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दलित आलोचना की कसौटी पर प्रेमचंद का साहित्य (संदर्भ : डॉ. धर्मवीर, अंतिम भाग)

प्रेमचंद ने जहां एक ओर ‘कफ़न’ कहानी में चमार जाति के घीसू और माधव को कफनखोर के तौर पर पेश किया, वहीं दूसरी ओर ‘रंगभूमि’ उपन्यास में सूरदास को अंधा और भिखारी बना दिया। क्या यह जाति-व्यवस्था से संचालित सौंदर्य शास्त्र नहीं है, जिसमें दलित पात्र की छवि भिखारी और कफनखोर के तौर पर गढ़ी जा रही थी? पढ़ें, सुरेश कुमार के इस समालोचना का अंतिम भाग

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डॉ. धर्मवीर ने ‘कफ़न’ कहानी को लेकर कई गंभीर सवाल उठाए हैं। इन सवालों में एक सवाल यह भी था कि जब बुधिया प्रसव पीड़ा में तड़प रही थी तो उस गांव की दाई कहां थी? क्या घीसू-माधव के साथ पूरा का पूरा गांव संवेदनहीन हो गया था? ऐसा नहीं कि उस दौर में प्रसव पीड़ा के वक्त दाई नहीं बुलाई जाती थी। ज्यादा दूर जाने की बात नहीं है। इसका प्रमाण प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी द्वारा लिखित कहानी ‘हत्या’ है। शिवरानी देवी की यह कहानी सबसे पहले ‘चांद’ पत्रिका के जून, 1933 के अंक में छ्पी थी। इस कहानी में दलित स्त्रियों लेकर जो टिप्पणियां की गई हैं, वह दलित स्त्रीवादियों को बहुत असहज करने वाली हैं।

देखा गया है कि प्रगतिशील कहलाने वाली स्त्रियों की तरफ से यह जुमला बड़े ज़ोर-शोर से उछाला जाता रहा है कि स्त्रियों की कोई जाति नहीं होती है। शिवरानी देवी अपनी इस कहानी में एक जगह टिप्पणी करती हैं– “रही नीच जातियों की स्त्रियां, वे समझती हैं कि बड़े आदमियों के घर की औरतें पूर्वजन्म के किसी पुण्य-फल से इतनी जल्दी दुनिया से विदा हो जाती हैं। बेचारी नीच जातियों की औरतों को तो यमराज भी नहीं पूछते। जिनकी यहां पूछ है, उनकी वहां भी।” क्या कोई प्रगतिशील लेखिका यह बताएंगी कि जब स्त्रियों की कोई जाति नहीं होती है तो शिवरानी देवी किन स्त्रियों को नीच जाति का बता रही हैं?

खैर, अब शिवरानी देवी की ‘हत्या’ कहानी के कथानक पर आते हैं। इस कहानी के कथानक में दिखाया गया है कि पंडित रूद्रनाथ के घर पर जो बहुएं विवाह करके आती हैं, वह दो-चार साल में स्वर्ग सिधार जाती हैं। रुद्रनाथ के सभी बेटों की दो से तीन शादियां हो चुकी हैं और सबकी पत्नियां मृत्यु को प्राप्त हो चुकी हैं। पंडित रुद्रनाथ के बड़े बेटे चंद्रनाथ का अभी-अभी दूसरा विवाह गुलाब के साथ हुआ है। इस कहानी की एक पात्र के रूप में मैना देवी है, जो गुलाब की सास है। वह बहुत कर्कश और पुराने-जमाने ख्यालों की है। वह अपनी बहुओं को बड़ी पहरेदारी में रखती है। शिवरानी देवी कहानी की कथा में दिखाती हैं कि विवाह के कई महीने बीतने के बाद गुलाब गर्भवती हो जाती है। जब गुलाब को प्रसव पीड़ा होती है तो उसकी सास मैना देवी अपने पति पंडित रुद्रनाथ से कहती है कि दाई बुलवा लें। शिवरानी देवी लिखती हैं कि, “अब मैना को शायद खेद हुआ। उसने समझा था कि बहू मक्कर किए पड़ी हुई है। वह ऊपर गई। बच्चे को उठा लिया और चंद्रनाथ को पुकार कर बोली जाकर अपने बाप से कह दो दाई बुलवा लें। भगवान ने उनको पोता दिया है। पंडित जी दाई को बुलाने के लिए आदमी भेजकर घर में आ बैठे और पन्ना खोलकर देखने लगे, बच्चा कैसे लग्न में पैदा हुआ है।” (देखें, हत्या, शिवरानी देवी, चांद : जून, 1933, पृष्ठ 156)

