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कोटा के तहत कोटा ले लिए जातिगत जनगणना आवश्यक

हम यह कह सकते हैं कि उच्चतम न्यायालय के निर्णय में केंद्र सरकार को उसी तरह की जातिगत जनगणना करवाने का निर्देश दिया गया है, जैसाकि 1931 में की गई थी और यह आरक्षण कोटे के उपवर्गीकरण की पूर्व शर्त होगी। पढ़ें, कांचा आइलैय्या शेपर्ड का यह आलेख

उच्चतम न्यायालय के हालिया निर्णय, जिसमें सरकारी नौकरियों और उच्च शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण के संदर्भ में अनुसूचित जातियों (एससी) और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के उपविभाजन को हरी झंडी दिखलाई गयी है। इसके बारे में विरोधाभासी प्रतिक्रियाएं सामने आईं हैं।

हालांकि शीर्ष न्यायालय की सात जजों की खंडपीठ संयुक्त आंध्र प्रदेश और पंजाब में एससी के लिए निर्धारित आरक्षण कोटे के उपविभाजन की मांग से संबंधित मामले में सुनवाई कर रही थी, लेकिन अदालत द्वारा सुनाया गया निर्णय सभी राज्यों और राष्ट्रीय स्तर के आरक्षण कोटे पर भी लागू होगा।

अतः इस निर्णय के कार्यान्वयन के दूरगामी प्रभाव होंगे।

ओबीसी उपविभाजन

इसी तरह, यद्यपि उच्चतम न्यायालय के सामने मुद्दा एससी के उपविभाजन का था, मगर यह निर्णय ओबीसी और एसटी आरक्षण कोटे पर भी लागू होगा। वर्तमान में केवल कुछ राज्यों में ओबीसी का उपवर्गीकरण किया गया है। मगर यह उपवर्गीकरण आनुभविक आंकड़ों पर आधारित नहीं है और ऐसे आंकड़ों की ज़रूरत काफी समय से महसूस की जा रही है।

अनुसूचित जातियों के श्रेणी के भीतर भी टकराव की स्थितियां बन रही हैं, क्योंकि कुछ अनुसूचित जातियों को ऐसा लगता है कि उनके साथ अन्याय हुआ है। इसके चलते पूर्वोत्तर के राज्यों में बड़े पैमाने पर हिंसा भी हुई। तेलुगू-भाषी राज्यों में लमबाड़ा आदिवासियों और कोया एवं गोंड जनजातियों के बीच टकराव उतना ही गंभीर है, जितना कि माला और मडिगा अनुसूचित जतियों के बीच।

सर्वोच्च न्यायालय ने क्या कहा है?

सर्वोच्च न्यायालय का 6:1 के बहुमत से सुनाया गया फैसला साधारण भाषा में यह है– आरक्षण की जद में आने वाली जातियों का इस उद्देश्य से उप-वर्गीकरण कि उनमें से जो हाशिये पर हैं, उन्हें कोटे का आनुपातिक हिस्सा हासिल हो सके। यह औचित्यपूर्ण और संवैधानिक दृष्टि से वैध है।

सबसे बड़ी अदालत ने यह भी कहा कि कोटे का उपविभाजन न्यायपूर्ण होना चाहिए, उसका आधार संबंधित जाति या जातियों के संबंध में निष्पक्ष आंकड़े होने चाहिए और इस आशय के प्रमाण उपलब्ध होने चाहिए कि संबंधित जाति या जातियों की कुल कोटे में हिस्सेदारी, जाति समूह की आबादी में संबंधित जाति या जातियों की आबादी के अनुपात में कम है।

अब तक आरक्षण में हिस्सेदारी से संबंधित सभी फैसले व्यक्तिपरक संभाव्यता पर आधारित रहे हैं। जैसे, शीर्ष अदालत द्वारा आरक्षण पर लगाई गई 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा व्यक्तिपरक थी, क्योंकि जातियों की आबादी के संबंध में सटीक आंकड़े उपलब्ध ही नहीं थे।

इसी तरह, आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों (ईडब्ल्यूएस) को 10 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय भी व्यक्तिपरक था, क्योंकि आर्थिक पिछड़ेपन के संबंध में जातिगत आंकड़ा उपलब्ध नहीं था। अतः उच्चतम न्यायालय ने यह मान लिया कि सामान्य जातियों के 10 प्रतिशत परिवार निर्धन हैं और वे अपने बच्चों को इन जातियों के समृद्ध परिवारों के समकक्ष शिक्षा दिलवाने और उनसे प्रतियोगिता करने में सक्षम नहीं हैं।

