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आंबेडकर की वैचारिकी के विरुद्ध नहीं है अनुसूचित जाति का उपवर्गीकरण : प्रो. श्याम लाल

जब एक समूह के रूप में दलित आरक्षण का विरोध सवर्ण समाज के द्वारा किया जा रहा था तब हम जो बात कह रहे थे, तब आज वही बात हम अपने परिवार के सदस्यों के लिए, अपने लोगों के लिए लागू नहीं कर सकते? पढ़ें, प्रो. श्याम लाल से यह साक्षात्कार

गत 1 अगस्त, 2024 को सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ द्वारा देवेंदर सिंह बनाम पंजाब सरकार के मामले में दिए गए फैसले को लेकर दलित समाज दो खेमे में बंट गया है। फैसले में अनुसूचित जाति में उपकोटा तय करने का अधिकार राज्यों के पास होने की बात कही गई है। इस संबंध में फारवर्ड प्रेस ने प्रो. श्याम लाल से दूरभाष पर विशेष बातचीत की।

उल्लेखनीय है कि प्रो. श्याम लाल प्रमुख समाजशास्त्री रहे हैं। वे पटना विश्वविद्यालय, पटना, और जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के पूर्व कुलपति एवं राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के कार्यकारी कुलपति रह चुके हैं। इसके पहले वे राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर में समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे। इसके अतिरिक्त वे राजस्थान सरकार के कला, साहित्य और संस्कृति विभाग के अंतर्गत आंबेडकर फाउंडेशन की मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर भी रह चुके हैं।

प्रो. श्याम लाल एक सफल और प्रतिबद्ध लेखक हैं। ये अब तक 21 पुस्तकें और 50 शोध पत्र लिख चुके हैं। इनकी प्रकाशित किताबों में इनकी आत्मकथा ‘अनटोल्ड स्टोरी ऑफ ए भंगी वाइस चांसलर’ (रावत पब्लिकशेन, नई दिल्ली) व इसका हिंदी अनुवाद ‘एक भंगी कुलपति की अनकही कहानी’ (दास पब्लिकेशन, नई दिल्ली) के अलावा ‘फ्रॉम हायर कास्ट टू लोअर कास्ट : द प्रोसेस ऑफ अस्पृश्यकरण एंड द मिथ ऑफ संस्कृताइजेशन’ (रावत प.), ‘क्राइसिस ऑफ दलित लीडरशिप’ (रावत प.), ‘एट्रोसिटीज ऑन अनटचेबुल्स’ (रावत प.), ‘आंबेडकर एंड भंगीज’ (रावत प.) और इसका हिंदी अनुवाद ‘आंबेडकर और वाल्मीकि समाज’ (दास प.) आदि शामिल हैं। पढ़ें, उनसे यह विशेष बातचीत

अनुसूचित जाति के उपश्रेणीकरण से संबंधित सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए फैसले पर आपकी प्राथमिक प्रतिक्रिया क्या है?

जहां तक सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का ताल्लुक है, निश्चित तौर पर मैं कह सकता हूं कि यह अपने आपमें बहुत महत्वपूर्ण निर्णय है। भले ही इस निर्णय को लेकर पूरे समाज के अंदर और खासकर के दलित समाज के अंदर प्रतिक्रियाएं चल रही हैं। लेकिन ऐसा तो हर जजमेंट और हर मुद्दे के साथ होता है कि दो पक्ष होते ही हैं। कोई पक्ष उसके पक्ष में अपनी बात कहता है तो दूसरा पक्ष उसके विरोध में। कोई नई बात नहीं है। यदि समाज से दूसरा कोई मुद्दा होगा तब भी ऐसा ही होगा। लोगों की दो तरह की राय सामने आएगी। यही सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मामले में भी देखा जा रहा है। इसे आप कंट्रोवर्सियल कहिए या कंट्रोवर्सियल न कहिए, यह तो हर जजमेंट और हर मुद्दे के साथ होता है। कोई नई बात समाज की तरफ से इस निर्णय के संबंध में मुझे नहीं दिख रही है।

यह देखा जा रहा है कि दलित समुदाय का एक बड़ा वर्ग इस फैसले का विरोध कर रहा है। उनका तर्क है कि एक तो यह फैसला दलितों की राजनीतिक और सामाजिक एकता को खंडित करेगा, दूसरा यह कि वर्तमान में जो आरक्षण देय है, वही अभी पर्याप्त रूप से नहीं दिया जा रहा है, लिहाजा अभी इस श्रेणी के उपश्रेणीकरण का कोई मतलब नहीं है? आप इसे कैसे देखते हैं?

