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जब बस के खलासी ने जीतनराम मांझी के बारे में कहा– ‘मुसहरवा मुख्यमंत्री आ रहा है’

निम्न कही जाने वाली जाति के मुख्यमंत्री को भी सर्वश्रेष्ठ कही जाने वाली जाति का खलासी तक खुलेआम गाली दे सकता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा एससी-एसटी आरक्षण में उपश्रेणीकरण किए जाने संबंधी फैसले की पृष्ठभूमि में पढ़ें हेमंत कुमार का यह आलेख

अनुसूचित जाति-अनुसूचित जनजाति के उपवर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट की ताज़ा टिप्पणी और सिफारिश मानो किसी तेज हवा के झोंके की तरह आई है, जिसके जोर से बंद घरों की किवाड़ें और खिड़कियां खुल गई हैं। अतीत के असंख्य पन्ने फड़फड़ाने लगे हैं। कुछ आपबीती, कुछ जगबीती किस्से याद आने लगे हैं। साथ में एक अनजाना भय भी सता रहा है कि कहीं यह वंचित समाज को ‘वाइसलेस’ (आवाजहीन) बनाने की ओर बढ़ाया गया कदम तो नहीं है।

एक वाकया बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा केंद्र सरकार में मंत्री जीतनराम मांझी से जुड़ा है। मांझी तब नए-नए मुख्यमंत्री बने थे। उत्तर बिहार के दौरे पर निकले थे। उनका काफिला पटना-मुजफ्फरपुर राष्ट्रीय राजमार्ग से गुजर रहा था। मैं मुजफ्फरपुर से बस से पटना जा रहा था। तेज भागती हुई बस की रफ्तार अचानक कम हो गई। सराय-भगवानपुर के पास ड्राइवर ने सड़क किनारे बस रोक दी। बस का खलासी (कंडक्टर) जो गेट के पास वाली सीट पर मेरे साथ ही बैठा था, नीचे उतर कर आगे बढ़ गया। मुझे बस के सामने थोड़ी दूरी पर पुलिस की गाड़ियां दिखीं। तभी बस का खलासी सामने से आता दिखा। उसके पास आते ही एक यात्री ने पूछा— “क्या बात है, बस क्यों रूकी है?” खलासी ने लगभग चिल्लाते हुए कहा– “मुसहरवा मुख्यमंत्री आ रहा है…!”

उसकी इस टिप्पणी पर कुछ यात्रियों ने ठहाके लगाए, कोई मुस्कुरा कर रह गया। मैं स्तब्ध था। लग रहा था कि कान सुन्न पड़ गए हैं। दो कौड़ी के उस खलासी की ओछी हरकत पर किसी ने उसे हड़काया नहीं। उल्टे दांत चियारते हुए मजे लेते रहे।

मुख्यमंत्री का काफिला गुजर गया। हमारी बस सरकने लगी। खलासी फिर से मेरी बगल की सीट पर आकर पसर गया। मैंने सोचा कि उससे उसकी जाति पूछ लूं। पूछूं कि क्या वह बस में सवार यात्रियों और उसकी बगल में बैठे व्यक्ति की जाति जानता है। लेकिन मैं चुप रहा। सोचता रहा कि आखिर यह हिम्मत कहां से आती है? यह अहंकार कहां से आता है? यह ताकत कहां से आती है कि जिंदगी की दौड़ में घिसट रहा एक व्यक्ति बेखौफ-बेफिक्र होकर मजे लेकर जाति की गाली देता है। अगल-बगल के लोगों की परवाह तक नहीं करता है।

यह वाकया बताता है कि जाति एक सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान है। आर्थिक स्थिति का जाति पर कोई असर नहीं पड़ता। निम्न कही जाने वाली जाति के मुख्यमंत्री को भी सर्वश्रेष्ठ कही जाने वाली जाति का खलासी तक खुलेआम गाली दे सकता है।

जब सदन में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने दी मांझी को गाली

अभी जब जीतनराम मांझी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का समर्थन किया तो अचानक यह वाकया याद आ गया। उस खलासी की गाली मांझी जी ने नहीं सुनी थी। लेकिन विधानसभा के भीतर जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा कहा गया था कि “इसको कुछ आता-जाता है, यह तो मेरी मूर्खता से मुख्यमंत्री बन गया था”, तब यह भी एक किस्म की गाली ही तो थी। इसमें मांझी जी की योग्यता उनकी जाति के कारण तिरस्कृत हो रही थी। यह गाली तो मांझी जी ने अपने कानों से सुनी थी और गाली दे रहे व्यक्ति को देखा भी था।

