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पंजाब में अनुसूचित जाति के कोटे में उपकोटा : तथ्य और सियासत

ज्ञानी जैल सिंह की हुकूमत ने 5 मई, 1975 को एक सर्कुलर जारी किया, जिसके तहत यह तय किया गया कि राज्याधीन सीधी भर्तियों में अनुसूचित जाति के आरक्षण के कोटे में से 50 प्रतिशत आरक्षण प्राथमिकता के आधार पर मजहबी सिख और वाल्मीकि समुदायों को दिया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के आलोक में पढ़ें यह रपट

तारीखें गवाह हैं कि जब कभी कोई बदलाव हुआ है तो उसके अपने कारण रहे हैं। यह बात तब की है जब पंजाब की राजनीति में एक बड़ा उलटफेर हुआ। बड़ा उलटफेर इस मायने में कि वहां पहली बार मुख्यमंत्री की कुर्सी पर दलित समुदाय से आनेवाले चरणजीत सिंह चन्नी काबिज हुए। उस समय उनके पूर्व मुख्यमंत्री रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह ने उन्हें कहा कि वह सुप्रीम कोर्ट में अनुसूचित जाति के कोटे में मजहबी सिख और वाल्मीकि समुदाय को मिलने वाले 50 प्रतिशत उपकोटे की मजबूती से बचाव करें। तारीख के हिसाब से बात करें तो इस आशय की एक खबर 17 नवंबर, 2021 को अंग्रेजी दैनिक ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के द्वारा प्रकाशित की गई थी।

इस बात को गत 1 अगस्त, 2024 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति के कोटे में उपकोटा तय करने का अधिकार राज्यों को देने संबंधी फैसले के आलोक में यदि देखें तो सवाल उठता है कि जाट सिख समुदाय से आनेवाले कैप्टन अमरिंदर सिंह ने आखिर यह आग्रह क्यों किया? यहां यह उल्लेखनीय है कि चमकौर साहिब से संबंध रखनेवाले चरणजीत सिंह चन्नी स्वयं रविदसिया समाज से आते हैं।

जब घाव को भरने की कोशिश की गई

उपरोक्त सवाल को अभी यहीं छोड़ते हैं और इतिहास को देखते हैं। इतिहास की वह तारीख थी 5 मई, 1975 और तब पंजाब के मुख्यमंत्री थे ज्ञानी जैल सिंह। वे पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समाज से आते थे। कांग्रेस के नेता रहे ज्ञानी जैल सिंह 17 मार्च, 1972 से लेकर 30 अप्रैल, 1977 तक मुख्यमंत्री थे। उनकी हुकूमत ने 5 मई, 1975 को एक सर्कुलर जारी किया, जिसके तहत यह तय किया गया कि राज्याधीन सीधी भर्तियों में अनुसूचित जाति के आरक्षण के कोटे में से 50 प्रतिशत आरक्षण प्राथमिकता के आधार पर मजहबी सिख और वाल्मीकि समुदायों को दिया जाएगा। प्राथमिकता का तात्पर्य यह कि अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित पदों में पहले 50 प्रतिशत पदों पर मजहबी सिख और वाल्मीकि समुदायों के अभ्यर्थियों की नियुक्ति होगी और उसके बाद शेष अनुसूचित जातियों के अभ्यर्थियों की। यदि किसी कारणवश मजहबी सिख और वाल्मीकि समुदायों की अभ्यर्थियों की संख्या पूरी नहीं हो पाती है तब वे सीटें शेष अनुसूचित जातियों, जैसे रविदासिया आदि, के अभ्यर्थियों द्वारा भरी जाएंगी।

नासूर बनने की शुरुआत

कैप्टन अमरिंदर सिंह पंजाब के दो बार मुख्यमंत्री रहे हैं। पहली बार वे 26 फरवरी, 2002 को मुख्यमंत्री बने। इसी दौरान देविंदर सिंह बनाम पंजाब सरकार मामले में पंजाब व हरियाणा हाई कोर्ट ने 25 जुलाई, 2006 को दिए अपने फैसले में ज्ञानी जैल सिंह हुकूमत द्वारा जारी सर्कुलर में उल्लेखित उपकोटे को खारिज कर दिया गया।