देखिए, सही बात तो यह है कि इस निर्णय के संबंध में मोटे-मोटे तौर पर जो चर्चाएं सोशल मीडिया के जरिए सुनने को मिल रही हैं, उस हिसाब से देखा जाय तो पूरे भारत को दो हिस्सों में बांटकर देखना चाहिए। एक तो जो दक्षिण भारत है, उसके संदर्भ में हमें देखना चाहिए। और दूसरा जो उत्तर भारत है, उसके संदर्भ में देखना चाहिए। जहां तक दक्षिण भारत की बात है तो वहां के जितने भी राजनीतिज्ञ हैं, उन्होंने तो सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को स्वीकार किया है और स्वागत किया है। और एक राज्य ने तो आगे बढ़कर इसे क्रियान्वित करने की बात कही है। और जहां तक उत्तर भारत का सवाल है तो उत्तर भारत में निश्चित तौर पर हमें इसके बिल्कुल विपरीत परिस्थिति देखने को मिल रही है। जो खलबली मची है, वह उत्तर भारत में ज्यादा देखने को मिल रही है। 

यह तो एक बात हुई। दूसरा हम यह देखेंगे कि जो सोशल मीडिया है, वहां केवल एक ही पक्ष के ऊपर बात कही जा रही है। और वह बात यह है कि इस निर्णय के आने के बाद में दलित समाज में कई प्रकार के धड़ें बन जाएंगे, हिस्से बन जाएंगे और यह होगा या फिर वह होगा। इस तरह की बातें कही जा रही हैं। तो दोनों ही नजरियों से देखें तो एक ही बात सामने आ रही है। मतलब यह कि दलित समाज का जो बहुमत तबका है उसने इस निर्णय के संबंध में नकारात्मक बातें कही हैं। और बहुत कम ऐसे व्यक्ति हैं जो सोशल मीडिया पर इस निर्णय के सकारात्मक पक्ष पर अपना मंतव्य व्यक्त कर रहे हैं। बहुत कम लोग हैं जिन्होंने अपना मंतव्य इस निर्णय के पक्ष में दिया हो। 

मैं एक बात आपके जरिए पाठकों से यह कहना चाहता हूं कि जब आरक्षण पूरे समूह के तौर पर दलित समाज के संदर्भ में लागू किया जा रहा था तब उस समय दलितों के अलावा दूसरा जो सवर्ण समाज था, उस समाज ने भी तब इसका विरोध किया था। बीच-बीच में भी इसका विरोध उनके द्वारा किया जाता रहा। जब पूरे दलित समाज के आरक्षण का विरोध हो रहा था तब दलित समाज के नेताओं/बुद्धिजीवियों ने यह दलील दी कि एक परिवार के अंदर कुछ भाई हैं और कोई भाई अधिक सशक्त है, समृद्ध है, और दूसरा भाई अगर कमजोर है तो उसको अतिरिक्त सुविधा खाने की, पीने की, रहने की तो हो सकता है कि थोड़े समय के बाद दूसरे भाइयों के समकक्ष हो जाय। यह दलील हमारे लोगों ने उस वक्त दी थी जब सवर्ण समाज की तरफ से आरक्षण का विरोध किया जा रहा था। आज जब स्वयं दलित समाजों के अंतर्गत ही एक विशेष प्रयोजन की बात सुप्रीम कोर्ट ने की है तो निश्चित तौर पर इस समाज के बुद्धिजीवियों को चिंतन और मनन करना चाहिए। 

