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फुले-आंबेडकरवादी आंदोलन के विरुद्ध है मराठा आरक्षण आंदोलन (तीसरा भाग)

मराठा आरक्षण आंदोलन पर आधारित आलेख शृंखला के तीसरे भाग में प्रो. श्रावण देवरे बता रहे हैं महाराष्ट्र में ओबीसी के अग्रणी नेता रहे छगन भुजबल को जेल भेजे जाने के पीछे की देवेंद्र फड़णवीस सरकार के षड्यंत्र के बारे में

जब मराठों को ओबीसी कोटे में आरक्षण देने के लिए फड़णवीस ने भुजबल को जेल में डाला 

दूसरे भाग से आगे

चूंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) एक ही विचारधारा के दो अलग-अलग संगठन हैं, इसलिए इनका स्वरूप अलग-अलग है। कहने को संघ सांस्कृतिक है और भाजपा राजनीतिक। असल में किसी भी बड़े लक्ष्य को हासिल करना हो तो राजनीतिक सत्ता जरूरी होती है। पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के खिलाफ मराठा संघर्ष भड़काने के पीछे संघ का मकसद अलग है और भाजपा का अलग। संघ को ओबीसी आरक्षण खत्म करना है। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनसे यह साबित होता है कि ओबीसी को छोड़कर अन्य सामाजिक समूहों के नेताओं को सवर्णों के लिए अपनी जेब में रखना आसान होता है। लेकिन जो ओबीसी नेता ओबीसी आंदोलन से जन्मे, अपवादों को छोड़ दें तो वे कभी भी संघ-भाजपा के आगे समर्पण नहीं करते। यह बात लालू प्रसाद, मुलायम सिंह और करुणानिधि-स्टालिन के उदाहरणों से साबित होती है।

हालांकि यह भी सत्य है कि वे पार्टियां जो फुले-आंबेडकरवादी विचारधारा की राजनीति करती हैं, उनमें से कुछ इसके उलट भी चलती हैं। मसलन, बहुजन समाज पार्टी, जिसका जन्म ही फुले-आंबेडकरवादी राजनीति से हुआ, उसने भी भाजपा के साथ समझौता किया। एक समय “तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारे जूते चार” का नारा देनेवाली इस पार्टी ने – “हाथी नहीं गणेश है, बह्मा, विष्णु महेश है” – कहना शुरू कर दिया। ऐसे ही नीतीश कुमार ओबीसी राजनीति के गर्भ से जन्मे, लेकिन उन्होंने भी भाजपा के साथ समझौता किया। हालांकि बिहार में उन्होंने जातिगत सर्वेक्षण कराकर ऐतिहासिक काम किया, लेकिन अब वे जातिगत जनगणना के सवाल पर भाजपा के सामने भीगी बिल्ली बने बैठे हैं। वहीं मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी ने भी ब्राह्मणी खेमे के आगे घुटने टेकना प्रारंभ कर दिया और पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर ऊंची जाति के नेताओं को बिठा दिया है।

दरअसल, संघ के सामने आत्मसमर्पण करने का मतलब ही यही है। दुखद यह कि ऐसा करनेवालों में ये पार्टियां भी शामिल हैं। जबकि संघ का विरोध करने का मतलब है जातिवार जनगणना कराने की मांग करना। दलितों, आदिवासियों और ओबीसी को जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देकर आरक्षण को 75 प्रतिशत तक ले जाना है।

हालांकि नीतीश कुमार इस मायने में थोड़ा अलग रहे हैं और यह उन्होंने बार-बार साबित किया है कि केवल एक ओबीसी नेता ही भाजपा के साथ गठबंधन के माध्यम से प्राप्त शक्ति का उपयोग संघ पर प्रहार करने के लिए कर सकता है। यह जानलेवा द्वंद्वात्मक कारगुजारी ओबीसी नेता ही कर सकता है। ऐसे ही एक समय गोपीनाथ मुंडे ने भी वीरतापूर्ण कार्य किया था, लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी। छगन भुजबल आज भी आक्रामक तरीके से ऐसा ही कर रहे हैं।

