उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद में एक कवि थे हीरालाल। वे जाति से अहीर (यादव) थे, कर्म से हलवाई और विचार से बहुजनवादी। साल 2016 में जन संस्कृति मंच ने इलाहाबाद में मुक्तिबोध-त्रिलोचन जन्मशती का आयोजन किया था। कार्यक्रम के आखिरी सत्र में इलाहाबाद के कवियों ने कविता पाठ किया था। उसी मंच से हीरालाल जी ने भी अपनी दो कविताएं पढ़ी थीं। कहने की बात नहीं कि उन कविताओं से मैं प्रभावित हुआ। मंच से नीचे आने के बाद मैंने कविताओं की प्रशंसा में कुछ बातें कही और उनका मोबाइल नंबर मांगा। बातचीत के दौरान ही मैंने उनसे पूछा कि वे कहां रहते हैं, मैं उनके घर आना चाहूंगा उनकी कविताएं सुनने के लिए। हालांकि उऩ्होंने बताया था कि वह शहर में ही अलोपीबाग़ की एक गली में रहते हैं, लेकिन घर आने की बात पर न जाने क्यों वे कुछ बेचैन हो उठे थे। इत्तेफाक़ से अगले ही महीने किसी काम से शहर जाना हुआ तो हीरालाल जी की याद आई। मै अलोपी मंदिर से कुछ आगे तक पैदल ही गया, उऩ्हें कॉल किया, कई बार, लेकिन वो फोन नहीं उठा। फिर मैं वापिस लौट गया।
इसके बाद मैं वापिस दिल्ली-एनसीआर चला गया। गौरतलब है कि तब मैं वहीं रहकर रोजी-रोटी कमाने का संघर्ष कर रहा था। उन दिनों दिल्ली में तिलक ब्रिज स्टेशन के पास एक छोटे से पार्क में ‘हुत’ नामक संस्थान अनौपचारिक कविता पाठ का पाक्षिक आयोजन करवाया करती थी। यह पूरी तरह से एकल-कवि कविता पाठ होता था जिसमें एक कवि अपनी 30-40 कविताओं का पाठ करता और फिर वहां मौजूद लोग उन कविताओं पर बात करते थे। मैं इस आयोजन का नियमित सदस्य था और दिल्ली में रहते हुए इसके हर आयोजन में भागीदार हुआ करता था। ‘हुत’ संस्था के कर्ता-धर्ता इरेंद्र बबुआवा मेरे मित्र थे, अब भी हैं, तो मैंने एक कार्यक्रम के लिए कवि हीरालाल को बुलाने के लिए इरेंद्र बबुआवा से बात किया और उन्होंने कहा भी था कि आप बात कर लीजिए। वे जब आने की सहमति दें उसके हिसाब से दिन-तारीख तय कर लेंगे। उस दौरान मैंने लगातार कई कई दिनों तक हीरालाल जी का फोन नंबर मिलाया था, लेकिन उस नंबर पर कभी भी मेरी कॉल रिसीव नहीं हुई। धीरे-धीरे बात आई-गई हो गई।
फिर 2020 कोविड काल के बाद मैं इलाहाबाद स्थित अपने पैतृक गांव शिफ्ट हो गया। इसी बीच एक रिपोर्ट के सिलसिले में बात करने के लिए मोबाइल के फोनबुक से साथी हीरालाल राजस्थानी और हीरामन जी का नंबर खोजते हुए एक बार फिर हीरालाल जी के नाम से मुठभेड़ हो गया। मैंने एक बार फिर फोन लगाया, लेकिन फोन हमेशा की तरह नहीं उठा। कुल मिलाकर साल 2016 से अगस्त 2024 के दौरान मैंने अलग-अलग मौकों पर उस नंबर पर अनेक मर्तबा कॉल किया होगा, लेकिन कभी फोन नहीं उठा। बाद में कवि संतोष चतुर्वेदी ने पुष्टि की कि वह मोबाइल नंबर उनका ही है, लेकिन एक नंबर और भी है उनके पास।
बीते 6 अगस्त, 2024 को मैंने सामाजिक कार्यकर्ता साथी धर्मेंद्र यादव से ह्वाट्सअप के जरिए पूछा कि क्या वे इलाहाबाद के कवि हीरालाल को जानते हैं? और अगर जानते हैं तो उनका कोई नंबर हो तो दें, जिस पर उनसे बातचीत हो सके।