जब एक समूह के रूप में दलित आरक्षण का विरोध सवर्ण समाज के द्वारा किया जा रहा था तब हम जो बात कह रहे थे, तब आज वही बात हम अपने परिवार के सदस्यों के लिए, अपने लोगों के लिए लागू नहीं कर सकते? समाज क वह तबका जो किन्हीं परिस्थतियों से, अपनी सूझ-बूझ से, अपनी काबिलियत से और अपनी मेहनत से अगर वह दौड़ में समाज के अन्य लोगों से आगे निकल गया है तो निश्चित तौर पर उस तबके को भी इस बारे में चिंतन करना चाहिए कि भाई हमलोग तो अपने मुकाम तक पहुंच गए हैं और आपलोग किन्हीं कारणों से, समाज में एक लीडरशिप नहीं होने के कारण या यह संख्या बल नहीं होने के कारण पीछे रह गए हैं तो आपको उनके बारे में सोचना चाहिए। अगर इस नजरिए से सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखा जाएगा तो मैं समझता हूं कि जो भ्रांतियां समाज में फैलाई जा रही हैं, वे दूर की जा सकती हैं। मेरा अपना यह अनुमान है।   

प्रो. श्याम लाल

उच्च शिक्षा में दलित समुदाय के मौजूदा प्रतिनिधित्व को आप किस रूप में व्याख्यायित करेंगे?

देखिए आप केवल एक डाइमेंशन के ऊपर ही क्यों अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं? उच्च शिक्षा के अंदर जो नियुक्तियां होती हैं, उसको लेकर आप बात कर रहे हैं। क्या आपको मालूम है कि एक बार आंबेडकर साहब से किसी पत्रकार ने एक प्रश्न किया था कि आप इन पिछड़े और दलित लोगों को अपना अधिकार मिले या आगे बढ़ने का मौका मिले, इसके लिए आपके दिलो-दिमाग में क्या ख्याल आता है? इसके जवाब में डॉ. आंबेडकर ने कहा कि हमारे लोग भी पढ़ने-लिखने के बाद जब उपर के पदों पर पहुंचेंगे, निर्णायक पदों पर बैठेंगे तब उनके कारण निश्चित तौर पर समाज के लोगों को आगे बढ़ने का मौका मिलेगा। आज स्थिति यह है कि हिंदुस्तान के अंदर करीब तीन-चार सौ विश्वविद्यालय हैं, और उन विश्वविद्यालयों में दलित समाज के कितने कुलपति हैं या फिर निर्णय लेने वाले पदों पर हैं, अगर इनकी गणना की जाएगी तो गिने-चुने लोगों का नाम ही गिनाया जाएगा, जहां तक उत्तर भारत का सवाल है। दक्षिण भारत के बारे में मैं ज्यादा बातें नहीं कहना चाहूंगा। लेकिन उत्तर भारत के बारे में मेरा जो अनुभव रहा है, उस अनुभव के आधार पर मैं यह भरोसे के साथ कह सकता हूं कि दलित समाज के लोगों के साथ आज भी अन्याय हो रहा है। इसमें कोई शक नहीं। जहां तक नियोजन का सवाल है, मैं खुद भी तीन विश्वविद्यालयों का कुलपति रहा हूं। तीन विश्वविद्यालयों के कुलपति होने के बाद मैंने यह महसूस किया कि जब नियोजन किया जाता है नियोजन बोर्ड में कुलपति तो एक ही होता है, लेकिन 18-20 जो बाकी होते हैं, वे दूसरे तबकों से संबंध रखते हैं। लेकिन अगर कुलपति के अंदर इच्छाशक्ति है, उठाए गए सवाल का समुचित जवाब देने में और सामंजस्य बिठाने में सक्षम है तो निश्चित तौर पर वह संविधानसम्मत नियोजन करता है। 

अब मैं अपने ही विश्वविद्यालय का उदाहरण दूं। जोधपुर विश्वविद्यालय की स्थापना 1962 में हुई। वर्ष 1996 में मैं उसी विश्वविद्यालय का कुलपति बना। मैं इसी विश्वविद्यालय का छात्र भी रहा था। 1962 से लेकर 1996 तक किसी भी दलित की नियुक्ति आरक्षण के आधार पर नहीं की गई थी। और जब मुझे मौका मिला तो मैंने संवैधानिक प्रावधानों के अनुरूप, विश्वविद्यालय के नियमों को ध्यान में रखते हुए नियोजन किया, जो राजस्थान में ही नहीं, बल्कि पूरे हिंदुस्तान में एक उदाहरण है। करीब 30-40 की तादाद में मैंने दलित समुदाय के लोगों को शिक्षक व शिक्षकेत्तर कर्मचारियों के रूप में नियुक्ति की। यह हिंदुस्तान में एक मिसाल ही है। मेरे कहने का आशय यह है कि जब हमलोगों को मौका मिलता है तो हम संविधान के प्रावधानों के अनुरूप निर्णय लेते हैं, उनको अमल में लाते हैं। सैद्धांतिक तौर पर तो सब संवैधानिक प्रावधानों की बात करते हैं। हमारे लोगों ने इस बारे में भी अपनी आवाज बुलंद की है। सवाल यह है कि क्यों हमारे लोगों को निर्णय लेनेवाले पदों पर नियुक्त नहीं करते हैं? 

