h n

तंगलान : जाति और उपनिवेशवाद का सच खोदती एक फिल्म

पारंपरिक लिखित इतिहास के हाशिए पर रहे समूहों को केंद्र में रखकर बनाई गई पा. रंजीत की नई फिल्म ‘तंगलान’ भारत के अतीत और उसके ज़रिए उसके वर्तमान को समझने के नए रास्ते प्रदान करती है। इसका प्रभाव केवल सिनेमा हॉल तक सीमित नहीं रहने वाला है, बता रहे हैं शिवरामकृष्णन एस.

एक ऐसा देश, जिसमें सिनेमा चिकनी और चमकदार फंतासी परोसता आया है, में पा. रंजीत की ‘तंगलान’ का एकदम खुरदुरा और विशुद्ध यथार्थ हमें चौंका देता है। ऐसा लगता है कि पा. रंजीत ने हाथों में कैमरा और दिमाग में किसी तरह का समझौता न करने के दृढ़ निश्चय से लैस होकर भारत के अतीत में गोता लगाया और उसकी गहराईयों से एक चमकदार कहानी ढूंढ़ लाए हैं। मगर यह कहानी इसलिए चमकदार नहीं है, क्योंकि वह अतीत को रूमानी चश्मे से नहीं देखती है, बल्कि सच्चाई की चमक उसे चमकदार बनाती है।

फिल्म की पृष्ठभूमि में है– कोलार गोल्ड फ़ील्ड्स (केजीएफ)। इसकी शुरुआत किसी धमाकेदार सीक्वेंस से नहीं, बल्कि एक निःशब्द ललकार से होती है। तंगलान एक पात्र का नाम है, जो एक अछूत है, और सब कुछ उसके खिलाफ होते हुए भी, वह ज़मीन के एक छोटे-से टुकड़े का मालिक बना हुआ है। इस ज़मीन की कीमत कुछ भी नहीं है। मगर एक ऐसी दुनिया में, जिसमें उसका जिंदा बना रहना ही सामाजिक व्यवस्था पर आक्षेप हो, ज़मीन का वह छोटा-सा टुकड़ा तंगलान की आज़ादी का क्रांतिकारी उद्घोष बन जाता है।

मगर इस आज़ादी की उम्र ज्यादा नहीं है। स्थानीय जमींदार, जिसे मिरासीदार कहा जाता है और जो दमितों के श्रम पर जीता है, उसे यह छोटी-सी चुनौती भी चुभती है। वह कई कुटिल चालें चलता है और अंततः तंगलान से ज़मीन का वह टुकड़ा छीनने में सफल हो जाता है। तंगलान और उसके परिवार के सात सदस्य पन्नैयल प्रणाली का हिस्सा बनने पर मजबूर कर दिए जाते हैं। पन्नैयल, बंधुआ मजदूरी की एक प्रथा है, जो सिर्फ नाम में ही गुलामी से भिन्न है।

दिल को द्रवित करने वाली इस शुरुआत के साथ यह फिल्म हमें आगे के जटिल नॅरेटिव की ओर ले जाती है। रंजीत, जो जातिगत दमन की कटु सच्चाईयों को दिखाने से कभी पीछे नहीं हटते, इस व्यक्तिगत त्रासदी का उपयोग हमारे इतिहास के एक व्यापक सत्य को उद्घाटित करने के लिए करते हैं – और वह सत्य यह है कि करोड़ों भारतीयों, जिन्हें ‘अछूत’ मानागया, को योजनाबद्ध ढंग से गरिमा, संसाधनों और आज़ादी से वंचित रखा गया।

