h n

नगरों के अंदर कैद एक महानगर : कलकत्ता (अब कोलकाता)

आपको आश्चर्य होगा, इस फुरसतहीन नगर में रुककर जुलूस देखने वाले लोग किस कोने से आए! यहां सब कुछ होने का विद्रोह है– ‘चोलबे ना!’ और कहीं कुछ न हो पाने का विद्रोह है– ‘आमार दाबी मानते हबे!’। पढ़ें, सन् 1969 में ‘नई कहानियां’ में प्रकाशित सुधा अरोड़ा का यह रिपोर्ताज

हां, यह ‘मिनि-कुतुब’ इस महानगर के ठीक बीचों-बीच है – ऑक्टरलोनी मॉन्यूमेंट! (जिसे अब शहीद मीनार कहा जाता है) ऊपरी मंजिल पर आप चढ़ जाइए। हो सकता है, एक औसत व्यक्ति की तरह किसी बहुत ऊंची जगह पर चढ़कर कूद जाने के एडवेंचर की तबीयत हो … या इस ऊंचाई पर आप स्थितप्रज्ञ हो जाएं, एक तटस्थता महसूस हो और महानगर को आप हथेली पर रखकर देखने लगें – एक सिरे से आकाश रेखा पर ऊंची-ऊंची इमारतें! विक्टोरिया के गुंबद की परी से लेकर हावड़ा के विशाल पुल तक! बीच में स्काईस्क्रैपर्स, हुगली से झांकते स्टीमर के ऊपरी हिस्से, नीचे फैला हुआ मैदान, फुटपाथों पर चींटियों की तरह रेंगते हुए आदमियों की तैरती भीड़, ट्रैम की पटरियों का फैला जाल, गाड़ियों की लंबी-लंबी कतारें, जितनी दूर तक आंखें जाएं – एक से एक सटे हुए मकान हर ओर!

कलकत्ता कहने से एकाएक जो तस्वीर जेहन में उभर आती है, वह यही है! यह जगह तब महानगर नहीं थी, जब, लगभग तीन सौ साल पहले, ईस्ट इंडिया कंपनी के मुलाजिम जॉब चार्नाक ने सोलह हजार रुपयों में राय-चौधरियों से खरीदे गए इस गांव की नींव रखी थी। अधिकांश भाग जंगल था– उजाड़ और सुनसान! तब यह मानना होगा कि यह बेइंतहां बढ़ती हुई भीड़, ये दर्शनीय स्थान, मीलों तक फैली आबाद इमारतें …. ये सब मिलकर किसी जगह को महानगर बनाती हैं! लेकिन जेन स्टुथर ने कहा है न, “इमारतों और पुलों से कोई शहर नहीं बनता। बनता है किसी और चीज से …” वह ‘और चीज’ देखी नहीं जा सकती, महसूस की जा सकती है। निश्चित ही इस बाहरी रूपरेखा से वह ‘और चीज’ परे है, लेकिन इसी के कारण जन्मी है।

“महानगर मां की गोद की तरह है– उन लोगों के लिए जो खूब भटक चुके हैं, डगमगाते कदमों के नीचे जिन्हें जमीन खिसकती हुई महसूस होती है।” ओ. हेनरी के इस कथन को काट दीजिए और वह ‘और चीज’ सामने होगी।

जरूरत मजबूत जमीन की नहीं, मजबूत पैरों की है। … इस महानगर को देखने की तटस्थता अगर आपमें नहीं आती है तो यह महानगर ही आपको हथेली में रख लेगा। लगेगा, ये इमारतें समुद्र की तरह आपको लीलने चली आ रही हैं और इतने बड़े शहर में आप अपने को बहुत अदना, बहुत बौना महसूस करने लगेंगे। संभव है, दस साल बाद भी यह महानगर कहीं से बेहद अपरिचित लगे, उतना ही जितना हावड़ा स्टेशन से, सूटकेस थामे, बाहर आते ही चारों ओर का परेशान और व्यस्त और अपने में डूबा हुआ शहर दीखने लगता है। संभव यह भी है कि तीसरे ही दिन आप इस महानगर में जज्ब हो लें।

