यह बात इस वर्ष जुलाई की एक शाम की है। गोरखपुर से दीपक का फोन आया। उसने अभिवादन के साथ ही चहकते हुए कहा– “डिग्री एलॉट हो गई है, जल्द ही इलाहाबाद आऊंगा, मिठाई लेकर।”
उसके ये वाक्य आज भी कानों में मिसरी घोल रहे हैं। इन दो महीनों में दीपक नौकरी के लिए भी एक-दो जगह प्रयास कर चुका है। वैसे तो बहुत से छात्र हर साल पीएचडी पूरी करते हैं। दलित छात्र भी करते हैं। लेकिन दीपक ने जो हासिल किया है, वह अनोखा है। दरअसल दीपक की उच्च शिक्षा हासिल करने की राह इतनी आसान नहीं रही है। साल 2018 में जब दीपक ने पीएचडी में दाख़िला लिया था तब से अब तक छह वर्षों के दरमियान अनेक दलित छात्रों ने आत्महत्याएं की और अनेक ने प्रयास किया। दीपक उन चंद दलित छात्रों में से एक है, जिसने आत्महत्या की कोशिश में ज़िंदा बचने के बाद अपनी पीएचडी की पढ़ाई पूरी की और डिग्री हासिल की।
फॉरवर्ड प्रेस ने इस घटना से संबंधित एक खबर 22 सितंबर, 2018 को प्रकाशित किया था, जिसका शीर्षक था– “जातीय उत्पीड़न से आहत होकर दलित छात्र ने खाया जहर”। इस खबर के बाद फॉलोअप के रूप में एक खबर 19 अक्टूबर, 2018 को “गोरखपुर विवि दलित छात्र उत्पीड़न : रिपोर्ट के पहले ही फैसला सुना रहे कुलपति” शीर्षक से प्रकाशित किया गया। दरअसल, वह 20 सितंबर, 2018 का दिन था, जब दीन दयाल उपाध्याय विश्वविद्यालय गोरखपुर के शोधार्थी दीपक कुमार ने विभागाध्यक्ष द्वारा जातीय, मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न के प्रतिकार में ज़हर खा लिया था। किराए के कमरे में साथ रहने वाले साथी छात्रों की सूझ-बूझ और तत्काल मिली चिकित्सीय सहायता के चलते दीपक की जान बच गई थी। उस घटना के बाद दीपक ने न सिर्फ़ अपनी पीएचडी पूरी की, बल्कि अपने गांव से लेकर यूनिवर्सिटी तक दूसरे दलित छात्रों के उत्पीड़न के खिलाफ़ डटकर मोर्चा लिया। प्रस्तुत है उनकी कामयाबी कहानी, उनकी ही जुबानी। उनके साथ बातचीत का संपादित अंश–
जब डॉक्टरेट की डिग्री आपको दी जा रही थी, तब उस समय आपकी जेहन में क्या चल रहा था?
बीते 4 जुलाई, 2024 को जब वाइवा देने के लिए खड़ा हुआ तो आंखें भर आईं। जितनी देर मैं बोला, उतनी देर मेरी आंखें झरती रहीं। उस मौके पर कुलपति पूनम टंडन जी मौजूद थीं। उन्होंने कहा कि बच्चा नर्वस हो गया है। बाद में उन्हें मेरे आंसुओं का असल कारण सुपरवाइजर और विभाग के लोगों से पता चला कि मेरे साथ क्या हुआ था।
आपके पिताजी क्या करते हैं? अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताइए।
मैं उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जनपद के चौरीचौरा तहसील का निवासी हूं। मेरे पिता जी खेती किसानी करते हैं और मां गृहिणी हैं। हमारे पास छह बीघे (चार एकड़) खेत है। उसी में जो कुछ उपजता है, उसी से परिवार का गुज़ारा होता है। तीन भाइयों में सबसे बड़ा मैं ही हूं। मेरा मझला भाई ऑटोपार्ट्स की दुकान चलाता है और सबसे छोटा भाई बीएससी की पढ़ाई कर रहा है।
मैंने सुना है कि आप अपने गांव में दलित समुदाय को जागरूक करने के लिए लगातार कुछ न कुछ करते रहते हैं। कृपया बताएं।
हां, हमने गांव में आंबेडकर जयंती मनाना शुरू किया। इसके अलावा हम जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले जयंती पर भी लोगों को एकजुट करते हैं। गांव के लोगों को दलित-बहुजन समाज के संघर्षों और अपने नायकों के बारे में पढ़ने के लिए हम लोग गांव में ही एक लाइब्रेरी शुरू किए थे। हमने इसकी पूरी तैयारी कर ली थी, लेकिन ग्राम प्रधान से कहा-सुनी होने के बाद फिलहाल वह योजना स्थगित हो गई है। प्रधान ग्राम समाज की ज़मीन में लाइब्रेरी नहीं खोलने दे रहा है।
हम आपके ज़ख्मों को ताजा नहीं करना चाहते। फिर भी हम यह जानना चाहते हैं कि उस एक पल में क्या होता है जब उच्च शिक्षा संस्थानों में दलित छात्रों को आत्महत्या जैसा कठोर क़दम उठाने के लिए मज़बूर होना पड़ता है?