भाजपा के साथ राजनीतिक दोस्ती करके सत्ता हासिल की जा सकती है, लेकिन इस सत्ता का उपयोग संघ के खिलाफ किया जा सकता है, यह सिद्धांत नीतीश कुमार, गोपीनाथ मुंडे और छगन भुजबल ने सिद्ध किया है और उसकी कीमत भी चुकाई है।

पुलिस की हिरासत में छगन भुजबल

भाजपा का एजेंडा अलग है। जनता विशेषकर शोषित जनता, जितनी ज्यादा से ज्यादा बंटी रहती है, उतनी ही वह वर्चस्ववादी ताकतों की सत्ता की राजनीति को मजबूत करती रहती है। समान हित संबंधों के कारण यदि दलित, ओबीसी और आदिवासी जातियां संगठित हो जाएं तो यह उनके लिए खतरनाक साबित हो सकता है, इसलिए भाजपा ने इन समुदायों की विभिन्न जातियों के बीच झगड़ा पैदा करने के लिए एक विशेष रणनीति अख्तियार किया हुआ है। मसलन, मातंग के खिलाफ महार, बलुतेदार जाति के विरुद्ध माधव जाति, धनगर के विरुद्ध आदिवासी जैसे अनेक संघर्ष भाजपा ने षड्यंत्रपूर्वक खड़े किये हैं। जाति-पाति के झगड़े भड़काने वाले बिचौलिए बहुजन नेताओं को भाजपा विधायक, मंत्रीपद आदि देकर उन्हें प्रतिष्ठित करती रहती है। ओबीसी के विरुद्ध मराठा संघर्ष भी इसी का एक भाग है।

मनोज जरांगे को ‘नायक’ बनाने के लिए उसकी बायोपिक (सिनेमा) बनाने का सांस्कृतिक आदेश केवल संघ से ही आ सकता है। जरांगे को ‘बड़ा’ बनाने के लिए भाजपा ने विशेष योजना बनाई ताकि उसके अनशन के मौके पर प्रतिष्ठित लोग शामिल हों। इनमें अनेक मराठा विधायक, सांसद, मंत्री, एक दलित नेता, एक ओबीसी नेता, पूर्व न्यायाधीश, कम्युनिस्ट, समाजवादी दिग्गज नेतागण भी शामिल रहे। इनके अलावा जारांगे के अनशन में शामिल होनेवालों में संबाजी भिड़े भी रहे, जो ब्राह्मण होने के बावजूद संगठन बनाकर मराठा युवाओं को गुमराह करते हैं। वहीं इस अनशन में छत्रपति शिवाजी के उत्तराधिकारी भी शामिल हुए। जारांगे को समर्थन करने का ऐसा सर्वदलीय आदेश जारी करने का काम पहले शरद पवार करते थे, अब यह देवेंद्र फड़णवीस कर रहे हैं।

असंवैधानिक, अनैतिक मांग करने वाले जातिवादियों और दलित-ओबीसी के खिलाफ दंगे जैसा माहौल बनाने वाले ‘मराठा भीड़ मोर्चे’ को प्रतिष्ठित करके ‘क्रांति मोर्चा’ बनाने का काम फड़णवीस और शरद पवार ने मिलकर किया। बड़े-छोटे कार्यक्रमों में अक्सर मंच पर सबसे आगे रहकर भाषण देने वाली अग्रणी मंडली मराठा भीड़ मोर्चे में सबसे अंतिम पंक्ति में मुंह पर पट्टी बांधे हुए गुमशुम चल रहे थे, यह करिश्मा केवल संघ-प्रशिक्षित मराठा कार्यकर्ता ही कर सकते थे।

यदि इस मराठा ‘क्रांति मोर्चा’ का नाम ‘प्रतिक्रांति मोर्चा’ रखा गया होता तो ज्यादा उचित होता, क्योंकि मोर्चे की मांगें सामंतशाही की याद दिलाने वाली थीं। मसलन, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम को रद्द करो। मतलब हमें दलितों-आदिवासियों पर अन्याय-अत्याचार करने की आजादी दो। अर्थात मनुस्मृति के कानून लागू करो। ओबीसी में घुसपैठ करके आरक्षण-व्यवस्था को ही खत्म करने दो। यानी निचली जातियों को वरिष्ठ पद न देकर निचले पायदान पर ही बनाए रखने की व्यवस्था का निर्माण करो। यही कहने जैसा है।