उत्तर में धर्मेंद्र यादव ने बताया कि वे हीरालाल जी को जानते तो हैं, लेकिन 4-5 साल से अधिक का समय हो गया उनसे मिले हुए। एक बार ऐसे ही रास्ते में चलते हुए (सीएमपी कॉलेज और देहाती रसगुल्ला के बीच डॉट के पुल के पास) उनसे मुलाकात हुई थी। वे पैदल ही कहीं जा रहे थे। मैंने उनसे कहा कि चलिए आप को घर तक छोड़ दूं तो बोले कि नहीं मैं चला जाऊंगा। बातचीत के दौरान धर्मेंद्र जी ने यह भी कहा कि झूंसी में एक शायर रहते हैं– अहमद नियाज़ रज़्ज़ाकी। उनके यहां चलेंगे किसी रोज़। उनके यहां हीरालाल का कविता संग्रह ‘कस में हीरालाल’ मिल जाएगा, उसमें उनके घर का पता ज़रूर होगा। नियाजी साहेब से उनका संपर्क था तो हो सकता है कि उनका मोबाइल नंबर भी उनसे मिल जाए। धर्मेंद्र जी ने यह भी कहा कि अलोपीबाग़ या जॉर्ज़टाउन में उनकी दुकान है मिठाई की, वहीं कहीं आस-पास ही रहते हैं। इतने दूर में हलवाई में हीरालाल कौन हैं, यह पता हम लगा ही लेंगे।
मुझसे बात करने के पश्चात धर्मेंद्र यादव ने अवनीश यादव (सृजन सरोकार पत्रिका) और संतोष चतुर्वेंदी (पहली बार साहित्यिक ई-पोर्टल) से बात करके हीरालाल जी के बारे में पूछा। हीरालाल के बारे में पूछना, ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंकना साबित हुआ। इससे इलाहाबाद हिंदी साहित्य समाज में हीरालाल को लेकर हलचल शुरू हुई।
बीते 7 सितंबर, 2024 को कवि व संपादक प्रोफ़ेसर संतोष चतुर्वेदी ने अपने फेसबुक एकाउंट पर एक पोस्ट डालकर सूचना दी कि हीरालाल जी के मोबाइल नंबर पर उनके एक परिजन से उनकी बात हुई तो पता चला कि 22 जनवरी, 2024 को अचानक ही हीरालाल जी का निधन हो चुका है। साथ ही उन्होंने यह भी लिखा कि एक दिन पहले रणविजय सत्यकेतु और एक महीने पहले धर्मेंद्र यादव ने पूछा था हीरालाल के बारे में। उन्होंने बताया कि तीन-चार महीने में उन्होंने भी 5-6 बार कॉल किया था उस नंबर पर, लेकिन कोई रिसीव नहीं कर रहा था।
हीरालाल स्मृति सभा
यानी 22 जनवरी, 2024 को जब पूरा देश अयोध्या में राम की प्राण प्रतिष्ठा में जुटा हुआ था, इलाहाबाद में एक बहुजन कवि ग़ुमनाम मौत मर गया, और शहर को कानों-कान ख़बर तक न हुई। परिजनों का कहना है कि उऩ्होंने एबीपी के पत्रकार रविकांत को फोन पर हीरालाल जी के मौत की सूचना दी थी। जबकि पत्रकार ने सोचा कि जैसे उन्हें सूचना दी गयी है और लोगों को भी सूचित किया गया होगा। जाहिर है कि उस दिन अयोध्या पर रिपोर्टिंग को लेकर अतिरिक्त दबाव भी रहा होगा तो उऩ्होंने इसका किसी से कोई ज़िक्र नहीं किया।
लेकिन बीते 7 सितंबर, 2024 को जब हीरालाल की मौत की ख़बर मिली तो तीनों वाम लेखक संगठनों प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच ने मिलकर स्मृति सभा के आयोजन की योजना बनाई। वरिष्ठ कवि बोधिसत्व ने इसे प्रायश्चित सभा करार दिया।
यह आयोजन बीते 29 सितंबर की शाम अंजुमन-रूह-ए-अदब सभागार में किया गया। इसकी अध्यक्षता शहर के प्रतिष्ठित कवि हरिश्चंद्र पांडेय ने किया। इस सभा में दिवंगत कवि का पूरा परिवार भी शामिल हुआ। मंच पर हरिश्चंद्र पांडेय के साथ अनीता गोपेश, प्रणय कृष्ण, अजामिल जी के अलावा दिवंगत हीरालाल जी की पत्नी उमा जी भी शामिल हुईं।