रंजीत केवल दमन को परदे पर दिखाने तक सीमित नहीं रहते। वे इतिहास की उन जटिल परतों को उघाड़ते हैं, जिन्हें अधिकांश लोग ढंके ही रहने देना चाहेंगे। तंगलान के गांव में लार्ड क्लेमेंट नाम का एक ब्रिटिश अधिकारी पहुंचता है और लोगों से सोने की खोज के अपने अभियान में मदद मांगता है। यह तंगलान के जीवन का एक निर्णायक मोड़ तो साबित होता ही है, यह औपनिवेशिक भारत की हमारी समझ को भी एक नया परिप्रेक्ष्य देता है। उसके परिवार की अनिच्छा के बावजूद, तंगलान अंग्रेजों के साथ जुड़ने के लिए तैयार हो जाता है, क्योंकि मिरासीदार का गुलाम बने रहना उसे मंज़ूर नहीं है। आज़ादी और एक बेहतर भविष्य की उम्मीद में वह सोना खोजने के अभियान से जुड़ जाता है। तंगलान के जीवन में यह परिवर्तन, ब्रिटिश उपनिवेशवाद और दलित इतिहास, दोनों के पारंपरिक निरूपण को चुनौती देता है।

‘तंगलान’ फिल्म के कुछ दृश्य

फिल्म के सबसे प्रभावी दृश्यों में से एक में तंगलान जब अपने गांव लौटता है, तो वह पूरी तरह बदला हुआ होता है। वह अंग्रजों की तरह की पोशाक पहने, घोड़े का सवार होता है और उसके बगल में एक बंदूक होती है। उसका यह स्वरुप दर्शकों को चकित कर देता है और हमें विचार करने के लिए एक मुद्दा भी देता है। क्या होता यदि अछूतों (आज के अनुसूचित जाति) और शूद्रों (आज के ओबीसी), जिन्हें मनु की संहिता के कारण कभी हथियारों तक पहुंच नहीं मिली, को हथियार और सत्ता के प्रतीक हासिल हो जाते? अंग्रेजों को इन प्राचीन निषेधों से कोई मतलब नहीं था और इसलिए उन्होंने तंगलान को सत्ता और शक्ति के इन सभी प्रतीकों को अपनाने दिया, जो पारंपरिक रूप से उसे हासिल नहीं हो सकते थे। तंगलान का बदला हुआ स्वरूप, हाशियाकृत समुदायों पर लंबे समय तक लगाए गए प्रतिबंधों को चुनौती देता है और हमें औपनिवेशिक काल में उनके सशक्तिकरण के निहितार्थों पर विचार करने के लिए आमंत्रित करता है।

रंजीत की किस्सागोई की सफलता यही है कि वह एक ऐतिहासिक सच को उघाड़ती है, जिस पर कभी-कभार ही चर्चा होती है और वह सच यह है कि अंग्रेजों ने अछूतों को बंदूकें दीं और अछूतों ने भारत में अंग्रेजों के राज की स्थापना और उसे बनाए रखने में महती भूमिका निभायी।

यद्यपि रंजीत की फिल्म इस मसले को नहीं छूती, मगर इस संदर्भ में क्या हम भीमा-कोरेगांव युद्ध को भूल सकते हैं, जिसमें महार (दलित) सिपाहियों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से लड़ते हुए ब्राह्मण पेशवा को हराया था और क्या हम 1857 के विद्रोह, जिसे ‘भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ भी कहा जाता है, को कुचलने में परिया और महार रेजिमेंटों की भूमिका को भुला सकते हैं? रंजीत ऐतिहासिक जटिलताओं से दूर नहीं भागते और अपने दर्शकों को सत्ता और प्रतिरोध की पेचीदा प्रकृति पर विचार करने का आह्वान करते हैं।

ये ऐतिहासिक संदर्भ दो उद्देश्यों को पूर्ण करते हैं। वे भारतीय इतिहास के उस हिस्से को प्रकाशित करते हैं, जिसे मुख्यधारा के आख्यानों में अक्सर नज़रअंदाज़ किया जाता है और दूसरे, वे ब्रिटिश उपनिवेशवाद और दलित इतिहास की हमारी समझ को समृद्ध और परिष्कृत करते हैं। रंजीत के कथानक में ब्रिटिश न तो खलनायक हैं और न ही मुक्तिदाता। वे तो केवल अवसरवादी हैं, जिन्होंने देश पर अपना नियंत्रण स्थापित करने की प्रक्रिया में अनजाने में सख्त जातिगत पदक्रम में दरारें डाल दीं।