… लेकिन अगर आप अकेले हैं तो डगमगाते पैरों के नीचे आपको जमीन ही नहीं मिलेगी।

वे डगमगाते पांव उंगलियों पर गिने व्यक्तियों से आबाद किसी गांव की कच्ची मिट्टी में भी मज़बूत जमीन पा सकते हैं, मगर करोड़ों चेहरों से आबाद यह महानगर डगमगाते पांवों को निस्संदेह और अकेला कर देगा। आप यह मानकर चलें कि शहर की अपनी कोई इयत्ता नहीं, वह शहर किसी एक व्यक्ति या कुछ अपने और आत्मीय व्यक्तियों के कारण शहर होता है तो कोई भी महानगर अपनी ताकत, समेट लेगा लेकिन शहर को शहर की तरह लें तो पहले पांव मजबूत कीजिए, नहीं हो तो यह को-लि-का-ता…

कलकत्ता में एक प्रदर्शन की तस्वीर (साभार : स्क्रॉल डॉट इन)

कलकत्ता शहर को अगर हम एक वृत्त की तरह लें तो पाएंगे कि इस वृत्त के अंदर इसके चुंबकीय आकर्षण से निश्चित दूरी और निश्चित परिधि पर बहते हुए छोटे-छोटे और भी कई वृत्त हैं– एक-दूसरे से जुड़े हुए भी और पूर्णतः असम्पृक्त भी, लेकिन अपने में बसे हुए, अपने में सिमटे हुए।

ऑक्टरलोनी मॉन्यूमेंट के इर्द-गिर्द फैली सबसे रंगीन, आधुनिक और फैशन-परस्त जगहों के चारों सुदूर कोनों पर बस्तीनुमा शहर जैसे डिठौने की तरह बसे हैं। एक ओर जादवपुर-बिहाला है, दूसरी ओर बेलगछिया और शामबाजार भी। चारों कोनों में से एक छोर यह भी है– उल्टाडांगा। उल्टाडांगा– एक ओर कटती हुई लकड़ियों का ढेर, कटे हुए पेड़ों के जत्थे, दूसरी ओर दोतख्ता पुल है, उसके पार एक बस्ती है – जहां बस नहीं जाती।

सुबह का सूरज अपनी रोशनी के साथ ही धुंआ लाता है, वह चिमनियों का काला धुंआ हो या सुलगती अंगीठियों का। आप खिड़की खोलेंगे और पाएंगे कि अंदर धुंआ इस तरह भर रहा है जैसे हिल स्टेशन पर कोहरा कमरे में घुस आता है। जून का महीना हो या दिसंबर का, कलकत्ते की यह एक खास बात है कि यहां की सुबह-शाम इस जिद्दी धुएं से शुरू होती है, जो ऊपर न उठकर मकानों की छतों तक ही तैरता रहता है। इस शहर में सुबह नौ बजे के सायरन के साथ ही एक भगदड़ मचती है।

कलकत्ते के छोरों पर बसे इन मुहल्लों से लोग तैयार होकर निकलते हैं – दफ्तरों तक पहुंचने के लिए। एक हाथ में टिफिन और फाइलें या चमड़े का केस और बगल में छाता दबाए कलकत्ता का एक औसत व्यक्ति जब सर झुकाये, परेशान और सूखा चेहरा लिये निकलता है तो लगता है, जैसे वह काम पर नहीं, जिबह होने के लिए जा रहा है। यही आदमी जब इसी मुद्रा में शाम के समय बस की पहली सीढ़ी पर अंगूठा टिकाने भर जगह में अटका, रॉड थामे घर वापस लौटता है, अपने में सिमटा हुआ और आंखों में ढेरों परेशानियां लिये ….तो लगता है जैसे जिबह होना आज कैन्सल होकर कल के लिए पोस्टपोंड हो गया है।

यहां का हर व्यक्ति अपने में इतना उलझा हुआ और आत्मकेंद्रित होगा कि वह आपसे एक वाक्य कहना-पूछना गवारा नहीं करेगा। आप खुश हैं तो अपने में, उदास हैं तो अपने में …. कोई आपकी ओर नहीं देखेगा और देखेगा भी तो इस तरह जैसे आप पारदर्शी हों और आपसे आगे वह किसी और को देख रहा है – संभवतः अपने आपको!