जीतनराम मांझी, केंद्रीय मंत्री व पूर्व मुख्यमंत्री, बिहार

अंतर्जातीय विवाह और संतान की जाति

साल 2012 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया था। न्यायमूर्ति आफताब आलम व रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने अंतर्जातीय विवाह करने वाले दंपत्ति के बच्चों के आरक्षण को लेकर अहम व्यवस्था दी थी। पीठ ने कहा था कि अनुसूचित जाति-जनजाति और सवर्ण के बीच हुए अंतर्जातीय विवाह से उत्पन्न संतान की जाति का निर्धारण उसके पालन-पोषण की परिस्थितियों व हालात को देखकर किया जाना चाहिए। इन पर गौर किए बगैर कि सिर्फ पिता के सवर्ण जाति का होने के आधार पर संतान की जाति तय नहीं हो सकती।

इससे पहले सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों में यही कहता आया था कि सवर्ण पिता और एससी-एसटी मां के विवाह से उत्पन्न संतान पिता की जाति की मानी जाएगी। उसे एससी-एसटी वर्ग को वंचित वर्ग के रूप में मिलने वाले लाभ नहीं मिलेंगे।

लेकिन, न्यायमूर्ति आफताब आलम व रंजना प्रकाश देसाई की पीठ ने गुजरात के रमेशभाई दभाई नाइक की याचिका स्वीकार करते हुए नई व्यवस्था दी। सुप्रीम कोर्ट ने रमेशभाई का एसटी प्रमाण पत्र निरस्त करने का गुजरात हाई कोर्ट का फैसला खारिज कर दिया।

पीठ ने स्क्रूटनी कमेटी को मामला वापस भेज दिया और सबूतों को देखने के बाद नए सिरे से निर्णय लेने को कहा। जाति स्क्रूटनी कमेटी और गुजरात हाई कोर्ट ने क्षत्रिय पिता की संतान होने के आधार पर नाइक का जाति प्रमाण पत्र निरस्त कर दिया था। इससे उसका राशन की दुकान का आवंटन भी निरस्त हो गया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा, एसटी और गैर-एसटी वर्ग के बीच विवाह में जिसमें पुरुष ऊंची जाति का हो और महिला एसटी वर्ग की, वहां संतान की जाति का निर्धारण तथ्यपरक मसला होता है और वह हर मामले में पेश सबूतों के आधार पर तय होना चाहिए।

इससे विवाह से उत्पन्न संतान की जाति तय करने में पालन-पोषण की परिस्थितियों और हालात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे अंतर्जातीय विवाह में संतान के पिता की जाति का होने का अनुमान लगाया जाता है। जब पिता सवर्ण जाति का हो तो अनुमान और मजबूत हो जाता है।

लेकिन यह अनुमान न तो अंतिम है और न ही ऐसा कि जिसे बदला न जा सके। इस विवाह से उत्पन्न संतान को ऐसे सबूत पेश करने का अधिकार होगा, जो यह साबित करते हों कि उसे सवर्ण जाति के पिता की संतान होने का जीवन में कोई फायदा नहीं मिला, बल्कि इसके विपरीत मां के एसटी वर्ग के होने के नुकसान और शोषण उसे झेलने पड़े। उसे हमेशा उसकी मां के समुदाय का समझा गया। अन्य लोगों ने भी उसे मां के समुदाय का माना। कोर्ट ने कहा कि इस मामले में याचिकाकर्ता का जाति प्रमाणपत्र बिना किसी सबूतों को देखे छीन लिया गया, जो ठीक नहीं है।

नाइक की दलील थी कि उसका पालन-पोषण माता के समुदाय नाइक जाति में हुआ जो गुजरात में एसटी वर्ग में आती है। उसकी शादी भी नाइक जाति की लड़की से ही हुई, इसलिए उसे एसटी वर्ग का माना जाना चाहिए।

यह मामला साबित करता है कि जाति एक सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान है। पिता के सवर्ण होने से भी कोई फर्क नहीं पड़ता, अगर माता गैर-सवर्ण या आदिवासी अथवा दलित हो।

प्रथम नागरिक के साथ भी भेदभाव

आरएसएस और भाजपा के द्वारा गर्व के साथ बताया जाता है कि उन्होंने एक दलित और एक आदिवासी को राष्ट्रपति बनाया। लेकिन याद करें 18 मार्च, 2018 का दिन जब तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद पत्नी के साथ ओडिशा के पुरी जगन्नाथ मंदिर गये थे। आरोप लगाया गया कि गर्भगृह के रास्ते पर कुछ सेवादारों ने उनका रास्ता रोका था और कुछ ने उनकी पत्नी के साथ धक्का-मुक्की भी की थी।

