हाल ही में संसद के मानसून सत्र में कुछ ऐसा हुआ, जिसने एक बार फिर साबित कर दिया कि भारत में जाति से बड़ा राजनीतिक सच कोई दूसरा नहीं है। गत 29 जुलाई, 2024 को यह विवाद लोकसभा में जातिगत जनगणना की मांग को लेकर शुरू हुआ। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने दावा किया कि वे हर क़ीमत पर जातिगत जनगणना करा कर रहेंगे। यहां से बात बढ़ी और नेता प्रतिपक्ष की जाति और जातिगत जनगणना के मुद्दे के अवमूल्यन तक पहुंच गई। अब विपक्ष इस मुद्दे को जनता के बीच ले जाने के दावे कर रहा है।
दरअसल, जातिगत जनगणना का मुद्दा सत्ताधारी भाजपानीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के लिए लगातार गले की फांस बना हुआ है। इस मुद्दे पर हाल ही में संसद में ज़ोरदार बहस छिड़ गई। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने सदन में बजट प्रस्तावों पर चर्चा में भाग लेते हुए मिथकीय ग्रंथ ‘महाभारत’ के चक्रव्यूह प्रकरण का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि ‘महाभारत’ में जो अभिमन्यु के साथ किया गया था, वही हिंदुस्तान के साथ किया गया है। हिंदुस्तान के युवाओं, किसानों, माताओं-पिताओं, छोटे व्यापारियों के साथ किया गया है। अभिमन्यु को छह लोगों ने मारा था। आज भी चक्रव्यूह के बीच में छह लोग हैं। उन्होंने नाम लेते हुए कहा कि “चक्रव्यूह को नरेंद्र मोदी जी, अमित शाह जी, मोहन भागवत जी, अजित डोभाल जी, अंबानी और अडानी कंट्रोल कर रहे हैं।”
यहां तक आते-आते सत्तापक्ष की तरफ से टोका-टाकी और शोर-शराबा शुरू हो गया। लेकिन राहुल गांधी यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा कि “वे भाजपा के इस चक्रव्यूह को भेदेंगे।” चक्रव्यूह को भेदने के लिए उन्होंने जातिगत जनगणना को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की बात कही। इस भाषण के बाद लगा कि मामला शांत हो गया है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
गत 30 जुलाई, 2024 को पूर्व केंद्रीय मंत्री और हिमाचल प्रदेश से भाजपा के सांसद अनुराग ठाकुर सदन में बोलने खड़े हुए। अपने भाषण के बीच में अनुराग ठाकुर ने कहा कि “ओबीसी, जनगणना की बात बहुत की जाती है। माननीय सभापति जी। जिसकी जाति का पता नहीं, वो गणना की बात करता है।” ज़ाहिर है यह बहुत ही अशोभनीय व निचले स्तर का हमला था और निशाने पर राहुल गांधी थे।
इसपर समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने आपत्ति जताई। उन्होंने सवाल किया कि भाजपा नेता सदन में इस तरह किसी की जाति कैसे पूछ सकते हैं। अखिलेश यादव के तेवर को देखकर ही लग गया कि विपक्ष को एक बड़ा मुद्दा मिल गया है। इसके जवाब में राहुल गांधी ने कहा कि “उन्होंने [अनुराग ठाकुर ने] मुझे अपमानित किया है, मुझे बोलने दीजिए। आप लोग मेरी जितनी बेइज़्ज़ती करना चाहते हैं, आप ख़ुशी से करिए। आप रोज़ करिए। मगर एक बात मत भूलिए कि जातीय जनगणना को हम यहां पास करके दिखाएंगे। जितनी बेइज़्ज़त करनी है, करिए।”
जाति पूछने और जाति बताने के मुद्दे पर देश में तमाम तरह के विवाद हैं। ऐसे में लगता है कि अनुराग ठाकुर विपक्ष के बिछाए जाल में फंस गए हैं। हालांकि उनकी पार्टी समझ नहीं पा रही है कि अनुराग के बयान ने उसका कितना नुक़सान कर दिया है और अखिलेश यादव ने आगे बढ़कर राहुल गांधी से पहले इस मुद्दे को क्यों लपक लिया है। अनुराग ठाकुर और भाजपा इसके पीछे की राजनीति समझ गए होते तो चुप हो जाते या खेद जताकर आगे बढ़ जाते। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। अनुराग ठाकुर अभी भी अपनी बात पर क़ायम हैं और पीछे हटने को राज़ी नहीं हैं।