सुबह-शाम, हर समय सड़कों पर इतनी भीड़ होगी कि लगेगा, शहर में रहता हर आदमी सड़क पर है। इस भीड़ में लड़कियां भी होंगी, मगर दिल्ली की स्मार्ट लड़कियां नहीं। सारे शहर में फैली अधिकांश शरतचंद्रीय नारियों के चेहरे से नाजुकता-भावुकता अनुपस्थित होगी। कामकाजी चेहरों पर व्यस्तता और प्रौढ़ता लिये ये आभास देंगी कि इन्होंने बहुत कुछ झेला है और रुकना उनकी डिक्शनरी में नहीं है। यहां रुकने का अर्थ ही कुछ और है। … सब जैसे अफरा-तफरी में कहीं से आ रहे हैं, कहीं को जा रहे हैं। आपको शायद यह लगे कि सारा शहर मय जमीन-आकाश के चल रहा है, कि इस शहर में फुरसती आदमी कहीं नहीं बसता। इस विराट नगर की धकियाती भीड़ में शायद आप महसूस करें – फुटपाथ पर आपके लिए जगह नहीं है और यह पंक्ति याद आये– “देयर इज ऑलवेज प्लेस एट द टॉप!…”

कलकत्ता के इन छोरों से बसें शुरू होती हैं– उल्टाडांगा से चली नौ नंबर की बस शहर के प्रमुख रास्तों को पार कर, लगभग दस मील का सफर तय कर जादवपुर यूनिवर्सिटी तक पहुंचती है। सेंट्रल एवेन्यु तक पहुंचते-पहुंचते सामान की तरह आदमियों से लदी, एक ओर को झुकी यह बस ‘अब उलटी, तब उलटी’ का एहसास देने लगेगी। आप चाहें तो इस बस के झरोखे से सारा कलकत्ता देख डालिए – यह है आकाश-वाणी भवन, म्यूजियम, मैदान, खूबसूरत सिनेमा हॉल वगैरह-वगैरह। लेकिन यह देखना वैसा ही होगा जैसा इकन्नियल बक्से में आंखें जमाकर बच्चे ‘बाइसकोप’ देखते हैं – दिल्ली का लाल किला देखो! आगरे का ताजमहल देखो!

हर महानगर में एक आकाशवाणी भवन होता है, कुछ दर्शनीय स्थान होते हैं, म्यूजियम, चिड़ियाखाना, बड़े पार्क, आलीशान रेस्तरां, रेड रोड जैसी सुथरी और चौड़ी सड़कें, स्काई-स्क्रैपर्स, ईडेन-गार्डेन जैसे मैदान, खूबसूरत बंगलों का एक क्षेत्र, निम्न वर्ग का व्यस्त और दमघुटाऊ बाजार, गोल्डेन ट्री एरिया यानी सोनागाछी और फ्री स्कूल स्ट्रीट जैसे पॉश मार्केट और टोपियां उछालने, पतंगें लूटने और व्यर्थ की पैंतरेबाजी वाला एक लेखकीय अड्डा कॉफ़ी हाउस होता है।

महानगर की इन औसत जगहों और सामान्य खूबियों से परे हर महानगर की अपनी विचित्रताएं, अपनी संस्कृति होती है, जिनके कारण एक महानगर दूसरे शहरों से अलग होता है। इस महानगर की भी अपनी अलग जमीन है जिसके कारण यह कलकत्ता कलकत्ता है – और लेखकों का अपना रचना-द्वीप। आधुनिक सभ्यता का वाहक यह महानगर आपको ढेरों कहानियां देगा। जीवन की आधुनिक जटिलताएं इस फुरसतहीन नगर में हैं, जहां हर आदमी अपने को पाने की कोशिश में अपने को खो बैठा है।

यह देखना हो तो आप बस के झरोखे से बाहर की जगमग इमारतें ही मत देखिए, अंदर भी झांकिए। पास वाली सीट पर क्या बातें हो रही हैं, जरा सुनिए!

“कल का अखबार मैंने नहीं पढ़ा। बताना भई, क्या हुआ!”

“कल? मैकनामरा विरोधी उग्र हिंसात्मक प्रदर्शन हुआ। दो ट्राम, एक बस और गुमटी में आग लगी। एस्प्लेनेड में अश्रुगैस का प्रयोग हुआ कुल 17 चक्र। ट्राम गुमटी में पटाखे चलाये गये। पत्थर वर्षा, बमवर्षा हुई, लाठी चार्ज हुआ। नक्सलवाड़ी पंथी छात्रों ने नारे लगाये – वियतनाम लाल सलाम, गो बैक मैकनामरा!

बैंक के सत्रह हजार कर्मचारियों की हड़ताल रही। आगजनी की वारदातों…

“रुको यार! हिंदी का अखबार पढ़कर आ रहे हो क्या?”