दलित नेताओं को गांवबंदी का आदेश देने वाला कोपर्डी का फतवा मनुस्मृति में बहिष्कार और अस्पृश्यता की याद दिलाने वाला था। उधर 2014 के चुनाव से पहले कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे पृथ्वीराज चव्हाण द्वारा मराठा आरक्षण दिए जाने से ओबीसी नाराज थे। उन्हें डर था कि चव्हाण यदि फिर मुख्यमंत्री बने तो वे ओबीसी कोटे में से मराठों के लिए आरक्षण की मांग को लागू कर सकते हैं। यह वाजिब डर था। इसलिए ओबीसी ने 2014 में पृथ्वीराज चव्हाण सरकार को पराजित किया और इस तरह उनलोगों को घर पर बिठा दिया, जो कट्टर मराठा आरक्षण समर्थक थे।

मराठाें को ओबीसी कोटे से आरक्षण देने का विरोध करते ओबीसी समुदाय के लोग। तस्वीर में लेखक श्रावण देवरे (पहली पंक्ति में सबसे बाएं)

चुनाव के बाद भाजपा सत्ता में आई। ओबीसी-मराठा विवाद को हवा देने के पीछे भाजपा की मंशा अलग थी। फड़णवीस की धारणा थी और अब भी है कि ओबीसी कहीं जा ही नहीं सकते, वे उनकी जेब में हैं। फड़णवीस ने सबसे पहले ओबीसी नेताओं को जेल में डाला, ताकि मराठा आरक्षण दिए जाने पर ओबीसी का आक्रोश नियंत्रण से बाहर न हो जाए।

देवेंद्र फड़णवीस ने वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद उन्होंने ओबीसी के सबसे बड़े नेता के रूप में छगन भुजबल की पहचान की और उन्हें जेल में डाल दिया। फड़णवीस को यह आशंका थी कि यदि वे बाहर रहे और सरकार ने मराठों को ओबीसी कोटे में से आरक्षण दिया तब अड़चन हो सकती है तथा सरकार को राजनीतिक चुनौतियों से जुझना पड़ेगा।

छगन भुजबल के जेल जाते ही इसका असर दिखा। एकनाथ खडसे और पंकजा मुंडे समेत तमाम दिग्गज ओबीसी नेता एक पंक्ति में खड़े होकर फड़णवीस के सामने घुटने टेकते नजर आने लगे।

दरअसल, ओबीसी-मराठा संघर्ष में ओबीसी नेता और ओबीसी मतदाता नियंत्रण से बाहर नहीं जाएं, इसका बंदोबस्त फड़णवीस ने इस पद्धति से कर दिया था। चूंकि उन्होंने मराठों को आरक्षण का गाजर दिखा दिया था, इसलिए उनका नियंत्रण से बाहर जाने का कोई सवाल ही नहीं था। वे तो फड़णवीस के श्रद्धालु बन चुके थे।

फिर ओबीसी के विरुद्ध मराठा संघर्ष में ‘मराठा भीड़ मोर्चे’ को यशस्वी करने के बाद मराठों के लिए आरक्षण देने का मुद्दा सामने आया। इस समय तक 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव दहलीज पर पहुंच चुके थे। 2018 में फड़णवीस ने मराठों को आरक्षण दिया और इसके लिए षड्यंत्र भी किया। हालांकि इसके विरोध में ओबीसी नेता भी सामने आए।

(क्रमश: जारी)

(मराठी से हिंदी अनुवाद : चंद्रभान पाल, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

श्रावण देवरे

अपने कॉलेज के दिनों में 1978 से प्रगतिशील आंदोलन से जुड़े श्रावण देवरे 1982 में मंडल कमीशन के आंदोलन में सक्रिय हुए। वे महाराष्ट्र ओबीसी संगठन उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने 1999 में ओबीसी कर्मचारियों और अधिकारियों का ओबीसी सेवा संघ का गठन किया तथा इस संगठन के संस्थापक सदस्य और महासचिव रहे। ओबीसी के विविध मुद्दों पर अब तक 15 किताबें प्राकशित है।

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