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डॉ. आंबेडकर की विदेश यात्राओं से संबंधित अनदेखे दस्तावेज, जिनमें से कुछ आधारहीन दावों की पोल खोलते हैं

डॉ. आंबेडकर की ऐसी प्रभावी और प्रमाणिक जीवनी अब भी लिखी जानी बाकी है, जो केवल ठोस और सत्यापन-योग्य तथ्यों – न कि सुनी-सुनाई बातों – पर आधारित हो। हमें उम्मीद है कि हमारा छोटा मगर अनूठा अध्ययन भविष्य में लिखी जाने वाली उस गुणवत्तापूर्ण व अनुसंधान-आधारित जीवनी लेखन में सहायक होगा, बता रहे हैं निखिल बागडे

“इतिहास महत्वपूर्ण है। अगर आप इतिहास नहीं जानते तो इसका मतलब कि आप कल पैदा हुए थे। और यदि आप कल पैदा हुए थे तो कोई भी सत्ताधारी आपको कुछ भी पढ़ा-सिखा सकता है और आपके पास उसकी पड़ताल करने का कोई तरीका नहीं होगा” – हवार्ड जिन     

डॉ. एस.पी.वी.ए. साईंराम का मैं अत्यंत आभारी हूं, जिन्होंने मुझसे जोर देकर कहा कि “राउंड टेबल इंडिया” में प्रकाशित मेरे आलेख में दी गई जानकारियों और सूचनाओं से आगे की जानकारियां हासिल करने के लिए मुझे अन्य अभिलेखागारों को खंगालना चाहिए और जो जानकारियां मैंने जुटाईं हैं, उन्हें उनके सही संदर्भ में प्रस्तुत करने के लिए “डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर: राइटिंग्स एंड स्पीचेस” व विभिन्न पत्रों आदि में प्रकाशित लेखों, भाषणों व संस्मरणों का उपयोग करना चाहिए। उस लेख में मैंने ब्रिटिश म्यूजियम में उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर डॉ. आंबेडकर की समुद्र के रास्ते विदेश यात्राओं के बारे में जानकारियां प्रस्तुत की थीं। मेरे इस अध्ययन में सुश्री पूर्णिमा गायकवाड़ के मार्गदर्शन के लिए मैं उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करना चाहता हूं। चूंकि मैंने सामाजिक विज्ञानों या इतिहास का अध्ययन नहीं किया है, इसलिए विभिन्न घटनाओं को संज्ञान में हुए उन्हें एक नैरेटिव के रूप में पिरोना मेरे लिए एक चुनौती थी।

मेरी इस लघु और नितांत व्यक्तिगत अध्ययन परियोजना से कई महत्वपूर्ण जानकारियां सामने आई हैं, जो डॉ. आंबेडकर के बारे में कई नए तथ्य उद्घाटित करती हैं और पहले से ज्ञात कई तथ्यों की प्रमाणिकता सिद्ध करती हैं। ये सारी जानकारियां अमरीका के नेशनल आर्काइव्ज एंड रिकार्ड्स एडमिनिस्ट्रेशन (एनएआरए) में उपलब्ध दस्तावेजों पर आधारित हैं और उनकी प्रमाणिकता असंदिग्ध है। मुझ जैसे बहुजन पृष्ठभूमि के व्यक्तियों के लिए डॉ. आंबेडकर की उपलब्धियां गर्व का विषय हैं, जिसमें हम स्वयं को शामिल करते हैं और कामना करते हैं कि ऐसा दोबारा हो और हमारे जतिग्रस्त समाज से उद्भूत सारी नकारात्मकताओं के बीच, उनके बारे में लिखने और बताने की हमारी हार्दिक इच्छा रहती है। ये अभिलेख हमारे लिए अमूल्य खजाने से कम नहीं हैं, क्योंकि भारत की सभी सरकारों ने जानते-बूझते उन्हें उपलब्ध करवाने के काम को कोई महत्व नहीं दिया।

इस अध्ययन को शुरू करने से पहले डॉ. एस.पी.वी.ए. साईंराम ने मेरा ध्यान ए.आर. वेंकटचेलापती के एक लेख की ओर आकर्षित किया था, जिससे मुझे ब्रिटिश लाइब्रेरी में उपलब्ध डॉ. आंबेडकर की यात्राओं के बारे में जानकारी हासिल हुई। वहां से मुझे ये जानकारियां प्राप्त हुईं–

  • डॉ. आंबेडकर ने 15 जून 1913 को रुबाटीनो जलपोत कंपनी के जहाज एस.एस. सार्डिनीया से बंबई से अपनी यात्रा शुरू की।
  • नेपल्स से वे एस.एस. अंकोना में सवार हुए और 22 जुलाई, 1913 को न्यूयार्क पहुंचे।
  • डॉ. आंबेडकर का इरादा एस.एस. सेंट पॉल से 3 जून, 1917 को अमरीका से रवाना होने का था। 

इन यात्राओं से संबंधित अभिलेखों को खंगालते समय मेरा साबका डॉ. आंबेडकर की यात्राओं और उनसे संबंधित सार्वजनिक रूप से उपलब्ध दस्तावेजों से पड़ा, जिनके बारे में संभवतः हम न तो जानते थे और ना ही हमने उनका दस्तावेजीकरण किया था। यह आलेख ऐसी ही जानकारियों, उनकी व्याख्या और उनके संदर्भ पर केंद्रित है। इन जानकारियों के प्रकाश में आगे काम करने का कार्य मैं विशेषज्ञों पर छोड़ता हूं, बशर्ते उन्हें यह काम करने की इच्छा हो। अगर आप मेरे अनुमानों या आकलन में कोई सुधार चाहते हैं, तो कृपया निस्संकोच मेरे ईमेल nikastroisbac@gmail.com पर मुझसे संपर्क करें।

मेरे अनुसंधान से निम्नांकित अभिलेख उजागर हुए–

  1. 1913 : बंबई से इटली के रास्ते अमरीका की यात्रा (डॉ. आंबेडकर की पहली विदेश यात्रा)
  2. 1915 : न्यूयार्क राज्य की जनगणना में उन्हें शामिल किया जाना
  3. 1920 : बंबई से इंग्लैंड में लिवरपूल की उनकी यात्रा
  4. 1923 : लंदन से आज के श्रीलंका के रास्ते उनकी भारत वापसी
  5. 1931-32 : लंदन से न्यूयार्क की यात्रा और द्वितीय गोलमेज़ सम्मलेन के बाद भारत वापसी
  6. 1952 : बंबई से कोलंबिया विश्वविद्यालय की यात्रा और वापसी

1) पश्चिम की पहली यात्रा : जुलाई 1913

जैसा कि ब्रिटिश लाइब्रेरी में संरक्षित डॉ. आंबेडकर के एक पत्र में बताया गया है, उनकी पहली विदेश यात्रा के पहले चरण में वे बंबई से एस.एस. सार्डिनीया नामक जहाज़ से रवाना हुए। ‘द टाइम्स ऑफ़ इंडिया’ में 16 जून, 1913 को प्रकाशित लेख, डॉ. आंबेडकर के पत्र में वर्णित तथ्यों की पुष्टि करता है। इस अभिलेख को मुझे उपलब्ध करवाने के लिए मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पीएचडी शोधार्थी विवेक कुमार को धन्यवाद ज्ञापित करता हूं।

यात्रा का यह अभिलेख, डॉ. आंबेडकर की यात्रा के प्रथम चरण अमरीका की यात्रा के बारे में है। सन् 1902 में निर्मित एस.एस. सार्डिनीया [जिसे इटैलियन भाषा में Sardegna (सार्डिनीया) लिखा जाता था] यात्री और मालवाहक जहाज़ था, जिसका संचालन पेनिन्सुलर एंड ओरिएंटल नेविगेशन कंपनी द्वारा किया जाता था। अपनी यात्रा के पहले चरण में डॉ. आंबेडकर बंबई से इटली के नेपल्स पहुंचे। यह जहाज़ इसी रास्ते में चलता था। प्रथम विश्वयुद्ध में इस जहाज़ पर कई बार टारपीडो (जहाज को दागे गए मिसाइल) से हमला हुआ। इसमें लदे माल में आग लगने के बाद, एक जापानी कंपनी ने जहाज़ को कबाड़ में तब्दील किया। दुखद यह कि समाचारपत्र इस यात्रा के बारे में और अधिक जानकारी नहीं देता। इस यात्रा के विपरीत, आगे की यात्राओं के मेनिफ़ेस्ट (यात्रियों की सूची) उपलब्ध हैं।

प्रथम पृष्ठ :

द्वितीय पृष्ठ :

ज़ूम करने के बाद :

