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एससी-एसटी आरक्षण में उपश्रेणीकरण के संभावित खतरे

यह दुखद है कि दलित और आदिवासी आज भी समाज के सबसे निचले पायदान पर हैं, मगर अदालत उनमें “मलाईदार” तबका ढूंढ रही है। लेकिन अदालत ने कभी अपने आस-पास नहीं झांका कि उसके आस-पास क्या चल रहा है। बता रहे हैं अभय कुमार

गत 1 अगस्त, 2024 के अपने फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति (एससी) में उप-श्रेणीकरण की अनुमति दी। इसके चलते आदिवासियों में भी उपवर्गीकरण को हरी झंडी दिखा दी गई है। साथ ही यह कि कहीं आरक्षण में कोटा के अंदर कोटा का आधार आर्थिक आधार पर ‘क्रीमीलेयर’ के रूप में तैयार न कर दिया जाए और उनके समुदाय के एक हिस्से को आरक्षण मिलने से रोक दिया जाए। हालांकि अभी तक स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट नहीं हो पाई है। ऊंची जाति के वर्चस्व वाला राष्ट्रीय मीडिया सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर जश्न मना रहा है और पूरे मामले को सतही तौर पर देख रहा है। दूसरी ओर सोशल मीडिया पर अफवाहों का बाजार गर्म है, जिसमें दावा किया जा रहा है कि जो दलित और आदिवासी वर्षों से “मलाई” खा रहे हैं, अब उनकी जगह “कमजोर” लोगों को मौका मिलेगा। इस तरह की थोथी दलील के पीछे की मानसिकता आरक्षण को ‘चैरिटी’ (दान) का एक रूप मानती है। ऐसे तत्वों को कौन समझाए कि आरक्षण वंचितों का संवैधानिक अधिकार है। यह ‘चैरिटी’ पर नहीं, बल्कि ‘पैरिटी’ (बराबरी) हासिल करने के लिए बना है। उसी तरह, संविधान में आरक्षण सदियों की लड़ाइयों का प्रतिफल है। जोतीराव फुले, डॉ. भीमराव आंबेडकर, पेरियार और डॉ. राम मनोहर लोहिया जैसे नेताओं ने प्रमुख भूमिका निभाई है।

इन आंदोलनकारियों और विचारकों ने दिखाया कि भारत में योग्यता का निर्धारण जाति के आधार पर किया जाता है। अर्थात भारत में ‘कास्ट’ ही ‘मेरिट’ है। लेकिन आरक्षण विरोधी प्रचार रुकने का नाम नहीं ले रहा है। आज भी ऐसी बेसिर-पैर की बातें फैलाई जाती हैं कि एक अनारक्षित श्रेणी के उम्मीदवार को 90 अंक प्राप्त करने पर मेडिकल कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलता है, जबकि एक ‘अयोग्य’ दलित-बहुजन उम्मीदवार 40 अंक प्राप्त करने पर डॉक्टर बन जाता है और मरीज की जान ले लेता है। मगर ऐसे लोग कभी इस बात पर चर्चा नहीं करते कि किस तरह दलित-बहुजन छात्रों के साथ हर कदम पर भेदभाव किया जाता है। यह बात किसी से छिपी नहीं है कि रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या करने वाले कौन लोग हैं? 

निश्चित तौर पर एससी और एसटी आरक्षण के भीतर उप-श्रेणीकरण आरक्षण को कमजोर कर सकती है, क्योंकि ऐसी चिंताएं हैं कि जब कुछ एससी और एसटी जातियों को ‘अधिक प्रतिनिधित्व प्राप्त होने’ के नाम पर बाहर कर दिया जाएगा, तो एससी और एसटी की सीटें और नहीं भर पाएंगी। पहले से ही इन वर्गों के लिए आरक्षित पदों पर देय आरक्षण के हिसाब से सीटें नहीं भरी जाती हैं और अक्सर ही ‘नॉट फाउंड सूटेबुल’ (एनएफएस) की बातें देखने-सुनने को मिल जाती हैं। फिर आरक्षित पदों को सामान्य कोटे में बदल दिया जाता है, जिसका सीधा लाभ सवर्ण जातियों को मिलता है।