दाई आती है और गुलाब की गंभीर स्थिति देखकर वह पंडित रुद्रनाथ को सुझाव देती है कि किसी मेम डाक्टर को बुलवा लिया जाए। यहां उच्च श्रेणी के इस हिंदू परिवार का धर्म आड़े आ जाता है। पंडिताइन मैना देवी कहती है कि “हम क्रिस्तान थोड़े हैं कि मेम को घर पर बुला लें।” यहां देखा जा सकता है कि शिवरानी देवी अपनी कहानी में दाई की तो बात छोड़ दें, वह महिला डाक्टर को भी बुलाने का आग्रह कर रही हैं। शिवरानी देवी की इस कहानी के महज तीन साल बाद ‘कफ़न’ लिखी जाती है, जिसमे दाई का नामोनिशान तक नहीं है।

इस प्रकरण पर डॉ. धर्मवीर का दावा है कि “बुधिया को मारने से पहले प्रेमचंद ने गांव की दाई को भी मार दिया था।” देखा गया है कि गांव में दाई का अधिकतर काम शूद्र और दलित वर्ग कि स्त्रियां करती हैं। हिंदी के आलोचक इस बात की पड़ताल करें कि जब शिवरानी देवी अपनी कहानी ‘हत्या’ में दाई के साथ ‘लेडीस डाक्टर’ को भी बुला रही थीं तो ‘कफ़न’ कहानी में प्रेमचंद को पूरे गांव में एक भी दाई क्यों नहीं मिली? वह भी तब जब घीसू और माधव को उन्होंने चमार जाति का बताया, जबकि दाई का काम पारंपरिक रूप से दलित महिलाएं ही करती थीं?

डॉ. धर्मवीर ने ‘प्रेमचंद : सामंत का मुंशी’ किताब प्रकाशित होने के पांच साल बाद प्रेमचंद के कथा साहित्य और विचारों को केंद्र रखकर ‘प्रेमचंद की नीली आंखें’ शीर्षक से एक और किताब लिखी। इस आलोचनात्मक ग्रंथ में प्रेमचंद का मूल्यांकन दलित कटी पर किया गया। इसके निष्कर्ष और दलीलें हिंदी की पारंपरिक आलोचना पद्धति से अलग प्रेमचंद पर एक नया नज़रिया हमारे सामने रखती हैं।

दरअसल, प्रेमचंद और उनका साहित्य दलित आलोचना का मुद्दा नहीं था। डॉ. धर्मवीर का दावा है कि “प्रेमचंद पर मुझे कुछ कहना नहीं था। प्रेमचंद और उनका साहित्य मेरे चिंतन के विषय नहीं थे। वे पुस्तकों की मेरी स्कीम से बाहर थे। लेकिन भ्रम यह फैलाया गया कि प्रेमचंद प्रो-दलित और प्रो-वूमेन थे। यह बर्दाश्त से बाहर की बात थी। मुझे खंडन में सुख नहीं मिलता है। यह फालतू और बेकार का काम है।”

डॉ. धर्मवीर व प्रेमचंद

वास्तव में दलित साहित्य और आलोचना के उभार के समय हिंदी आलोचकों द्वारा प्रेमचंद को दलित हितैषी कहकर दलित साहित्य पर थोपा जाने लगा। ऐसे आलोचकों द्वारा प्रेमचंद को दलित साहित्य का अगुवा भी सिद्ध करने की कयावद को भी अंजाम दिया गया। ऐसे में दलित आलोचकों ने प्रेमचंद के साहित्य और विचार को जब दलित कसौटी पर जांचा-परखा और उनके साहित्य चिंतन पर सवाल उठाए तो हिंदी के तथाकथित आलोचक दलित लेखकों से बेहद खफ़ा हो गए। दलित लेखकों से उनकी नाराजगी खुद तक सीमित न रहकर सवर्ण प्रिंट मीडिया में भी देखने को मिली।

