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तमिलनाडु गवाह है कि एससी उपवर्गीकरण सामाजिक न्याय को बढ़ावा देता है : जी. करुणानिधि

जी. करुणानिधि कहते हैं कि अनुसूचित जाति के उपवर्गीकरण के ज़रिए अरुणथाथियार समुदाय को तीन प्रतिशत आरक्षण देने के फलस्वरूप 2019 में ‘नीट’ की शुरुआत से पहले इस जाति के 82 विद्यार्थी मेडिकल कॉलेजों में सीटें हासिल कर सके। उसके पूर्व अरुणथाथियारों के लिए 12वीं क्लास पास करना भी एक सपना था

जी. करुणानिधि ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ़ अदर बैकवर्ड क्लासेज एम्प्लाइज वेलफेयर एसोसिएशन्स (एआईओबीओसी) के महासचिव हैं। आरक्षण के ज़रिए सामाजिक न्याय की स्थापना के वे मुखर पैरोकार रहे हैं और उन्होंने मेडिकल कॉलेजों में भर्ती के लिए राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (नीट) की शुरुआत व आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण सहित केंद्र सरकार की ऐसी सभी नीतियों और क़दमों के खिलाफ अदालती लड़ाईयां लड़ी हैं, जो सदियों से वंचना का शिकार रहे समुदायों के लिए आरक्षण की व्यवस्था को कमज़ोर करने वाले थे। करुणानिधि ने उच्चतम न्यायालय के उस निर्णय के बारे में फॉरवर्ड प्रेस से बातचीत की, जिसमें कहा गया है कि राज्य को अनुसूचित जातियों (एससी) का उपवर्गीकरण करने का अधिकार है। पढ़ें, मूल अंग्रेजी में प्रकाशित इस साक्षात्कार का हिंदी अनुवाद

अनुसचित जातियों के उपवर्गीकरण के बारे उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय को आप कैसे देखते हैं? सामाजिक न्याय के लिए राष्ट्रव्यापी संघर्ष पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा?

पहली बात तो यह है कि सात सदस्यों वाली उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ के इस निर्णय, जिससे एक जज असहमत थे, ने यह साफ़ कर दिया है कि राज्य को आरक्षण प्राप्त समूहों, विशेषकर अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी), का उपवर्गीकरण करने का अधिकार है। सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य से यह एक बहुत अच्छा फैसला है। सच तो यह है कि तमिलनाडु में पहले ही एससी का उपवर्गीकरण कर दिया गया है। राज्य सरकार ने एससी के लिए निर्धारित 18 प्रतिशत आरक्षण कोटे में से अरुणथाथियार समुदाय को तीन प्रतिशत आरक्षण दिया है (एससी के लिए आरक्षित पदों में से पहला पद अरुणथाथियार समुदाय के लिए सुरक्षित रहता है)। वह इसलिए क्योंकि यह पाया गया कि इस समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है और मुख्यधारा से तो वह पूरी तरह गायब है। अब उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु सरकार के उस फैसले को वैध ठहरा दिया है, जिसके तहत यह उपवर्गीकरण किया गया था और यह भी कहा है कि राज्यों को उपवर्गीकरण करने का अधिकार है। हम इस न्यायादेश को सकारात्मक मानते हैं। दूसरे, यह सभी आरक्षित समूहों पर लागू है, चाहे वे ओबीसी हों या एससी-एसटी। जब भी कोई आरक्षण नीति लागू की जाती है तब आरक्षित समूहों की केवल सबसे ऊपरी परत, केवल शिक्षित लोग ही नौकरियों के लिए आवेदन दे पाते हैं या उच्च शिक्षा हासिल कर पाते हैं। ऐसी स्थिति में वे समुदाय, जिनकी शिक्षा तक कम पहुंच है, पीछे छूटते जाते हैं। इसलिए, सामाजिक न्याय के ज़रिए बदलाव लाने की प्रक्रिया में उपवर्गीकरण की आवश्यकता होगी ही, क्योंकि हमारा लक्ष्य सभी समुदायों को सत्ता में, शासन में हिस्सेदारी देना है। इसके मद्देनज़र, मुझे ऐसा लगता है कि इस फैसले के बाद राष्ट्रीय स्तर पर एससी व एसटी के उपवर्गीकरण पर बहस शुरू होगी। भारत सरकार ने तो पहले ही ओबीसी के उपवर्गीकरण की संभावनाओं का पता लगाने के लिए रोहिणी आयोग की नियुक्ति कर दी है। मगर इससे यह हो-हल्ला तो नहीं मचा कि इस कवायद से सामाजिक न्याय का आकांक्षी यह समूह बिखर जाएगा। मगर अब जब कि अदालत ने कहा है कि राज्य को एससी का उपवर्गीकरण करने का हक़ है तो कुछ लोगों को लग रहा है कि इसका नकारात्मक असर होगा। मुझे तो ऐसा लगता है कि इसका सकारात्मक असर होगा, क्योंकि आरक्षण प्राप्त समूह के सभी समुदायों को उपवर्गीकरण से लाभ मिलेगा। और यही कारण है कि कई राज्यों ने पहले ही अलग-अलग तरीकों से ओबीसी का उपवर्गीकरण कर दिया है। तमिलनाडु में पिछड़ा वर्ग (बीसी) और अति पिछड़ा वर्ग (एमबीसी), ये दो वर्ग हैं। अन्य राज्यों में ए, बी, सी आदि उप-समूह हैं। उपवर्गीकरण से उन समुदायों, जिनकी अब तक उच्च शिक्षा और सरकारी नौकरियों तक सीमित पहुंच थी, को इन अवसरों का उपयोग करने का मौका मिल जाता है और उन्हें यह डर नहीं रहता कि जो लोग पहले से ही आगे हैं, वे उपलब्ध नौकरियों और सीटों पर कब्ज़ा कर लेंगे। इसी प्रकार, उपवर्गीकरण का राष्ट्रीय स्तर पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