यह मामला तब प्रकाश में आया जब श्रीजगन्नाथपुरी मंदिर प्रशासन की बैठक की प्रोसीडिंग्स अंग्रेजी अखबार ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ के हाथ लगी। अखबार में 26 जून को यह खबर छपी। लेकिन मुख्यधारा की मीडिया में न कोई डिबेट हुआ न कहीं कोई हंगामा मचा। इस मामले में राष्ट्रपति भवन ने जिलाधिकारी को पत्र लिखा था, जिसके आधार पर जांच भी शुरू हुई थी।

बात यहीं नहीं रूकी। रामनाथ कोविंद और उनकी पत्नी जब 15 मई, 2018 को राजस्थान के पुष्कर में ब्रह्मा मंदिर का दर्शन करने गए तब उनसे गर्भगृह की जगह मंदिर की सीढ़ियों पर पूजा करवाया गया। हंगामा मचा तो सफाई दी गई कि कोविंद जी की पत्नी के घुटनों में दर्द था, जिस वजह से वह सीढ़ियां चढ़कर गर्भगृह तक नहीं जा पाईं।

राष्ट्रपति के सम्मान की रक्षा में आरएसएस-भाजपा की ओर से कोई बयान नहीं आया। विपक्ष ने भी इसे मुद्दा नहीं बनाया।

मौजूदा राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू 20 जून, 2023 को दिल्ली के हौजखास स्थित जगन्नाथ मंदिर गईं। इस मौके की एक तस्वीर वायरल हुई, जिसमें राष्ट्रपति गर्भगृह के बाहर हाथ जोड़े खड़ी हैं। सोशल मीडिया में हंगामा मचा तो मंदिर की ओर से सफाई दी गई कि “पूजा करने का भी प्रोटोकॉल है। हम जिनका महाराज के रूप में वरण (आमंत्रित) करते हैं, उनको ही गर्भ-गृह में आकर पूजा करने की इजाजत देते हैं। राष्ट्रपति आमंत्रित नहीं थीं, बल्कि खुद आई थीं।” इस कुतर्क की आलोचना जब समाज के प्रगतिशील हिस्से ने की तो हिंदुत्ववादियों ने उनकी आलोचना शुरू कर दी।

भारत गणराज्य के प्रथम नागरिक यानी राष्ट्रपति के सम्मान में गुस्ताखी का मामला तब भी सामने आया था जब नए संसद भवन के शिलान्यास से तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद और उद्घाटन समारोह से वर्तमान राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को दूर रखा गया। दोनों ही अवसरों पर पंडे-पुजारियों का जमावड़ा लगा। प्रधानमंत्री यजमान की भूमिका में नजर आए। गोया संसद भवन नहीं, बल्कि उनके निजी मकान का शिलान्यास/उद्घाटन हो रहा था। आधुनिक लोकतंत्र की सर्वोच्च संस्था संसद भवन में मध्ययुगीन राजशाही का प्रतीक ‘सेंगोल’ स्थापित कर दिया गया।

संसद में भी गूंजा जाति का दंभ

लोकतंत्र के उसी शिखर संस्थान के भीतर खड़े होकर पूर्व मंत्री अनुराग ठाकुर अहंकारी मुद्रा में हिकारत और घृणा का भाव लिये कहते हैं कि “जिसकी जाति का पता नहीं, वह जाति जनगणना की बात करता है।” इससे उत्साहित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अनुराग ठाकुर के भाषण का वीडियो सोशल मीडिया ‘एक्स’ पर शेयर करते हैं। उसकी प्रशंसा करते हैं। जबकि ठाकुर का बयान जाति और मां दोनों की गाली है, जो उन्होंने विपक्ष के नेता राहुल गांधी को लक्ष्य करके दी थी।

हिंदुस्तान में एससी-एसटी को आरक्षण उसके साथ सदियों से हो रहे अमानुषिक जातिगत भेदभाव-छूआछूत को आधार मान कर दिया गया है। आरक्षण को भागीदारी और हिस्सेदारी का जरिया माना गया है। आरक्षण गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम नहीं है। आरक्षण दर्द की दवा है। रोग का इलाज नहीं है।

आरक्षण गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं

संविधान सभा के आख़िरी भाषण में बाबा साहब डॉ. भीमराव आंबेडकर आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी के ख़ात्मे को राष्ट्रीय एजेंडे के रूप में सामने लाते हैं। उनकी कामना थी कि संवैधानिक संस्थाएं वंचित लोगों के लिए अवसरों का रास्ता खोले और उन्हें लोकतंत्र में हिस्सेदार बनाए। राष्ट्रीय एकता के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है। इसलिए संविधान के मूल अधिकारों के अध्याय में अवसरों की समानता के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए भी विशेष अधिकार का प्रावधान किया गया है। आरक्षण का सिद्धांत वहीं से आता है। यह करोड़ों की आबादी वाले भारत में वंचित जाति समूहों के हर सदस्य को नौकरी देने के लिए नहीं है।

