पुस्तक समीक्षा
कविताएं कहानी भी कहती हैं। यह बात जब तुकांत कविताओं का दौर था, तब भी सही थी और आज भी। हालांकि पहले जब खंडकाव्य और महाकाव्य लिखे जाते थे तब कवियों के पास मौलिकता का अभाव होता था। अधिकांश या तो हिंदू धर्मग्रंथों को अपना आधार बनाते थे या फिर ऐतिहासिक पात्रों को, जिनके बारे में पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका होता था। उदाहरण के लिए रामधारी सिंह दिनकर की कृतियां ‘ऊर्वशी’ और ‘रश्मिरथी’ को ही देखें, उनके पास कथ्य के रूप में बहुत कुछ पहले से मौजूद था। लेकिन आधुनिक कवियों ने इससे निजात पाई है। इनमें सबसे अधिक दलित और आदिवासी कवि हैं, जिन्होंने अपनी कविता के बिंब अपने आसपास के समाजों से लिया और उसे वैसा ही प्रस्तुत किया, जैसे कि वे थे। साहित्य का यह यथार्थवादी सौंदर्य ग्रेस कुजूर के काव्य संग्रह ‘एक और जनी शिकार’ में अनायास ही देखने को मिलता है।
ग्रेस कुजूर हिंदी साहित्य जगत में अपरिचित नहीं हैं। आकाशवाणी और दूरदर्शन से संबद्ध होने के साथ ही साहित्य के क्षेत्र में उनका अमूल्य योगदान यह रहा है कि उन्होंने आदिवासी आवाजों को पद्य और गद्य, दोनों में लिपिबद्ध किया है। उदाहरण के लिए उनकी कृतियां ‘लोकप्रिय आदिवासी कविताएं’, ‘कलम को तीर होने दो’ और ‘दूसरी हिंदी’ का अवलोकन किया जा सकता है। ‘एक और जनी शिकार’ भी ग्रेस कुजूर की तेज धार वाली कविताओं का संग्रह है, जिसमें आदिवासी समाज का सौंदर्य और प्रतिरोध दोनों साथ-साथ नजर आता है। दिलचस्प यह कि इसका दर्शन इस काव्य संग्रह की पहली कविता ‘आग’ में ही हो जाता है, गोया कवयित्री पाठकों को संदेश दे रही हों कि वे इस संकलन में किस मन-मिजाज की कविताएं पढ़ने जा रहे हैं।
दरअसल, ‘आग’ कविता एक जीवंत कहानी है, जिसकी नायिका एतवरिया उराइन है। कवयित्री उसका परिचय किस अंदाज में कराती हैं, यह देखिए–
“अनुकंपा के रूप में
एतवरिया उराइन
नहीं चाहती
दफ्तरों में बाबुओं को पानी पिलाना
चाय लाना
ना ही चाहती है वह
अफसरों की फाइलें ढोना।”
यहां कवयित्री ने एतवरिया उराइन के बारे में यह तो बताया है कि वह एक सरकारी संस्थान में कर्मचारी है, जिसे अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिली है, लेकिन वह यह नहीं बताती हैं कि किस स्वजन की मृत्यु के बाद अनुकंपा के आधार पर नौकरी मिली। सामान्य तौर पर सेवारत पति के गुजर जाने के बाद अनुकंपा के आधार पर महिलाओं को नौकरी दी जाती रही है। कभी-कभार उन्हें पिता के स्थान पर भी नौकरी प्राप्त होती है, लेकिन भारतीय समाज में यह बहुत कम ही देखने को मिलता है, क्योंकि पारंपरिक रूप से यह माना जाता है कि पिता के बदले पुत्र ही अनुकंपा का अधिकारी हाेता है। इस लिहाज से देखें तो ग्रेस कुजूर ने यह अच्छा ही किया है कि इस बारे में खुलासा नहीं किया है। यह इसलिए कि समाज कितना बदला है, यह समाज स्वयं भी तय करे। उपरोक्त पंक्तियों में कवयित्री एक और