भारत भगवान और धर्म का देश है। ब्राह्मण धर्मवादी लोग दावा करते हैं कि भारत में 33 करोड़ भगवान हैं। इसके लिए वे वैदिक साहित्य का संदर्भ भी पेश करते हैं। जबकि जिस कालखंड का वे हवाला देते हैं, उस समय इस देश की कुल जनसंख्या 33 करोड़ भी नहीं थी। फिर भी भारत गुलामी और आक्रमणकारियों के साये में जी रहा था। मूलनिवासियों ने अपना खून बहाया और आक्रमणकारियों को मारकर भगा दिया। सवाल यह उठता है कि तथाकथित भगवान उस समय क्या कर रहे थे? क्या उनका काम केवल मंदिर में पड़े रहना था?
इससे एक और प्रश्न उठता है कि यदि भगवान अस्तित्व में है, तो देश में असमानता क्यों है, मंदिरों में चोरी और पुजारियों द्वारा बलात्कार क्यों किया जाता है, भगवान के सत्संग आयोजनों में भगदड़ और मौतें क्यों हो रही है? मंदिरों में पूजा के बाद यात्राओं के दौरान दुर्घटनाएं क्यों हो रही है?
यह सब देखने पर एक निष्कर्ष पर पहुंचने में मदद मिलती है कि भगवान और मंदिरों की रचना षड्यंत्रकारी, चतुर और भगवान का भय दिखाकर वर्ण-व्यवस्था द्वारा अपना स्थान ऊंचा रखने वाले समूह ने की है।
इस बात पर चर्चा चल रही है कि गणेशोत्सव की शुरुआत कब, कैसे और किसने की? भारत में 1890 के बाद से हिंदू-मुस्लिम सौहार्द बिगड़ने लगा था। हालांकि पेशवाओं के (चितपावनी ब्राह्मण) के हैदर अली और टीपू सुल्तान के साथ राजनीतिक रूप से मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं थे, लेकिन मुगलों के साथ उनके मैत्रीपूर्ण संबंध थे। फिर भी ब्रिटिश काल में गौरक्षा को लेकर कुछ स्थानों पर धार्मिक दंगों के कारण हिंदू-मुस्लिम एकता में खलल पड़ने लगी थी। भारत में पहला हिंदू-मुस्लिम दंगा 1890 में बेलगाम (कर्नाटक) में और दूसरा 1891-92 में गुजरात के सौराष्ट्र में हुआ था। अगस्त, 1893 में बंबई में हिंदू-मुस्लिम गोरक्षा के नाम पर दंगे हुए। इन दंगो का दोनों समुदायों पर गहरा असर पड़ा।
इन्हीं दंगों से बाल गंगाधर तिलक के मन में सार्वजनिक गणेशोत्सव मनाने का विचार हुआ और उन्होंने 1893 में पुणे में पहला सार्वजनिक गणेशोत्सव शुरू किया। पुणे में बाबा महाराज के घर में हिंदू-मुस्लिम दंगों के संबंध में एक सार्वजनिक बैठक आयोजित की गई थी। इस बैठक में बाल गंगाधर तिलक ने गणेशोत्सव, उसका विसर्जन और सार्वजनिक जुलूस के साथ सामुदायिक तरीके से मनाने के विचार पर अपने साथी नामजोशी के साथ चर्चा की। उनकी मंशा किस कदर खतरनाक थी, यह आज के गणेशोत्सव के स्वरूप पर नजर डालने से पता चलता है। इसलिए, सार्वजनिक गणेशोत्सव की उत्पत्ति मुंबई में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों के कारण हुई और बाल गंगाधर तिलक उसके जनक थे। गणेशोत्सव पर सुधारकों के सवालों को नज़रअंदाज करने के लिए तिलक ने एक नए स्वरूप की लड़ाई लड़ी और यह कहना शुरू कर दिया कि यह त्यौहार नया नहीं, बल्कि पुराना है। ‘केसरी’ में लेख लिखकर पेशवा तथा एक अन्य संस्था के दस्तावेजों का उल्लेख किया गया। सच पर पर्दा डालने के लिए तिलक को कई चालें चलनी पड़ीं। जो सभ्य लोग गणेशोत्सव के विरुद्ध तिलक से शिकायत करते थे, उनको वे चेतावनी देकर चुप कराते थे।