जब सार्वजनिक तौर पर कई लोगों के सामने आपकी निम्न जाति के कारण कोई आपके मान-सम्मान पर हमला करता है और चार लोग आप पर हंसते हैं तो उस वक्त खुद से घिन आने लगती है। खुद पर शर्मिंदग़ी होती है और मन करता है कि खुद को कहां छुपा लूं। खुद के प्रति एक घृणित मानसिकता हो जाती है। फिर हर बात पर खुद को कोसना होता है जब आपको हर पल हीन महसूस करवाया जाता है। आपकी शैक्षणिक योग्यता को कथित निम्न जाति में सीमित कर दिया जाता है। उस वक्त मन करता है कि सब कुछ छोड़कर कहां भाग जाएं ताकि ये ज़हरबुझे शब्दस्वर, गालियां युक्त हंसी और अपमान न सहना पड़े। जब बात-बात पर यह कहा जाता था कि ऐसे-ऐसे लोग पढ़ने, पीएचडी करने आ गए, जिनके पास मेरिट नहीं है और जाति के नाम पर आरक्षण के कारण आ गए हैं। नहीं तो इन लोगों का कहीं एडमिशन नहीं होता, ये लोग उस योग्य हैं ही नहीं। वे तो यहां तक कहते हैं कि नाली के कीड़े नाली में ही रहें तो ही ठीक है।
कैंपस में इतना सब सुनने-सहने के बाद जब छात्र अपने कमरे पर आता है तो वह हताश हो जाता है। फिर वह कौन-सा क़दम उठा लेगा, कोई ठिकाना नहीं रहता। मैं अपने बुरे अनुभव के आधार पर कह रह हूं कि पांच मिनट बहुत होता है सोचने के लिए। अगर पांच मिनट में सोच-समझकर खुद को तैयार कर लिया और उस स्थिति से बाहर निकल गए, तो ठीक है, वर्ना आत्महत्या करने जैसा फैसला ले लेते हैं। उस वक्त दिमाग में केवल एक ही बात रहती है कि मैं कुछ कर लूं। न रहूंगा और न सुनूंगा। उस वक़्त रिश्ते-नाते कुछ भी दिखाई नहीं देता।
उत्पीड़न करने वाले अध्यापकों से फिर मुलाकात होती थी तो क्या प्रतिक्रिया रहती थी आपकी और उनकी?
अब वे कुछ नहीं बोलते। एक जन रिटायर हो गये हैं। दूसरे जन मुझे देखते हैं तो खुद ही दूसरे रास्ते चले जाते हैं।
उस घटना के समय छात्र संघों का कैसा रवैया रहा था आपके साथ?
मैं दलित जरूर था, लेकिन आंबेडकर छात्र सभा, बहुजन समाज पार्टी या मायावती जी वगैरह ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया था। वहीं दूसरी ओर सपा प्रमुख अखिलेश यादव जी ने लगातर ट्विटर पर इस मुद्दे को लेकर लिखा था। मेरा मुद्दा उठाया था। घटना के बाद समाजवादी छात्र सभा से जुड़ गया था। मेरे साथ घटना घटी, और पुलिस ने मेरे ही खिलाफ़ कार्रवाई शुरू कर दी, तो एबीवीपी यूनिवर्सिटी इकाई के अध्यक्ष पीयूष मिश्रा मेरे साथ खड़ा हुआ। विचारधारा अलग है, लेकिन उससे मेरी व्यक्तिगत दोस्ती है। घटना के बाद जब मेरे ख़िलाफ़ केस दर्ज़ हुआ तो वह वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक से भिड़ गया। मेरी मदद के बाद उसे एबीवीपी द्वारा विश्वविद्यालय इकाई के अध्यक्ष पद से हटाने की बात हुई तो उसने खुद ही इस्तीफ़ा दे दिया था। हालांकि छह महीने बाद उसे फिर से अध्यक्ष बनाया गया। मैं कहता हूं कि विचारधारा तो बाद की बात है पहले आप एक इंसान तो बनो। कुछ इंसानियत तो दिखाओ। यह क्या कि आपको चंदा नहीं दिया, आपसे जुड़ा नहीं, तो लोगो ने मुझे मेरे हाल पर छोड़ दिया।
उस घटना के बाद क्या बदला आपके जीवन में?