क्या आपको लगता है कि उच्च शिक्षा में भी आरक्षण कोटे का भी उपवर्गीकरण होना चाहिए?

हां, बिलकुल। एक बार उपवर्गीकरण हो जाएगा तो यह सरकारी नौकरियों और उच्च शिक्षा दोनों में लागू होगा। वंचित समूहों को पहले शिक्षा हासिल करनी होगी और उसके बाद ही वे नौकरियों के लिए आवेदन कर पाएंगे। अगर आप इस प्रावधान से उच्च शिक्षा को अलग कर देंगे तो सरकार यह कह देगी कि हमें उपयुक्त उम्मीदवार नहीं मिल रहे हैं और पद भरे नहीं जाएंगे।

तमिलनाडु में अरुणथाथियार समुदाय के लिए उच्च शिक्षा में भी उप-कोटा निर्धारित है? 

हां, यह सार्वजनिक नियोजन और उच्च शिक्षा दोनों में लागू है।

यह भी पढ़ें: राज्य के पास एससी उप-कोटा तय करने का संवैधानिक अधिकार नहीं, सुप्रीम कोर्ट का फैसला महज जुमलेबाजी: प्रकाश आंबेडकर     

तमिलनाडु में एससी का उपवर्गीकरण इस अर्थ में लचीला है कि अगर पर्याप्त संख्या में अरुणथाथियार उम्मीदवार उपलब्ध न हों तो उनके लिए निर्धारित सीटें अन्य एससी उम्मीदवारों से भरी जा सकती हैं। मगर उच्चतम न्यायालय के निर्णय में ऐसा नहीं कहा गया है। क्या यह चिंताजनक है?

देखिये, सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में केवल यह कहा गया है कि राज्य को उपवर्गीकरण करने का हक़ है। अदालत कानून बनाने की जगह नहीं है। अदालत केवल किसी कानून की व्याख्या कर सकती है। अब यह राज्यों का काम है कि अपनी ज़रूरतों और अपने एससी समुदायों के आकार और उन्हें हासिल प्रतिनिधित्व के आधार पर उपयुक्त उप-श्रेणियां बनाएं।

इस आलोचना के बारे में आपका क्या कहना है कि एससी कोटा का उपविभाजन असंवैधानिक है? यही न्यायमूर्ति बेला त्रिवेदी की असहमति का आधार है। 

