हरियाणा में इस बार दिलचस्प चुनावी मुक़ाबला देखने को मिल रहा है। कांग्रेस यहां दस साल बाद सत्ता में वापसी का दावा कर रही है। ज़मीन पर माहौल भी कांग्रेस के पक्ष में दिख रहा है। लोगों से बात करके अंदाज़ा होता है भाजपा के ख़िलाफ लगभग सभी जातियों में ग़ुस्सा है। लेकिन कुमारी शैलजा और रणदीप सुरजेवाला की अपनी पार्टी से नाराज़गी की ख़बरें भाजपा नेताओं के लिए राज्य की सत्ता में तीसरी बार वापसी की उम्मीदें लेकर आई है। ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या सच में कुमारी शैलजा भाजपा के साथ जाने वाली हैं? अगर हां, तो उनके भाजपा के साथ जाने का विधानसभा चुनावों के नतीजों पर क्या असर पड़ने वाला है?
वर्ष 2012 के बाद हरियाणा में तक़रीबन हर चुनाव में दो बातें लगातार देखने को मिली हैं। एक, लोगों में भारी ग़ुस्से और सत्ता विरोधी रूझान के बावजूद भाजपा किसी-न- किसी तरह सत्ता के क़रीब पहुंचने में कामयाब हो जाती है। दूसरी, तमाम बढ़ते दावों, लोगों के भारी समर्थन, और साज़गार माहौल के बावजूद इंडिया गठबंधन की पार्टियां सत्ता के क़रीब आकर फिसल जाती हैं। शायद इसीलिए कश्मीर और हरियाणा में भाजपा के ख़िलाफ भारी नाराज़गी के बावजूद कोई खुलकर दावा नहीं कर पा रहा है कि भाजपा को यहां कितना नुक़सान होने जा रहा है। लोगों के सशंकित होने और चुनावी भविष्यवक्ताओं के भविष्यवाणी न कर पाने की कई वजहें हैं। इनमें पहली तो इंडिया गठबंधन के दलों के बीच आपस में चुनावी सहमति न बन पाना है और दूसरा कांग्रेस समेत तमाम दलों के बीच मची आपसी घमासान भी है। इस खींचतान में हरियाणा का मामला बेहद रोचक हो चला है।
हरियाणा में भाजपा की बुरी तरह हार का दावा पिछले एक साल से किया जा रहा है। पार्टी भी समझती है कि उसके ख़िलाफ इस वक़्त लोगों का ग़ुस्सा चरम पर है। इस सत्ता विरोधी ग़ुस्से को हल्का करने के लिए ही राज्य में मनोहर लाल खट्टर को हटाकर नायब सिंह सैनी को मुख्यमंत्री बनाया गया। लेकिन लगता नहीं कि इस क़दम से भाजपा को बहुत ज़्यादा फायदा होने वाला है। सिवाय इसके कि राज्य की एक प्रमुख ओबीसी जाति सैनी मुख्यमंत्री के नाम पर पार्टी से जुड़ी रहे। लेकिन सैनी वोटरों की संख्या इतनी ज़्यादा नहीं है कि वो जाट वोटरों की लामबंदी से होने वाले नुक़सान की भरपाई कर पाएं। भाजपा से नाराज़ जातीय समूहों की तादाद लगातार बढ़ रही है। मुसलमानों से भाजपा को कोई उम्मीद नहीं है। दलित भाजपा पर लगातार अनदेखी का आरोप लगा रहे हैं। यादव जाति के लोग कह रहे हैं कि उनको भाजपा शासन में कुछ नहीं मिला। सिर्फ दलित और पिछड़े नहीं, बल्कि अगड़ी जातियों में शुमार ब्राह्मण और बनियों के बीच भी भाजपा को लेकर तमाम शिकायतें हैं। कुल मिलाकर कुछ भी भाजपा के पक्ष में नज़र नहीं आ रहा है।
राज्य में बेरोज़गारी, महंगाई, बढ़ते अपराधों के अलावा नोटबंदी, जीएसटी, अग्निवीर, पुरानी पेंशन स्कीम जैसी सरकारी योजनाओं का ज़िक्र भी लोग कर रहे हैं। राज्य सरकार के अलावा लोगों का ग़ुस्सा केंद्र सरकार की योजनाओं के ख़िलाफ भी है। बस में, ट्रेन में, मेट्रो में, यहां तक कि टेंपो और चाय की दुकानों पर भी भाजपा सरकार की विदायी के दावे किए जा रहे हैं। लेकिन भाजपा क्या इतनी आसानी से हार मान लेगी? यक़ीनन बिल्कुल भी नहीं। हरियाणा में सरकार बचाना भाजपा के लिए काफी अहम है और इसके लिए पार्टी नेता वो तमाम जोड़-तोड़ कर रहे हैं, जिसके लिए भाजपा जानी जाती है। पार्टी कोशिश कर रही है उसका कोर वोटर बूथ तक पहुंच जाए और सत्ता विरोधी वोट तमाम पार्टियों और उम्मीदवारों के बीच बंट जाए। इस काम में बसपा, इंडियन नेशनल लोकदल, हरियाणा जनहित पार्टी, आम आदमी पार्टी के अलावा हाल ही तक सत्ता में हिस्सेदार रही जननायक जनता पार्टी भी उसके लिए मददगार साबित हो रही हैं। लेकिन इतने भर से शायद काम बनने वाला नहीं है, सो पार्टी नेताओं ने दूसरे दलों में सेंध लगाने की संभावनाएं तलाशना शुरू कर दिया है।