प्रयोगसिद्ध आंकड़ों की ज़रूरत

शीर्ष अदालत ने जातियों का उपवर्गीकरण करने की इज़ाज़त देते हुए यह भी कहा कि प्रत्येक जाति की आबादी में कोटे में उसकी हिस्सेदारी के संबंध में विश्वसनीय आंकड़े एकत्रित किये जाने चाहिए। यह भी पता लगाया जाना चाहिए कि किस जाति को आबादी में उसके हिस्से के अनुपात में कम या अधिक प्रतिनिधित्व मिल रहा है।

दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि निर्णय में केंद्र सरकार को उसी तरह की जातिगत जनगणना करवाने का निर्देश दिया गया है, जैसाकि 1931 में की गई थी और यह आरक्षण कोटे के उपवर्गीकरण की पूर्व शर्त होगी।

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

ऐसा इसलिए क्योंकि जनगणना के आंकड़ों से हम यह तो जानते हैं कि एससी व एसटी की कितनी आबादी है और देश के कुल आबादी में उनकी कितनी हिस्सेदारी है। मगर हम यह नहीं जानते कि इन समूहों में शामिल विभिन्न जातियों और उपजातियों की कितनी आबादी विभिन्न राज्यों या देश में है।

यहां तक कि हमें यह भी नहीं पता कि एससी/एसटी के बरअक्स कुल आबादी में ओबीसी की कितनी हिस्सेदारी है और सामान्य जातियों की कितनी है।

व्यापक निहितार्थ

मगर इसके बावजूद इस फैसले के आरक्षण के लिए पात्र सभी समूहों – एससी, एसटी व ओबीसी – के लिए निहितार्थ होंगे, क्योंकि पूरे देश में हर जाति की यह मांग है कि उसे राज्य एवं केंद्रीय पूल, दोनों में ठीक-ठीक हिस्सेदारी मिलनी चाहिए।

वर्तमान में उपलब्ध कोटे में विभिन्न उप-जातियों के हिस्से का मुद्दा केवल एससी व एसटी तक सीमित नहीं है। ओबीसी, जिन्हें केंद्रीय स्तर पर 27 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध है, के मामले में भी यह एक बड़ी समस्या है।

फैसला केंद्र को करना है

कई ओबीसी जातियां अपनी श्रेणी में से अपने लिए न्यायपूर्ण हिस्से की मांग करती रही हैं। उदाहरण के लिए महाराष्ट्र के धनगरों ने अपनी हिस्सेदारी के लिए लंबी लड़ाई लड़ी और अंततः राज्य में 3.5 प्रतिशत कोटा पाने में सफल रहे। मगर यह निर्णय संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) द्वारा आयोजित परीक्षाओं पर लागू नहीं होता। इस फैसले को यूपीएससी को भी लागू करना चाहिए।

मराठा भी आरक्षण के केक में अपना हिस्सा हासिल के लिए आतुर हैं। महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें 50 प्रतिशत सीमा के पार जाकर 10 प्रतिशत आरक्षण उपलब्ध करवाया, मगर अदालतों ने इस निर्णय को रद्द कर दिया। अब वे कुनबी जाति के होने का प्रमाणपत्र हासिल करना चाहते हैं ताकि राज्य और केंद्र के 27 प्रतिशत ओबीसी कोटे में जगह पा सकें। इसी तरह, गुजरात के पटेल (पाटीदार) भी आरक्षण में हिस्सा हासिल करने के लिए संघर्षरत हैं।

ये सारे आंदोलन और मांगें, कुल आबादी में इन जातियों के हिस्से के अंदाजिया अनुमानों पर आधारित हैं। इससे भी बड़ी समस्या यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने भी 50 प्रतिशत की उच्चतम सीमा का निर्धारण व्यक्तिपरक आधारों पर किया है। इसी तरह, ईडब्ल्यूएस के लिए 10 प्रतिशत कोटा के संबंध में निर्णय भी सामान्य जातियों में निर्धनता के संबंध में राष्ट्रीय स्तर के किसी भी आंकड़े के बगैर किया गया था।

इसलिए, अब केंद्र सरकार यह कहकर अपना पल्ला नहीं झाड़ सकती कि निर्णय राज्यों को लेना है। राज्यों द्वारा जिस तरीके से आंकड़े एकत्रित किये जाएं, अदालतें उन्हें विश्वनीय और वस्तुपरक नहीं मानेंगीं।

केंद्र की हिचकिचाहट

केंद्र सरकार जहां एक ओर सुप्रीम कोर्ट में आरक्षण के लिए जातियों के उपवर्गीकरण की बात करती है, वहीं दूसरी ओर वह जातिगत जनगणना नहीं करवाना चाहती।

यह इस तथ्य के बावजूद कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हालिया लोकसभा चुनाव के दौरान विभिन्न राज्यों में अपनी सभाओं में एससी के अंतर्गत आने वाली कई उप-जातियों के साथ न्याय करने के वायदे किये थे।