अगर मान भी लिया जाए कि एससी और एसटी के आरक्षण को ‘जनरल कैटेगरी’ में नहीं डाला जाएगा, फिर भी इस बात के खतरे बने हुए हैं कि उपश्रेणियां दलितों और आदिवासियों को आपस में बांट देंगी और उनके लिए आरक्षण पाना और भी मुश्किल हो जाएगा। सवर्ण लॉबी सीधे बहुजनों का आरक्षण खत्म करने का खतरा नहीं मोलना चाहती है, क्योंकि इससे वह सीधे तौर पर ‘एक्सपोज़’ हो जाएगी। उसकी हमेशा कोशिश रही है कि आरक्षण पाने की राह में कई सारी रुकावटें खड़ी कर दी जाएं और कानून के पालन के नाम पर बहुजनों को आरक्षण लेने से पहले ही थका दिया जाए।

यह दुखद है कि अदालत ने एससी को उप-श्रेणियों में बांटने संबंधी फैसला देने में इतनी जल्दी की है, लेकिन उसने अभी तक दलित मुसलमानों और दलित ईसाइयों को एससी श्रेणी में शामिल करने की अपील वाले मामले पर फैसला नहीं दिया है। इसी तरह, बिहार सरकार ने हाल के महीनों में वंचितों और कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण दर बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दी, लेकिन वहां भी पटना उच्च न्यायालय ने वंचितों के खिलाफ फैसला सुनाया है। कुछ महीने पहले, कोलकाता उच्च न्यायालय ने भी मुसलमानों की कुछ जातियों को ओबीसी श्रेणी में रखने के पश्चिम बंगाल सरकार के फैसले के खिलाफ राय व्यक्त की थी। कोलकाता हाई कोर्ट ने कहा कि ओबीसी श्रेणी में मुस्लिम जातियों को शामिल करने का कोई ठोस आंकड़ा नहीं है। लेकिन दिलचस्प कि सुप्रीम कोर्ट तक ईडब्ल्यूएस आरक्षण को बगैर किसी पुख्ता आंकड़े के हरी झंडी दिखा देता है। कई कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि आरक्षण पर अदालत के फैसले अक्सर ऊंची जातियों के पक्ष में दिए गए हैं और वंचितों के अधिकार को ‘योग्यता’ के नाम पर दबा दिया गया है।

गंदे नाले की सफाई करता सफाईकर्मी समुदाय का एक सदस्य

यह दुखद है कि दलित और आदिवासी आज भी समाज के सबसे निचले पायदान पर हैं, मगर अदालत उनमें “मलाईदार” तबका ढूंढ रही है। लेकिन अदालत ने कभी अपने आस-पास नहीं झांका कि उसके आस-पास क्या चल रहा है। क्या इस बात से इंकार किया जा सकता है कि कुछ ही परिवार के लोग वर्षों से न्यायपालिका के उच्च पदों पर काबिज हैं और जज का बेटा जज बन जाता है।

ऐसे फैसले के पीछे की राजनीति को नजरअंदाज करना नासमझी होगी। क्या यह कोई रहस्य है कि हिंदुत्व पार्टी के भीतर एक मजबूत ऊंची जाति की लॉबी है, जो आरक्षण खत्म करना चाहती है और दलितों और पिछड़ी जातियों को विभाजित करना चाहती है? इस तरह की बात भी उठती रही है कि सवर्ण लॉबी ने एक पिछड़ा नरेंद्र मोदी को अपना प्रचंड समर्थन इस लिए दिया था कि वे सत्ता पर काबिज होकर आरक्षण को खत्म करेंगे?