पीठ के जजों का बहुमत उपवर्गीकरण के पक्ष में था। बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने तो 1992 के इंद्रा साहनी मामले में अपने फैसले में कहा था कि पिछड़ी जातियों को बीसी और एमबीसी में उपवर्गीकृत किया जाना चाहिए। वह निर्णय नौ जजों की पीठ ने सुनाया था। कुछ राज्यों ने एससी कोटे को उपवर्गीकृत करने का प्रयास किया, जिसे चुनौती दी गई और अदालत ने अब यह फैसला सुनाया है कि प्रतिनिधित्व के आधार पर उपवर्गीकरण में कुछ भी गलत नहीं है। मैं न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी के निर्णय से सहमत नहीं हूं।

क्या आपको लगता है कि उप-वर्गीकरण की मांग उन राज्यों से उठ रही है या उन राज्यों द्वारा उसका समर्थन किया जा रहा है, जो अपने यहां आरक्षण को ठीक ढंग से लागू करते आए हैं और जिनमें अनुसूचित जातियों में एक शिक्षित कुलीन वर्ग उभर आया है?

दक्षिणी राज्यों, विशेषकर तमिलनाडु, में सामाजिक न्याय की अवधारणा करीब एक सदी पुरानी है। कोल्हापुर (जो अब महाराष्ट्र में है) रियासत में शाहूजी महाराज ने 1902 में आरक्षण लागू कर दिया था। मैसूर प्रांत (जो अब कर्नाटक का हिस्सा है) में 1921 में आरक्षण की व्यवस्था शुरू हो गई थी। यह तो हुई स्वाधीनता के पहले की बात। स्वाधीनता के बाद, एससी-एसटी और ओबीसी, दोनों के लिए आरक्षण लागू किया गया। एससी के लिए आरक्षण लागू हुए 75 साल बीत गए हैं। इस अवधि में कुछ एससी समुदायों की स्थिति अन्यों से बेहतर हो गई है। यह स्वाभाविक भी है। जब भी किसी वर्ग के साथ सकारात्मक भेदभाव की प्रक्रिया शुरू की जाएगी, तो सबसे पहले उस वर्ग के वे समुदाय उसका लाभ उठाएंगे, जो पहले से ही दूसरों से आगे हैं। उच्च शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण के 75 साल बाद यह स्वाभाविक ही है कि कुछ समुदायों को यह लग रहा हो कि उन्हें पर्याप्त अवसर और प्रतिनिधित्व नहीं मिला है। अगर आप सच्चा और पूर्ण सामाजिक न्याय चाहते हैं तो आपको सभी समुदायों को बराबर अवसर देने होंगे। यह केंद्र और राज्य सरकारों की ज़िम्मेदारी है कि सभी समुदायों को अवसर मिलें। अगर ऐसा नहीं हुआ है तो उन्हें सुधारात्मक उपाय करने होंगे और उनमें से एक है उपवर्गीकरण। यही कारण है कि कई राज्यों ने ऐसे उपाय किए हैं। और ऐसे उपाय करने ज़रूरी हैं।

नई दिल्ली के जंतर-मंतर में आयोजित एक धरने में जी. करुणानिधि (दाहिने से दूसरे) तस्वीर : नवल किशोर कुमार

इस निर्णय का उन राज्यों पर क्या प्रभाव पड़ेगा जहां अब भी एससी और एसटी के लिए आरक्षण ठीक से लागू नहीं किया जा रहा है?

मैं इस कथन को स्वीकार नहीं कर सकता। केंद्र सरकार की पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की नीति सन् 1993 में लागू हुई। उस समय केवल सरकारी नौकरियों में आरक्षण दिया गया। उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण सन् 2008 के बाद लागू हुआ। मगर एससी और एसटी के मामले में गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट, 1935 के आधार पर आरक्षण स्वतंत्रता के समय से ही लागू है। बाबासाहेब आंबेडकर ने यह सुनिश्चित किया कि संविधान में इस आशय का प्रावधान हो। मुझे नहीं लगता कि आप किसी भी राज्य के बारे में यह कह सकते हैं कि वहां 1950 से लेकर अब तक एससी, एसटी के लिए आरक्षण लागू ही नहीं किया गया।

मगर आरक्षण के आधे-अधूरे कार्यान्वयन के बारे में आपका क्या कहना है?