इसके बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस सर्कुलर को लागू करने के लिए एक विधेयक विधानसभा में पारित करवाया, जिसे 5 अक्टूबर, 2006 अधिसूचित किया गया। इसके तहत यह सर्कुलर पंजाब शेड्यूल्ड कास्ट एंड बैकवर्ड क्लासेज (रिजर्वेशन इन सर्विसेज) एक्ट के खंड 4 के तहत पांचवां उपबंध जोड़ा गया। लेकिन इसे भी हाई कोर्ट में चुनौती दी गई और हाई कोर्ट ने पंजाब सरकार के द्वारा किए गए संशोधन को अमान्य करार दिया। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा। लेकिन तब तक यह मामला अकेले केवल पंजाब तक सीमित नहीं रहा। इसने अखिल भारतीय स्वरूप धारण कर लिया था। 

पंजाब के भूतपूर्व मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह की सरकार द्वारा जारी सर्कुलर के आधार पर 2006 में कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा लागू किए गए पंजाब शेड्यूल्ड कास्ट एंड बैकवर्ड क्लासेज (रिजर्वेशन इन सर्विसेज) एक्ट के खंड 4 के तहत पांचवां उपबंध व ज्ञानी जैल सिंह

सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने इसकी सुनवाई की। इस पीठ में जस्टिस अरुण मिश्र, जस्टिस इंदिरा बनर्जी, जस्टिस विनीत शरण, जस्टिस एम.आर. शाह और जस्टिस अनिरुद्ध बोस शामिल थे। इस पीठ ने 27 अगस्त, 2020 को अपने जजमेंट में कहा कि इस मामले की सुनवाई उससे बड़ी संविधान पीठ करे।

असल में जस्टिस मिश्रा व अन्य की पीठ के समक्ष मुख्य रूप से तीन सवाल थे–

  1. पंजाब शेड्यूल्ड कास्ट्स एंड बैकवर्ड क्लासेज (रिजर्वेशन इन सर्विसेज) एक्ट, 2006 के उपनियम 4(5) के तहत किए गए प्रावधान संवैधानिक रूप से उचित हैं?
  2. क्या राज्य [पंजाब सरकार] को उपनियम 4(5) के तहत किए गए प्रावधानों को लागू करने का विधायी अधिकार था?
  3. क्या ई.वी. चिनैय्या बनाम आंध्र प्रदेश सरकार व अन्य के मामले (2004) में [सुप्रीम कोर्ट] द्वारा दिए गए फैसले की पुनर्समीक्षा आवश्यक है?

हाई कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक चली सुनवाइयों के इतर इस मामले के दूसरे हिस्से पर भी निगाह डालना जरूरी है। सबसे पहले तो यह कि आखिर ज्ञानी जैल सिंह को पंजाब में मजहबी सिख और वाल्मीकि समुदाय के लोगों के लिए विशेष प्रावधान क्यों करने पड़े? आखिर कौन हैं ये मजहबी सिख और वाल्मीकि समुदाय के लोग?

मजहबी बनाम गैर मजहबी दलित

मजहबी सिख और वाल्मीकि समुदाय के बारे में चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रो. रौनकी राम अपने एक शोधपत्र ‘अंडरस्टैंडिंग डायवर्सिटी एंड डेराज विद इन दी सिख पंथ (कम्युनिटी) : सम क्रिटिकल रिफ्लेक्शंस’ (जर्नल ऑफ सिख एंड पंजाब स्टडीज, ग्लोबल इंस्टीट्यूट फॉर सिख स्टडीज, नयूयार्क) में बताते हैं कि “मजहबी सिख और वाल्मीकि, दोनों का संबंध चूहड़ा समाज से रहा है। मजहबी सिख वे कहलाए जिन्होंने सिख धर्म को स्वीकार किया और चूहड़ा समुदाय के जिन लोगों ने हिंदू धर्म में रहते हुए वाल्मीकि को अपना गुरु माना, वे वाल्मीकि कहलाए। मजहबी सिखों के साथ त्रासदी यह रही कि हिंदू धर्म में अछूत होने का कलंक तो उनके माथे से छूटा, लेकिन सिख पंथ में भी उन्हें विशेष जातीय पहचान (मजहबी) के रूप में जगह मिली।”