सत्यशोधक समाज और सुधारणावादी लोग ऐसे सार्वजनिक गणेशोत्सव के विरुद्ध थे, क्योंकि इस उत्सव में समाज सुधारकों का उपहास और तिरस्कार किया जाता था। तिलक को भी इस उत्सव के खामियों की जानकारी थी, लेकिन उनसे पूछने का साहस उनके अंध-समर्थकों ने नहीं किया। तिलक के देहांत के बाद उनके समर्थक बुद्धिजीवियों ने एक नया मिथक गढ़ा। यह एक मिथक था– “स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ जागरूकता पैदा करने के लिए गणेशोत्सव की स्थापना की गई थी।”
इन मिथकों को जनता के बीच व्यापक रूप से प्रचारित और प्रसारित किया गया। वास्तविकता यह है कि गणेशोत्सव की शुरुआत का स्वतंत्रता आंदोलन से कोई लेना-देना नहीं है, बल्कि यह तिलक द्वारा समाज सुधारकों को हराने के लिए इस्तेमाल किए गए एक नए प्रभावी हथियार का ‘आविष्कार’ था। बाद के समय में तिलक ने अपने विरोधियों को बदनाम करने के लिए इस गणेशोत्सवी हथियार का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। गणेशोत्सव के कारण तिलक का कार्यक्षेत्र विस्तृत हो गया। लेकिन गणेशोत्सव की लोकप्रियता ज्यादातर ब्राह्मण समुदाय तक ही सीमित थी। जोतीराव फुले के सत्यशोधक आंदोलन का प्रभाव शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में होने के कारण गैर-ब्राह्मण समुदाय ने गणेशोत्सव से मुंह मोड़ लिया था।
गणेशोत्सव से अपनी राजनीतिक मंशा सिद्ध नहीं होती देख शि.एम. परांजपे के सुझाव पर, 1895 में, तिलक ने पुणे के रायगढ़ में शिवाजी महाराज के समाधि को पुनर्स्थापित करने के लिए एक अभियान चलाया। जबकि इस समाधि का जीर्णोद्धार जोतीराव फुले कर चुके थे। तिलक की साजिश थी कि अधिक से अधिक गैर-ब्राह्मण लोग उनके साथ जुड़ सकें।
बाल गंगाधर तिलक द्वारा शुरू किया गया वही गणेशोत्सव आज बड़े पैमाने पर सार्वजनिक रूप ले चुका है। तिलक द्वारा शुरू किए गए इस उत्सव को उनके शिष्यों द्वारा लगातार विकसित किया गया और बढ़ाया गया, लेकिन जोतीराव फुले और शाहूजी महाराज के सत्यशोधक आंदोलन को उनके शिष्यों एवं समाज द्वारा (ओबीसी और मराठा बुद्धिजीवियों और नेताओं) विस्तारित करना तो दूर, उनके आंदोलन को जीवित भी नहीं रखा गया। इसलिए यह कहा जा सकता है कि तिलक के विचार जोतीराव फुले और शाहूजी महाराज के विचारों पर भारी पड़े। लेकिन ध्यान देनेवाली बात यह है कि, यह हार महात्मा फुले और शाहू के विचारों के कारण नहीं, बल्कि उन्हें आदर्श मानने वाले ओबीसी और मराठा बुद्धिजीवियों और नेताओं के कारण हुई है।
संदर्भ ग्रंथ
- के.के. चौधरी, आधुनिक महाराष्ट्राचा इतिहास, खंड-1, महाराष्ट्र राज्य साहित्य व संस्कृती मंडळ
- धनंजय कीर, लोकमान्य तिलक, पॉपुलर प्रकाशन
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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