हो सकता है कि आरक्षण पूरी तौर पर नहीं दिया गया हो। मगर इसके लिए लोगों को तैयार करना भी तो ज़रूरी है। उन्हें पहले शिक्षित किया जाना होगा, तभी तो वे पदों पर नियुक्ति हेतु आवेदन दे सकेंगे। अगर यह स्थिति वर्तमान में नहीं है तो उपवर्गीकरण की कोई ज़रुरत ही नहीं हैं। उपवर्गीकरण की आवश्यकता केवल तब है जब कुछ जातियां आगे बढ़ गईं हों और कुछ नहीं बढ़ सकीं हों। अदालत ने यह नहीं कहा है कि सभी राज्यों को उपवर्गीकरण करना ही होगा। उपवर्गीकरण करना है या नहीं, और यदि करना है तो कैसे करना है, यह निर्णय राज्यों को विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधित्व के आधार पर लेना है। अदालत ने तो सिर्फ यह कहा है कि राज्य को उपवर्गीकरण करने का अधिकार है। रोहिणी आयोग ने एआईओबीओसी, जिसका मैं महासचिव हूं, को अपना अभ्यावेदन देने के लिए निमंत्रित किया था। हमने आयोग से कहा कि हम उपवर्गीकरण के समर्थक हैं, मगर हम ओबीसी के लिए निर्धारित 27 प्रतिशत आरक्षण के उपवर्गीकरण का विरोध करते हैं, क्योंकि पिछड़ी जातियां कुल आबादी का 50 प्रतिशत से ज्यादा हैं, मगर उन्हें केवल 27 प्रतिशत कोटा आवंटित किया गया है। हमने आयोग से पूछा कि ऐसी स्थिति में वह इस कोटे के उपवर्गीकरण की कवायद कैसे करेगा? हमने आयोग से कहा कि पहले उसे सभी आंकड़े इकट्ठा करने होंगे – पिछड़े वर्गों में शामिल विभिन्न जातियों की आबादी कितनी है, सार्वजनिक नियोजन और उच्च शिक्षा में इन जातियों का प्रतिनिधित्व कितना है – तभी यह कवायद उद्देश्यपूर्ण होगी। अन्यथा यह पूरी कवायद समय की बर्बादी होगी। मैंने न्यायमूर्ति रोहिणी को तमिलनाडु का उदाहरण दिया। हमने 1928 में ही आरक्षण लागू कर दिया था। स्वाधीनता के बाद समय-समय पर आरक्षण कोटे में बढ़ोत्तरी की जाती रही। फिर 1989 में हमने पिछड़े वर्गों को बीसी और एमबीसी में वर्गीकृत किया। सन् 1928 से लेकर स्वतंत्रता तक और उसके बाद 39 सालों तक लगातार आरक्षण की व्यवस्था को लागू रखने के बाद हम काफी आगे पहुंच गए। कई समुदायों के सदस्यों को सरकारी नौकरियां मिलीं, हालांकि कुछ समुदायों को फिर भी नहीं मिल सकीं। तब जाकर सरकार ने 1989 में पिछड़े वर्गों का उपवर्गीकरण किया। इसके विपरीत, केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित ओबीसी कोटा न तो पिछड़े वर्गों के कुल आबादी में अनुपात के अनुरूप है और ना ही उसे ठीक से लागू किया गया है। आपने केवल 27 प्रतिशत आरक्षण दिया है और नौकरशाही के शीर्ष स्तरों पर पिछड़े वर्गों की नुमाईंदगी 5 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। फिर आप उपविभाजन कैसे कर सकते हैं? मैंने यह बात आयोग से कही।

इस आशंका के बारे में आपका क्या कहना है कि सरकारें उपविभाजन करने के अपने अधिकार का उपयोग सभी समुदायों को प्रतिनिधित्व देने के लिए नहीं वरन अपना वोट बैंक बनाने के लिए करेंगी?  