एक बात है, जिसे आप भी जानते होंगे, वह है– नॉट फाऊंड सूटेबुल। इस वाक्य को बार-बार दुहराया जाता है। जब रिजेक्ट करना होता है तो सत्रह बहाने खोज लिये जाते हैं। मुझे याद आ रहा है कि मैं जब एक इंटरव्यू बोर्ड के अंदर बैठा था तब एक दलित समाज का व्यक्ति आया। यदि आप अनुमति दें तो मैं उस जाति का नाम भी ले सकता हूं। वह जाति है– सांसी। वह एक लिपिकीय पद के लिए आया था। लेकिन उसका प्रदर्शन तुलनात्मक रूप से उतना अच्छा नहीं था, जितना होना चाहिए था। तब नियोजन बोर्ड के तमाम सदस्यों ने राय व्यक्त की कि साहब, यह तो सूटेबुल नहीं है, इसे रिक्रूट नहीं किया जा सकता है। जब मैंने उनके मुंह से यह बात सुनी तब मैंने कुछ बातें कहना मुनासिब समझा। मैंने चेयरमैन से कहा कि श्रीमान, यह जिस जाति से संबंध रखता है, उस जाति की सामाजिक और शैक्षणिक पृष्ठभूमि को देखिए। पहली बात तो यह कि यह सांसी जाति का लड़का है, जिसमें पढ़ने-पढ़ाने का कोई रूझान ही नहीं है। और इस लड़के ने अपनी कौम में पहली बार ग्रेजुएशन किया है। तो मैंने कहा कि इस लड़के ने बोर्ड की परीक्षा पास की तब क्या आपने या फिर हमने इसकी मदद की थी? सभी ने कहा– नहीं, यह अपनी मेहतन से पास हुआ है। फिर मैंने कहा कि इसने जब बीए पास किया तब क्या हमने इसकी कोई सहायता की? फिर सभी ने कहा कि नहीं, इसने यह खुद अपनी मेहनत से किया है। तब मैंने कहा कि यह लड़का अपनी मेहनत से बोर्ड और बीए की परीक्षा पास करने के बाद यहां इंटरव्यू बोर्ड में पहुंचा है। यह यहां हमसे सहानुभूति चाहता है। और सहानुभूति इसलिए भी चाहता है क्योंकि हम अपने हिसाब से इसे पास करें। तो इस तरह से इन वर्गों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अख्तियार किया जाना चाहिए। यह बहुत लाजिमी है।

यह भी पढ़ें : राज्य के पास एससी उप-कोटा तय करने का संवैधानिक अधिकार नहीं, सुप्रीम कोर्ट का फैसला महज जुमलेबाजी : प्रकाश आंबेडकर

क्या आपको लगता है कि केवल एक पीढ़ी को आरक्षण मिल जाने से अनुसूचित जाति का समुचित प्रतिनिधित्व शासन-प्रशासन में हो जाएगा? जबकि एक चपरासी, और एक क्लर्क से आईएएस और सचिव स्तर के पदों तक पहुंचने में अभी कई पीढ़ियों का समय लगेगा।

नहीं, मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूं। एक पीढ़ी के अंदर क्या होता है कि एक परिवार के अंदर चार भाई हैं। उन चारों को अगर पढ़ने-लिखने का मौका मिलता है और आरक्षण का बेनिफिट मिलता है तो निश्चित तौर पर वे तो अपना विकास कर लेंगे, लेकिन एक पीढ़ी के अंदर हम जिस सामाजिक परिवर्तन की बात कर रहे हैं, वह संभव नहीं है। इसलिए एक पीढ़ी तक इसको सीमित रखना मेरे नजरिए से तो बिल्कुल भी मुनासिब नहीं है।

क्या आपको लगता है कि उपकोटा का यह विचार उच्च जाति की मानसिकता का परिचायक है, जिसके आधार पर वे सोचते हैं कि यदि कोई दलित चपरासी या क्लर्क बन गया तो उसके लिए यही पर्याप्त है और उसे संतुष्ट हो जाना चाहिए?