डॉ. धर्मवीर ने जहां ‘प्रेमचंद : सामंत का मुंशी’ में ‘कफ़न’ कहानी को अपनी आलोचना का केंद्र बनाया, वहीं ‘प्रेमचंद की नीली आंखें’ में ‘रंगभूमि’ और ‘गोदान’ पर अपनी आलोचना प्रस्तुत की। साहित्य इतिहास के आलोक में देखा जाए तो सन् 1925 में ‘रंगभूमि’ दो खंडों में गंगा-पुस्तकमाला-कार्यालय, लखनऊ से प्रकाशित हुआ था। गंगा-पुस्तकमाला के कर्ता-धर्ता नवजागरण काल के प्रसिद्ध संपादक और लेखक दुलारे लाल भार्गव थे। वास्तव में बीसवीं सदी का दूसरा-तीसरा दशक असहयोग आंदोलन, किसान आंदोलन, अछूतोद्धार, धर्मांतरण, आदि हिंदू आंदोलन, हिंदू संगठन और हिंदू-मुस्लिम समस्या जैसी तमाम सामाजिक, राजनैतिक गतिविधियों से भरा रहा। इन घटनाओं की थोड़ी बहुत आहट ‘रंगभूमि’ में भी सुनाई देती है। रंगभूमि का नायक सूरदास है, जो जाति से चमार है।

दलित अस्मिताकारों को यह बात हैरान करती है कि प्रेमचंद ने जहां एक ओर ‘कफ़न’ कहानी में चमार जाति के घीसू और माधव को कफनखोर के तौर पर पेश किया, वहीं दूसरी ओर ‘रंगभूमि’ उपन्यास में सूरदास को अंधा और भिखारी बना दिया। क्या यह जाति-व्यवस्था से संचालित सौंदर्य शास्त्र नहीं है, जिसमें दलित पात्र की छवि भिखारी और कफनखोर के तौर पर गढ़ी जा रही थी? सवर्ण कथाकार जाति-भेद से संचालित सौंदर्य शास्त्र से इतर दलितों की छवि पेश क्यों नहीं करते? क्या दलित पात्रों का चित्रण करते समय उनका सवर्णपन आड़े आ जाता है? ऐसे में डॉ. धर्मवीर का सवाल है कि दलित समाज के वास्तविक नायक स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ को मिटाने के लिए प्रेमचंद ने ‘रंगभूमि’ में सूरदास जैसे अंधे पात्र का सृजन किया। डॉ. धर्मवीर का तर्क है कि “यदि स्वामी अछूतानंद का उदय न हुआ होता तो ‘रंगभूमि’ में एक पात्र के रूप में किसी सूरदास चमार का पदार्पण न होता। मुझे नहीं लगता है कि किसी के पास मेरे इस कथन की काट संभव है कि ‘रंगभूमि में’ चमार जाति का अंधा और अदना-सा सूरदास उस समय चमार जाति के वास्तविक नायक और समय के महानायक स्वामी अछूतानंद को मिटाने के लिए खड़ा गया था।” डॉ. धर्मवीर के इस दावे में कितनी सच्चाई है, आइए, इसकी पड़ताल करते हैं।