इस सूक्ष्म भेद को एक अहम दृश्य रेखांकित करता है, जिसमें लार्ड क्लेमेंट दलित श्रमिकों को संबोधित कर रहा है। जब वह अवसर और उचित पारिश्रमिक की बात करता है तो दुभाषिया, जो कि एक ऊंची जाति का है, उसके शब्दों का जान-बूझकर गलत अनुवाद करता है। यह दृश्य औपनिवेशिक भारत में दमन की बहुस्तरीय प्रकृति को स्पष्ट करता है और यह भी बताता है कि दलित किस जटिल परिस्थिति में फंसे हुए थे – एक तरफ थी शोषक मगर कुछ हद तक योग्यता को सम्मान देने वाली ब्रिटिश प्रणाली तो दूसरी ओर थीं पारंपरिक जातिगत पदक्रम की जंजीरें।

जैसे-जैसे तंगलान के जीवन की कहानी आगे बढ़ती जाती है, वह व्यक्तिगत मुक्ति की तलाश की यात्रा एक और गहरी तलाश बन जाती है – अपनी पहचान की तलाश। सोने की तलाश में खुदाई एक रूपक बन जाती है खुद के इतिहास और विरासत को खोद निकालने के जद्दोजहद की। यही वह हिस्सा है, जहां रंजीत की कहानी सुनाने की कला अपने चरम पर पहुंचती है और वे सोने की व्यक्तिगत खोज को संस्कृति की खोज की व्यापक थीम से जोड़ पाते हैं।

‘तंगलान’ की प्रतीकात्मकता समृद्ध और बहुआयामी है। सिर कटी हुई बुद्ध की मूर्ति, भारत में बौद्ध धर्म के दमन का रूपक है। यह रूपक तब एक एकदम नया अर्थ ले लेता है, जब तंगलान का लड़का, जिसका नाम महान बौद्ध सम्राट अशोक के नाम पर अशोकन रखा गया है, मूर्ति का सिर फिर से उसमें जोड़ देता है। यह कार्य न केवल बौद्ध धर्म की उसके जन्मभूमि में पुनःप्रवर्तन की संभावना का प्रतीक है वरन् वह उस दार्शनिक परंपरा के पुनरुत्थान का भी प्रतीक है, जिसने एक समय भारत की जाति-व्यवस्था के आधार को चुनौती दी थी।

सोने के खदानों की रक्षा करता काला तेंदुआ एक अन्य प्रभावी प्रतीक है, जो आधुनिक प्रतिरोध आंदोलनों, विशेषकर ब्लैक पैंथर पार्टी, की याद दिलाता है। रंजीत द्वारा इस बिंब का इस्तेमाल, भारत के दलितों के संघर्ष को अत्यंत परिष्कृत ढंग से नस्लीय न्याय के वैश्विक आंदोलनों से तो जोड़ता ही है, साथ ही महाराष्ट्र और तमिलनाडु में ‘दलित पैंथर’ (तमिलनाडु में अब विदुथलाई चिरुथिगल काची – वीसीके – कहा जाता है) से भी जोड़ता है, जिन्होंने तेंदुआ को अपने प्रतिरोध के प्रतीक के रूप में चुना। यह जुड़ाव बताता है कि दमन के खिलाफ संघर्ष एक सार्वभौमिक परिघटना है और विभिन्न संदर्भों में संघर्षों की साझा प्रकृति को रेखांकित करता है।

सबसे दिलचस्प यह है कि ‘तंगलान’, भारत के हाशियाकृत समुदायों की साझा विरासत की परिकल्पना की भी पड़ताल करती है। जब तंगलान को अपनी नागवंशी पहचान का पता चलता है तब फिल्म बहुजन विचारधारा के राजनीतिक दर्शन के इस विचार को भी छूती दिखती है, जिसके अनुसार अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों की साझी वंशावली है। पहचान की यह पड़ताल आज के भारत में अत्यंत प्रासंगिक है, जहां ऐतिहासिक आख्यानों और कौन किसका वंशज है, से संबंधित विवाद और बहस, और गंभीर और कटु होते जा रहे हैं।