हम सब जानते हैं कि सन् 1912 तक, यानी 21 वर्ष की आयु में, युवा भीमराव आंबेडकर ने बंबई विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र में स्नातक की डिग्री हासिल कर ली थी और उसके बाद, कोलंबिया विश्वविद्यालय में उनकी स्नातकोत्तर शिक्षा बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ (तृतीय) द्वारा उपलब्ध करवाए गए वजीफे से हुई (दोनों की मुलाकात का विवरण ‘डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर: राइटिंग्स एंड स्पीचेस’ के खंड 17 के अध्याय 17 के पृष्ठ 53 पर दिए गए विवरण के आधार पर डॉ. साईंराम ने दर्ज किया है), जो तीन साल की अवधि के लिए 11.50 ब्रिटिश पाउंड प्रति माह थी (कीर, धनंजय, ‘डॉ. आंबेडकर: लाइफ एंड मिशन’)। यह उनकी पहली विदेश यात्रा थी। डॉ. आंबेडकर ने बाद में लिखा कि कोलंबिया विश्वविद्यालय में उन्होंने पहली बार सामाजिक समानता का अनुभव किया। न्यूयार्क टाइम्स से बात करते हुए उन्होंने कहा कि “मेरे जीवन के सबसे अच्छे दोस्त थे कोलंबिया के मेरे कुछ सहपाठी और मेरे उत्कृष्ट प्रोफेसर जॉन डेवी, जेम्स शॉटवेल, एडविन सेलिगमेन और जेम्स हार्वे राबिन्सन”। विभिन्न नस्लों के जिन विदेशियों से वे वहां मिले-जुले होंगे, उन्हें उनकी जाति से कोई लेना-देना नहीं रहा होगा। अपने जीवन में पहली बार आंबेडकर ने असली स्वतंत्रता का स्वाद चखा होगा। आपको यह याद रखना चाहिए कि जब वे इस यात्रा पर निकले होंगे तब उनके कंधों पर उनके अपने लोगों के प्रति उनके दायित्व ही नहीं, बल्कि उनके कर्तव्य का भी कितना बड़ा बोझा रहा होगा। इस बारे में उन्होंने महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ से मुलाकात के दौरान व अन्य कई मौकों पर खुलकर बात की।

इस यात्रा के दूसरे चरण का विवरण खोज निकालने में मैं सफल रहा। इसमें भीमराव का नाम यात्रियों की सूची में सबसे नीचे लिखा है। मेरे लिए इस आलेख हेतु की गई पड़ताल की यह सबसे कीमती खोज थी, क्योंकि इससे डॉ. आंबेडकर की परिस्थितियों के बारे में हमें कुछ अहम संकेत मिलते हैं, जिनका निरूपण मैं आगे करूंगा। इन अभिलेखों को देखते समय मुझे ऐसा लगा गोया मैं डॉ. आंबेडकर का साक्षात साक्षात्कार कर रहा हूं।

  • युवा भीमराव एस.एस. अंकोना पर सवार हुए, जिसने नेपल्स से कुछ दूर इटली के जिनोआ से अपनी यात्रा 7 जुलाई, 1913 को शुरू की और 21 जुलाई, 1913 को अमरीका के न्यूयार्क पहुंचा। भाप से चलने वाले इस जहाज़ में तत्समय के आधुनिकतम वायरलेस टेलीग्राफी उपकरण (जिनका अविष्कार केवल डेढ़ दशक पहले हुआ था) लगे थे। नेपल्स से रवाना होने के बाद इस जहाज़ ने पलोमो में लंगर डाला और फिर अटलांटिक महासागर पार कर अमरीका के पश्चिमी तट पर स्थित न्यूयार्क और फिलाडेल्फिया पहुंचा। (प्रथम विश्वयुद्ध 1914 में शुरू हुआ और 1915 के उत्तरार्ध में जर्मन पनडुब्बी यू-38 ने इस जहाज़ पर टारपीडो दागे, क्योकि जर्मनी को शक था कि इसमें अमरीका या उसके मित्र राष्ट्रों के सैनिक सवार हैं। हमले में इस जहाज़ में सवार सैकड़ों यात्री मारे गए, जिससे अमरीकी जनता में भारी रोष उत्पन्न हुआ। मगर यह वह घटना नहीं थी, जिसमें भीमराव ने अपना पहला पीएचडी शोधप्रबंध गंवाया, जिसकी चर्चा उन्होंने प्रो. एडविन सेलिग्मेन को लिखे अपने पत्र में की है। यह घटना 20 जुलाई, 1917 को हुई थी और संबंधित जहाज़ का नाम एस.एस. सलसेट था।
  • न्यूयॉर्क बंदरगाह पर इमीग्रेशन ऑफिसर (आप्रवासन अधिकारी) ने उनका नाम गलत दर्ज किया– “आंबेडकर, भिमाओ”। उनके बारे में लिखा गया कि वे 22 साल के विवाहित विद्यार्थी हैं, पहली बार अमरीका आये हैं और ब्रिटिश भारत के नागरिक हैं। नस्ल/कौम के कॉलम में उन्हें ‘हिंदू’ बताया गया। इस कॉलम में अन्य यात्रियों (जिनमें से अधिकांश इतालवी मूल के थे, जो अपने घर अमरीका लौट रहे थे) को या तो ‘उत्तरी’ या ‘दक्षिणी’ बताया गया है। इन दोनों शब्दों का आशय मैं नहीं समझ सका, क्योंकि दक्षिण इटली के निवासियों को भी ‘उत्तरी’ बताया गया है।
  • आगे मैंने यह भी पाया कि आंबेडकर ने “नजदीकी रिश्तेदार या मित्र” के कॉलम में लिखा “पिता : बलराम आंबेडकर”। बलराम उनके बड़े भाई थे, जो कुछ ही महीने पहले फरवरी, 1913 में उनके पिता सूबेदार रामजी मालोजी सकपाल की मृत्यु के बाद, उनके लिए संभवतः पिता तुल्य बन गए थे। कुछ ही समय पहले अनाथ हुए आंबेडकर के लिए सचमुच अपने भाई का नाम पिता के रूप में लिखना एक भावुक क्षण रहा होगा।