क्या शेष दलित जैसे कि रविदासिया, रामदसिया, राय सिख और सांसी सिख आदि जातियों के लोगों के द्वारा मजहबी सिखों/वाल्मीकियों से छुआछूत या फिर जातिगत भेदभाव किया जाता है? इस बारे में पंजाबी-हिंदी साहित्यकार द्वारका भारती कहते हैं कि “दलित समुदाय की जातियों के बीच वैसे तो दैनिक व्यवहार के स्तर पर कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। हालांकि जाट सिखों के गुरुद्वारे में मजहबी सिखों व वाल्मीकियों के साथ भेदभाव किए जाने की खबरें आती रहती हैं। लेकिन दलित जातियों में इस तरह का भेदभाव नहीं होता। लेकिन यह भी सत्य है कि सामाजिक रूप से, विशेषकर शादी-विवाह के मामले में भेदभाव होता है। मतलब यह कि शेष दलित जातियां मजहबी सिखों व वाल्मीकि समुदाय के लोगों के साथ वैवाहिक संबंध नहीं बनाते हैं।”

कौन अलग, कौन एक साथ?

इससे पहले कि हम यह जानने का प्रयास करें कि पंजाब के अनुसूचित जातियों के बीच किस तरह का अंतर है, हमें यह जानना चाहिए कि वहां का ताना-बाना कैसा है। मसलन, 2011 की जनगणना के अनुसार, पंजाब में हिंदुओं की आबादी 89 लाख 97 हजार 942, सिख धर्मावलंबियों की आबादी 1 करोड़ 45 लाख 92 हजार 387, इस्लाम धर्मावलंबियों की आबादी 3 लाख 82 हजार 47, ईसाई धर्मावलंबियों की आबादी 2 लाख 92 हजार 800 और बौद्ध धर्मावलंबियों सहित अन्य की आबादी 93 हजार 825 है। सिख धर्मावलंबियों की बात करें तो सबसे बड़ी आबादी जाट सिखों की है, जिनकी आबादी कुल आबादी की 20 प्रतिशत है। सिख धर्मावलंबियों की इस आबादी में अनुसूचित जाति में शामिल 38 जातियों की संयुक्त आबादी 32 प्रतिशत है। इनमें सिख धर्म को माननेवाले आद-धर्मियों की आबादी पंजाब की अनुसूचित जाति की कुल आबादी का 15 प्रतिशत है। ये मूलत: चर्म कर्म करनेवाले रहे, जिन्होंने 1925-35 के बीच चले आद-धर्म आंदोलन के बाद सिख धर्म को अपनाया। वहीं वाल्मीकि, जो अपने आपको हिंदू मानते हैं, अनुसूचित जाति की कुल आबादी में उनकी आबादी करीब 11 प्रतिशत है। इनके साथ मजहबी सिखों को मिला दें तो अनुसूचित जातियों की कुल आबादी में इनकी संयुक्त आबादी 42.5 प्रतिशत हो जाती है।