यह एक अलग मुद्दा है। हमारा सरोकार केवल सामाजिक न्याय से है। अनुसूचित जातियों की श्रेणी में कई जातियां शामिल हैं। तो जब तक आरक्षण की व्यवस्था बनी रहेगी, हर जाति अपने लिए प्रतिनिधित्व मांगेगी और उसे प्रतिनिधित्व न देना, सामाजिक न्याय को नकारना होगा। जब आपका लक्ष्य प्रतिनिधित्व देना हो तब आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि सभी समुदायों, विशेषकर कमज़ोर समुदायों, को सत्ता के ढांचे में पर्याप्त प्रतिनिधित्व हासिल हो। अगर ऐसा हो रहा है तो इसके नतीजे में होने वाला वोटों का ध्रुवीकरण यहां मायने नहीं रखता। केवल ध्रुवीकरण की आशंका के चलते वंचित लोगों को कष्ट नहीं झेलने दिया जा सकता। अगर आबादी में नगण्य प्रतिशत वाला समुदाय भी प्रतिनिधित्व मांगे, तो उसकी मांग पूरी की जानी चाहिए। तमिलनाडु में पिछड़े वर्गों को बीसी और एमबीसी में बांटने से ध्रुवीकरण नहीं हुआ। दोनों उप-श्रेणियों के लोग, चुनावों में सामाजिक न्याय के पक्ष में अपना वोट देते हैं। यह एक प्रक्रिया है। इस दौरान ऐसे प्रश्न सामने आते रहेंगे। मगर तमिलनाडु ने दिखा दिया है कि ये आशंकाएं निराधार हैं।

यह भी पढ़ें: आंबेडकर की वैचारिकी के विरुद्ध नहीं है अनुसूचित जाति का उपवर्गीकरण: प्रो. श्याम लाल

क्या आपको लगता है कि इस निर्णय से जातिगत जनगणना की मांग को बल मिलेगा?

निश्चित तौर पर। अदालत ने कहा है कि उपवर्गीकरण का आधार प्रतिनिधित्व के आंकड़े होने चाहिए। आरक्षण कोटे के उपविभाजन के लिए आंकड़े ज़रूरी हैं। और ये आंकड़े हासिल करने का एक ही तरीका है – जातिगत जनगणना। अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आबादी से संबंधित आंकड़े जनगणना की रिपोर्टों में उपलब्ध हैं और सार्वजनिक नियोजन और उच्च शिक्षा में उनकी भागीदारी के आंकड़ों की मदद से सरकार इन वर्गों के प्रतिनिधित्व का परिमाण जान सकती है। मगर पिछड़े वर्गों की आबादी से संबंधित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। ये आंकड़े केवल जातिगत जनगणना से हासिल किए जा सकते हैं। सन् 2011 से लेकर अब तक कई राजनीतिक दल और संगठन जातिगत जनगणना की मांग करते आए हैं। अब तो लगभग सभी प्रमुख विपक्षी पार्टियां इसके पक्ष में हैं। केवल जातिगत जनगणना से ही आबादी में ओबीसी के अनुपात का पता चलेगा और केवल उसी के आधार पर ओबीसी के लिए आरक्षण और कल्याण योजनाओं के संबंध में फैसले लिये जा सकेंगे। इस निर्णय के बाद सामाजिक न्याय के पक्षधर सभी संगठन जातिगत जनगणना की मांग और जोरदार ढंग से करेंगे। एआईओबीओसी ने गत 16 अगस्त, 2024 को आयोजित अपनी बैठक में यह तय किया है कि हम नवंबर के अंत में (दिल्ली में) जंतर-मंतर पर धरना देंगे। हमारी मांगे होंगीं– जाति जनगणना, क्रीमी लेयर की समाप्ति और सार्वजनिक क्षेत्र का संरक्षण।

तमिलनाडु में ब्राह्मणवाद-विरोधी आंदोलन की अगुआ ओबीसी जातियां रही हैं। मगर हिंदी-भाषी राज्यों में ब्राह्मणवाद-विरोधी आंदोलन का नेतृत्व दलितों ने किया है। ऐसे में, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कुछ आलोचकों का कहना है कि एससी का उपवर्गीकरण इस आंदोलन को कमज़ोर करेगा। इस संबंध में आपका क्या कहना है?