  • इमीग्रेशन रिकॉर्ड के दूसरे पृष्ठ से हमें और दिलचस्प जानकारी मिलती है। बंदरगाहों पर उतरने वाले यात्रियों के लिए यह आवश्यक होता था कि वे यह दिखाएं कि उनके पास कितनी नगदी है ताकि वे यह साबित कर सकें कि उनके पास उनके गंतव्य स्थान में अपना खर्च उठाने के लिए पर्याप्त धन है। इमीग्रेशन अधिकारी ने यह दर्ज किया कि आंबेडकर कोलंबिया विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आए विद्यार्थी हैं और उनके पास नगद 50 डॉलर हैं। फिर 50 डॉलर को काट कर 200 डॉलर लिखा गया है। निश्चित तौर पर यह धन उन्हें महाराजा ने उपलब्ध करवाया होगा। इमीग्रेशन ऑफिसर यह देखकर चकित ही नहीं बल्कि भौचक्का रह गया होगा कि क्योंकि उसने इसके पहले शायद ही ऐसा कोई भारतीय – और उस पर भी विद्यार्थी – देखा होगा, जिसके पास इतनी नगदी हो। (अधिकांश यात्रियों के पास 50 डॉलर के आसपास रकम थी) भारत में जिस तरह के कड़े जातिगत नियम थे, उनके चलते किसी अछूत के पास इतना धन होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। पचास डॉलर को काट कर 200 डॉलर लिखना ऐसा ही था मानों ‘मनुस्मृति’ के कानून को काट दिया गया हो। हालांकि इमीग्रेशन ऑफिसर को इस बात का भान नहीं रहा होगा कि यह कितने कठिन संघर्ष का नतीजा था। ‘डॉ बाबासाहेब आंबेडकर: राइटिंग्स एंड स्पीचेस’ के खंड 17 के भाग एक के पृष्ठ 255 के अनुसार युवा भीमराव को “बंबई से उनकी यात्रा की शुरुआत की तिथि से 230 पाउंड (दो सौ तीस पाउंड) प्रति वर्ष का भत्ता देय होगा और इसके अतिरिक्त सरकार उनका सारा खर्च वहन करेगी।” सन् 1913 में एक पाउंड 4.87 डॉलर के बराबर था।
  • अभिलेखों के अनुसार, डॉ. आंबेडकर ने यह घोषित किया कि वे न तो बहुविवाही हैं और ना ही अराजकतावादी हैं। उनके स्वास्थ्य और शारीरिक व मानसिक स्थिति को ‘उत्तम’ बताया गया है और उनकी ऊंचाई पांच फीट छः इंच दर्ज की गई है। इसकी पुष्टि उनके पासपोर्ट से भी होती है, जिसकी प्रति सोशल मीडिया पर लंबे समय से उपलब्ध है। ये सारी जानकारियां उनके पासपोर्ट से ली गईं होंगी।
  • आंबेडकर की यात्रा शुरू करने की तारीखों (बंबई से 15 जून और जिनोआ से 7 जुलाई) और भाप से चलने वाले जहाजों की गति को ध्यान में रखते हुए अगर हिसाब लगाया जाए तो यह सामने आता है कि अमरीका की अपनी यात्रा के दौरान वे नेपल्स में करीब सात दिन – और कम से कम पांच दिन – रुके होंगे। आप पूछेंगे कि इस निष्कर्ष का आधार क्या है? असल में भाप-चालित एस.एस. एनकोना की औसत गति करीब 17 नॉट प्रति घंटा थी। बंबई से स्वेज़ नहर के रास्ते नेपल्स की दूरी करीब 4,700 नॉटिकल मील है। इसका अर्थ है कि इस यात्रा में करीब (4,700/17) घंटे या करीब 11-12 दिन लगे होंगे। अगर भीमराव ने 15 जून को बंबई छोड़ा था तो वे ज्यादा से ज्यादा जून के अंत तक नेपल्स पहुंच गए होंगे। इस गणना में रास्ते में जहाज़ के अन्य स्थानों पर रुकने में लगने वाला समय शामिल है। मतलब यह कि भीमराव जब नेपल्स पहुंचे होंगे तब वहां से अमरीका तक की उनकी यात्रा का दूसरा चरण, कम-से-कम एक हफ्ते दूर रहा होगा। मैं और साईंराम ने यह कल्पना करने का प्रयास किया कि युवा आंबेडकर (जो अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र में डिग्रीधारी थे) ने उस एक हफ्ते नेपल्स में क्या किया होगा। डॉ. साईंराम लिखते हैं– “निश्चित तौर पर वे अपने होटल में बंद तो नहीं रहे होंगे। वे नेपल्स के आसपास के इलाके में पक्का घूमे-फिरे होंगे। नेपल्स का बंदरगाह अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए जाना जाता है। वह एक प्राचीन बंदरगाह है, जिसके जरिए एशिया और यूरोप के बीच व्यापार होता था। बाबासाहेब इन तथ्यों से वाकिफ थे। यह दिलचस्प है कि पोम्पेइ और उसके अवशेष नेपल्स के काफी करीब (करीब 22 किलोमीटर) दूर स्थित हैं। क्या बाबासाहेब पोम्पेइ गए थे? हमारे पास इसका कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। लेकिन अगरहम मानवशस्त्र पर उनके पहले शोधप्रबंध [भारत में जातियां : उनका तंत्र, उत्पत्ति और विकास] को पढ़ें, जिसे उन्होंने प्रो. ए.ए. गोल्डनवाईज़र और नृवंशविज्ञान के उनके विद्यार्थियों के समक्ष प्रस्तुत किया था, तो हम पाएंगे की उसमें बाबासाहेब ने पोम्पेइ के खंडहरों का हवाला दिया है और यह भी लिखा है कि वहां के गाइड पोम्पेइ के इतिहास के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बातें बताते हैं। इससे ऐसा लगता है कि बाबासाहेब पोम्पेइ के खंडहरों को देखने गए होंगे। अगर यह सच है तो हम इसके आधार पर यह कयास भी लगा सकते हैं कि वे माउंट वेसुवियस को देखने भी गए होंगे। माउंट वेसुवियस एक ज्वालामुखी है, जिसके फूटने से रोमन साम्राज्य की चूलें हिल गईं थीं।” हम कई नई चीज़ें जान रहे हैं और खोज पा रहे हैं!

 2) न्यूयार्क राज्य में जनगणना, 1915

जनगणना के सार्वजानिक रूप से उपलब्ध दस्तावेजों को सरसरी निगाह से देखते हुए मेरा ध्यान 1915 में हुई न्यूयार्क राज्य की जनगणना की रिपोर्ट में भीमराव के ज़िक्र पर गया। यह शायद उनसे संबंधित सबसे पुराना सार्वजनिक रिकॉर्ड होगा। मुझे ख़ुशी होगी अगर कोई व्यक्ति, जो न्यूयार्क स्टेट आर्काइव्ज (222, मैडिसन एवेन्यू, ऑलबनी, न्यूयार्क) के नज़दीक रहता हो, वहां जाकर ऑनलाइन उपलब्ध कैटेलॉग से इस अभिलेख का कलर स्कैन मुझे उपलब्ध करवा सके। यह सचमुच मेरे लिए किसी खजाने से कम न होगा।

नीचे आर्काइव्ज द्वारा ऑनलाइन उपलब्ध करवाए जनगणना अभिलेखों के संबंधित पृष्ठ का उच्च गुणवत्ता का श्वेत-श्याम स्कैन प्रकाशित है। इसके बारे में मैं संक्षेप में कुछ बातें बताना चाहता हूं।

ज़ूम करने के बाद:

  • इसमें उनका नाम तो घसीटी लिखावट में लिखा गया है, मगर उनका उपनाम स्पष्ट रूप से पढ़ा जा सकता है। पहले कॉलम में उनका पता 124वीं स्ट्रीट, हाउस नंबर 505 (न्यूयार्क) दिया गया है जो अब वेस्ट 124वीं स्ट्रीट, हाउस नंबर 505 है। यहां से पैदल दस मिनट में कोलंबिया विश्वविद्यालय पहुंचा जा सकता है। संभावना यही है की यह घर उन्हें विश्वविद्यालय की ओर से आवंटित नहीं किया गया होगा, क्योंकि उस बिल्डिंग में अलग-अलग पेशे वाले लोग रहते थे। इनमें शामिल थे एक हाउसकीपर (रो 47), एक टेलीफोन ऑपरेटर (44वीं पंक्ति), मजदूर (27 व 29वीं पंक्ति), एक फिल्म अभिनेत्री (37वीं पंक्ति) आदि। ऐसा भी नहीं था कि सभी रहवासी श्रमजीवी वर्ग के थे (देखें पेशा कॉलम 11)
  • एक ध्यान देने योग्य बात यह है कि उनका नाम बतौर श्वेत व्यक्ति दर्ज किया गया है! साफ़ है कि जनगणना कर्मी से गलती हुई है। और यह केवल युवा भीमराव तक सीमित नहीं है। भारत से ही आए सुचेत सिंह (45वीं पंक्ति) और अब्दुल अज़ीज़ (46वीं पंक्ति) को भी श्वेत ही बताया गया है। अगले पृष्ठ (दो पेजों के स्कैन में दाहिने ओर) में तुर्की से आए लोगों को भी श्वेत बताया गया है। यह भी संभव है की उस समय ब्राउन (गेहुंआ या सांवला) की अवधारणा ही न रही हो और शायद केवल श्वेत, काले, अमरीकन इंडियन, मिश्रित या विदेशी – ये ही श्रेणियां उपलब्ध रही हों। (केवल सामान्य सोच में नहीं, बल्कि जनगणना नियमों में भी यही वर्गीकरण रहा हो, ऐसा हो सकता है) मुझे 1915 की जनगणना रिपोर्ट का परिशिष्ट उपलब्ध नहीं हो सका और इसलिए मुझे 1910 की जनगणना के परिशिष्ट से काम चलाना पड़ा। उसमें इनमें से कुछ श्रेणियों के अलावा ‘म्युलाटो’ श्रेणी का भी ज़िक्र है, अर्थात वे लोग जिनके पूर्वज श्वेत और काले दोनों थे। आंबेडकर और अन्यों को ‘श्वेत’ श्रेणी में रखना पूर्वाग्रहग्रस्त जनगणना विभाग की राजनीतिक या नस्लीय चाल भी हो सकती है। उस इलाके में रहने वाले काले लोगों की सूची अलग से पृष्ठ 12, 13 और 14 पर दी गई है और उसमें आप देख सकते हैं कि पहले ‘डब्ल्यू’ (वाइट या श्वेत के लिए) लिखा गया और फिर उसे मिटा कर ‘बी’ (ब्लैक या काले के लिए) लिखा गया। हाई-डेफिनिशन स्कैन पोल खोल देते हैं। वैसे भी, न तो मैं और ना ही डॉ. साईंराम, नस्लवाद और 20वीं सदी की शुरुआत में न्यूयॉर्क में नस्लीय राजनीति के जानकार हैं।     
  • एक क्षण को मुझे ऐसा लगा की यह भी हो सकता है कि जनगणना कर्मी को डॉ. आंबेडकर के बारे में ये जानकारियां किसी और ने दी हों। परंतु यदि ऐसा होता तो वह व्यक्ति उनकी आयु (23 वर्ष) और उस समय वे अमरीका में कितनी अवधि से रह रहे थे (2 वर्ष) सही-सही बता पाता, यह संभव नहीं लगता। शेष सभी विवरण सही हैं, जैसे कि ‘नागरिकता’ के कॉलम में ‘विदेशी’ और ‘पेशा’ के कॉलम में कॉलेज विद्यार्थी (और इसलिए गैर-श्रमजीवी)।