वंचित तबके को इस बात का डर है कि प्रधानमंत्री मोदी के राज में आदिवासियों की जमीन की लूट और निजीकरण की नीति सवर्ण साजिश का हिस्सा है। आरक्षण को खत्म करने की राह को हमवार करने के लिए, उसके खिलाफ गलतफहमियां फैलायी जाती रही हैं। तभी तो इसे अक्सर ‘आर्थिक’ नजरिए से देखा जाता है। भ्रम इसलिए भी पैदा किया जाता है क्योंकि इसे गरीबी उन्मूलन योजना बता दिया जाता है। हालांकि संविधान में कहीं भी आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का जिक्र नहीं है। इस कड़वी सच्चाई को भुला दिया गया है कि अगर कोई दलित अधिकारी और नेतागण किसी ऊंची जाति के मंदिर में प्रवेश करना चाहता है या ऊंची जाति की लड़की से शादी करना चाहता है, तो जातिवादी समाज उसके खिलाफ खड़ा हो जाता है।

दरअसल, आरक्षण को इसलिए संवैधानिक गारंटी दी गई है क्योंकि लोकतंत्र तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक कि सभी वर्गों, विशेष रूप से वंचितों को समानुपातिक और प्रभावी ढंग से प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता। बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर ने जीवनभर कहा कि भारतीय समाज जातिगत असमानता पर टिका है, जहां ऊंची जातियों के पास सभी संसाधन हैं, उनके पास उच्च शिक्षा है, उनके पास बड़ी नौकरियां हैं, वे सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक और व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर काबिज हैं, जबकि अधिकांश दलित, आदिवासी, पिछड़ी जाति के लोग आज भी खेतिहर मजदूर हैं या दिहाड़ी मजदूरी करके अपना पेट भरते हैं। डॉ. आंबेडकर ने सिद्ध किया कि भारत में जाति और श्रम का सीधा रिश्ता है।

आज भी मीडिया, फिल्म, वाणिज्य में 90 प्रतिशत से ज्यादा ऊंची जाति के लोग हैं, जबकि सफाई कर्मचारी के समूह में एक-दो को छोड़कर ज्यादातर दलित हैं। क्या इस बात से इनकार किया जा सकता है कि आज भी भारत में लगभग 70 प्रतिशत दलितों के पास जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं है, जबकि मुट्ठी भर ऊंची जातियों के पास अकूत जमीन है? खुद सरकारी आंकड़े कहते हैं कि हर मिनट किसी न किसी दलित महिला की अस्मिता पर हमला होता है और कोई न कोई दलित ऊंची जाति के जुल्म का शिकार बनता है। क्या ऐसे कमजोर समुदाय के भीतर ‘क्रीमीलेयर’ की पहचान करना उचित है? क्या देश की सबसे बड़ी समस्या दलितों में उप-वर्गीकरण है?

डॉ. आंबेडकर ने बार-बार कहा था कि एक अच्छा कानून अपनेआप में यह गारंटी नहीं देता कि कमजोरों को न्याय मिलेगा। उनके अनुसार, कानून बनाने से लेकर योजना बनाने की प्रक्रिया में जब तक वंचित उपस्थित नहीं होंगे, तब तक उनका हक मारा जाएगा। यदि इन बातों को ध्यान में रखा जाए तो एससी और एसटी आरक्षण में उपश्रेणीकरण अनुपयुक्त लगती है। ऐसा इसलिए क्योंकि आज भी एससी, एसटी और ओबीसी का आरक्षण पूरी तरह से लागू नहीं हो सका है। आज भी बहुजनों की ‘बैकलॉग’ की सीटें नहीं भरी जा सकी हैं। लेकिन दुख की बात है कि एससी और एसटी आरक्षण को पूरा करने और इसकी गलत प्रक्रिया को सुधारने के बजाय, कोटा के भीतर कोटा की योजना शुरू की जा रही है।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अभय कुमार

जेएनयू, नई दिल्ली से पीएचडी अभय कुमार संप्रति सम-सामयिक विषयों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन करते हैं।

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