तमिलनाडु में सामाजिक न्याय आंदोलन की शुरुआत 1916 में सामाजिक न्याय के नेताओं ने की थी। सामाजिक क्रांतिकारी थंथई पेरियार ने इसे एक जन-आंदोलन बना दिया। यह एक गैर-ब्राह्मण आंदोलन है। जब हम गैर-ब्राह्मण कहते हैं तो हमारा मतलब यह होता है कि इसमें ब्राह्मणों को छोड़कर अन्य सभी शामिल हैं। यहां तक कि कई गैर-ब्राह्मण अगड़ी जातियां भी इसका हिस्सा रही हैं और उन्होंने सामाजिक न्याय के लिए लड़ाई लड़ी है। सच तो यह है कि 1928 में लागू प्रथम आरक्षण नीति एस. मुथैय्या मुदलियार के प्रयासों का प्रतिफल थी। वे मद्रास प्रेसीडेंसी के शिक्षा मंत्री थे। श्री मुथैय्या किसी पिछड़ी जाति से नहीं थे। वी.पी. सिंह की तरह वे भी पिछड़े वर्ग से नहीं थे। जब कम्युनल जी.ओ. (गवर्नमेंट आर्डर) को 1950 में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया, तब थंथई पेरियार ने एक आंदोलन की शुरुआत की और मुथैय्या सहित अगड़ी जातियों के कई लोगों ने उसका समर्थन किया। इसलिए इसे गैर-ब्राह्मण आंदोलन कहा जाता है। हम इसे द्रविड़ आंदोलन कहते हैं। एक नकारात्मक शब्द की जगह हम एक सकारात्मक ऐतिहासिक शब्द का इस्तेमाल करते हैं। द्रविड़ आंदोलन में ब्राह्मणों के अलावा सभी लोग शामिल हैं। इस आंदोलन में दलितों और पिछड़ी जातियों के बीच कोई विभाजन का सवाल ही नहीं है। पिछड़े वर्गों के बीसी और एमबीसी में उपविभाजन से एमबीसी को लाभ हुआ है। जो लोग अब तक आरक्षण का लाभ नहीं उठा पाते थे, अब उठा पा रहे हैं। लोगों की निगाहों में अरुणथाथियार सबसे निम्न जाति है। मगर अब तीन प्रतिशत आरक्षण के फलस्वरूप 2019 में ‘नीट’ की शुरुआत से पहले इस जाति के 82 विद्यार्थी मेडिकल कॉलेजों में सीटें हासिल कर सके। उसके पूर्व अरुणथाथियारों के लिए 12वीं क्लास पास करना भी एक सपना था। अब वे डॉक्टर बन रहे हैं। आरक्षण कोटे के उपविभाजन का उन पर यह प्रभाव पड़ा है। तो आंदोलन के धीमे या कमज़ोर पड़ने की कोई बात ही नहीं है। बल्कि यह और मज़बूत हुआ है। जैसा कि आपने हाल में लोकसभा चुनाव में देखा, तमिलनाडु के लोग सामाजिक न्याय के पक्ष में गोलबंद हैं। ऐसा ही आने वाले दिनों में अन्य राज्यों में भी होगा। वे तमिलनाडु मॉडल अपनाना चाहते हैं। यहां तक कि केसीआर (तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव) ने अपनी पार्टी के नेताओं को यह समझने के लिए तमिलनाडु भेजा कि डीएमके (द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम) किस तरह काम करती है और उसके कैडर का निर्माण कैसे होता है। वे यह जानना चाहते हैं कि तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टियों ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को कैसे लागू किया है, द्रविड़ आंदोलन सतत और प्रभावी ढंग से आरक्षण की व्यवस्था लागू रखने में किस तरह सफल रहा है, द्रविड़ आंदोलन ने कैसे इस राज्य के समाज को पूरी तरह रूपांतरित कर दिया है, कैसे यह राज्य शिक्षा और अन्य क्षेत्रों में अव्वल बन गया है। तमिलनाडु में आरक्षण नीति के कारण योग्यता से ज़रा भी समझौता नहीं किया गया है। मुझे नहीं मालूम कि उत्तर भारत की मीडिया इस सारे मसले को कैसे देख रही है, मगर हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि उपवर्गीकरण या आरक्षण-प्राप्त समूहों के सबसे कमज़ोर तबके को आरक्षण देना ही असली सामाजिक न्याय है।

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल)


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लेखक के बारे में

अनिल वर्गीज

अनिल वर्गीज फारवर्ड प्रेस के प्रधान संपादक हैं

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