3) 1920 के दशक में बंबई से लिवरपूल (यूके) की यात्रा

यह रिकॉर्ड छह साल पुराने जहाज़ एस.एस. सिटी ऑफ़ एक्सेटर से संबंधित है। डॉ. आंबेडकर इस जहाज़ से यूके गए थे और उनका नाम यात्रियों की सूची में चौथी पंक्ति में दर्ज है। इस जहाज़ का संचालन एलरमेन लाइंस द्वारा किया जाता था और प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान इसका इस्तेमाल फौजियों को लाने-लेजाने के लिए किया गया था। इस जहाज़ का मार्ग इस प्रकार था– “ग्लासगो – लिवरपूल – पोर्ट सईद – स्वेज – बंबई – कराची – काठियावाड़ के बंदरगाह – पूर्वी और दक्षिणी अफ्रीका – यूरोप में स्थित यूके के बंदरगाह – ग्लासगो”। नीचे जहाज़ के 31 जुलाई, 1920 को यूके में लिवरपूल पहुंचने का विवरण दिया गया है। विवरण में कहा गया है कि 28 साल के डॉ. आंबेडकर जहाज़ में बंबई से सवार हुए और उनका गंतव्य स्थान लिवरपूल है। एक दिलचस्प तथ्य यह है कि डॉ. आंबेडकर ने यह यात्रा 21 मार्च, 1920 को आयोजित एक महत्वपूर्ण कार्यक्रम में हिस्सा लेने के बाद शुरू की थी। इस कार्यक्रम में छत्रपति शाहूजी महाराज ने भी भाषण दिया था, जिसमें उन्होंने कोल्हापुर के अछूतों से जो कहा था, वह सही सिद्ध हुआ। उन्होंने कहा था–

“आंबेडकर के रूप में आप लोगों को अपना उद्धारक मिल गया है। मुझे विश्वास है कि वे आपकी बेड़ियां काट देंगे। न केवल यह, बल्कि मेरा मन कहता है कि एक दिन आंबेडकर प्रथम पंक्ति के नेता बनेंगे, जिनका नाम पूरे देश में होगा और जिनकी बातें पूरे देश में सुनी जाएंगीं।” (डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर, राइटिंग्स एंड स्पीचेस – खंड 17, भाग 1, पृष्ठ 19, संपादकीय)

4) पश्चिम में शिक्षा हासिल करने के बाद यात्रा : मार्च, 1923

यह रिकॉर्ड भाप से चलने वाले जहाज़ एस.एस. (आर.एम.एस.) ओस्टरले से संबंधित है, जिसे ओरिएंट लाइन द्वारा स्वेज़ नहर के रास्ते लंदन और ऑस्ट्रेलिया के कई बंदरगाहों के बीच चलाया जाता था। उस समय स्वेज नहर पर इंग्लैंड और फ्रांस का नियंत्रण था। यह यात्रा 3 मार्च, 1923 को शुरू हुई। तब तक आंबेडकर की विदेशों में पढ़ाई काफी-कुछ हो चुकी थी, मगर ख़त्म नहीं हुई थी और इस यात्रा के कई महीने बाद अगस्त, 1923 में उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में अपनी थीसिस फिर से जमा की थी, जिसके बाद उसी साल उन्हें डॉक्टरेट प्रदान की गई। वे 1921 में लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स (एलएसई) से स्नातकोत्तर डिग्री हासिल कर चुके थे। इस प्रकार, 1923 की यह यात्रा पश्चिम में उनकी शिक्षा के अंतिम वर्ष में हुई थी। यही वह साल था जब उन्हें ‘ग्रेज़ इन’ (लंदन के वकीलों और जजों की संस्था) द्वारा अदालतों में पैरवी करने के योग्य घोषित किया गया था।

इस यात्रा के बारे में कुछ और बातें–

  • ऐसा लगता है कि डॉ. आंबेडकर ने लंदन से कोलंबो (जो उस समय ब्रिटिश नियंत्रित सीलोन, जिसे अब श्रीलंका कहा जाता है, का शहर था) की यात्रा के लिए थर्ड क्लास केबिन टिकट खरीदा था। एस.एस. ओस्टरले जहाज, ऑस्ट्रेलिया की अपनी यात्रा के दौरान कोलंबो में भी ठहरता था। मुझे नहीं पता कि किसी के पास यह जानकारी है या नहीं कि क्या आंबेडकर ने कोलंबो में कुछ समय गुज़ारा? समस्या यह है कि आंबेडकर के बारे में सामग्री यहां-वहां बिखरी हुई है।
  • टिकट में कहा गया है कि वे 30 साल के विद्यार्थी हैं और यूके में उनका अंतिम पता लंदन अब प्रसिद्ध “आंबेडकर हाउस” है। उन्हें ब्रिटिश भारत का नागरिक बताया गया है।
  • डॉ. एस.पी.वी.ए. साईंराम ने इस यात्रा के बारे में कुछ दावों की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया है, जो अब आधारहीन प्रतीत होते हैं। ये दावे चांगदेव भवानराव खैरमोड़े जैसे लोगों ने किए हैं और अपने दावों के समर्थन में उन्होंने कोई प्रमाणिक संदर्भ या स्रोत भी नहीं दिए हैं। मुझे तो ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने मन से डॉ. आंबेडकर के बारे में कुछ कहानियां गढ़ ली हैं। अशोक गोपाल अपनी सद्य प्रकाशित पुस्तक, ‘ए पार्ट अपार्ट : द लाइफ एंड थॉट ऑफ़ बी.आर. आंबेडकर’ (नवायन पब्लिशिंग, 2023, पृष्ठ 210) में लिखते हैं– “आंबेडकर के पास मार्च, 1923 में इंग्लैंड से भारत की अपनी यात्रा के लिए धन नहीं था। एक बार फिर उन्होंने कोल्हापुर राज्य से मदद की अपील की। शाहूजी महाराज के पुत्र राजाराम ने आंबेडकर को कुछ धन भेजने की व्यवस्था की। आंबेडकर ने अपनी सारी किताबें, जो उन्होंने लंदन में खरीदी थीं, अपने मित्र ‘ऍफ़’ के पास छोड़ दीं और लंदन से भारत के नज़दीक किसी स्थान का सबसे सस्ता टिकट खरीदा। इस टिकट से उन्हें कोलंबो जा रहे एक मालवाहक जहाज़ में एक केबिन मिला। उनके सहयात्रियों में सूअर, बत्तक और अन्य जानवर और काले, चीनी, अरबी और भारतीय मजदूर थे, जो अहर्निश शराब पीते रहते थे। कोलंबो से उन्होंने चेन्नई के लिए एक जहाज़ पकड़ा और वहां से ट्रेन से मुंबई पहुंचे। वे 3 अप्रैल, 1923 को तड़के दादर स्टेशन पर उतरे।”

इसके विपरीत आंबेडकर की यात्रा का उपरवर्णित रिकॉर्ड, इनमें से कम-से-कम पांच दावों को गलत सिद्ध करता है।