संदेश दे रही हैं, जिसके बारे में भारत का पुरुषवादी समाज सोचता तो बहुत है, लेकिन अमल में कम ही लाता है। या कहिए कि वह अनुकंपा के आधार पर नौकरी पानेवाली महिलाओं को दोयम दर्जे या सभी के लिए उपलब्ध रहनेवाली मानता है। आम तौर पर ऐसी महिलाओं को चाय-पानी पिलाने, फाइलें ढोने आदि के काम में लगाया जाता है। इसका एक दूसरा पक्ष यह भी होता है कि उनकी निगाह में वह अकेली औरत होती है और कुछ भी नहीं। शायद यही कारण है कि एतवरिया उराइन चाय-पानी पिलाने और फाइलें ढोने का काम नहीं करना चाहती है। वह पुरुषों की घूरती आंखों का मतलब समझती है। ग्रेस कुजूर इस कहानी को अपनी कविता में और आगे बढ़ाती हैं–
“इसलिए
एतवरिया उराइन चलाती है
‘शावेल’
शर्ट-पैंट, टोपी पहने
ओपेन माइंस में”
यह भी अत्यंत ही अलहदा बिंब है, जिसकी कल्पना करके ही भारतीय पुरुष समाज अपनी नैतिकता पर विचार करने को बाध्य हो सकता है कि आखिर एक स्त्री खुले खदान में ‘शावेल’ (एक मशीन, जिसके जरिए खदानों से कोयले की खोदाई की जाती है और उसे छोटे-छोटे टुकड़े में तोड़ा जाता है) क्यों चलाना चाहती है? समाज यह भी सोच सकता है कि उसने अपनी महिलाओं को अब तक साधारण काम करने के लायक ही क्यों माना है? दूसरी तरफ ग्रेस कुजूर एतवरिया उराइन को गैर-आदिवासी महिलाओं के समानांतर खड़ी कर देती हैं, जिन्हें अपने शृंगार की चिंता अधिक रहती है। उनकी एतवरिया उराइन तो–
“नहीं सुन पाती
अपनी चूड़ियों की खनक
नहीं बिठा पाती सही जगह
पसीने से भींजी माथे की बिंदी।”
ग्रेस कुजूर की एतवरिया उराइन का यह सौंदर्य बोध श्रम का बोध है। वह जानती है कि श्रम का सौंदर्य ही सर्वश्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें गुलामी निहित नहीं है। लेकिन ग्रेस कुजूर की नायिका एतवरिया उराइन तथाकथित आधुनिक स्त्रीवादी नहीं है, जो पुरुषों को अकारण ही खारिज करती है। वह स्त्री-पुरुष के बीच मानवीय संबंधों को तरजीह देती है और ‘शावेल’ चलाते हुए अपने पति को याद करती है–
“‘इन-पिट क्रशर’ से निकल
‘कन्वेयर-बेल्ट’ पर जाते
देखती है छोटे टुकड़े कोयले के
सोचती है
वह भी कभी साबुत थी
लेकिन जानती है वह यह भी
छोटे टुकड़ों में ही
जल्दी लगती है आग।”
यही इस कहानी का अंत भी है और एक तरह से एक नई कहानी का आगाज भी। इस आग की अभिव्यक्ति ग्रेस कुजूर संकलन की दूसरी कविता ‘धार के विपरीत’ में करती हैं, लेकिन इसका दृश्य अलग है–
“ऐसा क्यों होता है
कि गांव की काकी के खेतों में
कोई हल नहीं चलाता
और घर के उसके टूटे छप्पर से
बारिश के दिनों में
झरता है पानी
झर… झर।
…
‘छत चढ़ने का अधिकार नहीं’
यह जानते हुए भी
चढ़ जाती है काकी
छत छारने…।”