महत्वपूर्ण घटनाक्रम

तारीखघटना
5 मई, 1975तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्ञानी जैल सिंह सरकार के द्वारा सर्कुलर जारी, जिसमें अनुसूचित जाति के देय आरक्षण के तहत खुली भर्तियों में 50 प्रतिशत आरक्षण प्राथमिकता के आधार पर मजहबी सिक्ख व वाल्मीकि समुदायों को देने की बात कही गई।
25 जुलाई, 2006पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट द्वारा देवेंदर सिंह बनाम पंजाब सरकार मामले में फैसला, सर्कुलर को अमान्य बताया।
5 अक्टूबर, 2006 तत्कालीन मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा पूर्व के सर्कुलर को लागू करने के लिए एक विधेयक विधानसभा में पारित करवाया गया। इसके जरिए यह सर्कुलर पंजाब शेड्यूल्ड कास्ट एंड बैकवर्ड क्लासेज (रिजर्वेशन इन सर्विसेज) एक्ट के खंड 4 के तहत पांचवां उपबंध जोड़ा गया।
10 मार्च, 2008सर्कुलर जारी रखने के लिए पंजाब सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दायर विशेष अनुमति याचिका खारिज।
29 मार्च, 2010पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट द्वारा राज्य सरकार द्वारा विधेयक के जरिए किए गए संशोधन को खारिज किया गया, जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई।
20 अगस्त, 2014तीन जजों की पीठ ने ईवी चिनैय्या मामले की समीक्षा के लिए जजों की बड़ी पीठ के समक्ष स्थानांतरित किया। 
27 अगस्त, 2020सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्र व अन्य चार न्यायधीशों की संविधान पीठ ने तीन जजों की पीठ के फैसले से सहमत होते हुए इस मामले को 7 जजों की संविधान पीठ के पास रेफर किया।
1 अगस्त, 2024सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने 6:1 के बहुमत से फैसला सुनाया, जिसमें अनुसूचित जाति के उपवर्गीकरण का अधिकार राज्य सरकार के पास होने की बात कही गई।

यदि हम पंजाब के तीन भौगोलिक क्षेत्रों – माझा, मालवा अैर दोआबा – के आधार पर अनुसूचित जातियों की बसावट के बारे में बात करें तो इनकी सबसे अधिक 40 फीसदी बसावट मालवा क्षेत्र में है। इस क्षेत्र में आनेवाले जिले हैं– बरनाला, भटिंडा, फरीदकोट, फतेहगढ़ साहिब, फाजिल्का, फिरोजपुर, लुधियाना, मलेरकोटला, मनसा, मोगा, मोहाली, पटियाला, मुक्तसर, रूपनगर और संगरूर। मालवा का यह इलाका राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि पंजाब विधानसभा की कुल 117 विधानसभा सीटों में 69 सीटें इस इलाके में अवस्थित हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि पंजाब के अधिकांश मुख्यमंत्री इसी मालवा इलाके से हुए हैं।

अहम है अपर्याप्त प्रतिनिधित्व का सवाल

‘एशियन जर्नल ऑफ होम साइंस’ के दिसंबर, 2019 में प्रकाशित अमरप्रीत कौर व शालिनी शर्मा के शोध-पत्र ‘स्टेटस ऑफ शेड्यूल्ड कास्ट्स इन पंजाब’ के मुताबिक पंजाब में अनुसूचित जातियों में शिक्षा के स्तर में महत्वपूर्ण बदलाव आया है।

मसलन, शोध-पत्र कहती है कि 1971 में पंजाब के अनुसूचित जातियों में साक्षरता का दर 16.12 प्रतिशत था जो कि वर्ष 2011 की जनगणना में 64.81 प्रतिशत दर्ज की गई। इनमें सबसे अधिक साक्षर आद-धर्मी समुदाय के लोग हैं, जिनमें साक्षरता की दर 76.4 प्रतिशत है। सबसे कम साक्षरता मजहबी सिखों में है, जिनमें यह केवल 42.3 प्रतिशत है।

उपरोक्त शोध-पत्र यह बताता है कि साक्षरता के बढ़ने का असर वहां की सरकारी नौकरियों और खेती के मामले में भी दिखता है। मसलन जनगणना, 2011 की यह रपट देखें कि 22.8 प्रतिशत आद-धर्मी खेतिहर मजदूर हैं तो मजहबी सिखों के मामले में यह आंकड़ा 52.2 प्रतिशत है। अन्य पेशों में आद-धर्मियों की हिस्सेदारी 68.7 प्रतिशत और मजहबी सिखों की हिस्सेदारी 39 प्रतिशत है। यहां अन्य पेशों में उनके पारंपरिक पेशे भी शामिल हैं। मजहबी सिख पारंपरिक रूप से सफाईकर्मी होते हैं।