जो बात ‘तंगलान’ को अन्य फिल्मों से अलग करती है, वह यह है कि यह बौद्धिक ऊर्जा और सिनेमाई मनोरंजन दोनों का स्त्रोत है। जो लोग रोमांच-प्रेमी हैं, उनके लिए कई शानदार एक्शन सीन हैं और जो इतिहास में रूचि रखते हैं, उनके लिए चर्चा और विवेचना के कई बिंदु हैं। फिल्म के मुख्य पात्र की अदाकारी, तंगलान की जीवन यात्रा को गहराई देती है और एक दमित मजदूर से अपनी विरासत पर दावा करने वाले एक व्यक्ति के रूप में उसका रूपांतरण प्रभावी और बहुत हद तक व्यक्तिगत, दोनों लगता है।

सहायक कलाकारों का प्रदर्शन भी किसी मायने में कम नहीं है, विशेषकर अंग्रेज़ पात्रों के रूप में। विदेशी पात्रों को कार्टून-नुमा दिखाने के जाल में रंजीत नहीं फंसते। इन पात्रों को ऐसे व्यक्तियों के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो सब कुछ जानते-समझते हैं, मगर औपनिवेशिक मशीनरी में फंसे हुए हैं। वे फिल्म के जटिल नॅरेटिव को और स्पष्ट बनाने में अपना योगदान देते हैं। यही बात ऊंची जातियों के भारतीय पात्रों के बारे में भी सही है। वे एक ऐसे समाज में जी रहे हैं, जो बदल रहा है, जिसके सत्ता समीकरण बदल रहे हैं और जिसका पारंपरिक पदानुक्रम कमज़ोर हो रहा है।

भारतीय फिल्म उद्योग से सतत यह अपेक्षा की जा रही है कि वह अधिक विविधतापूर्ण और विचारशील फिल्में बनाए। ‘तंगलान’ इस संदर्भ में एक नई शुरुआत हो सकती है। यह एक बड़े बजट की फिल्म है जो असहज करने वाली सच्चाईयों से परहेज नहीं करती। यह एक ऐतिहासिक फिल्म है, जो हमारे आज के लिए बहुत प्रासंगिक है। पारंपरिक रूप से लिखित इतिहास के हाशिये पर रहे समूहों को केंद्र में रख कर बनाई गई यह फिल्म भारत के अतीत और उसके ज़रिये उसके वर्तमान को समझने के नए रास्ते प्रदान करती है।

‘तंगलान’ का प्रभाव केवल सिनेमा हॉल तक सीमित नहीं रहने वाला है। हो सकता है कि इस फिल्म से प्रेरित होकर इतिहासविद औपनिवेशिक काल में दलितों की भूमिका का नए सिरे से अध्ययन करें। यह भी हो सकता है कि सामाजिक कार्यकर्ता, इस फिल्म से प्रभावित होकर जातिगत भेदभाव पर चर्चा करें। यह फिल्म, भारतीय सिनेमा जगत में देश के इतिहास और सामाजिक ढांचे के बारे में अप्रिय सच्चाईयों को उद्घाटित करने के नए सिलसिले का हिस्सा है।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि ‘तंगलान’ हमें यह याद दिलाती है कि सिनेमा हमें हमारे इतिहास की जटिलताओं को समझने में मदद कर सकता है, वह हमारी स्थापित मान्यताओं को चुनौती दे सकता है और मूक बना दिए गए लोगों को आवाज़ दे सकता है। एक ऐसे समय में जब लोक आख्यानों पर एकांगी और साधारणीकृत नॅरेटिव हावी हैं, रंजीत की यह फिल्म बारीकियों और जटिलताओं के महत्व को रेखांकित करती है।