बीसवीं सदी के प्रारंभिक दौर के औपनिवेशिक भारत में स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ विलक्षण दलित चिंतक और साहित्यकार थे। प्रेमचंद जिस दौर में ‘रंगभूमि’ लिख रहे थे, उसी समय स्वामी अछूतानंद का अछूत आंदोलन अपने शबाब पर था। इस दलित चिंतक ने अपने दलित आंदोलन से उत्तर भारत में दलितों को गोलबंद कर सामाजिक, राजनैतिक और धार्मिक चेतना पैदा कर दी थी। उनके आदि हिंदू आंदोलन से नवजागरण कालीन हिंदी के सवर्ण संपादकों और लेखकों के बीच कोहराम मच गया था। स्वामी अछूतानंद का दावा था कि सात करोड़ अछूत किसी भी दशा में हिंदू धर्म का अंग नहीं हैं। वह दलितों और शूद्रों को हिंदुस्तान का मूल निवासी बताते थे। स्वामी अछूतानंद के इस वक्तव्य से उच्च श्रेणी के हिंदुओं के भीतर इस बात का भय व्याप्त हो गया था कि यदि सात करोड़ अछूत हिंदुओं से अलग हो गए तो हिंदू धर्म बलशाली नहीं रहेगा। हिंदू धर्म की रक्षा की खातिर सवर्ण पृष्ठभूमि से आए कथाकार और संपादक अछूतोद्धार के आंदोलन में कूद पड़े। इस स्कीम के तहत हिंदी संपादक और लेखक अपनी पत्र-पत्रिकाओं में स्वामी अछूतानंद का विरोध करना शुरू कर दिया। हिंदी के प्रसिद्ध लेखक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने ‘ब्राह्मण सर्वस्व’ पत्रिका में स्वामी अछूतानंद हरिहर के आदि हिंदू आंदोलन को उच्च श्रेणी के हिंदुओं के लिए खतरनाक बताया। इस लेखक ने हिंदू नेताओं से आग्रह किया कि यदि शीघ्र से शीघ्र स्वामी अछूतानंद के आंदोलन को खत्म नहीं किया गया तो अछूत हिंदुओं के विरुद्ध भयंकर क्रांति कर डालेंगे। इस लेखक का यह तक कहना था कि स्वामी अछूतानंद स्वाधीनता संग्राम के रास्ते का पत्थर है। हिंदी नवजागरण काल के क्रांतिकारी संपादक रामरख सिंह सहगल ने सन् 1927 में ‘चांद’ पत्रिका में ‘आदि हिंदू आंदोलन’ शीर्षक से संपादकीय लिखकर स्वामी अछूतानंद के आंदोलन का जमकर विरोध किया। यहां तक कि गणेश शंकर विद्यार्थी ने 1925 में ‘प्रताप’ में संपादकीय लिखकर स्वामी अछूतानंद के अछूत आंदोलन से अपनी असहमति को सार्वजनिक कर दिया।

जब हिंदी नवजागरण कालीन लेखक और संपादक स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ के आंदोलन पर अंकुश लगाने में विफल हो गए तो उन्होंने स्वामी अछूतानंद के विरुद्ध अफवाह का सहारा लिया। इसे डॉ. धर्मवीर के शब्दों में कहा जाए तो सवर्ण लेखकों ने स्वामी अछूतानंद का प्रक्षिप्तिकरण कर डाला। मसलन, नवजागरण कालीन लेखकों और संपादकों की ओर से स्वामी अछूतानंद को इसाई और मुसलमानों का एजेंट बताया जाने लगा। सन् 1925 में ‘आदि हिंदू आंदोलन’ शीर्षक से ‘प्रताप’ के संपादकीय में गणेश शंकर विद्यार्थी ने लिखा– “स्वामी हरिहरानंद उर्फ अछूतानंद नाम के एक सज्जन इधर इस काम के प्रधान सूत्रधार हैं। कुछ लोग कहते हैं कि स्वामी जी पहले चमार थे, फिर ईसाई हुए और फिर शुद्ध होकर इस आंदोलन के कर्ता-धर्ता बने। लोग यह भी कहते हैं कि वे अधिकारियों से मिले हुए हैं, और उनके इशारे और सहायता पर हिंदुओं में फूट डाल रहे और नीच जातियों को ऊंची जातियों से लड़ा रहे हैं। पता नहीं, इन सब बातों में कितनी सच्चाई है। सच्चाई हो भी तो इससे इस आंदोलन के गुण और दोष में कोई अंतर नहीं पड़ता।”

स्वामी अछूतानंद का आंदोलन व्यापक था। जब गांधी जी का असहयोग आंदोलन अपने चरम पर था तो सन् 1921 के अंत में इंग्लैंड के युवराज प्रिंस ऑफ वेल्स भारत की यात्रा पर आए थे। इस यात्रा का हिंदू नेताओं और लेखकों द्वारा विरोध किया गया। बड़ी दिलचस्प बात है यह कि स्वामी अछूतानंद ने प्रिंस ऑफ वेल्स की यात्रा का विरोध करने के बजाय स्वागत करने का फैसला किया। वह इस अवसर पर दलितों की वास्तविक स्थिति से प्रिंस ऑफ वेल्स को अवगत करना चाहते थे। स्वामी अछूतानंद की एक अपील पर हजारों की संख्या में दलित प्रिंस ऑफ वेल्स का स्वागत करने के लिए जमा हो गए। इस घटना का जिक्र मिस कैथरीन मेयो ने अपनी किताब ‘मंदर इंडिया’ में किया है। हालांकि उन्होंने स्वामी अछूतानंद के नाम का उल्लेख नहीं किया है।