खैर, यदि हम पंजाब की सरकारी नौकरियों में एक समुदाय के स्तर पर अनुसूचित जातियों के प्रतिनिधित्व पर विचार करें तो हम पाते हैं कि वर्ष 1980 के बाद से इसमें वृद्धि दर्ज की गई है। साक्षरता बढ़ने के असर का परिणाम देखिए कि वर्ष 1980 में सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जातियों का संयुक्त प्रतिनिधित्व 18.48 प्रतिशत था, जो वर्ष 2011 में बढ़कर 24.16 प्रतिशत हो गया। अब यदि हम यह देखें कि सरकारी नौकरियों के विभिन्न वर्गों में अनुसूचित जातियों का प्रतिनिधित्व गैर-अनुसूचित जातियों की तुलना में कितना है तो एक अलग ही तस्वीर पाते हैं। मसलन वर्ष 2001 में ग्रुप ए की नौकरियों में अनुसूचित जातियों की कुल हिस्सेदारी 16.5 प्रतिशत, ग्रुप बी में 18.14 प्रतिशत, ग्रुप सी में 19.22 प्रतिशत और ग्रुप डी में 42.33 प्रतिशत थी।

गौर तलब है कि पंजाब में कुल 37 प्रतिशत पद (ईडब्ल्यूएस के लिए दस प्रतिशत को छोड़कर) अनुसूचित जातियों और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित हैं। इनमें इनके लिए क्रमश: 25 प्रतिशत और 12 प्रतिशत निर्धारित हैं।

किसे खड़ा करें कटघरे में?

खैर, अब हम वापस पंजाब की बात करें तो हम यह कह सकते हैं कि यहां आरक्षण का क्रियान्वयन उत्तर भारत के अन्य राज्यों की तुलना में अधिक बेहतर हुआ है। इसमें आद-धर्मी, रविदासिया और रामदसिया आदि अनुसूचित जातियों को छोड़ दें तो अन्य की भागीदारी कम है। इस कारण भी पंजाब में यह मांग उठाई जाती रही है कि अनुसूचित जातियों के कोटे में उपकोटा तय हो। इस संबंध में द्वारका भारती कहते हैं कि यह मांग सबसे अधिक दोआबा इलाके में उठती रही है, क्योंकि यहां मजहबी सिखों व वाल्मीकि समुदायों की संख्या भी अधिक है और उनका राजनीतिक प्रभाव भी रहा है। जबकि माझा और मालवा के इलाके में यह मांग कम ही देखी गई। वहीं इस मामले में पंजाब के ओबीसी वर्ग के अधिकारों के लिए लड़नेवाले सामाजिक कार्यकर्ता बलविंदर सिंह कहते हैं कि यह कोई नई मांग नहीं है। इसके लिए सरदार बूटा सिंह आदि नेताओं ने 1970 के दशक में संघर्ष किया।

वहीं पंजाब कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष व पूर्व सांसद शमशेर सिंह डिल्लो का कहना है कि “यह मांग स्वत:स्फूर्त उठी थी और इसके पीछे भी आंबेडकरवादी चेतना थी। हो सकता है कि सरदार बूटा सिंह उस समय सक्रिय रहे होंगे, लेकिन तब उनकी कोई बड़ी पहचान नहीं थी।” डिल्लो कहते हैं कि सरकार के इस फैसले ने अनुसूचित जाति को बतौर एक समूह के रूप में विभाजित किया, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है। वे 2006 में कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार द्वारा विधेयक लाए जाने को भी राजनीतिक भूल की संज्ञा देते हैं।