नहीं, मैं इस बात से कतई सहमत नहीं हूं। मेरा ओपिनियन तो यह है कि उपवर्गीकरण करना इस मायने में कोई बुरी बात नहीं है कि अगर समाज के अंदर कुछ ऐसे वर्ग रह गए हैं जो कि कुछ कारणों से, जैसा कि मैंने बताया कि वे स्वयं भी जिम्मेदार हो सकते हैं और दूसरे फैक्टर भी जिम्मेदार हो सकते हैं, तो उनको वर्गीकरण के माध्यम से अगर आगे बढ़ने का मौका मिलता है तो इस बात से मैं सौ प्रतिशत सहमत हूं। मैं इसलिए सहमत हूं कि यदि आप उनका उपवर्गीकरण नहीं करेंगे तो उनको मौका आखिर किस तरीके से देंगे। अगर मान लीजिए कि उपवर्गीकरण करके उनको कोई अवसर नहीं देना चाहते हैं तो कोई दूसरा तरीका निकालिए आप। दूसरा तरीका भी ऐसा होना चाहिए जिससे उनको लाभ मिले। अगर ऐसी स्थिति में उपवर्गीकरण करके उनके लिए विशेष प्रावधान कर रास्ता निकाला जाता है तो इसमें क्या हर्ज है, क्या नुकसान है? मेरे हिसाब से तो उपवर्गीकरण का इस तरह का कान्सेप्ट लागू होता है तो वह ठीक है अपनेआप में, कोई बुराई नहीं है।

दलित समुदायों में वर्गीय विभाजन में आप विश्वास करते हैं? उदाहरण के लिए एक जाटव जिलाधिकारी या फिर सचिव स्तर का कोई आईएएस अधिकारी जब दलितों का हित सोचेगा तो क्या वह केवल जाटवों के लिए सोचेगा या फिर वाल्मीकि सहित सभी दलितों के बारे में? क्या आप मानते हैं कि दलित समुदाय की विभिन्न जातियों के बीच वैसा ही अंतर है जैसा कि गैर-दलित जातियों में? और यदि है तो क्या आपको लगता है कि यह उपश्रेणीकरण के उपरांत उपकोटा तय कर देने से सुलझ जाएगा?