बहरहाल, स्वामी अछूतानंद के आंदोलन का प्रसार देख कर हिंदू सुधारक भी चिंतित हो गए थे। उनके आंदोलन को रोकने के लिए लाला लाजपत राय ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन अछूत नेता चौधरी बिहारी लाल को स्वामी अछूतानंद के विरुद्ध खड़ा कर दिया। इस संबंध में कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’ ने लिखा– “इसकी खबर लाला लाजपत राय तक पहुंच गई। उन्होंने उत्तर प्रदेश के हरिजन नेता चौधरी बिहारी लाल से इस बारे में बातचीत की। अछूतोद्धार कमेटी मे दोनों सहकर्मी थे। चौधरी साहब कांग्रेस के कर्मठ नेता थे। वे मैदान में उतरे। जहां स्वामी अछूतानंद का जलसा होता, वे गांव-गांव में घूमते और हरिजनों को समझाते। उन्होंने स्वामी अछूतानंद का नाम नकली स्वामी रख दिया और यह चल पड़ा। अछूत लोग भरे जलसों में उन्हें पुकारते– ‘अरे नकली स्वामी तू मुझे यह बात बता … ।’” (देखें, उत्तर प्रदेश स्वाधीनता संग्राम की एक झांकी, कन्हैया लाल मिश्र ‘प्रभाकर’, सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ, 19 नवंबर, 1985, पृष्ठ 56)

अब सवाल उठता है कि जब उत्तर भारत में दलितों का इतना बड़ा आंदोलन चल रहा था और स्वामी अछूतानंद ‘हरिहर’ दलितों को गोलबंद कर उनके अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे तो उसी दौर में हिंदी कथा लेखक अपने कथा साहित्य में दलित नायक को अंधा और भिखारी बनाकर क्यों पेश कर रहे थे? डॉ. धर्मवीर इस कवायद को दलित आंदोलन के इतिहास को विकृत करने के तौर पर देखते हैं। ‘रंगभूमि’ के विवेचन में उनका निष्कर्ष है कि “हिंदी साहित्य में मूल कबीर को छोड़ कर प्रक्षिप्त कबीर का ऐसा अध्ययन किया ही जा रहा था कि ‘रंगभूमि’ उसकी भी मां निकली। वहां कबीर का नाम बचा रह गया था, यहां स्वामी अछूतानंद का नाम तक गायब हो गया है। इसी उद्देश्य से साहित्यिक विधा उपन्यास की अपनाई गई है। अब कौन कहने वाला है, कौन पूछने वाला? हदबंदी कर रखी है कि पाठ से बाहर न जाया जाए जबकि चमारों के तत्कालीन इतिहास को लेकर यह पूरा पाठ प्रक्षिप्त है।”

भीख मांगने का अर्थशास्त्र दलित संस्कृति का हिस्सा नहीं रहा है। देखा गया है कि दलित समाज के अपाहिज और अंधे भी भीख मांगकर नहीं, कमाकर खाते हैं। प्रमाण के तौर पर प्रसिद्ध दलित लेखक श्यौराज सिंह ‘बेचैन’ की आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर’ का अध्ययन किया जा सकता है। डॉ. धर्मवीर ने ‘रंगभूमि’ के विवेचन में यह सवाल उठाया कि सूरदास दस बीघा जमीन का मालिक होने के बाद भी भीख मांगकर क्यों खाता है? जबकि गोदान में होरी के पास पांच बीघा ज़मीन है और गांव के तीन-चार महतो हलवाहे भी उसके सामने सिर झुकाते हैं। यह कैसे संभव है कि ‘गोदान’ का होरी पांच बीघा ज़मीन वाला किसान है, जबकि ‘रंगभूमि’ का सूरदास चमार दस बीघा जमीन का मालिक हो कर भी भीख मांगता है! डॉ. धर्मवीर का मत है कि भीख मांगने वाला चमार दलित समाज का नायक नहीं हो सकता है, क्योंकि भीख मांगने का काम श्रमजीवी आजीवक धर्म के खिलाफ है।