  • आर.एम.एस. ओस्टरले मालवाहक जहाज़ नहीं था। अन्य संस्थाओं के अतिरिक्त, द म्यूजियम्स विक्टोरिया कलेक्शन्स के पास पूरी दुनिया के जहाजों का कैटलॉग है। यह कैटलॉग बताता है– आरएमएस ओस्टरले क्वाड्रपल एक्सपेंशन (चौगुनी क्षमता वाले) भाप के इंजन से युक्त यात्री जहाज़ था, जिसका निर्माण लंदन एंड ग्लासगो शिपबिल्डिंग कंपनी ने 1909 में किया था। इस जहाज़ का उपयोग ओरिएंट स्टीम नेविगेशन कंपनी लिमिटेड, यूनाइटेड किंगडम ऑस्ट्रेलिया की यात्री सेवा के लिए करती थी। इस जहाज़ ने 59 यात्राएं कीं और उसे 1930 में कबाड़ में बदल दिया गया। प्रथम विश्वयुद्ध में ओस्टरले का उपयोग ऑस्ट्रलियन इम्पीरियल फ़ोर्स (एआईऍफ़) द्वारा, एचएमएटी ओस्टरले के नाम से सैनिकों के आवागमन के लिए किया था।”
  • जहाज़ के मेनिफ़ेस्ट पर एक सरसरी निगाह डालने से भी यह साफ़ हो जाता है कि ऑस्ट्रेलिया जा रहे इस जहाज़ में सवार यात्रियों में से 85-90 प्रतिशत ने यह घोषणा की कि उनका इरादा ऑस्ट्रेलिया में स्थाई रूप से बसने का है। यह तार्किक भी था, क्योंकि आखिर इस जहाज़ की मंजिल ऑस्ट्रेलिया थी। पांच से भी कम यात्री फिलिस्तीनी थे, चार मिस्र से थे और बाकी इंग्लैंड और न्यूज़ीलैंड से। अतः खैरमोड़े का यह दावा कि आंबेडकर ने “काले, चीनी, अरबी और भारतीय मजदूरों, जो अहर्निश शराब पीते रहते थे” के साथ यात्रा की, उनकी कल्पना की उपज भर है। उनका उद्देश्य आंबेडकर के प्रति दया भाव दिखाना हो सकता है या यह उनकी अपनी नस्लवादी या वर्गवादी सोच का नतीजा हो सकता है।
  • यह सही है कि थर्ड क्लास का टिकट सबसे सस्ता रहा होगा, मगर जो रिकॉर्ड अब सामने आए हैं, उनसे यह साफ़ है कि यह पहली बार नहीं था कि आंबेडकर ने थर्ड क्लास का टिकट लिया था। पर क्या हम यह कह सकते हैं कि उन्होंने “सूअरों और बत्तखों” के साथ यात्रा की? इस यात्रा के पूरे विवरण को ध्यान से देखने पर यह साफ़ है कि उनके साथ थर्ड क्लास में कांस्टेबल (169वीं पंक्ति), पुलिस अधिकारी (826वीं पंक्ति), क्लर्क (839वीं पंक्ति), इंजीनियर (832वीं पंक्ति) और होटल मैनेजर (एएच 7वीं पंक्ति) शामिल थे। यह अजीब है कि खैरमोड़े को यह सब नहीं दिखा। लेकिन उन्हें वह कैसे दिखता, जिसे वे देखना ही नहीं चाहते थे? मेनिफ़ेस्ट के अन्य पृष्ठों से हमें पता चलता है कि जहाज़ में सवार यात्री अलग-अलग वर्गों और पेशों से थे। थर्ड क्लास के केबिनों की कुल क्षमता 700 से 900 के बीच थी, मगर मेनिफ़ेस्ट से यह साफ़ है कि थर्ड क्लास पूरी तरह भरा नहीं था। इससे यह धारणा गलत सिद्ध होती है कि जहाज़ के संचालकों ने जहां भी संभव था, वहां यात्री ठूंस दिए थे।
  • यह विश्वास करना भी कठिन है कि शाहूजी महाराज का कोल्हापुर राज्य, जो इसके पहले तक आंबेडकर की उदारतापूर्वक मदद करता रहा था, अचानक इतना अनुदार हो जाएगा कि वह उन्हें केवल इतना पैसा देगा, जिससे कि वे सूअरों और बत्तखों के बगल में बैठ कर यात्रा कर सकें। इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि उन्होंने लंदन में खरीदी गई अपनी सारी किताबें अपने मित्र ‘ऍफ़’ के पास छोड़ दी थीं।
  • इन नए प्रमाणों के प्रकाश में मुझे ऐसा लगता है कि खैरमोड़े ने आंबेडकर की उनकी जीवनी में आंबेडकर से जुड़ी जिन छोटी-छोटी घटनाओं का विवरण दर्ज किया है, उनकी सत्यता भी संदेह से परे नहीं है। इनमें शामिल है यह दावा कि डॉ. आंबेडकर ने अपनी एक विदेश यात्रा से लौटने के बाद जब अपने घर का दरवाज़ा खटखटाया तो कोई हलचल नहीं हुई। फिर अचानक घर से सभी लोगों ने एक साथ बाहर आकर उन्हें चकित कर दिया। इन घटनाओं को जीवनी में शामिल करना, उसे प्रमाणिकता देने का प्रयास हो सकता है, मगर इनका कोई आधार नहीं है।
  • डॉ. एस.पी.वी.ए. साईंराम से मेरी चर्चा के दौरान मैंने एक और विसंगति पकड़ी, जिस पर शायद अब तक किसी का ध्यान नहीं गया था। [खैरमोड़े द्वारा लिखित] जीवनी में कहा कहा गया है कि “दिनांक 15-5-24 को ‘ऍफ़’ ने ‘डार्लिंग भीम’ को संबोधित पत्र में लिखा, “…मैं सोमवार और मंगलवार, 10 और 11 तारीख को तुम्हारे बारे में सोचती रही…”। दो या तीन बार इस पत्र को पढ़ने के बाद, मैंने कुछ पड़ताल की और मुझे पता चला कि 1924 की मई, या अप्रैल में भी (अगर कोई यह तर्क दे कि यह पत्र कुछ दिन पहले लिखा गया था), 10 और 11 तारीख को सोमवार या मंगलवार नहीं था। मई में 10 और 11 तारीख को शनिवार और रविवार था और अप्रैल में गुरुवार और शुक्रवार। जाहिर है कि इन पत्रों, जिन्हें प्रमाणिक माना जाता है, की अध्येताओं ने तनिक भी जांच नहीं की।

एस.एस. ऑस्टरले, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसमें सूअर और बत्तख आंबेडकर के सहयात्री थे, का आलीशान ड्राइंग रूम

5) लंदन गोलमेज सम्मेलन 1931-32 के बाद अमरीका की यात्रा

लंदन में दूसरे गोलमेज सम्मेलन समाप्त होने के एक हफ्ते बाद डॉ. आंबेडकर की अमरीका की यात्रा का रिकार्ड उपलब्ध है। ‘द न्यूयार्क टाइम्स’ के तत्समय के अंक के अनुसार, इस यात्रा का उद्देश्य “…वाशिंगटन और फ़िलाडेल्फ़िया की यात्रा कर … उनकी प्राथमिक मिशन को पूरा करने के लिए भारतीय विचार पद्धति में दिलचस्पी रखने वाले प्रमुख अमरीकियों से मिलना, … व्हाईट हाउस में राष्ट्रपति हूवर से मुलाकात करना व विभिन्न समाजसेवियों को अछूतों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति से अवगत कराना, (आंबेडकर के अनुसार) जिसका वर्णन मिस कैथरीन मेयो ने अपनी पुस्तक ‘मदर इंडिया’ में किया है।”

आंबेडकर साउथैम्प्टन बंदरगाह, जो लंदन से करीब 120 किलोमीटर दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित है, से 5 दिसंबर, 1931 को रवाना हुए और एक हफ्ते बाद 11 दिसंबर, 1931 को न्यूयार्क पहुंचे। 3 जनवरी, 1932 को वे वापस साउथैम्प्टन पहुंच गए। 

