्त किए गये कुछ विचारों के बारे में सोचिए। वे खुले तौर पर ईश्वरवाद का समर्थन कर रहे हैं। उसके पक्ष में तर्क दे रहे हैं। इसके अलावा वह जाति-व्यवस्था में कुछ जोड़-तोड़ करने की इच्छा रखते हैं। शायद इसे और बेहतर बनाने के लिए, हमारे विचार में यह नास्तिकता के सिद्धांतों के खिलाफ़ हैं।

उनका  तथाकथित अस्पृश्यता निवारण कार्यक्रम, जनता में धार्मिक विश्वासों को मजबूत करने का एक उपकरण मात्र है। लगभग 6 करोड़ जनसंख्या वाले अछूत आर्थिक रूप से गरीब, विपन्न, दलित हैं। उन्हें किसी ईश्वर या धर्म की आवश्यकता नहीं है, उन्हें भरपेट भोजन और सम्मानजनक आजीविका मिलनी  चाहिए।

आगे एक और खतरा है— हिंदू महासभा। उनके अलावा सनातनी, मुस्लिम संप्रदायवादी वगैरह। ये सब विधानसभा पर कब्जा करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, ताकि ईश्वरवाद को नए सिरे से थोपा जा सके। ये सभी इस संत्रस्त देश के सबसे घटिया प्रतिक्रियावादी हैं। इसीलिए साथियो सावधान रहो, इस अवसर को जाने मत देना। चुनावों में हर गांव में, हरेक सीट पर, हर पंचायत पर, हर ताल्लुक और हरेक जिले में हर सीट पर (चुनाव के जरिए) कब्ज़ा करने के अवसर को जाने मत देना।

निडर होकर जातिवाद और उत्पीड़न का विरोध करो। आस्तिकता के हरेक नाटक का पर्दाफाश करो, अज्ञानता और ईश्वरवाद को खदेड़कर, उनके स्थान पर अनीश्वरवाद और समाजवाद को केंद्र में आने दो।

[1] सिंगारवेलु का इशारा संभवत सातवीं शताब्दी की घटना की ओर है, जिसमें संबंदर ने लगातार चलने वाले शास्त्रार्थों में तमिल जैन मुनियों को परास्त कर, पांड्य राजा को शैवधर्म के प्रभाव में ले लिया था। उसी के इशारे पर राजा ने 8000 जैन मुनियों का नरसंहार कराया था। यह घटना मदुरै के निकट समन्नाथम नामक स्थान पर हुई थी। इसका उल्लेख ग्यारहवीं शताब्दी नांबियंदर नंबी की रचनाओं में किया गया है। उस समय कूण पांडियन नाम का राजा मदुरै पर शासन करता था। आरंभ में वह जैन अनुयायी था। कहते हैं कि शैव संत संबंदर, रानी मंगाईक्कारासी और मंत्री कुल्चाराइ नयनार के दबाव में राजा मदुरै के जैन श्रमणों पर शैवधर्म अपनाने का दबाव डालने लगा। जैन मुनियों द्वारा धर्मांतरण से मना करने के बाद उन्हें तीखी, लंबी और शंकुनुमा सूली पर चढ़ाने का आदेश दे दिया गया। इतिहास में कई जगह राजा कूण पांडियन को नेदुरमण अरिकेसरी के नाम से भी जाना जाता है।

प्राचीन तमिल साहित्य के अलावा इस घटना को मदुरै के मीनाक्षी मंदिर सहित तमिलनाडु के कई मंदिरों में भित्ति चित्रों द्वारा दर्शाया गया है। मीनाक्षी मंदिर में इस घटना का चित्रण लगभग 17वीं शताब्दी में किया गया था, जिससे पता चलता है कि करीब हजार वर्षों तक उस कत्लेआम को उत्सव की तरह मनाया जाता रहा। भित्ति चित्रों में जैन तापसों को काले-दुष्ट असुरों के रूप में दर्शाया गया है। कहा जाता है कि उस घटना के बाद मदुरै के आसपास से जैन-धर्म का नामोनिशान मिट गया था। उस घटना की स्मृति में एक उत्सव चैत्र माह में मनाया जाता है, जो 5 दिनों तक चलता है। मीनाक्षी मंदिर के भित्ति चित्रों पर सफेदी पोतकर इतिहास पर पर्दा डालने की असफल कोशिश भी की गई थी। बाद में मंदिर के उस परिसर में आम जन का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया। इस घटना का उल्लेख पॉल डुंडस ने अपनी चर्चित पुस्तक ‘दि जैन्स’ में किया है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

मलयपुरम सिंगारवेलु चेट्टियार

मलयपुरम सिंगरावेलु चेट्टियार (18 फरवरी 1860 – 11 फरवरी, 1946)

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