देखिए, मैं मूलरूप से समाजशास्त्र का विद्यार्थी रहा हूं और साथ ही शोधार्थी भी रहा हूं। और एक शिक्षक की भूमिका भी मैंने निभाई है। और उसके साथ प्रशासक के तौर पर भी विश्वविद्यालयों में काम किया है। तो इन तमाम पोजीशनों के साथ जुड़कर मैंने जो अनुभव प्राप्त किए हैं, उन अनुभवों को ध्यान में रखते हुए और जो साहित्य मुझे पढ़ने को मिला, चाहे शोधार्थी काल के दौरान का साहित्य हो या उसके बाद जो मुझे पढ़ने या पढ़ाने का मौका मिला और अब जब मैं सेवानिवृत हो गया हूं तब एक स्वतंत्र पाठक के तौर पर पढ़ रहा हूं तो मेरा अनुभव यह कहता है कि यह मनोविज्ञानिक तथ्य है कि कोई भी कास्ट या कोई भी समुदाय स्वयं को जाति से अलग नहीं कर सकता है। चाहे सवर्ण मानसिकता की बात करें या दलित मानसिकता की बात करें, हिंदुस्तान के अंदर जाति को अलग करके आप किसी भी सवाल का जवाब प्राप्त नहीं कर सकते हैं। चाहे वह सामाजिक सवाल हो, चाहे राजनीतिक हो, चाहे सांस्कृतिक हो, कोई भी सवाल का जवाब हमेशा ही जाति के साथ जुड़ा हुआ होगा। यहां तक जाति का जो सवाल है, तो जाति सवर्ण समाज के अंदर है, दलित समाज के अंदर है। वह हमारी मानसिकता में इस कदर घुल-मिल गई है कि उसको अलग करना नामुमकिन है। दलित जातियों के संदर्भ में मैं आपको बताता हूं कि मेरठ विश्वविद्यालय के अंदर एक पीएचडी थिसिस सबमिट की गई थी। वह जो पीएचडी थिसिस थी, दलितों के संदर्भ में थी। उसमें चार-पांच जातियों का अध्ययन किया गया था, जिसमें वाल्मिकी समाज के भी लोग थे, चमार समाज के भी थे, खटिक समाज के लोग और रैगर समाज के लोग भी थे। तो इस तरह से उस शोधकर्ता ने चार-पांच दलित जातियों का अध्ययन किया और उसने देखा कि इन सभी दलित जातियों के मूल्य आपस में एक-दूसरे के साथ जुड़े हुए हैं। लेकिन उनके यहां पानी का जो नल है, अलग-अलग बस्तियों के साथ जुड़े हुए हैं। रैगर उनके यहां नहीं जा सकता, वाल्मिकी उनके यहां पानी नहीं भर सकता है, दूसरा जो अपने पारंपरिक धंधे को छोड़कर दूसरे धंधे के अंदर चले गए, वे लोग भी दूसरी जातियां, जिनको वे अपने से निम्न समझते हैं, उन जातियों के साथ में बैठना, खाना-पीना पसंद नहीं करते हैं। यह हकीकत है। और जिस तरह का पदानुक्रम ऊंची जातियों के अंदर देखने को मिलती है, उच्च से निम्न, वैसा ही पदानुक्रम हमें अपने दलित समाजों के अंदर भी देखने को मिलता है। दलितों में भी अब नए ब्राह्मण पैदा हो गए हैं जो उसी तरह का व्यवहार करते हैं जैसे कि अपरकास्ट का कोई ब्राह्मण व्यवहार करता है। ऐसी जातिगत व्यवस्था आपको हरेक जाति में मिलती है और यह ह्यूमन नेचर है कि अगर किसी एक जाति का अधिकारी यदि निर्णायक पद पर बैठा हुआ है तो उसकी अपनी जाति के प्रति निश्चित तौर पर उसके अंदर थोड़ा बहुत सॉफ्ट कॉर्नर होगा ही और यह होना भी चाहिए, क्योंकि यह एक मानवीय पक्ष है, जिसको आप जितना भी दूर करना चाहो, दूर नहीं होगा। हां उसके प्रति प्रतिशतता में कमी कर सकते हैं कि थोड़ा बहुत पक्ष वह अपनी जाति-बिरादरी के प्रति रखे, लेकिन मेजोरिटी के अंदर वह अपने को न्यूट्रल रखे। यह एक तरीका वह जरूर अपना सकता है।

क्या आपको नहीं लगता है कि सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला डॉ. आंबेडकर की विरासत और उनकी दलित अस्मिता संबंधी वैचारिकी पर हमला है?

नहीं, किस मायने में वैचारिकी पर हमला है, यह तो बताइए मुझे। कह देने मात्र से तो नहीं होगा न? किस मायने में वैचारिकी पर हमला है, यह बताइए आप? मैं तो इस बात से सहमत नहीं हूं कि यह किसी प्रकार से [डॉ. आंबेडकर की] वैचारिकी पर हमला है। अगर समाज का कोई तबका किन्हीं कारणों से आगे नहीं बढ़ पाया है और उसको आगे बढ़ाने की बात कही जा रही है तो यह तो हमारे बीच की ही तो बात हो रही है न। दूसरी जाति या तबके की बात कहां हो रही है। हां ‘नॉट फाऊंड सुटेबल’ की दलील जरूर दी जा रही है, लेकिन इसे इस मुद्दे के साथ जोड़कर मत देखिए। मेरा अपना ऑब्जर्वेशन तो यह है कि जो एनएफएस की बात आ रही है, दलित समाज के पिछड़े लोगों के साथ इसे जोड़कर देखना उनके साथ अन्याय करना होगा।

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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