“नहीं, अंग्रेजी का पढ़ा था स्टेट्समैन! यह सब तो देखा भी।” 

“पर तुम्हें तो अंग्रेजी से हिंदी में इतना अच्छा अनुवाद आता नहीं है।”

बात बदल गई है। दंगों के प्रति यह प्रतिक्रिया कलकत्ते के एक औसत व्यक्ति की है! बड़ा बाजार में बमवर्षा हो या एस्प्लेनेड में सात-आठ ट्रामें जला दी जाएं या लेक का पानी बिरला एकेडमी की सड़कों तक आ जाये – भवानीपुर अपनी रौ में बहता रहेगा। अखबारी या रेडियो सूचना के अतिरिक्त और किसी तरह घर-बैठों को पता नहीं चलेगा और लोग ऐसे तटस्थ और सुरक्षित भाव से इस खबर को सुनेंगे जैसे यह दुर्घटना किसी और शहर में हुई है। पास-बैठे लोग इन घटनाओं को ऐसे सुनेंगे जैसे कह रहे हों, “बस में आग लगी है तो ठीक है भाई – लगी होगी! बस कोई हमारे बाप की है!” बसें और ट्रामें ऐसे जलायी जाती हैं जैसे प्राचीन काल में ऐय्याश बादशाह मनोरंजन के लिए सांप और नेवले की लड़ाई देखकर तालियां बजाते थे। ईंट-पत्थर फेंकने वाले लोग एक ओर सरककर ‘घर फूंक तमाशा देख’ वाले तमाशाई हो जाते हैं और तमाशाई विद्रोही समझकर गिरफ़्तार कर लिये जाते हैं।

ट्राम-बस में लगी आग हो या दुर्गापूजा-कालीपूजा के समय पटाखे से जलता हुआ पंडाल हो या महात्मा गांधी रोड के दूसरी तरफ़ हिंदू-मुस्लिम दंगों के समय तीन तरफ़ की बस्तियों में लगी आग हो, हर तरफ़ आग ही आग है… आग खत्म हो तो आप ऑस्कर वाइल्ड की तरह यह मत सोचिये, ‘सिटी क्राउन्ड बाइ गॉड, डिस्क्राउन्ड बाइ मैन’, इस झुलसे हुए शहर को निर्मम होकर देखिए और किसी पिक्चर हॉल में घुस जाइए।

यहां छोटी-से-छोटी बात पर बड़े से बड़ा दंगा हो सकता है। कोई खुराफाती डबल-डेकर का नंबर बदल दे या “कोलिकाता इउनिभारसिटी” की स्ट्राइक तोड़ने की कोशिश की जाय या रास्ते में किसी ईमान महल को गलती से बेईमान महल कह दीजिए, दंगा हो जाएगा। यह अहसास आपको जरूर होगा कि यह नया खून अपनी ताकत ग़लत जगह बेकार कर रहा है।…

सन् 1969 में अमृत राय द्वारा संपादित पत्रिका ‘नई कहानियां’ में संकलित इस आलेख के पहले दो पृष्ठ

यही कारण है कि मद्रास का नाम तमिलनाडु पड़ा तो ‘स्टेट्समैन’ ने सुझाव दिया था मैसूर का कर्नाटक और दिल्ली का ‘कर्जन नगर’ पड़ सकता है। आगे किसी ने जोड़ा था और कलकत्ते का? गर्जन नगर? ‘टैगोर धाम’ और ‘सोनार बांग्ला’ नाम पीछे छूट गए थे।… एक महानगर जो हर वक्त गरजता ही रहता है…

अब दस मील के क्षेत्र में आप बाहर देखिए दीवालों पर, पार्क पर, खंभों पर, पोस्टरों पर, बस शेल्टर पर हर जगह टुकड़ों में लिखे हुए नारे मिलेंगे – “नो हिंदी, ओन्ली बेंगॉली। रिमूव हिंदी। हिंदी छाड़ाउ, बांग्ला बाड़ाउ। बांगाली बांग्ला बाँचाउ।” या फिर बंगाली जन के लिए उद्बोधन “बंगाली गरजे उठो। बांगाली जागो! एकताबद्ध हउ। बांगाली बांचले, भारत बांचबे। माओ-त्से-तुंग लाल सेलाम। 90% बांग्ला बांगालीर चाकूरी चाइ। बंधभंगई-जातिर अधःपतनेर कारन बी. एन. वी. पी.।” जातीय गौरव और प्रांतीय महानता की भावना शायद ही किसी और जाति में इतनी मिले। यहां का हर बंगाली आपको अपनत्व देगा, बशर्ते कि आप बांग्ला में बात करें।