यह तो साफ है कि पंजाब में उपकोटा का यह मसला अब राष्ट्रव्यापी शक्ल अख्तियार कर चुका है, जिसमें खास तौर पर अनुसूचित जातियों के लोग दो खेमे में बंट गए हैं। एक वे जो सबकोटा के पक्ष में हैं और दूसरे वे जो इसके विरोध में हैं। मसलन, पटना विश्वविद्यालय, पटना, और जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के पूर्व कुलपति एवं राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर के कार्यकारी कुलपति रहे व ‘अनटोल्ड स्टोरी ऑफ ए भंगी वाइस चांसलर’ (रावत पब्लिकशेन, नई दिल्ली) शीर्षक से अपनी आत्मकथा लिखने वाले प्रो. श्यामलाल का कहना है कि आज केवल पंजाब में ही नहीं, बल्कि पूरे भारत में गैर-जाटव दलित बहुत पीछे हैं। न तो वे विधायिका में पर्याप्त संख्या में हैं, न सरकारी नौकरियों में और न ही उच्च शिक्षा में उनकी संख्या पर्याप्त है। अब यदि यह मांग है कि इन समुदायों को प्राथमिकता दी जाय, तो इसमें अनुचित क्या है।

समाज भी, सियासत भी

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को लेकर उत्तर भारत में खलबली के पीछे सियासत करनेवाली पार्टियां भी हैं। मसलन, बहुजन समाज पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती ने संवाददाता सम्मेलन में कहा कि उनकी पार्टी फैसले से कतई भी सहमत नहीं है। और अंदेशा जताया कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा देविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में पारित इस आदेश के अनुसार अब राज्य सरकारें अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति सूची के भीतर आरक्षण के लिए उप-वर्गीकरण अर्थात् नई सूची बना सकेंगी, जिससे फिर अनेक समस्याएं उत्पन्न होंगी।

बसपा प्रमुख ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2004 के अपने निर्णय में यह भी कहा था कि चूंकि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लोगों ने जो अत्याचार सहे हैं, वह एक वर्ग और एक समूह के रूप में सहे हैं, तथा यह एक बराबर का वर्ग है, जिसके भीतर किसी भी प्रकार का वर्गीकरण करना उचित नहीं होगा। साथ ही यह भी कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के भीतर किसी भी प्रकार का उप-वर्गीकरण भारतीय संविधान की मूल भावना के विपरीत होगा। उन्होंने कहा कि अभी तक केवल संसद के पास किसी भी जाति को या जनजाति को अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित करने या बाहर करने अधिकार है, जिसे राष्ट्रपति द्वारा अपने आदेशों द्वारा क्रियान्वित किया जाता है। इसे बदलने का किसी भी राज्य सरकार को अधिकार नहीं है। लेकिन अब 1 अगस्त, 2024 के इस निर्णय के बाद जहां जो पार्टी सत्ता में होगी वह अपनी-अपनी राजनीति के हिसाब से अदलती व बदलती रहेगी जिसके साथ-साथ राज्य सरकारें अपने-अपने वोट बैंक के लिए अपनी मनचाही जातियों को आरक्षण का अनुचित लाभ देने का प्रयास करेंगी। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि इस प्रकार से इस आदेश के कारण ऐसी अनेक समस्यायें उत्पन्न होंगी, जिनके कारण अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को मिल रहा आरक्षण ही समाप्त हो जाएगा और उनके हिस्से का आरक्षण भी अंत में किसी ना किसी रूप में सामान्य वर्ग को ही दे दिया जाएगा। बसपा प्रमुख ने यह भी मांग की कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण संबंधी प्रावधानों को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाला जाए ताकि न्यायपालिका भविष्य में इसमें हस्तक्षेप नहीं कर सके।

वहीं वंचित बहुजन अघाड़ी के नेता प्रकाश आंबेडकर ने फारवर्ड प्रेस से साक्षात्कार में कहा कि “जब राज्य को अधिकार ही नहीं है तय करने का फिर आपने राज्य को कोटा या उपवर्गीकरण करने का अधिकार कैसे दे दिया। रही बात एससी के आरक्षण की तो यह बात साफ है कि जनगणना में जो आंकड़े आएंगे, उसके आधार पर ही यह तय होगा। तो रही बात यह कि राज्य सब-कोटा तय करे, यह सही नहीं है। सब-कोटा तय करने का अधिकार राज्य के पास है ही नहीं। एससी-एसटी के मामले में संविधान ने राज्य को बाहर रखा है।”