इन यात्राओं के रिकार्ड से हासिल की गईं कुछ जानकारियां इस प्रकार हैं–

  • पहला रिकार्ड डॉ. बी.आर. आंबेडकर द्वारा 5 दिसंबर, 1931 को नोर्थडोइश लॉयड ब्रेमेन लाईन द्वारा संचालित प्रसिद्ध जहाज एस.एस. यूरोपा से रवानगी का है। उन्होंने टूरिस्ट क्लास का टिकट लिया था। यह शानदार जहाज अपने समय के सबसे तेज गति से चलने वाले जहाजों में से एक था। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद इसकी मरम्मत और नवीनीकरण कर उसे एक नया नाम एस.एस. लिबर्टे दिया गया। हॉलीवुड की कई फिल्मों की शूटिंग इस जहाज पर हुई। सन् 1973 में बनी संगीत प्रधान फिल्म ‘द फ्रेंच लाईन’ की पूरी शूटिंग इसी जहाज पर हुई थी। मैंने यह फिल्म नहीं देखी है, परंतु अब आप इसके बारे में जान गए हैं। यूट्यूब पर कई ऐसे वीडियो उपलब्ध हैं, जिनमें विशेषज्ञ आपको बताते हैं कि यह जहाज इतना मजबूत क्यों था। 
  • यात्रियों की सूची में डॉ. आंबेडकर के नाम के बाद बैरिस्टर एट लॉ लिखा हुआ है। उन्होंने अपना जो पता दिया है, वह मुझे उनके पूर्व के किसी लेखन या भाषण या अभिलेखागार में नज़र नहीं आया। यह पता है– 3, बर्नाड स्ट्रीट, वेस्ट सेंट्रल 1। चूंकि साउथैम्प्टन से डॉ. आंबेडकर की रवानगी की तारीख दूसरे गोलमेज सम्मेलन के समापन (1 दिसंबर, 1931) के मात्र चार दिन बाद हुई थी, इसलिए मैं यह मानकर चल रहा हूं कि यह लंदन का वह पता रहा होगा, जहां वे अमरीका रवाना होने के ठीक पहले रह रहे होंगे। डॉ. साईंराम ने मुझे उन विभिन्न पतों की जानकारी दी है, जो उस दौरान आंबेडकर द्वारा भेजे गए पत्रों में दिए गए हैं। यह हो सकता है कि गोलमेज सम्मेलन की पूरी अवधि के दौरान रहने के लिए उन्हें किसी एक होटल में जगह न मिली हो और इसलिए उनका रहने का स्थान बदलता रहा हो। 
  • जहाज के मेनिफेस्ट (यात्रियों की सूची) से कई दिलचस्प जानकारियां मिलती हैं। एक महत्वपूर्ण यात्री, जो फर्स्ट क्लास केबिन में यात्रा कर रहे थे, यूके के तत्कालीन सासंद (एपिंग) थे। एक अन्य महत्वपूर्ण यात्री थे प्रिवी काउंसिल (जिसे मेनिफेस्ट में ‘पीसी’ कहा गया है) के सदस्य मिस्टर विंस्टन चर्चिल और उनका परिवार। चर्चिल द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इंग्लैंड के प्रधानमंत्री बने। मैंने चर्चिल के नाम के नीचे लिखे गए उनके परिवार के सदस्यों के नामों, उनकी पदवियों और उनकी आयु की कई बार जांच की है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि ‘मिस्टर चर्चिल’, विंस्टन चर्चिल ही थे। सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी के अनुसार चर्चिल एवं डॉ. आंबेडकर के बीच 1940 के दशक के मध्य में कई मौकों पर आत्मीय बातचीत हुई। डॉ. साईंराम ने मुझे डॉ. आंबेडकर का चर्चिल को संबोधित हस्तलिखित पत्र दिखाया है, जिसमें उन्होंने दमित वर्गों की स्थिति का वर्णन करने के साथ-साथ चर्चिल को कैंट में स्थित अपने मकान में उन्हें मेहमान बनाने के लिए धन्यवाद भी दिया है। ऐसा लगता है कि उस समय चर्चिल विभिन्न विश्वविद्यालयों और कालेजों में व्याख्यान देने अमरीका जा रहे थे। वे श्री गांधी द्वारा खड़ी की जा रही मुसीबतों से वाकिफ थे और गांधी को “फकीर के वेश में देशद्रोही वकील” बताते थे। तब तक शायद यूक्रेनी कलाकार जैकब क्रेमर के गांधी के स्कैच प्रकाशित हो चुके थे। 1930 के दशक में चर्चिल राजनीति के बियाबान में भटक रहे थे। विभिन्न मसलों पर उनके विवादास्पद विचारों (जिसमें हिटलर का विरोध शामिल था) के कारण वे राजनीति में अलग-थलग पड़ गए थे। आंबेडकर और चर्चिल एक ही जहाज में थे, जिसे लंदन से अमरीका पहुंचने में एक हफ्ते का समय लगा। मैनिफेस्ट में दोनों के नामों के बीच चंद पंक्तियों का ही अंतर था। मैं सोचता हूं कि इस यात्रा के दौरान दोनों ने किन-किन मसलों पर चर्चा की होगी, क्योंकि जहाज में बौद्धिक व्यक्ति दो ही काम कर सकते थे – किताबें पढ़ना या दूसरे लोगों से बातचीत करना। इस यात्रा के दो वर्ष बाद आंबेडकर ने भारतीय संवैधानिक सुधारों पर संयुक्त समिति की ओर से चर्चिल से बातचीत की थी, जिसका विवरण ‘डॉ. आंबेडकर: राईटिंग्स एंड स्पीचेस’ (खंड 2, पृष्ठ 748) में दिया गया है।
  • फर्स्ट क्लास केबिन के यात्रियों में एक और नाम है, जिसे ‘व्यापारी’ बताया गया है। वे थे 37 साल के घनश्यामदास बिरला (जिन्हें जी.डी. बिरला ने नाम से बेहतर जाना जाता है)। वे बनिया जाति के थे और गांधी के प्रशंसक थे। सन् 1932 में उन्होंने हरिजन सेवक संघ नामक गांधी की संस्था का नेतृत्व संभाला। घनश्यामदास बिरला ने बिरला ‘साम्राज्य’ की नींव रखी। उन्होंने अपने व्यवसाय की शुरुआत जूट (व जूट के बोरे) से की और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जूट की मांग में जबरदस्त वृद्धि से उन्हें बहुत मुनाफा हुआ। कुछ अनुमानों के अनुसार इस अवधि में उनकी शुद्ध संपत्ति 20 लाख से बढ़कर 80 लाख रुपए हो गई (हर्डेक एंड पीरामल, इंडियन इंडस्ट्रियालिस्ट्स 1985) अपने मुनाफे को उन्होंने अन्य व्यापारों में लगाया, जिनमें शामिल थे– मीडिया (हिन्दुस्तान टाइम्स), आटोमोबाइल (हिन्दुस्तान मोटर्स) व टेक्सटाइल (ग्रासिम)। डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘एसेज़ ऑन अनटचेबिल्स एंड अनटचेबिल्टी’ के छठवें अध्याय, जिसका शीर्षक ‘गांधी एंड हिज फास्ट’ है, में हरिजन सेवक संघ की बनिया राजनीति पर विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने लिखा है कि उन्हें भी संघ की सदस्यता लेने के लिए निमंत्रित किया गया था परंतु उन्होंने जो भी प्रस्ताव रखे, उन्हें नजरअंदाज कर दिया गया। गांधी का तो यह भी सोच था कि अछूतों के उन्नयन के लिए गठित इस संगठन में अछूतों को शामिल करना अनैतिक होगा! 
  • खैर, मेनिफेस्ट में शामिल एक अन्य व्यक्ति, खेतान तारा प्रसाद कौन थे, यह मुझे पहले समझ में नहीं आया। उन्हें ‘सचिव’ बताया गया था और उनकी आयु 23 साल दर्ज है। वे टूरिस्ट क्लास केबिन में यात्रा कर रहे थे। वे देबी प्रसाद खेतान नहीं हो सकते थे, जो भारत के संविधान की मसविदा समिति के सदस्य थे और जिनकी संविधान के निर्माण के बाद जल्दी ही मृत्यु हो गई थी। फिर पूर्णिमा गायकवाड़ ने मेरा ध्यान “बिज़नेस स्टैण्डर्ड” में प्रकाशित एक लेख की ओर आकर्षित किया, जिसमें बताया गया था कि देबी प्रसाद खेतान का जन्म 1888 में हुआ था, जिसका अर्थ है कि 1931 में वे 43 साल के रहे होंगे। मगर हमारे रहस्यमय यात्री तारा प्रसाद खेतान की आयु तो 23 साल थी। मेनिफेस्ट के दूसरे पन्ने (जो आप नीचे देख सकते हैं) से पता चलता था है कि यह यात्री (7वीं पंक्ति), जी.डी. बिरला के साथ था और उन्होंने ही उसका टिकट खरीदा था। हमें यह भी पता है कि खेतान परिवार ने लॉ फर्मों के अपने साम्राज्य की नींव 1911 में देबी प्रसाद खेतान के नेतृत्व में खेतान एंड कंपनी की स्थापना के साथ रखी थी। यह फर्म शुरुआत में बिरला समूह का न्यायालयों और वकालत संबंधी काम देखती थी। देबी प्रसाद खेतान के एक भाई थे, जिनका नाम था काली प्रसाद खेतान। तारा प्रसाद ने मेनिफेस्ट में अपने पिता का नाम के.पी. खेतान दर्ज करवाया था। क्या वे काली प्रसाद खेतान थे? अगर आप तारा प्रसाद खेतान के बारे में और ज्यादा जानते हैं तो कृपया मुझसे संपर्क करें।

अब हम जहाज़ की रवानगी के समय तैयार किए गए मेनिफेस्ट को छोड़कर, उसके न्यूयार्क बंदरगाह पहुंचने पर वहां तैयार किए गए मेनिफेस्ट को देखते हैं और यह पता लगाते हैं कि क्या हमें इससे और अधिक जानकारी मिल सकती है।