फिर 1 अगस्त को उन्होंने दावा किया कि “कुछ लोगों को मेरे भाषण से उनके ‘सेंस ऑफ एंटाइटेलमेंट’ (निज अधिकार संंबंधी सोच) को गहरी चोट लगी है। जिसका असर हुआ कि पूरे इकोसिस्टम ने चीख-पुकार मचानी शुरू कर दी है।” उन्होंने आगे कहा कि “इन्हें लगता है कि सवाल पूछने का हक सिर्फ इन्हें है, क्योंकि ये विशेषाधिकार है। ये वही लोग हैं, जिनके पूर्वज पिछड़ों, दलितों और वंचितों को बुद्धु कहा करते थे।” ज़ाहिर है कि अनुराग ठाकुर को अभी तक अपनी रणनीतिक भूल का अहसास नहीं हुआ है।
दरअसल जातिगत जनगणना का मुद्दा महज़ चुनावी सवाल नहीं है। एक पूरे तबक़े के लिए यह सामाजिक बराबरी पाने और संसाधनों में हिस्सेदारी पाने का भावनात्मक मुद्दा बन चुका है। यही वजह है कि कांग्रेस चुनाव बीत जाने के बाद भी इस मुद्दे को बार-बार उठा रही है। कांग्रेस के रणनीतिकार मानते हैं कि इस मुद्दे से पार्टी को चुनाव में फायदा मिला है। लेकिन चुनाव तो ख़त्म हो चुके हैं? जामिया हमदर्द में प्रोफेसर अब्दुल क़ादिर सिद्दिक़ी इसके जवाब में कहते हैं कि “जल्द ही महाराष्ट्र और हरियाणा समेत कुछ और राज्यों में चुनाव होने हैं, जहां दलित और पिछड़े निर्णायक भूमिका में हैं।”
प्रोफेसर सिद्दीक़ी के मुताबिक़ लोकसभा चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस को नई ऊर्जा दी है और इन दोनों राज्यों में कांग्रेस सत्ता पाने की मुख्य दावेदार है।
हालांकि मामला इतना सीधा है नहीं, जितना कि यह लगता है। एक तो एनडीए लगातार दलित और पिछड़ों के वोटों के सहारे बार-बार सत्ता हासिल कर रहा है, इसलिए पिछड़ों को लुभाने वाले इस मुद्दे का खुलकर विरोध भी नहीं कर सकते। दूसरा, इस मुद्दे का समर्थन करने से उसके कोर वोटर, अगड़ी जातियां नाराज़ हो जाएंगी, सो इस मांग को माना भी नहीं जा सकता। लेकिन विपक्ष लंबी रणनीति पर काम कर रहा है। ख़ासकर समाजवादी पार्टी की नज़र 2027 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव पर है। लोकसभा चुनाव में पार्टी को सैनी, कुर्मी, गूजर, जाट समेत ग़ैर-यादव ओबीसी वोट अच्छी तादाद में मिले हैं। जाटव, पासी और कई दूसरी दलित जातियों ने पहली बार समाजवादी पार्टी का समर्थन किया है। लेकिन अखिलेश यादव समझ रहे हैं कि भाजपा को सत्ता से बेख़ल करने के लिए इतना काफी नहीं है।
हाल ही में समाजवादी पार्टी ने माता प्रसाद पांडे को अखिलेश यादव की जगह नेता प्रतिपक्ष नियुक्त किया है। इसके पीछे सोच है कि राज्य के ब्राह्मण समाज और भाजपा के रिश्ते पहले जैसे नहीं रह गए हैं। ब्राह्मणों में एक तबक़ा मान रहा है कि उत्तर प्रदेश में राजपूत और बनिए सरकार चला रहे हैं, जबकि उनकी अनदेखी हो रही है। समाजवादी पार्टी की नज़र इस तबक़े के वोटों पर है। इसीलिए अखिलेश यादव संसद में अनुराग ठाकुर पर ज़्यादा हमलावर नज़र आए। वे राहुल गांधी के सामने खड़े होकर उत्तर प्रदेश को संदेश दे रहे हैं कि ब्राह्मण हित उनके साथ सुरक्षित हैं। अनुराग के साथ ‘ठाकुर’ शब्द उनके नॅरेटिव को धार दे रहा है। अनुराग ठाकुर यह बात समझ नहीं पा रहे हैं।
बहरहाल, इस मुद्दे ने राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस और राज्य स्तर पर समाजवादी पार्टी को बैठे-बिठाए एक बड़ा मुद्दा दे दिया है। जहां एक ओर राहुल गांधी जातिगत जनगणना के मुद्दे को अंजाम तक पहुंचाने का वादा कर रहे हैं तो दूसरी ओर अखिलेश यादव राज्य में ब्राह्मण बनाम ठाकुर की खाई को चौड़ा करके अपने लिए मौक़ा तलाश रहे हैं। कुल मिलाकर सियासत नई-नई संभावनाओं को जन्म देती है। अनुराग ठाकुर ने एक साथ कई सारी संभावनाएं जगा दी हैं।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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