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ब्राह्मण से अश्वेत : कमला हैरिस की अनूठी यात्रा

ब्राह्मण जाति की सामाजिक पृष्ठभूमि के चलते, कमला हैरिस की मां के लिए एक बिलकुल भिन्न सांस्कृतिक विरासत वाले अश्वेत पुरुष से विवाह करना सचमुच क्रांतिकारी रहा होगा। पढ़ें, प्रो. कांचा आइलैय्या शेपर्ड का यह आलेख

अमरीका एक वैश्विक महाशक्ति है। हालांकि चीन, अमरीका को चुनौती देने का प्रयास कर रहा है, मगर ऐसा नहीं लगता कि निकट भविष्य में उसे सफलता मिल पाएगी। आने वाले समय में भी दुनिया में लोकतंत्र की अमरीकी समझ, उस देश की उन्नत तकनीकी और पूंजीवाद की नींव पर खड़ी उसकी आर्थिक संपन्नता का पूरे विश्व में बोलबाला रहेगा। पूरी दुनिया पर अमरीका के दबदबे के भविष्य में भी बने रहने की पृष्ठभूमि में भारतीय मूल की अश्वेत अमरीकी नागरिक कमला हैरिस का उपराष्ट्रपति बनना, सभी भारतीयों, और विशेषकर भारत की महिलाओं के लिए गर्व का क्षण था। वह अमरीका की पहली अश्वेत महिला उपराष्ट्रपति हैं और अब डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर से राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार हैं।

कमला हैरिस का चुनाव कई अर्थों में अनूठा रहा। वह पहली एशियाई और भारतीय मूल की पहली व्यक्ति हैं जिसकी पृष्ठभूमि अश्वेत और ब्राह्मण दोनों है – यह अपने आप में एक असाधारण और दुर्लभ संयोग है।

किसी भारतीय ब्राह्मण द्वारा अमरीका, जिसे नस्लीय भेदभाव के लिए जाना जाता है, में अश्वेत पहचान से स्वयं को जोड़ना भी बहुत असाधारण बात है।

बहुत समय नहीं बीता जब महिलाएं तो छोड़िये, ब्राह्मण पुरुष भी विदेश नहीं जाते थे, क्योंकि उनके लिए समुद्र पार करना निषेध था।

अमरीका में जा बसे भारत के एक पारसी सज्जन भीकाजी बलसारा को वहां की नागरिकता हासिल करने के लिए अदालत का सहारा लेना पड़ा और 1909 में उन्हें नागरिकता मिली। अदालत ने कहा कि चूंकि पारसी श्वेत होते हैं, इसलिए उन्हें नागरिकता का अधिकार दिया जा सकता है। भीकाजी के पहले भारत से कुछ सिख मजदूर के रूप में अमरीका गए थे। वे कई दशकों तक वहां ‘अवैध प्रवासी मजदूर’ के रूप में काम करते रहे। उन्हें अमरीका की नागरिकता नहीं मिली।

सन् 1913 में ए.के. मजूमदार, आर्य सांस्कृतिक विरासत वाले पहले ऐसे द्विज बने, जिन्हें अमरीका की नागरिकता मिली। यह भी अदालत के ज़रिए ही हुआ। मजूमदार ने अदालत में तर्क दिया कि वे आर्य नस्ल के हैं और इस नाते वे काकेशियाई अमरीकी श्वेत नस्ल के समकक्ष हैं। जज इस तर्क से सहमत हो गए। उस समय, अमरीका में नस्लीय भेदभाव उतना ही मज़बूत था, जितना कि भारत में जातिवाद। कमला हैरिस के नाना पी.वी. राजगोपालन एक परंपरावादी तमिल ब्राह्मण परिवार से थे।

सन् 1940 और 1950 के दशक में पेरियार रामासामी नायकर के ब्राह्मण-विरोधी आंदोलन के प्रतिरोध स्वरूप तमिलनाडु के मध्यमवर्गीय और अंग्रेजी भाषा में पारंगत ब्राह्मणों ने दूसरे देशों में जाना शुरू कर दिया।