  • आगमन मेनिफेस्ट में आंबेडकर का यात्री नंबर एनआई 2829 दिया गया है और यह भी कहा गया है कि यह नंबर 12 फरवरी, 1931 को लंदन में जारी किया गया था। अन्य यात्रियों के नंबर भी इसी संख्या के आसपास हैं। मुझे नहीं लगता कि यह आंबेडकर के पासपोर्ट का नंबर रहा होगा, क्योंकि उस समय पासपोर्ट के नंबर पांच या छह अंकों के हुआ करते थे (उदाहरण के लिए जिन्ना का पासपोर्ट व ब्रिटिश इंडिया सरकार द्वारा जारी अन्य पुराने पासपोर्ट)। डॉ. आंबेडकर के पासपोर्ट का अपुष्ट छायाचित्र, जो सोशल मीडिया पर उपलब्ध है, में भी उसका नंबर 5-6 अंकों का है, मगर उसमें पासपोर्ट जारी करने की तिथि दर्ज नहीं है।
  • आगंतुकों के मेनिफेस्ट का दूसरा पृष्ठ, अमरीका पहुंचे विदेशियों के बारे में है। इससे हमें आंबेडकर की यात्रा के उद्देश्य के बारे में और संकेत मिल सकते हैं। अमरीका में रुकने की अवधि दो महीने (‘टू एम’) बताई गई है। लंदन में अपने सबसे नजदीकी रिश्तेदार के रूप में आंबेडकर ने ब्रिटेन के विदेश मंत्री सर सेम्युल होर का नाम दर्ज करवाया है। आंबेडकर ने दूसरे गोलमेज़ सम्मलेन के दौरान उनसे काफी बातचीत की होगी। अमरीका में वे किस रिश्तेदार या मित्र से मिलेंगे, इस कॉलम में आंबेडकर ने लिखा है– प्रोफेसर जे.टी. शॉटवेल, कार्नेगी एंडोमेंट, न्यूयार्क। यह वही प्रोफेसर हैं, जिन्हें आंबेडकर ने एक समय अपने सबसे अच्छे दोस्तों में से एक बताया था। डॉ. स्कॉट स्ट्राउड मानते है कि इस यात्रा में डॉ. आंबेडकर ने अधिकांश समय कोलंबिया विश्वविद्यालय और उसके आसपास बिताया
  • इस यात्रा के दो महीने बाद गांधी ने सर सेम्युल होर (संदर्भ : आंबेडकर की पुस्तक ‘एसेज़ ऑन अनटचेबिल्स एंड अनटचेबिल्टी’ का छठा अध्याय ‘गांधी एंड हिज फास्ट’) और प्रधानमंत्री रैमसे मैकडोनाल्ड को पत्र लिखकर कहा कि वे यह सुनिश्चित करें कि दमित वर्गों को पृथक मताधिकार न मिले, जिसकी मांग आंबेडकर ने की थी। मगर आंबेडकर की मांग स्वीकार कर ली गई। गांधी ने यरवदा जेल में दूध और फल का भोजन करते हुए आमरण अनशन किया (द टाइम्स ऑफ इंडिया, 19 सितंबर, 1932) और आंबेडकर को ब्लैकमेल कर उन्हें उनकी मांग वापस लेने पर मजबूर कर दिया।

जैसा कि मैंने अपने पिछले शोधप्रबंध में भी लिखा था, मैंने एस.एस. यूरोपा से डॉ. आंबेडकर के आगमन के बारे में कुछ और विवरण इकट्ठा किया है–

अब हम डाॅ. आंबेडकर की वापसी यात्रा की बात करें। वे नोर्थडोइश लॉयड ब्रेमेन लाईन द्वारा संचालित जहाज़ एस.एस. ब्रेमेन से न्यूयार्क से रवाना हुए और 3 जनवरी, 1932 को यूके के साउथैम्प्टन बंदरगाह पहुंचे। 

हम यह मान सकते हैं कि एस.एस. ब्रेमेन जलपोत उसी मार्ग से न्यूयार्क से इंग्लैंड लौटा होगा, जिस रास्ते से एस.एस. यूरोपा न्यूयॉर्क गया था। उस दौर में भाप से चलने वाले जहाज़ अटलांटिक महासागर को पार करने में करीब एक हफ्ते का समय लेते थे। इसका मतलब यह है कि डॉ. आंबेडकर क्रिसमस के आसपास न्यूयार्क से रवाना हुए होंगे और इस प्रकार उनकी अमरीका यात्रा करीब तीन हफ्ते की रही होगी। इन तीनों रिकॉर्डों के बारे में अंतिम बात यह कि इनमें दो में उनकी आयु ठीक लिखी है– 38 वर्ष। मगर एस.एस. यूरोपा के पैसेंजर मेनिफेस्ट में उन्हें 39 साल का बताया गया है। यह कदाचित लिपिकीय त्रुटि ही रही होगी।

6) पश्चिम की अंतिम यात्रा

आंबेडकर ने जब पश्चिम की अंतिम यात्रा की तब वे 60 साल के थे और काफी बीमार थे। पश्चिम ने उन्हें एक अलग व्यक्ति के रूप में गढ़ा था। उनके समुदाय के अन्य सदस्यों को यह मौका नहीं मिल सका, क्योंकि उनका पूरा जीवन हिंदुओं की गुलामी करते हुए बीता। इस ऐतिहासिक यात्रा के बारे में जानकारी मैंने न्यूयार्क टाइम्स के तत्समय के अंकों से एकत्रित की है। इस यात्रा का संयोग तब बना जब कोलंबिया विश्वविद्यालय के वाइस-प्रेसिडेंट ने डॉ. आंबेडकर को ‘डॉक्टर ऑफ़ लॉ’ (एलएलडी) की मानद उपाधि से विभूषित करने के लिए चुना। यह पूरा घटनाक्रम काफी दिलचस्प था, जिसका विवरण डॉ. साईंराम ने सार्वजनिक रूप से उपलब्ध पत्रों के आधार पर किया है। मैं इस विवरण को आपसे साझा करना चाहता हूं।

सन 1950 में कोलंबिया विश्वविद्यालय के ट्रस्टियों डॉ. ग्रेग एम. सिंक्लैर, प्रो. कार्नन, एवं ए.एच. सल्सबर्गर ने आम राय से यह तय किया कि डॉ. आंबेडकर को एलएलडी की मानद उपाधि से विभूषित किया जाए।

इस निर्णय के पीछे के मुख्य कारणों में से एक यह था कि विश्वविद्यालय का एक अव्वल विद्यार्थी नव भारत के संविधान का निर्माता था। ट्रस्टियों ने “रीडर्स डाइजेस्ट” के मार्च 1950 के अंक में प्रकाशित डॉ. आंबेडकर पर लेख भी पढ़ा था, जिसमें उनकी दिलचस्प जीवन यात्रा का विवरण था। तदानुसार, डॉ. आंबेडकर, जो उस समय भारत के कानून मंत्री थे, को कोलंबिया विश्वविद्यालय आकर यह उपाधि ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया गया। लेकिन आंबेडकर को विनम्रतापूर्वक यह अनुरोध करना पड़ा कि अलंकरण समारोह के तारीख को बढ़ाया जाए क्योंकि वे भारत के संविधान के निर्माण और हिंदू कोड बिल को संसद में प्रस्तुत करने से संबंधित कार्यों में व्यस्त हैं।

तत्पश्चात, 30 जनवरी, 1952 को कोलंबिया विश्वविद्यालय के ट्रस्टियों ने एक बार फिर डॉ. आंबेडकर को सम्मानित करने का अपना प्रस्ताव दोहराया। इस बार, विश्वविद्यालय के वाइस-प्रेसिडेंट डॉ. ग्रेसन कर्क ने बाबासाहेब से संपर्क किया और उनसे अनुरोध किया कि वे विश्वविद्यालय की स्थापना की 198वीं जयंती के अवसर पर आयोजित समारोह में यह सम्मान स्वीकार करें। आंबेडकर ने कर्क को 24 फरवरी को लिखे अपने पत्र में कार्यक्रम में भाग लेने की स्वीकृति दी और साथ ही यह भी कहा कि वे इसे बहुत बड़ा सम्मान मानते हैं। इसी पत्र में उन्होंने यह भी लिखा न्यूयार्क आने-जाने और वहां रुकने पर उन्हें करीब 15,000 रुपए खर्च करने होंगे और वे इस धन की व्यवस्था अमरीका में भारतीय संविधान, बौद्ध धर्म, भारत में जाति प्रथा आदि जैसे अमरीकी श्रोताओं की दिलचस्पी के विषयों पर व्याख्यान दे कर कर सकते हैं। एक महीने बाद उन्हें डॉ. कर्क का उत्तर प्राप्त हुआ, जिसमें कहा गया था कि अमरीका में आंबेडकर के व्याख्यानों की शृंखला आयोजित करना संभव नहीं होगा, क्योंकि जून (जिस माह विश्वविद्यालय का स्थापना समारोह मनाया जाना था) में वहां के उच्च शैक्षणिक संस्थान में छुट्टियां होंगी। डॉ. कर्क ने खर्च की व्यवस्था करने के कुछ और तरीके सुझाये, मगर अंततः वे व्यावहारिक सिद्ध नहीं हुए।

मगर डॉ. कर्क आंबेडकर को न्यूयार्क बुलाने पर आमादा थे और करीब एक माह बाद उन्होंने आंबेडकर को तार भेजकर उन्हें यह सूचना दी कि उनके कुछ मित्रों की मदद से वे आंबेडकर का यात्रा व्यय जुटा लेंगे। बाबासाहेब ने कर्क को धन्यवाद देते हुए लिखा की वे स्थापना समारोह में भाग लेंगे।

इस अवधि में डॉ. आंबेडकर द्वारा लिखे गए पत्रों के अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि वे न्यूयार्क की यात्रा करने के लिए बहुत इच्छुक नहीं थे। उनकी अनिच्छा का कारण शायद उनकी गिरती हुई सेहत रही होगी।

मई 1, 1952 को भाऊराव गायकवाड़ को एक पत्र में आंबेडकर ने लिखा, “मैं माफ़ी चाहता हूं, मगर मेरा अमरीका जाना लगभग तय है। मुझे यह बहुत अच्छा नहीं लग रहा है। बंबई से लौटने के बाद से मेरी सेहत में बहुत गिरावट आई है।” डॉ. सविता आंबेडकर, जो हर यात्रा में डॉ. आंबेडकर के साथ जाती थीं, धन की कमी के कारण उनके साथ अमरीका नहीं जा सकती थीं। ऐसा दुष्प्रचार किया जाता है कि आंबेडकर एक रईस बुर्जुआ थे, जिनके पास ढ़ेर सारी संपत्ति थी। उर्पयुक्त विवरण पढ़ने के बाद डॉ. आंबेडकर से नफरत करने वाले ये लोग अपना मुंह कहां छिपाएंगे?