यह है कॉलेज स्ट्रीट एरिया! विमल मित्र के ‘साहब बीबी-गुलाम’ और शंकर की ‘चौरंगी’ के कथाकेंद्र कलकत्ता की वास्तविक बौद्धिक जगह यही है। यहां हर ओर किताबें होंगी। यहां भीड़ है, हलचल है, कोलाहल है, अकेलापन है, दुर्घटनाएं हैं, जुलूस हैं, नारे हैं, साहित्यिक राजनीतिक हर तरह के आंदोलन हैं और वह सब है जिसने कलकत्ता को खूबसूरत इमारतों से परे वह ‘और चीज’ वाला महानगर बनाया है। बीस साल बाद एक विदेशी महिला पत्रकार जूएनिटा हॉल दुबारा कलकत्ता आने पर इस जगह पर आते ही सहसा बोल उठी थीं ‘द सेऽऽम कोलकाटा।’

… लोग बदल गए, लोग चले गए, शहर नहीं बदला। ओल्ड सिटी कैल- शायद उन लोगों के बूते पर जो काशी या हरिद्वार में मरने से बेहतर जन्मस्थान और मृत्युस्थान दोनों को ही कलकत्ता मानते हैं। नई पीढ़ियों ने यहां जन्म लिया और पनपीं। ‘हंग्री जेनेरेशन’ के पांव इस कॉलेज स्ट्रीट की जमीन पर ही जमे थे।

बंगाल की संस्कृति और कलकत्ते का व्यस्त जीवन यहां दिखाई देगा। यहां के कॉफ़ी हाउस में हिंदी के, बंगला के लेखक मिलेंगे। बंगला के नब्बे प्रतिशत लेखक कलकत्ते में बसते हैं। एक लाख के ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता ‘गणदेवता’ तारा बाबू से लेकर क्रिमिनल पीनल कोड की 501 धारा के अंतर्गत 201 रुपए जुर्माना भरने वाले ‘नॉवल हेल्ड ऑबसीन’ के ‘प्रजा-पति’ समरेश बसु तक!

कॉफ़ी हाउस के सामने राजेंद्र प्रसाद वाला नामी गिरामी कॉलेज प्रेसिडेंसी और थोड़ी दूर पर कलकत्ता विश्वविद्यालय! खिड़की से छात्र, नीचे जलती हुई टैक्सी देख रहे हैं – शहर का यातायात ठप्प है और फुटपाथ भरे हैं। आप भी खड़े हो जाइए और जुलूसों का यह शहर देखिए। यहां जुलूस गजों में नहीं नापे जाते, मीलों लंबे जुलूस निकलते हैं। उग्र राजनीतिक आंदोलनों और प्रदर्शनों के इस शहर में रोज आगजनी, बमवर्षा, लाठीचार्ज, अश्रुगैस की घटनाएं होती हैं, रोज जुलूस निकलते हैं – वह ट्राम भाड़ा बढ़ने पर हो या चावल के दाम बढ़ने पर या मैकनामरा विरोधी या अश्लील पुस्तक विरोधी अभियान, या फिर जुलूस विरोधी जुलूस। लोग खड़े होकर जुलूस ऐसे देख रहे हैं जैसे कोई ‘मूवी’ देख रहे हैं।

आपको आश्चर्य होगा, इस फुरसतहीन नगर में रुककर जुलूस देखने वाले लोग किस कोने से आए! यहां सब कुछ होने का विद्रोह है– ‘चोलबे ना!’ और कहीं कुछ न हो पाने का विद्रोह है– ‘आमार दाबी मानते हबे!’ यहां हर तरह के झंडे मिल जाते हैं और किराये पर नारे लगाने वाले भी। व्यस्त और मशीनी नगर के बिखरे हुए जीवन की एकरसता को तोड़ते हुए ये जुलूस अब अपनेआप में एकरसता के बायस बन गए हैं।… ‘चोलबे ना’ का नारा लगाने वाला यही व्यक्ति जब दूसरे दिन बेहद आत्मदृढ़ता से अपने जीवन का मूल मंत्र ‘एकला चलो रे!’ की मधुर धुन छेड़ता है तो लगता है कल के जुलूस में विद्रोह के नारे उसने भाड़े पर लगाये थे। यह स्वर उसका असली स्वर है।

यहां से आगे बढ़िए – हो सकता है, सेंट्रल एवेन्यु से शुरू हुआ जुलूस धर्मतल्ला तक चल रहा हो। शांति-अहिंसा के प्रतीक महात्मा गांधी के बुत की सीध में और सामने बसा है– कलकत्ते का मशहूरो-मारूफ़ सदाबहार पार्कस्ट्रीट और सदा रंगीन चौरंगी। अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इस स्थान में हर वर्ग के, हर जाति के लोग मिलेंगे। दायीं ओर के फुटपाथ पर ट्रिकांज से स्काईरूम और मोकैम्बो तक और बायीं ओर मैगनोलिया से शेनाज तक दर्जनों ‘बार’ और रेस्तरां हैं जितने और किसी महानगर में एक साथ नहीं होंगे।

