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हरियाणा में इस बार दलित मतदाताओं के हाथ में सत्ता की चाबी

एक तो कांग्रेस और भाजपा दोनों में से किसी का भी कोर वोटर पूरी तरह संगठित नहीं दिख रहा है। दूसरा, दलित मतदाताओं की संख्या राज्य की चालीस से ज़्यादा सीटों पर या तो निर्णायक है या फिर हार-जीत के फैसले का पासंग है। पढ़ें, सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा का यह विश्लेषण

हरियाणा में विधानसभा चुनाव का एलान हो गया है। राज्य में आगामी 1 अक्टूबर, 2024 को वोट डाले जाएंगे और 4 अक्टूबर को नतीजों का एलान होगा। हार-जीत से परे इस बार सबकी नज़र राज्य के दलित मतदाताओं पर है।

माना जा रहा है कि इस बार राज्य में सत्ता की चाबी दलित वोटरों के पास है। राज्य के 21 फीसदी दलित मतदाता इस बार जिस तरफ चले जाएंगे, वही पार्टी सरकार बनाने में कामयाब होगी।

यही वजह है कि राज्य सरकार ने चुनाव के ठीक पहले सूबे में अनुसूचित जाति के कोटे में उपकोटे को लागू करने की घोषणा की है। यह घोषणा गत 1 अगस्त, 2024 सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले के आधार पर की गई है, जिसके अनुसार राज्य सरकारें अनुसूचित जातियों के उपकोटा तय कर सकती हैं। 

आमतौर पर हरियाणा की राजनीति ओबीसी वोटरों के इर्द-गिर्द ही घूमती है। अंग्रेजी दैनिक ‘इंडियन एक्सप्रेस’ द्वारा प्रकाशित खबर के अनुसार इनकी आबादी लगभग 35 फीसदी है। इनमें कुल 77 जातियां हैं जिनमें यादव, सैनी और गूजर वोटरों की उल्लेखनीय हिस्सेदारी है। वहीं जाटों की आबादी लगभग 27 फीसदी है। जबकि सूबे में अनुसूचित जाति की आबादी 20.17 प्रतिशत है।

हालांकि राज्य में मुस्लिम मतदाताओं की आबादी लगभग 7 फीसदी है, लेकिन उनके जनसंख्या का घनत्व राज्य के दक्षिणी हिस्सों में अधिक है। मुस्लिम मतदाता राज्य की 90 में से 10 विधानसभा सीटों पर नतीजे प्रभावित करते हैं। इनमें नूह, गुड़गांव, और फरीदाबाद के आसपास की सीटें अधिक हैं। इस आधार पर देखें तो सवर्ण मतदाताओं की आबादी लगभग 11 फीसदी हैं, जिनमें ब्राह्मण, त्यागी और राजपूत आदि शामिल हैं।

नायब सिंह सैनी, कुमारी शैलजा और दीपेंद्र सिंह हुड्डा

लंबे अरसे तक राज्य में जाट राजनीति का दबदबा रहा है। लेकिन 2014 के लोक सभा चुनाव के बाद से भाजपा तमाम सवर्ण जातियों के अलावा बड़ी संख्या में ग़ैर-जाट ओबीसी और दलित वोटरों को लुभाने में कामयाब रही है। पिछले दस साल से राज्य में सत्ता पर क़ाबिज़ रहने के अलावा लोकसभा चुनावों में भाजपा के अच्छे प्रदर्शन की यही सबसे बड़ी वजह रही है।

भाजपा को उम्मीद है कि जाट मतदाताओं में बिखराव और ग़ैर-जाट वोटरों का ध्रुवीकरण एक बार फिर से उसको सत्ता में वापसी करा सकता है। इसके अलावा भाजपा को उम्मीद है कि नूह दंगों के अलावा गुड़गांव और फरीदाबाद जैसी जगहों पर धार्मिक ध्रुवीकरण उसके पक्ष में जाएगा। हालांकि इस बार यह इतना आसान नहीं है। इसकी कई वजहें हैं। एक तो 2019 के विधानसभा चुनाव में दुष्यंत चौटाला के नेतृत्व वाली जननायक जनता पार्टी को विपक्षी ख़ेमे में मानकर किसान जातियों, ख़ासकर जाट मतदाताओं ने अच्छा-ख़ासा वोट दिया था, दूसरे दलित मतदाता कांग्रेस से नाराज़ चल रहे थे। बसपा के कमज़ोर उम्मीदवारों का फायदा भी भाजपा को मिला था। इसके अलावा मुसलमान वोटरों में भी निराशा का माहौल था।