काकी का यह बिंब भी एतवरिया उराइन के जैसा ही है, जिसके खेतों में कोई हल नहीं चलाता। उसका छप्पर चू रहा है, लेकिन उसे छानेवाला कोई नहीं। इसकी वजह यह कि यह दोनों काम पुरुषों ने बपौती मानकर अपने पास रखा है। लेकिन ग्रेस कुजूर की नायिका ‘काकी’ अब चूते छप्पर के नीचे किसी भी तरह गुजर कर लेने को तैयार नहीं है। वह मर्दवादी नजरिए को खारिज कर खुद छप्पर छाने का निर्णय लेती है। ग्रेस कुजूर की इस कविता की नायिका की तुलना प्रेमचंद की कहानी ‘विध्वंस’ की नायिका से करके देखें, जो सामंती जमींदार और ब्राह्मण के जुल्मों से तंग आकर अपने ही भंसार के चूल्हें में कूद जाती है। आप चाहें तो ग्रेस कुजूर की इस कविता से द्विज साहित्य की स्त्री और आदिवासी साहित्य की स्त्री के बीच के अंतर को महसूस कर सकते हैं।
ग्रेस कुजूर की इस कविता संग्रह में कुल 70 कविताएं हैं और हर कविता में स्त्री एक अलग तेवर के साथ मौजूद है। मसलन, संग्रह की शीर्षक कविता ‘एक और जनी शिकार’ की नायिका वैसे तो सिनगी दई है, जिसके नेतृत्व में आदिवासी स्त्रियों ने रोहतास गढ़ में दुश्मनों से लोहा लिया था और उनकी स्मृति में 12 साल के अंतराल पर ‘जनी शिकार’ का आयोजन किया जाता है। इस कविता में कवयित्री सिनगी दई को प्रेरक व्यक्तित्व बताती हैं और आज की आदिवासी स्त्रियों को केंद्र में लाती हैं, जो जल-जंगल-जमीन पर दिकुओं के बढ़ रहे अतिक्रमण को लेकर चिंतित हैं। मसलन, कविता के प्रारंभ में वह लिखती हैं–
“कहां है वह फुटकल का गाछ
जहां चढ़ती थी मैं
साग तोड़ने
और गाती थी तुम्हारे लिए
फगुआ के गीत?
जाने किधर है
कोमल पत्तियों वाला
कोयनार का गाछ
जिसके नीचे तुम
बजाया करते थे
मांदर और बांसुरी?”
ग्रेस कुजूर ने अपनी इस कविता में आदिवासियों के प्रकृति प्रेम, उनके प्रकृति-प्रदत्त अधिकारों के अतिक्रमण और प्रतिरोध के बीच गजब का दृश्य प्रस्तुत किया है। उनकी इस कविता की नायिका अपने प्रेमी को याद कर रही है, जो या तो कारपोरेट के इशारे पर पुलिस की गोलियाें का शिकार हो गया है, या फिर उसे नक्सली कहकर जेल में डाल दिया गया है–
“मेरा जुड़ा बहुत सूना लगता है संगी–
सरहूल के फूलों के बिना
और लगता है
कहीं अटक गया है किसी डाल पर
करमा का गीत
नहीं सुनाई पड़ता है अब
बारिश की बूंदों का वह
पत्तियों से झरता हुआ संगीत।”
इस कविता का चरम और समापन एक आदिवासी स्त्री का संकल्प है–
“मैं बनूंगी एक बार और
‘सिनगी दई’
बांधूंगी फेंटा
और कसेगी फिर से
‘बेतरा’ (बच्चों की पीठ पर बांधने का कपड़ा) की गांठ/और तब होगा
फिर एक बार
एक जबरदस्त
जनी शिकार।”
बहरहाल, यह पूरा संग्रह जितना आदिवासी समाज के लिए उपयोगी है, उतना ही गैर-आदिवासी समाज के लिए भी। यह आज के साहित्यकारों, खासकर दलित-बहुजन साहित्यकारों के लिए एक उदाहरण है कि हमें अपने बिंबों की तलाश के लिए दूसरे समाजों के आसरे रहने की आवश्यकता नहीं है और न ही उनके पितृसत्तावादी, जातिवादी, धर्मवादी सौंदर्य संबंधी मानकों का ध्यान रखने की जरूरत है।
समीक्षित संग्रह – एक और जनी शिकार
कवयित्री – ग्रेस कुजूर
प्रकाशक – अनुज्ञा प्रकाशन, नई दिल्ली
मूल्य – 150 रुपए
(संपादन : राजन/अनिल)
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