इस बीच कथित मुख्यधारा की मीडिया में रणदीप सुरजेवाला और कुमारी शैलजा जैसे नेताओं की ख़बरें तेज़ी से तैर रही हैं। कहा जा रहा है कि कुमारी शैलजा को मुख्यमंत्री पद का चेहरा न बनाए जाने की वजह से वह पार्टी से नाराज़ हैं जबकि रणदीप सुरजेवाला की नाराज़गी भूपिंदर सिंह हुड्डा को ज़्यादा तवज्जो देने को लेकर है। दोनों की नाराज़गी की अफवाहें फैलीं तो पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कुमारी शैलजा को बाक़ायदा भाजपा में आने का निमंत्रण तक दे दिया। यह बात अलग है कि राज्य भाजपा में ख़ुद उनकी अहमियत मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद कुछ ख़ास नहीं रह गई है। टीवी और अख़बारों में अचानक कुमारी शैलजा के लिए वैसा ही प्रेम उमड़ने लगा है जैसा एक दौर में दलित युवा नेता अशोक तंवर के लिए था, जो अभी भाजपा में हैं। बताया जा रहा है कि कांग्रेस पार्टी ने अपनी प्रमुख दलित नेता की अनदेखी की है। ज़ाहिर है इन ख़बरों को शैलजा की चुनाव प्रचार से दूरी और ख़ुद सामने आकर खंडन न करने से और हवा मिल रही है।
इन ख़बरों की सच्चाई तो ख़ुद शैलजा ही बता सकती हैं, लेकिन यह बात तय है कि इससे उन्हें नुक़सान ही हो रहा है। जितना उनके दल छोड़ने की ख़बर फैलेगी, अगली सरकार में उनकी भूमिका उतनी ही कम होती जाएगी। इस बात को हुड्डा परिवार भी समझ रहा है। इसीलिए इन ख़बरों पर पूर्व मुख्यमंत्री भी ख़ामोश हैं। रणदीप सुरजेवाला के बेटे आदित्य सुरजेवाला कैथल से पार्टी उम्मीदवार हैं। वह ख़ुद हरिणाया से राज्य सभा सदस्य हैं। इसलिए उनकी नाराज़गी की अपनी हदें हैं। उससे बाहर वह नहीं जा सकते। लेकिन शैलजा वही ग़लती कर रही हैं जो पार्टी में दलित चेहरा रहे अशोक तंवर ने की थी। वह अब बेशक सिरसा से लोक सभा सांसद हैं, लेकिन राज्य की राजनीति में उनकी हैसियत क्या है, कोई नहीं जानता।
कुमारी शैलजा की ही तरह अशोक तंवर एक ज़माने में गांधी परिवार के बेहद क़रीबी थे। अवंतिका माकन से उनकी शादी में सोनिया गांधी की भूमिका के बाद पार्टी में उन्हें हाईकमान का नेता मान लिया गया था। कांग्रेस में उन्हें एनएसयूआई और युवक कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। शैलजा की ही तरह वह भी हरियाणा कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। पार्टी टिकट पर संसद में भी पहुंचे। लेकिन अति-महत्वाकांक्षा में पार्टी से उनकी बात बिगड़ गई। वह ख़ुद को भूपिंदर सिंह हुड्डा का विकल्प मानने लगे, जबकि उनका वक़्त अभी नहीं आया था। भाजपा ने उनकी नाराज़गी को हवा दी। अब वह भाजपा में हैं लेकिन मुख्यमंत्री बनने की बात अब शायद न सोच पाएं। यही मामला शैलजा का भी है। वह राज्य में अब पार्टी का सबसे बड़ा चेहरा हैं। गांधी परिवार की क़रीबी हैं। संसद सदस्य हैं। और इसीलिए उनके मन में मुख्यमंत्री पद की आकांक्षा भी है। लेकिन शायद अभी उनका समय नहीं आया है।
हरियाणा राज्य में जाटों के बाद दलित सबसे बड़ा वोटर समूह है। लेकिन इनमें जाटवों के अलावा कोई और जाति कांग्रेस के साथ अभी नहीं है। वाल्मीकि, कोली जैसी जातियां भाजपा के साथ हैं। जाटव वोट भी बहुजन समाज पार्टी, भाजपा, जेजेपी, आम आदमी पार्टी और इंडियन नेशनल लोकदल के बीच बंट जाता है। ज़मीनी हक़ीक़त यही है कि कुमारी शैलजा अपने-अपने दम पर अभी दस उम्मीदवार जिताने की हालत में नहीं हैं। लेकिन भाजपा और भाजपा पोषित मीडिया उनकी महत्वाकांक्षाओं को अपने हित में हवा दे रहा है। हालांकि वह ख़ुद समझदार हैं। लेकिन शायद किसी बेहतर डील या पार्टी हाईकमान पर दबाव बनाने के लिए वह पार्टी छोड़ने की अफवाहों को फैलने दे रही हैं। वह पार्टी छोड़ेंगी तो यक़ीनन कांग्रेस को कुछ सीटों पर ज़रूर नुक़सान होगा। कांग्रेस क़रीबी मुक़ाबले वाली दो से तीन सीट उनकी वजह से हार भी सकती है। लेकिन मौजूदा माहौल में यह नुक़सान इतना नहीं होगा कि भाजपा के ख़िलाफ सत्ता विरोधी लहर को थाम ले। ज़ाहिर है दबाव बनाने के इस खेल में हार कुमारी शैलजा की ही है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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