हालांकि 2019 में माहौल पक्ष में न होने के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन उम्मीद से बहुत बेहतर रहा था। इस चुनाव में भाजपा को 33.20 फीसदी वोटों के साथ 40 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। कांग्रेस को कुल 20.58 फीसदी वोट मिले, लेकिन उसके 31 उम्मीदवार चुनाव जीतकर आए। जननायक जनता पार्टी को 14.8 फीसदी वोट के साथ कुल 10 सीटों पर जीत हासिल हुई।

वहीं अभय चौटाला के नेतृत्व वाली इंडियन नेशनल लोकदल को महज़ 2.44 फीसदी वोट मिले और उसका एक ही उम्मीदवार चुनाव जीत पाने में सफल रहा। इस चुनाव में दो निर्दलीय उम्मीदवार कामयाब हुए थे, जबकि गोपाल कांडा की हरियाणा लोकहित पार्टी को एक सीट पर जीत हासिल हुई थी। बहुजन समाज पार्टी और शिरोमणि अकाली दल इस बार खाता खोल पाने में नाकाम रहे। इस तरह किसी भी पार्टी को बहुमत हासिल नहीं हुआ और आख़िर में भाजपा ने दुष्यंत चौटाला की जेजेपी के साथ मिलकर सरकार बनाई।

राज्य की चुनावी राजनीति पर नज़र रखने वालों के अलावा कई सर्वेक्षण एजेंसियों का मानना है कि 2019 में यादव, सैनी, गूजर, पंजाबी, ब्राह्मण, वैश्य और राजपूत मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में वोट किया। कांग्रेस को मुसलमान और जाट मतदाताओं की बड़ी संख्या के अलावा कुछ दलित और पिछड़ों का वोट भी हासिल हुआ। लेकिन पार्टी को जाट वोटों में बिखराव के अलावा मुसलमान और दलित वोटरों की उदासीनता का नुक़सान उठाना पड़ा।

भाजपा ने चुनाव के बाद पंजाबी खत्री जाति के मनोहर लाल खट्टर पर एक बार फिर से भरोसा जताया लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव से कुछ ही दिन पहले राज्य का मुख्यमंत्री एक ओबीसी से बदल दिया गया। फिलहाल नायाब सिंह सैनी राज्य के मुख्यमंत्री हैं और दुष्यंत चौटाला के समर्थन वापसी के बाद से अल्पमत की सरकार चला रहे हैं।

हालांकि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का दबदबा बरक़रार रहा, लेकिन 2024 में कांग्रेस ने शानदार वापसी की है। 2014 में भाजपा राज्य में दस की दस लोकसभा सीटों पर चुनाव जीती थी। 2019 में उसे एक सीट का नुक़सान उठाना पड़ा, लेकिन 2024 में उसके हिस्से में सिर्फ पांच ही सीटें आईं। हालांकि इस चुनाव में वोटों के लिहाज़ से भाजपा राज्य की 90 में से 44 विधानसभा सीटों पर आगे थी। ऐसे में चुनावी रणनीतिकार हरियाणा में एक बार फिर से त्रिशंकु विधानसभा का अनुमान लगा रहे हैं। लेकिन विपक्ष 2024 के नतीजों को लेकर काफी उत्साह में है।

आम आदमी पार्टी के साथ कांग्रेस का गठबंधन ख़त्म होने, बसपा, शिरोमणि अकाली दल, इनेलो, जेजेपी और हरियाणा लोकहित पार्टी के अलग-अलग चुनाव लड़ने का फायदा भाजपा को मिल सकता है। इसके बावजूद कांग्रेस अपनी जीत को लेकर आशान्वित है।