विभिन्न जातियों के आश्रयस्थल इस नगर में किसी एक तारीख को, जब भवानीपुर में सिक्खों का घोड़ों पर चढ़कर त्यौहारी जुलूस निकल रहा होगा, मैदान में काबुली पठान नाच रहे होंगे, विक्टोरिया में गुजराती महिलाएं व्रत तोड़ रही होंगी, तब ट्रिकांज में गोल डांस फ़्लोर पर दस जोड़ों के नाचने की जगह में पच्चीस जोड़े अंटे हुए होंगे और नाचने के नाम पर ये ‘टीन-एजर्स’ जैसे-तैसे मस्ती में सिर्फ़ हिल रहे होंगे।… क्रिसमस हो या दुर्गापूजा, दीवाली हो या ईद – इन त्यौहारों के खास केंद्रों के फुटपाथों पर ‘अरेबियन-नाइट्स’ के बाजारों की तरह छोटी-छोटी दुकनियां सजी होंगीं!

लेकिन इसमें संदेह नहीं कि इन होटलों और आरामपरस्त जगहों की तुलना में इस शहर में मंदिर अधिक हैं। मंदिरों में घूमिए तो यह शहर आपको पुरी-हरिद्वार से कम धार्मिक नहीं लगेगा। छठ के दिन घर-मंदिर तक का रास्ता लेटकर तय करती महिलाएं और तारकेश्वर जाते हुए पीले कपड़े पहने कंधे पर बहंगियां लटकाये, घंटियां टुनटुनाते हुए लोग इस शहर को घोर आस्तिक बना देंगे।

बंगाल की मातृप्रधान संस्कृति में देवी की पूजा प्रमुख है। दुर्गापूजा का सजा-संवरा कलकत्ता आप देखें तो उस रौनक में जुलूसों और आंदोलनों वाला शहर कहीं पीछे छूटा दिखाई देगा। तब इस मातृप्रधान देश में छोटी-बड़ी हर लड़की के लिए एक बेहद मीठा और निश्छल संबोधन होगा– ‘मां’ और मन की सारी कड़‌वाहट धुल जाएगी। बंगालियों की इष्ट देवी हैं काली! काली मंदिर की भीड़, दर्शनाथियों की क्यू, इस शहर की आस्तिकता को सामने ले आती है, लेकिन काली मंदिर से बाहर आते ही भिखारियों की एक पूरी जमात आपको घेर लेगी। फफूंदी की तह जमी मोटी रोटियां खाते भिखारियों के लिए ये फुटपाथ, फुटपाथ नहीं घर-द्वार हैं। सड़क पर शरणार्थी होंगे। अकाल हो, सूखा हो, बाढ़ हो, लैंड-स्लाइड हो – वह बिहार में हो या राजस्थान में या जलपाईगुड़ी में – शरणार्थी कलकत्ते में मिलेंगे। शरणाथियों के सीजन में अधिकांश भिखारी अपना पेशा बदलकर शरणार्थी हो जाएंगे .

इस ‘काली-मंदिर’ से आप ‘कला-मंदिर’ में आ जाइए बिड़ला का नया थियेटर हॉल। यह नहीं लगेगा कि मंदिर-मंदिर का फर्क है। काली मंदिर से कला मंदिर तक में आप महसूस करेंगे शहर बदल गया है। खूबसूरत एयरकंडीशंड हॉल, जानदार बनावट, अभिजात्य छाप और माइक पर जमीला बानो भोपाली : “जिधर देखती हूं, वही अजनबी है, न जाने निगाहें किसे ढूंढती हैं…”

फफूंदी लगी रोटियों का दर्द नजरअंदाज करनेवाला व्यक्ति यहां आकर अति संवेदनशील होकर इनके अजनबीपन के दर्द पर कराह उठेगा। शहर का यह विरोधाभास आपको हर मोड़ पर मिलेगा। यहां दर्जनों जगहों के नाम तल्लों पर हैं – दो श्मशान घाट हैं – एक ओर नीमतल्ला, दूसरी ओर केवड़ातल्ला, बीच में बसा है – रोशनी और रंगीनी से भरा धर्मतल्ला। पार्क स्ट्रीट के आलीशान रेस्तरां से बाहर आइए और कुछ गजों की दूरी पर कूड़े का ढेर होगा और आपको रूमाल की जरूरत होगी।….