‘तंगलान’ के अंत में दर्शकों के पास उत्तर कम होते हैं और प्रश्न ज्यादा। और यह शायद इस फिल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि है। वह हमारे समक्ष हमारे अतीत, हमारी पहचान और हमारे भविष्य के बारे में कई प्रश्न उपस्थित करती है। हो सकता है कि कुछ दर्शक इस फिल्म को देखकर एक नई समझ से लैस हो जाएं और कुछ अन्य फिल्म के संदेश को समझने की तलाश में लग जाएं। मगर एक बात तो तय है कि पा. रंजीत ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि वे उस जमीन को जोतने को तैयार हैं, जिसमें दूसरे पैर रखने से भी डरते हैं।

‘तंगलान’ केवल इतिहास का पुनर्लेखन नहीं करती है, वरन् वह बताती है कि भारतीय सिनेमा क्या कर सकता है, कैसा हो सकता है। यह फिल्म इतिहास भी है, रोमांच भी है और नए प्रश्न पैदा करने वाली भी है। एक ऐसे समय में, जिसमें हमें संतुष्ट और प्रसन्न रखने वाले मिथकों का बोलबाला है, रंजीत हमें यह मौका देते हैं कि हम अपने साझा अतीत के जटिल और दुखद सत्यों का साक्षात्कार कर सकें। और अगर ऐसा होता है तो यह कोलार के सोने के पूरे खजाने से ज्यादा कीमती उपलब्धि होगी।

(‘तंगलान’ फिल्म को लेकर जन-जागरूकता हेतु महाबोधि बुद्धिस्ट सोसायटी के द्वारा एक क्विज प्रतियोगिता आगामी 1 सितंबर, 2024 आयोजित है। इसमें भाग लेने के लिए इच्छुक यहां क्लिक करें)

(अनुवाद  : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

शिवरामकृष्णन एस.

शिवरामकृष्णन एस. पेशे से बैंककर्मी हैं और सामाजिक बदलाव के लिए सामाजिक आंदोलनों के प्रति निष्ठा रखते हैं। इसके अलावा उनकी रूचि इस शोध में है कि सिनेमा जाति के विमर्श के प्रति किस तरह का रूख रखता है

संबंधित आलेख

ब्राह्मणवादी वर्चस्ववाद के खिलाफ था तमिलनाडु में हिंदी विरोध
जस्टिस पार्टी और फिर पेरियार ने, वहां ब्राह्मणवाद की पूरी तरह घेरेबंदी कर दी थी। वस्तुत: राजभाषा और राष्ट्रवाद जैसे नारे तो महज ब्राह्मणवाद...
फुले को आदर्श माननेवाले ओबीसी और मराठा बुद्धिजीवियों की हार है गणेशोत्सव
तिलक द्वारा शुरू किए गए इस उत्सव को उनके शिष्यों द्वारा लगातार विकसित किया गया और बढ़ाया गया, लेकिन जोतीराव फुले और शाहूजी महाराज...
ब्राह्मण-ग्रंथों का अंत्यपरीक्षण (संदर्भ : श्रमणत्व और संन्यास, पहला भाग)
जब कर्मकांड ब्राह्मणों की आजीविका और पद-प्रतिष्ठा का माध्यम बन गए, तो प्रवृत्तिमूलक शाखा को भारत की प्रधान अध्यात्म परंपरा सिद्ध करने के लिए...
आरएसएस और जाति का सवाल
एक तरफ संविधान दिवस मनाना, संविधान के प्रति नतमस्तक होना और दूसरी तरफ लगातार संविधान बदलने की बातें करते रहना, आरएसएस की एक ऐसी...
मत कहिए फूलन देवी को ‘बैंडिट क्वीन’
फूलन देवी ने एक ऐसी मिसाल छोड़ी है, जिसे हमें हमेशा याद रखना चाहिए। उनकी जीवनगाथा हमें यही सिखाती है कि वंचितों की लड़ाई...