हिंदी के प्रगतिशील आलोचक ‘गोदान’ में सिलिया चमारिन और भंगेड़ी मातादीन की कथा वाला प्रसंग बड़ा क्रांतिकारी बताते हैं। डॉ. धर्मवीर हिंदी आलोचकों की तरह इस कथा को क्रांतिकारी नहीं मानते हैं। उनका दावा हैं कि चमारों का फजीता करने के लिए प्रेमचंद ने सिलिया जैसा पात्र सृजित किया है। अछूतोद्धार आंदोलन के दौरान इस प्रकार की कथाओं की हिंदी साहित्य में बाढ़-सी आ गई थी। डॉ. धनीराम प्रेम ने ‘अछूत’ (कहानी), इलाचंद जोशी ने ‘बरेठन’ (कहानी) और प्रेमचंद ने ‘गोदान’ (उपन्यास) में यह दिखाया कि उच्च श्रेणी के हिंदू ‘अछूतोद्धार’ की खातिर धोबी, चमार और पासी बनने के लिए तैयार हैं। इसके पीछे हक़ीक़त यह है कि जाति-भेद से संचालित सौंदर्य शास्त्र काम कर रहा था। मसलन, प्रेमचंद सहित हिंदी लेखकों ने अपनी कहानियों के कथानक में यह विषय क्यों नहीं बनाया कि दलित समाज का युवक ब्राह्मण-ठाकुर की लड़की से प्रेम कर उच्च श्रेणी का हिंदू बन जाता है? यदि गोदान की सिलिया उच्च श्रेणी की हिंदू युवती होती तो क्या सवर्ण पृष्ठभूमि से आए आलोचक सिलिया प्रकरण को इसी तरह से देखते? डॉ. धर्मवीर ने शिवरानी देवी के हवाले से जब यह खुलासा कर दिया कि प्रेमचंद का एक औरत से विवाहेत्तर संबंध था तब इस बात को सवर्ण आलोचकों ने प्रेमचंद का चरित्र हनन करार दिया था। ऐसे आलोचक भूल गए कि प्रेमचंद ने सिलिया के बहाने पूरी चमार जाति का ही फजीता कर डाला। डॉ. धर्मवीर की दृष्टि में अंधे, भिखारी और कफ़नखोर प्रेमचंद की कथाओं के नायक तो सकते हैं, लेकिन दलित समाज के हीरो-हीरोइन नहीं हो सकते। सूरदास, सिलिया और घीसु-माधव जैसे दलित पात्र दलित मुक्ति और चेतना पर ग्रहण हैं, जो दलित समाज को सवर्णों की गुलामी के लिए प्रेरित करते हैं।

दरअसल, यह एक खेल है, जो हिंदी कथा लेखक दलितों के नाम पर खेलते आ रहे हैं। डॉ. धर्मवीर अपने विवेचन में लिखते हैं कि “एक खेल है जो साहित्यिक मंच से खेला जा रहा है। ‘रंगभूमि’ में सूरे चमार को खेल-खेल में मारा गया है, तो ‘गोदान’ में चमारों की जवान बेटी सिलिया का फजीता करके रख दिया है। घीसू-माधव के चमार पात्रों में रंगकर्मी के रूप में खुद प्रेमचंद विद्यमान हैं। मेरी समझ है कि ऐसे पात्र उन्हें बिना चमार जात का नाम लिए खड़े करने चाहिए थे।”

हम पाते हैं कि डॉ. धर्मवीर ने प्रेमचंद के कथा साहित्य का विवेचन दलित कसौटी पर किया। इसलिए उनकी दलीलें और निष्कर्ष हिंदी आलोचना की सार्वजनिक और अकादमिक दुनिया में विचारणीय और बहस तलब लगते हैं। प्रेमचंद के इस दलितवादी पाठ से हिंदी आलोचना की चौहद्दी का विस्तार ही हुआ है। डॉ. धर्मवीर ने प्रेमचंद को लेकर जो सवाल उठाए हैं, उन सवालों पर चुप्पी साधने या आहत होने से अच्छा है कि हिंदी आलोचक द्वारा उनके जवाब तलाशे जाएं। वह भी प्रेमचंद के पाठ में कुछ नया जोड़ें। और, हिंदी आलोचना की चौहद्दी का विस्तार करें।

(समाप्त)

(संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सुरेश कुमार

युवा आलोचक सुरेश कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. और लखनऊ विश्वविद्यालय से पीएचडी करने के बाद इन दिनों नवजागरण कालीन साहित्य पर स्वतंत्र शोध कार्य कर रहे हैं। इनके अनेक आलेख प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित हैं।

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