यहां ग्रैंड-होटल के एयर कंडीशंड कमरों से निकलकर कालीनों को नापते कदम जब सड़क पर आते हैं तो शहर दौड़ता नजर आता है। यही सड़क बड़ाबाजार तक पहुंचकर बेहद व्यस्त हो उठती है और हावड़ा की कंधे छिलती भीड़ तक आकर हांफने लगती है। हर ओर झींकते-खीझते, अपरिचय लिये बदहवास चेहरे। यहां आंखें रुकती-ठहरती नहीं, भागती हैं– एक सिरे से दूसरे सिरे तक। पंद्रह प्लेटफ़ॉर्म वाला भारत का यह प्रमुख स्टेशन हावड़ा निर्वासितों के लिए छत है! सैकड़ों शरणार्थियों को इसने आश्रय दिया है।

… और हावड़ा का यह भीमकाय पुल! लड़ाई पाकिस्तान से हो या चीन से – यह एक ‘टारगेट’ रहता है। लड़ाई के समय शिशु की तरह इसकी संभाल करनी होती है और लड़ाई खत्म होते ही सारे शहर का बोझ संभाले यह फौलाद बना रहता है।…

हावड़ा के पुल से आकाशरेखा के दूसरे छोर पर है– विक्टोरिया! विभिन्नताओं का गढ़! यहां राजनीतिक नेताओं के भाषण भी होंगे, उनके खिलाफ़ मीटिंगें भी, पहलवानी भी और स्पोर्ट्स भी। सुबह यह संभ्रांत लोगों की सैरगाह है, शाम कीर्तन-भजन का अड्डा और रात… रात यहां अकेली जाती दो शरीफ़ लड़कियां भी कॉल गर्ल्स समझ ली जाएंगीं।

टूरिस्टों के लिए यह दर्शनीय स्थान है और लड़ाई के समय खतरे का कारण। विश्वयुद्ध के समय इसके झक सफ़ेद संगमरमर पर काला रंग पुतवा दिया गया था।…. यह अकेला और दूर तक फैला मैदान किसी रविवार को इतना भीड़ भरा होगा कि लगेगा मैदान, मैदान नहीं रहा है, फुटपाथ हो गया है। …. और दिन में तारे देखने हों तो बिड़ला प्लेनेटेरियम सामने है! एशिया की खूबसूरत जगह। आप कुर्सी पर बैठे हैं, देखते-देखते आपके ऊपर की छत अनुपस्थित हो जाएगी और एक आकाश आप पर झुक आयेगा – इस असली आकाश से कहीं अधिक सुथरा और सांवला!

कहते हैं – बंबई पूंजीपतियों का शहर है। पूंजीपति हर शहर में होते हैं मगर शहर पूंजीपतियों का नहीं होता जो आज दिल्ली हैं, कल बंबई। न ही निम्न वर्ग के लोगों का जिनके लिए शहर अहम् नहीं है, दो जून की रोटी अहम् है। कलकत्ते में हर वर्ग स्थापित है – पूंजीपति वर्ग भी और निम्न वर्ग भी। औसतन यह मध्यवर्गीय लोगों का शहर है, जिन्हें इस शहर ने आर्थिक आधार दिया है। कहते हैं – कलकत्ते में रुपए बरसते हैं, बस आदमी में कुव्वत होनी चाहिए उसे बटोरने की।

कुछ महानगर हैं – जहां तफ़रीहन जाया जा सकता है, पंद्रह-बीस दिनों के लिए घूमा जा सकता है, लेकिन पैर जमाए जा सकते हैं तो इसी कलकत्ता में। बहुत संभव है, आर्थिक आधार न रहे तो जुलूसों और हड़तालों से ऊबे हुए लोग इस शहर को आज छोड़ दें लेकिन यह मानना होगा कि यह नींव देने वाला शहर है। यहां लोग बनते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। निराला हों, अज्ञेय हों, राजेंद्र यादव हों, या राजकमल चौधरी – महानगर उन्हें अपने साथ जोड़े रखता है – बड़ी मासूमियत और आत्मीयता के साथ, भले ही आगे बढ़ जाने वाले लोग अपने नाम के साथ इस महानगर को न जोड़ना चाहें। इस महानगर की साफगोई इसमें है कि यह अपने माइनस साइड्स जबरन आपके सामने कुछ समय बाद ले आएगा, लेकिन आप इसकी नब्ज़ थामिए – यह साफ महसूस होगा कि कभी उदास और मासूम, कभी भागता हुआ और व्यस्त, कभी खाली और वीरान यह महानगर कहीं से बेहद प्यारा और आत्मीय भी है। यह और कुछ हो – बेरहम नहीं होगा। आप चाहें तो बरसों यहां जम सकते हैं बशर्ते कि इन आंदोलनों और दंगों का नकाब उलटकर, महानगर का भीतरी चेहरा देखने की आप में ताकत हो! एकबार यह कलकत्ता आपको अपने से लड़ने की चुनौती ज़रूर देगा मगर आपकी मजबूती का एक अंश भी सामने आते ही सहजता से हार मान लेगा और चुप हो रहेगा।…