कांग्रेस की उम्मीदें तीन बातों पर टिकी हैं। एक, जाट मतदाताओं की भाजपा से नाराज़गी। मुसलमान वोटरों में भाजपा की नीतियों के प्रति रोष और दलित मतदाताओं में अपनी अनदेखी के चलते उत्पन्न निराशा। कांग्रेस नेताओं का मानना है कि जाट वोटर इस बार जेजेपी या इनेलो को वोट नहीं करेंगे। राज्य की राजनीति पर नज़र रखने वालों का भी यही मानना है। वरिष्ठ पत्रकार रवि शर्मा के मुताबिक़ “इस बार मध्यमवर्ग के लोगों में बढ़ती महंगाई और बेरोज़गारी के चलते भाजपा से नाराज़गी है। इसके अलावा जाट वोटर मान रहे हैं कि दुष्यंत और अजय चौटाला मौक़ा मिलते ही भाजपा के साथ चले जाएंगे।”

खैर, हरियाणा की सियासत पर स्थानीय कारक तो हावी हैं ही, आसपास की घटनाओं का भी ठीक-ठाक असर पड़ता है। मसलन पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश से लगे होने के कारण किसान राजनीति, जातीय मुद्दे, और राजनीतिक घटनाएं हरियाणा में असर डालते हैं। यूपी के ऊपरी दोआब इलाक़े के दलित, ओबीसी और मुसलमानों को या तो यमुना भौगोलिक तौर पर बांटती है या फिर सियासी दल विभाजित करते हैं। इस बार भी तय है कि पश्चिम यूपी की ओबीसी में शामिल जाट, सैनी और गूजर जातियों के अलावा मुसलमान और दलितों के बीच हो रही राजनीतिक लामबंदी का असर हरियाणा में भी महसूस किया जाएगा।

वहीं, सोनीपत निवासी वृक्षपाल सिंह का कहना है “भाजपा दलितों को जाट वोटरों का ख़ौफ दिखाकर लामबंद करती रही है, लेकिन पिछले दस वर्षों में न तो उनको सुरक्षा दे पाई है और न ही उनको सत्ता में वाजिब हिस्सेदारी मिली है।” जबकि सिरसा निवासी राम मेहर का दावा है कि “इस बार न सिर्फ जाट, जाटव और मुसलमान बल्कि बहुत सारी ओबीसी और सवर्ण जातियां भी भाजपा के ख़िलाफ वोट करेंगी।”

हालांकि सबके अलग-अलग दावे हैं, लेकिन एक बात साफ है कि राज्य में सत्ता का रास्ता इस बार दलितों के दरवाज़े के सामने से गुज़र रहा है। इसकी दो वजहें हैं। एक तो कांग्रेस और भाजपा दोनों में से किसी का भी कोर वोटर पूरी तरह संगठित नहीं दिख रहा है। दूसरा, दलित मतदाताओं की संख्या राज्य की चालीस से ज़्यादा सीटों पर या तो निर्णायक है या फिर हार-जीत के फैसले का पासंग है।

लोकसभा चुनाव में भी राज्य के दलितों की बड़ी संख्या भाजपा और दूसरी पार्टियों का दामन छोड़कर इंडिया गठबंधन की तरफ आई थी। अगर यह चलन इस बार भी दिखाई दिया तो कांग्रेस जीत हासिल कर सकती है। हालांकि इसमें अभी भी कई अगर और मगर हैं। कांग्रेस को न सिर्फ अंदरूनी गुटबाज़ी से पार पाना होगा, बल्कि टिकटों के वितरण में भी सावधानी बरतनी होगी। कांग्रेस अगर टिकट वितरण में जातीय संतुलन क़ायम कर पाई तो जीत असंभव भी नहीं है। भाजपा की दस साल पुरानी सत्ता ख़त्म करने के लिए कांग्रेस टिकट वितरण में जाटों के साथ-साथ मुसलमान, दलित, यादव, पंजाबी, और ब्राह्मण वोटरों को लुभा पाई तो भाजपा के लिए सत्ता में वापसी का रास्ता बहुत तंग हो जाएगा।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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