बहुत कुछ बदल गया। अचानक से मैं बहुत मजबूत और जूनियर छात्रों का मेंटर बन गया। यूनिवर्सिटी में किसी दलित छात्र को कोई परेशान करता या उसका काम नहीं होता तो यूनिवर्सिटी के कर्मचारी या बच्चे उसे मेरा नंबर देकर कहते दीपक से मिल लो, वो खड़ा हो जाएगा तो तुम्हारा काम कोई नहीं रोकेगा। ज़िम्मेदारी बढ़ गई। यूनिवर्सिटी क्रेट (पीएचडी प्रवेश परीक्षा) के नतीज़े आने के बाद जो एससी/एसटी के बच्चे थे, उनको पीएचडी के लिए संबद्ध कॉलेजों में भेज दिया गया और जो सामान्य श्रेणी के थे, उनको यूनिवर्सिटी के मुख्य कैंपस की सीट एलॉट कर दी गई। मुझे पता चला तो मैंने सघर्ष करके रिजल्ट बदलवाया।
क्या जाति देखकर नंबर देने का मामला अब भी गोरखपुर विश्वविद्यालय में चलता है?
यह तो हर यूनिवर्सिटी का हाल है। गोरखपुर विश्वविद्यालय जैसा जातिवादी सामंतवादी माहौल वाला कैंपस इससे अछूता नहीं है।
परिवार की क्या प्रतिक्रिया थी उस वक्त?
उस घटना के बाद जब मैं अस्पताल में था तब मेरे बाबा मुझे देखने आए। उन्होंने मुझे डांटते हुए कहा कि तुमने ऐसा क्यों किया? उन्होंने तो प्रतिक्रियात्मक कदम उठाने के लिए भी कहा था। ये बातें उऩ्होंने डीएम के सामने कहा था। सपा के एक बड़े नेता भी थे उस वक्त वहां। मेरे बाबा एक समय बामसेफ से जुड़े थे। उन्होंने कहा कि किसी भी हाल में हिम्मत नहीं हारा जाता है, लड़ा जाता है। इसके बाद मैंने सोचा कि अब हर हालात का डट कर मुक़ाबला करूंगा।
गांव-समाज में क्या प्रतिक्रिया हुई?
मेरे गांव में हर जाति वर्ग के लोग हैं। लोगों ने भी मुझे बहुत समझाया था कि ऐसा नहीं करना चाहिए। आप पढ़े-लिखे हो, आपको तो संघर्ष करना चाहिए। पढ़े-लिखे लोग दूसरों के हक अधिकार के लिए लड़ते हैं। तुम ये कैसे उदाहरण सेट करने चले थे हमारे बच्चों के लिए। यादव, मुस्लिम, ब्राह्मण, निषाद सभी पचासों गाड़ियों में भरकर मेरे गांव के लोग यूनिवर्सिटी और डीएम के यहां पहुंचे थे। उनमें चार गाड़ियां तो ब्राह्मण समुदाय के लोगों की थी। वे लोग मेरे घर भी आए थे। गांव के लोगों ने कहा कि आप कभी खुद को अकेला मत समझिए। यूनिवर्सिटी में उस घटना के बाद पूरा गांव मेरे साथ खड़ा हो गया कि यह हमारे गांव का बच्चा है।
क्या आपके बाद गांव में उच्च शिक्षा में जाने वाले बच्चों की संख्या बढ़ी?
नहीं। मैं अपने गांव में अपनी जाति में पहला बच्चा था, जो पीएचडी करने गया। मैंने इसके बाद बहुत प्रयास किया कि दलित समाज के और बच्चे ऊंची तालीम हासिल करें, लेकिन जाति के लोगों ने मुझे ताने दिए कि आप पढ़ लिये, बहुत है, हमारे बच्चों को कमाने खाने दो। ग़रीबी भी एक वजह है।
डिग्री मिलने के बाद गोरखपुर यूनिवर्सिटी आपसे छूट गया, क्या वहां दोबारा जाना चाहेंगे?
मेरी कोशिश है कि गोरखपुर यूनिवर्सिटी में ही मेरा चयन हो जाए और मैं वहां अध्यापक बनकर वापस जाऊं। वहां लौटकर मैं वहां का माहौल बदलना चाहता हूं ताकि दलित छात्र जब वहां जाएं तो उन्हें वह सब न झेलना पड़े, जो मुझे झेलना पड़ा।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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