लेकिन यह नकाब अब और स्थिर होता जा रहा है। यह क़तई नहीं लगता कि कहीं से यह शहर बदलेगा। एक लीक है, जिससे एक इंच इधर-उधर यह शहर नहीं हो सकता। इस महानगर में बसे हुए उपनगर अपने में सिमटे हुए इसी तरह बहते रहेंगे। अगले दिन फिर कोई खुराफाती डबल डेकर बस का नंबर बदल सकता है, किसी भी कोने में छोटी-बड़ी दुर्घटनाएं हो सकती हैं, जुलूस-विरोधी जुलूस निकल सकता है, त्योहारों पर बड़ी जिंदादिली से रौनकदार यह शहर फिर से झुलस सकता है… यानी वह सब हो सकता है जो आये दिन होता है।

सब कुछ दोहराया जा सकता है, यह भी कि अगले बीस वर्षों के बाद फिर कोई जूएनिटा हॉल कहें – “द सेऽऽम ओल्ड सिटी कैलकटा!”

(यह रिपोर्ताज अमृत राय द्वारा संपादित पत्रिका ‘नई कहानियां’, फरवरी, 1969 में ‘नगरों के अंदर कैद एक महानगर : कलकत्ता’ शीर्षक से प्रकाशित। यहां इसे हम लेखिका की सहमति से पुनर्प्रकाशित कर रहे हैं।)


फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्‍त बहुजन मुद्दों की पुस्‍तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्‍स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्‍य, संस्‍क‍ृति व सामाजिक-राजनीति की व्‍यापक समस्‍याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्‍स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in

लेखक के बारे में

सुधा अरोड़ा

चर्चित कथाकार सुधा अरोड़ा स्त्री आन्दोलनों में भी सक्रिय रही हैं। अब तक उनके बारह कहानी संकलन तथा एक उपन्यास और वैचारिक लेखों की दो किताब। 'आम औरत : जि़ंदा सवाल’ और 'एक औरत की नोटबुक’ प्रकाशित हो चुकी हैं। सुधा जी की कहानियां भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी, ताजिकी भाषाओं में अनूदित।

संबंधित आलेख

साहित्य का आकलन लिखे के आधार पर हो, इसमें गतिरोध कहां है : कर्मेंदु शिशिर
‘लेखक के लिखे से आप उसकी जाति, धर्म या रंग-रूप तक जरूर जा सकते हैं। अगर धूर्ततापूर्ण लेखन होगा तो पकड़ में आ जायेगा।...
नागरिकता मांगतीं पूर्वोत्तर के एक श्रमिक चंद्रमोहन की कविताएं
गांव से पलायन करनेवालों में ऊंची जातियों के लोग भी होते हैं, जो पढ़ने-लिखने और बेहतर आय अर्जन करने लिए पलायन करते हैं। गांवों...
नदलेस की परिचर्चा में आंबेडकरवादी गजलों की पहचान
आंबेडकरवादी गजलों की पहचान व उनके मानक तय करने के लिए एक साल तक चलनेवाले नदलेस के इस विशेष आयोजन का आगाज तेजपाल सिंह...
ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविताओं में मानवीय चेतना के स्वर
ओमप्रकाश वाल्मीकि हिंदू संस्कृति के मुखौटों में छिपे हिंसक, अनैतिक और भेदभाव आधारित क्रूर जाति-व्यवस्था को बेनकाब करते हैं। वे उत्पीड़न और वेदना से...
दलित आलोचना की कसौटी पर प्रेमचंद का साहित्य (संदर्भ : डॉ. धर्मवीर, अंतिम भाग)
प्रेमचंद ने जहां एक ओर ‘कफ़न’ कहानी में चमार जाति के घीसू और माधव को कफनखोर के तौर पर पेश किया, वहीं दूसरी ओर...