जब बाबासाहेब ने प्रेस को बताया कि वे मानद उपाधि ग्रहण करने न्यूयार्क जाने वाले हैं, तो बहुत कम अखबारों ने यह खबर छापी। इस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कमलाकांत चित्रे को लिखा, “मेरी न्यूयार्क यात्रा की घोषणा कल कर दी गई थी। दिल्ली में केवल ‘द स्टेट्समैन’ ने यह खबर छापी है। अन्य अखबारों ने इसे नजरअंदाज कर दिया है। ‘दी टाइम्स ऑफ इंडिया’ ने भी इसे नहीं छापा है। आप सही कह रहे थे कि अखबार खामोश रहने की साजिश रच सकते हैं। मगर इस मामले में हम कुछ नहीं कर सकते।”

बहरहाल, यात्रा के लिए खर्च जुटाने की मुश्किलों और उनकी गिरती सेहत के बावजूद डॉ. आंबेडकर इस उम्मीद से कुछ हद तक प्रसन्न थे कि वहां वे अपने प्रिय मार्गदर्शक और गुरु प्रोफेसर जॉन डेवी से मिल सकेंगे (बाबा साहेब डेवी से कितने प्रभावित थे यह सर्वज्ञात है। हाल में प्रोफेसर स्कॅाट स्ट्राउड ने इस बारे में एक पुस्तक भी लिखी है)।

मगर दुर्भाग्यवश डॉ. आंबेडकर अपनी यात्रा के दौरान जब रोम में थे, तब प्रोफेसर डेवी की मृत्यु हो गई। न्यूयार्क पहुंचने के बाद उन्होंने सविता आंबेडकर को एक जज्बाती पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा, “वे (डेवी) एक अद्भुत व्यक्ति थे। मैं अपने बौद्धिक जीवन के लिए उनका ऋणी हूं।” अगर बाबासाहेब ने 1950 में ही न्यूयार्क में सम्मान ग्रहण करने का आमंत्रण स्वीकार कर लिया होता तो उनकी मुलाकात अपने गुरु से हो जाती। आधुनिक दुनिया के इन दो महान व्यक्तित्वों की मुलाकात से इतिहास महरूम रह गया। नियति कितनी क्रूर होती है!

पानी के जहाज से हफ्तों लंबी यात्रा करने से डॉ. आंबेडकर की पहले से ही बुरी सेहत पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता था, इसलिए उन्होंने हवाई मार्ग से अमरीका जाने का निर्णय लिया। 1940 के दशक में निर्मित बंबई का हवाई अड्डा, तब तक पूरी तरह चालू हो चुका था। मैं डॉ. आंबेडकर की उड़ान का मेनिफेस्ट ढूंढ निकालने में सफल रहा हूं। वे 1 जून, 1952 को ट्रांस वर्ल्ड एयरलाइंस (जो 1930 के दशक में दुनिया की एक बड़ी विमान कंपनी थी और जिसे बाद में अमेरिकन एयरलाइंस ने खरीद लिया था) की उड़ान संख्या 907/01 से बंबई से रवाना हुए। यह फ्लाइट जेनेवा और पेरिस में रूकते हुए आईडलवाइल्ड (जिसे अब जेएफके इंटरनेशनल एयरपोर्ट कहा जाता है और जो न्यूयार्क का एक प्रमुख हवाई अड्डा है) पहुंचती थी। मैं डॉ. साईंराम का आभारी हूं, जिन्होंने मेरा ध्यान स्कॅाट स्ट्राउड की इस टिप्पणी की ओर आकृष्ट किया है कि यह उड़ान ‘बंपी’ (झटकों भरी) थी। (“द एवोल्यूशन ऑफ प्रेगमेटिज्म”, स्कॉट स्ट्राउड, भूमिका) उनके अनुसार ऐसा लगता है कि हवाई जहाज खराब मौसम में फंस गया और दो घंटे हवा में चक्कर लगाने के बाद उसे अपने प्रस्थान के हवाई अड्डे पर वापस जाना पड़ा। स्ट्राउड के अनुसार वह हवाई अड्डा, जहां हवाई जहाज वापस पहुंचा, बहरीन में था। लेकिन फ्लाइट मेनिफेस्ट के अनुसार बंबई से रवाना होने के बाद फ्लाइट को पहले इराक के बसरा में उतरना था और फिर दक्षिण की ओर उड़कर सऊदी अरब के देहरान में। इसके पश्चात उत्तर-पश्चिम दिशा में उड़ते हुए उसे काहिरा (मिस्त्र) में रूककर फिर उत्तर में रोम (इटली) में दो जून 1952 को उतरना था। इसके बाद विमान उत्तर दिशा में उड़ते हुए जेनेवा (स्विटजरलैंड) पहुंचता। वहां से उत्तर दिशा में उड़ान भरकर पेरिस (फ्रांस) में उतरता। इसके बाद मेनिफेस्ट में घसीटा लिखाई में लिखा है कि वह और सुदूर उत्तर में शेनान (मेरी समझ में आयरलैंड में) पहुंचा, जहां उसे उतरना नहीं था, मगर उतरना पड़ा। और अंतत: वह 3 जून 1952 को 6.38 बजे सुबह न्यूयार्क में उतरा जबकि उसे 2 जून, 1952 को ही वहां पहुंच जाना चाहिए था।

दुखद यह कि, हवाई उड़ानों के मेनिफेस्ट में यात्रियों का उतना विस्तृत विवरण नहीं होता है, जितना कि जलपोतों के मेनिफेस्ट में हुआ करता था। अमरीका की यात्रा के लिए विमान पर सवार होते हुए आंबेडकर का एकमात्र चित्र नीचे प्रकाशित है।

(मेरे सह-लेखकों के अनुसार विभिन्न मेनिफेस्ट व इमिग्रेशन व जनगणना के अभिलेखों के आधार पर डॉ. आंबेडकर की यात्राओं का दस्तावेजीकरण करने का यह पहला प्रयास है। मुझे प्रसन्नता है कि मैं उनके सहयोग से यह अध्ययन पूरा कर सका। मैं न तो लेखक हूं और ना ही शोधार्थी। परंतु मुझे लगता है कि मैं डॉ. आंबेडकर की यात्राओं का उतना प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत सका हूं, जितना मैं कर सकता था। मैंने जो अभिलेख यहां प्रस्तुत किए हैं, वे प्रामाणिक हैं और उन सुनी-सुनाई बातों पर आधारित नहीं हैं, जिन्हें हम किताबों में पढ़ते हैं – ऐसी बातें, जिनका कोई आधारस्रोत या संदर्भ नहीं होता। जैसा कि सी.बी. खैरमोड़े के लेखन में देखा जा सकता है। डॉ. साईंराम का कहना है कि डॉ. आंबेडकर की ऐसी प्रभावी और प्रमाणिक जीवनी अब भी लिखी जानी बाकी है, जो केवल ठोस और सत्यापन-योग्य तथ्यों – न कि सुनी-सुनाई बातों – पर आधारित हो। मैं उनसे पूरी तरह सहमत हूं। मुझे उम्मीद है कि हमारा यह छोटा मगर अनूठा अध्ययन भविष्य में लिखी जाने वाली उस गुणवत्तापूर्ण व अनुसंधान-आधारित जीवनी – जब भी कोई उसे लिखने की हिम्मत दिखाएगा – में सहायक होगा। तब तक, मुझे उम्मीद है की डॉ. आंबेडकर की महान जीवन यात्रा के एक छोटे से हिस्से से संबंधित रिकॉर्ड को जानकर आप प्रसन्न होंगे और इन नई खोजों को संजो कर रखेंगे।)

(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

निखिल बागडे

निखिल बागडे डॉ. बाबा साहब आंबेडकर तकनीकी विश्वविद्यालय, लोनेरे (महाराष्ट्र) से आईटी स्नातक हैं। भारत व बेल्जियम की आईटी कंपनियों में काम कर चुके निखिल वर्तमान में म्यूनिक (जर्मनी) में लीड डेवऑप्स इंजीनियर के रूप में कार्यरत हैं।

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