आरक्षण का मक़सद यह है कि वंचित जातियों को महसूस हो कि देश में मौजूद अवसरों में उनका भी हिस्सा है और देश चलाने में उनका भी योगदान है। इसलिए संविधान अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, महिलाओं सहित सभी का ख्याल रखता हुआ नज़र आता है।

सवाल उठता है कि आरक्षण जो दर्द की दवा है, उसे रोग का इलाज क्यों मान लिया जा रहा है? रोग यह है कि अनुसूचित जाति/जनजाति का एक बड़ा हिस्सा शिक्षा से दूर रह जा रहा है। उसकी गरीबी और बदहाली उसे जीने के लिए मशक्कत करने को बाध्य कर रही है। जिन जज साहब ने यह कहा है कि जो लोग ट्रेन के डिब्बे में घुस जाते हैं, वे दूसरों को अंदर आने से रोकते हैं। उनकी टिप्पणी और जमीनी हकीकत में कोई तालमेल नहीं है। जाहिर है वे रोग की पहचान ही नहीं कर सके हैं।

क्रीम का मतलब कितना समझते हैं आप?

एक जज साहब ने क्रीमीलेयर का सिद्धांत लागू करने की बात कही है। तीन और जज साहब ने उनका समर्थन किया है। जिन्होंने क्रीमीलेयर लागू करने की बात कही, वे खुद अनुसूचित जाति समुदाय से आते हैं। सवाल उठता है कि अनुसूचित जाति/जनजाति समुदाय से आने वाले राष्ट्रपति और मुख्यमंत्री सरीखे ‘क्रीम’ लोगों की सामाजिक हैसियत जब सम्मान हासिल करने लायक नहीं मानी जा रही है तो बाकी ‘क्रीम’ तत्वों का हाल तो जगजाहिर ही है।

अब अगर अनुसूचित जातियों में उप-वर्गीकरण के आधार पर आरक्षण विभाजित किया जाता है, उसके ऊपर क्रीमीलेयर की बंदिश लगाई जाती है तो क्या होगा? इसके पहले यह जान‌ लेना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और सिफारिश बाध्यकारी नहीं है। लेकिन राज्यों को अधिकार मिल गया है कि अगर वे चाहें तो एससी-एसटी के आरक्षण का बंटवारा उनके भीतर उप-वर्गीकरण के जरिए कर सकते हैं। यह अधिकार उन्हें संविधान में संशोधन के जरिए नहीं, बल्कि कोर्ट की सिफारिश से मिला है, जिसकी इजाजत संविधान का अनुच्छेद 341 नहीं देता है। आशंका है कि इससे अनुसूचित जाति और जनजाति को अलग-अलग समरूप समूह के रूप में देखे जाने का सिद्धांत और दृष्टिकोण खंडित होता है। धीरे-धीरे आरक्षण भी विलोपित होता जाएगा। अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की एकता और आवाज बिखर जाएगी। लेकिन एक सवाल तो अब भी अनुत्तरित है कि उनके बारे में क्यों न सोचा जाए, जो अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के भीतर ऐतिहासिक कारणों से ही सही, हाशिए पर पड़े हैं।

बहरहाल, कोर्ट की टिप्पणी और सिफारिश को आरएसएस की उस वैचारिकी के करीब माना जा रहा है जो जाति आधारित आरक्षण के खिलाफ है। 2017 में आरएसएस के तत्कालीन प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य ने कहा था कि आरक्षण समानता के सिद्धांत के खिलाफ है। उन्हें मौके दीजिए, आरक्षण नहीं। वैद्य के इस बयान का साफ़-साफ़ मतलब है कि आदिवासी, दलितों और पिछड़ों को कमाने-खाने का मौका दीजिए। लेकिन आरक्षण देकर शासन-सत्ता में शामिल मत कीजिए। वैद्य के विचार, जो ज़ाहिर तौर पर उस आर‌एसएस का विचार है, जो आरक्षण का घोर विरोधी रहा है। आरएसएस का रास्ता ब्राह्मणवाद, सवर्ण वर्चस्ववाद की पुनर्स्थापना का रास्ता है। इस खतरे को ध्यान में रखने की जरूरत है, क्योंकि आरक्षण हिस्सेदारी और प्रतिनिधित्व का जरिया है। निर्णयों में भागीदारी का रास्ता है। इस विचार को निगल जाने की साजिशें लंबे समय से चलती आ रही हैं।

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

हेमंत कुमार

लेखक बिहार के वरिष्ठ पत्रकार हैं

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