जैसे, तेलंगाना में मडिगाओं की एक सभा में बोलते हुए उन्होंने कहा था कि एससी के लिए आरक्षण के उपविभाजन की उनकी मांग का सरकार समर्थन करेगी। मडिगा तेलंगाना की सबसे बड़ी दलित जाति है और भाजपा को 2023 के विधानसभा चुनावों और 2024 के लोकसभा चुनावों दोनों में उसके वोट चाहिए थे।

जाति जनगणना करवाने के प्रति केंद्र सरकार की हिचकिचाहट को समझा जा सकता है। यूपीए सरकार ने भी जनगणना के दौरान एक अतिरिक्त अनुसूची के माध्यम से जातिगत आंकड़े इकट्ठा किये थे, मगर गैर-शूद्र जातियों के दबाव के आगे झुकते हुए सरकार ने उन्हें सार्वजनिक नहीं किया।

जातिगत जनगणना की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है– ब्राह्मण, बनिया, कायस्थ, खत्री और क्षत्रिय जातियों का विरोध। पहले तो जाट, पटेल और मराठा जैसी शूद्र उच्च जातियां भी जातिगत जनगणना का विरोध करती थीं, मगर अब वे कम-से-कम राष्ट्रीय स्तर पर तो ऐसा नहीं कर रही हैं।

ऊंची जातियों का दबदबा

सन् 1931 के बाद, जातिगत जनगणना इसलिए बंद कर दी गई, क्योंकि उपर्युक्त पांच जातियां, जो शिक्षित थीं और औपनिवेशिक काल व स्वतंत्रता के शुरुआती वर्षों में सरकारी नौकरियों पर जिनका लगभग संपूर्ण कब्ज़ा था, जातिगत जनगणना जारी रखने के पक्ष में नहीं थीं।

द्विज जातियों के बुद्धिजीवियों का तो यह तर्क था कि जाति प्रथा औपनिवेशिक निर्मिती है। यही ताकतें यह भी तर्क देती हैं कि केवल वेद ही असली भारतीय सभ्यता से हमारा परिचय करवा सकते हैं। वेदों, रामायण और महाभारत में वर्ण और जाति दोनों सामाजिक विभाजन की महत्वपूर्ण श्रेणियां बताई गई हैं।

चूंकि शूद्र/ओबीसी, दलित और आदिवासी अशिक्षित थे, इसलिए उन्होंने मिथकों को सच मान लिया। प्राचीन, मध्यकालीन और पूर्व-औपनिवेशिक संस्थाओं के लिए भी औपिनिवेशिक शासकों को दोषी ठहरा दिया गया और इसका कोई विरोध भी नहीं हुआ।

मगर अब यह नहीं चलेगा। अब शूद्रों, दलितों और आदिवासियों में पर्याप्त संख्या में बुद्धिजीवी हैं। और सच तो यह है कि वे शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था से ही उपजे हैं। इस नए बौद्धिक वातावरण ने द्विजों, चाहे वे जिस क्षेत्र में काम करते हों, के दिलों में एक नया डर बैठा दिया है। 

भारत के विवेकशील मुख्य न्यायाधीश

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ आरक्षण या सकारात्मक कार्यवाही (जैसे कि आरक्षण) के सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया पर पड़ने वाले प्रभाव से वाकिफ हैं। उन्होंने अमरीका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय से सकारात्मक कार्यवाही के तुलनात्मक अध्ययन विषय पर पीएचडी की है। उनका वह ज्ञान और विवेक निश्चित तौर पर उच्चतम न्यायालय के फैसलों में भूमिका अदा कर रहा है।

केंद्र को इस निर्णय का सम्मान करते हुए सामान्य जातियों और अन्य जातियों की गणना कराने का आदेश जारी करना चाहिए।

चूंकि मोदी सरकार ने आर्थिक आधारों पर सामान्य जातियों के गरीबों को आरक्षण प्रदान करने का कानून बनाया है, इसलिए उसे अब देश की हर जाति की आर्थिक स्थिति के बारे में डाटा इकठ्ठा करना चाहिए।

(यह आलेख वेब पत्रिका दी फेडरल डॉट कॉम द्वारा पूर्व में अंग्रेजी में प्रकाशित व यहां लेखक की सहमति से अनुवाद प्रकाशत है, अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

कांचा आइलैय्या शेपर्ड

राजनैतिक सिद्धांतकार, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता कांचा आइलैया शेपर्ड, हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्राध्यापक और मौलाना आजाद राष्ट्रीय उर्दू विश्वविद्यालय, हैदराबाद के सामाजिक बहिष्कार एवं स्वीकार्य नीतियां अध्ययन केंद्र के निदेशक रहे हैं। वे ‘व्हाई आई एम नॉट ए हिन्दू’, ‘बफैलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया’ शीर्षक पुस्तकों के लेखक हैं।

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