इस पूरे मामले में केंद्र में सत्तासीन भाजपा स्पष्ट रूप से कुछ कह नहीं पा रही है। हालांकि एनडीए के अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के संसद सदस्यों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात के बाद यह जरूर कहा कि उन्हें प्रधानमंत्री ने आश्वस्त किया है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के मामले में क्रीमीलेयर लागू नहीं किया जाएगा। लेकिन अनुसूचित जाति के उपवर्गीकरण को लेकर भाजपा की ओर से अभी तक कोई स्पष्ट बयान सामने नहीं आया है। वहीं इस मामले में केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने यह जानकारी दी कि मंत्रिमंडल की बैठक में सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि सरकार अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के मामले में क्रीमीलेयर लागू नहीं किया जाएगा।

दूसरी ओर कांग्रेस भी पेशोपेश में पड़ी है। हालांकि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने अपने बयान में भारतीय जनता पार्टी पर आरक्षण खत्म करने के प्रयास का आरोप लगाया और यह भी कहा कि किसी को क्रीमी लेयर के फैसले को मान्यता नहीं देना चाहिए तथा जब तक छुआछूत है, तब तक आरक्षण रहना चाहिए। लेकिन अनुसूचित जाति के उपवर्गीकरण के संबंध में उन्होंने पार्टी के स्तर पर विचार-विमर्श के उपरांत टिप्पणी करने की बात कही।

हालांकि पंजाब के पूर्व कांग्रेसी विधायक व ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के सदस्य सुखविंदर सिंह डैनी, जो कि स्वयं मजहबी समुदाय से आते हैं, ने दूरभाष पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि “1966 में पंजाब के विभाजन के पहले अनुसूचित जाति को राज्य में 20 प्रतिशत आरक्षण का लाभ मिलता था, जिसे विभाजन के बाद बढ़ाकर 25 प्रतिशत कर दिया गया। लेकिन बाद में इस आरक्षण में अनुसूचित जाति समुदाय के एक खास तबके का एकाधिकार हो गया, जिसे देखते हुए 1975 में ज्ञानी जैल सिंह ने हमारे लिए यह फैसला किया कि आरक्षण आधा-आधा हो। इस फैसले का विरोध हुआ और मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। अब जाकर सुप्रीम कोर्ट ने हमारे हक में फैसला दिया है। हम इस फैसले का स्वागत करते हैं।” 

सुखविंदर सिंह डैनी ने कहा कि “मजहबी सिख और वाल्मीकि समुदाय यह मानता है कि वे अनुसूचित जाति समुदाय के अभिन्न हिस्से हैं और यह याद रखा जाना चाहिए कि हमारे आरक्षण का आधार जातिगत विषमता है, न कि आर्थिक विषमता।” उत्तर भारत में चल रहे विरोध के बारे में पूछने पर डैनी ने कहा कि “इसमें विरोध करने जैसी कोई बात ही नहीं है। यदि हमारे अपने दलित समाज का कोई तबका पीछे रह गया है, तो उसे साथ में ले चलने की जिम्मेदारी निभाई जानी चाहिए। जब समाज के सभी तबके आगे बढ़ेंगे, तभी पूरा समाज आगे बढ़ेगा।” 

बहरहाल, अब यह सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ के फैसले के बाद कि राज्यों को अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के कोटे में उपकोटा तय करने का अधिकार है, राष्ट्रीय स्तर पर अनुसूचित जातियों के बीच विवाद का विषय अवश्य बन गया है। आगे इसकी परिणति किस रूप में हाेगी, इसके लिए समय का इंतजार करना आवश्यक होगा।

(संपादन : राजन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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