कमला हैरिस व उनकी मां श्यामला गोपालन तथा पिता डोनाल्ड जेस्पर हैरिस की तस्वीर

फिर 1950 और 1960 के दशक में जो चंद युवा भारतीय पुरुष उच्च शिक्षा के लिए अमरीका गए, उनमें से बहुत कम ने वहां बसने का निर्णय लिया। शिक्षा हासिल करने के लिए अमरीका जाने वाली स्त्रियों की संख्या तो नगण्य थी। कमला हैरिस की मां श्यमाला गोपालन विज्ञान में उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए 1958 में अमरीका गईं। वहां उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले में अर्थशास्त्र अध्ययन करने आए एक अश्वेत शोधार्थी से विवाह कर लिया। उनके पति डोनाल्ड जेस्पर हैरिस, जमैका से अमरीका आए थे। आम तमिल ब्राह्मण दकियानूसी वैष्णव होते हैं, जो ‘विशुद्ध शाकाहारी संस्कृति’ में आस्था रखते हैं। ब्राह्मण जाति की सामाजिक पृष्ठभूमि के चलते, कमला हैरिस की मां के लिए एक बिलकुल भिन्न सांस्कृतिक विरासत वाले अश्वेत पुरुष से विवाह करना सचमुच क्रांतिकारी रहा होगा।

श्यामला निश्चित तौर पर एक असाधारण युवा महिला रही होंगीं और उन्हें उनके पिता का साथ भी हासिल रहा होगा। हालांकि यह विवाह ज्यादा लंबा नहीं चला। मगर श्यामला गोपालन ने अपनी दो पुत्रियों – कमला और माया – के साथ अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करना जारी रखा। उन्होंने अपने पति की विरासत को जिंदा रखा। यह भी अत्यंत असाधारण और साहसिक कदम था, जिसकी अपेक्षा किसी भारतीय और वह भी तमिल ब्राह्मण महिला से नहीं की जा सकती। 1960 के दशक में पूरे अमरीका में मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में नागरिक अधिकार आंदोलन अपने चरम पर था। श्यमाला इस आंदोलन की कार्यकर्ता बन गईं।

श्यमाला गोपालन ने अपने पति का ईसाई धर्म (प्रोटेस्टेंट) अपना लिया, हालांकि इसके बावजूद वे कभी-कभी हिंदू मंदिरों में भी जाती रहीं। युवा कमला एक बढ़िया क्वायर (चर्चों में भक्ति गीत गाने वाले समूह) गायिका बन गईं। अपनी प्रोटेस्टेंट ईसाई पृष्ठभूमि के चलते ही वे पहले अपने राज्य की अटॉर्नी, फिर सीनेटर और अंततः उपराष्ट्रपति बन सकीं। अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति जो बाइडन, कैथोलिक ईसाई हैं, मगर शायद उन्होंने उनके साथ राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने और उपराष्ट्रपति के पद के लिए कमला को उनकी भारतीय-अश्वेत-प्रोटेस्टेंट पृष्ठभूमि के कारण चुना होगा। उन्हें लगा होगा कि शायद कमला को उम्मीदवार बनाने से उनकी जीत की राह प्रशस्त होगी।

कमला की सफलता में सबसे बड़ा योगदान किस कारक का था? उनके नाना और माता की सफलता का या उनके परिवार की तीन पीढ़ियों को मिली अंग्रेजी शिक्षा का? कल्पना कीजिये कि अगर उनकी तीनों पीढ़ियां उनके समुदाय की पारंपरिक मातृभाषा संस्कृत से चिपकी रहतीं तो क्या होता? वे आज कहां होतीं? कमला हैरिस उपराष्ट्रपति बन चुकीं हैं और अब वे राष्ट्रपति पद की सशक्त उम्मीदवार भी हैं।

कमला हैरिस की सफलता हम भारतीयों के लिए एक सबक है। इसलिए नहीं कि वे एक अश्वेत भारतीय या एशियाई हैं, बल्कि इसलिए कि वे ब्राह्मण पृष्ठभूमि वाली एक अश्वेत हैं, जो सभी मनुष्यों की समानता की पक्षधर हैं और जिनकी यह धार्मिक मान्यता है कि “ईश्वर ने सभी मनुष्यों को बराबर बनाया है।” चाहे फिर उनका लिंग, नस्ल, जाति या वर्ग कुछ भी हो। बराक ओबामा के बाद इतिहास में उनका नाम एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दर्ज होगा, जिसने प्रजातांत्रिक दुनिया में असाधारण उपलब्धि हासिल की है।

भारतीय महिलाओं को भी कमला हैरिस की मां से यह सीखना चाहिए कि अगर कोई महिला जातिगत और नस्लीय भेदभाव के उन्मूलन के लिए काम काम करती है, तो उसे पूरी हिम्मत के साथ ऐसा करना चाहिए।

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)

(यह आलेख पूर्व में 10 नवंबर, 2020 को अंग्रेजी वेब पत्रिका ‘द प्रिंट’ द्वारा प्रकाशित किया गया। यहां आंशिक संशोधनों के साथ लेखकी सहमति से प्रकाशित है)


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लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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