कार्यक्रम का संचालन युवा कवि प्रकर्ष मालवीय विपुल ने किया। हीरालाल जी के पुत्र अगमलाल यादव ने बताया कि कैसे पिता हीरालाल जी ने सदैव सच्चाई, ईमानदारी और परोपकार के मार्ग पर चलना सिखाया। प्रियदर्शन मालवीय ने कवि के गुमनाम मौत पर गंभीर सवाल खड़े करते हुए कहा कि हीरालाल जी कुलीन नहीं थे। यदि वे कुलीन होते तो शायद उनकी मौत गुमनाम न होती। जनकवि मोहन लाल यादव ने मरहूम हीरालाल को माटी का कवि कहा। शिवानंद मिश्र ने हीरालाल जी के बारे में कहा कि वे मंचों पर आने में खुद को अभिव्यक्त करने, रेखांकित करने के मामले में वे बड़े संकोची व्यक्ति थे। वे इलाहाबाद के सभी गोष्ठियों में मौजूद रहते। वे हाशिए की आवाज़ थे, जीवटता से भरे हुए।
कवि प्रो. बसंत त्रिपाठी ने इस विडंबना पर विचार करने के आग्रह से कहा कि इतनी सघन और मार्मिक कविताओं के बाद एक कवि साइलेंट जोन में चला जाता है। एक बोलने वाला कवि जब अपना बोलना स्थगित कर देता है तो किसी भी स्वस्थ समाज के लिए यह सबसे ज्यादा सोचने का विषय है। हमें हीरालाल जी के बहाने अपने समय और समाज को समझना होगा कि कैसे उछलता हुआ व्यक्ति सबके सामने आ जाता है पर एक परिदृश्य से ओझल दूर शांति से काम करता व्यक्ति चर्चा के बाहर रहता है।
प्रो. अनीता गोपेश ने कहा कि वो हीरालाल में अपनी पिता की छवि देखती थी। वे अपनी बच्चियों की सफलता की सूचना बहुत खुशी-खुशी साझा करते थे। वे संघर्षशील व्यक्ति थे। इस घटना ने हमें झकझोर दिया कि उनके जाने की बात हम तक इतनी देर में पहुंची। समकालीन राजनीति का संपादक और कवि अजामिल व्यास ने उनकी शुरुआती कविताएं छापने की स्मृतियां साझा की। राजनीतिक कार्यकर्ता अविनाश मिश्रा ने हीरालाल जी को जनपक्षीय कवि करार देते हुए कहा कि वे वर्ण-व्यवस्था और आभिजात्य-वर्ग को ठेंगा दिखाते हुए तीखा व्यंग्य करते थे। ग़ज़लग़ो अशरफ़ अली बेग़ ने उन्हें बहुत मार्मिक कविताओं का कवि कहा।
साहित्यालोचक प्रो. प्रणय कृष्ण ने कहा कि साहित्य का एक महत्वपूर्ण काम है सही तरह की स्मृतियों का पुनर्वास करना, जो कि अपने आप में रचना है। अपनी संवेदशीलता को इस घटना के बाद कटघरे में खड़ा करना लाज़मी है, लेकिन समय-समय पर अपने साहित्यिक पुरखों को याद करना भी एक साहित्यिक कर्म है। उऩ्होंने हीरालाल जी बारे में कहा कि विनम्रता के साथ उनके भीतर मेहनतकशों का स्वाभिमान था। हो सकता है कि साहित्यिक समाज की असंवेदनशीलता के कारण उनका दुराव हुआ हो। साहित्य का समाज बहुत छोटा है और इसमें बहुत सारी दलबंदी व राजनीति है। हीरालाल जी कबीर के साथ मुक्तिबोध के भी गोती थे। वर्णाश्रम को तोड़ने के मामले में नि:संदेह कबीर से जुड़ते हैं। हीरालाल को अपने साथी रमाशंकर यादव विद्रोही की कविता परंपरा के रूप में भी याद करता हूं। कुदाल, फावड़ा आदि कविता के उपकरण को वैसे ही अपनी कविता का विषय बनाते जैसे भक्तिकाल के कवि वे कविता खड़ी बोली में लिखते हुए भी अपने टोले मुहल्ले और स्थानीय भाषा में कविता रचते थे।
प्रो. प्रणय कृष्ण ने प्रस्ताव किया कि हीरालाल जी के रचनाकर्म पर भी एक आयोजन केंद्रित किया जाए। परिवार की ओर से उस कार्यक्रम में सहायता की घोषणा की गई। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए वरिष्ठ कवि हरिश्चंद्र पांडेय जी ने कहा कि उऩ्हें हीरालाल जी के न रहने की ख़बर कवि संतोष चतुर्वेदी से मिली। बच्चे कैसे पढ़ेंगे, व्यवसाय कैसे चलेगा, इन चिताओं से जूझते हुए उस समय ये कविताएं सबके सामने आईं और जब उनके जीवन में निश्चिंतता का समय आया तब वे परिदृश्य से दूर हो गए। वे घर भी खूब बदले और व्यवसाय भी साथ-साथ बदल रहे थे। जैसे कि कोई कविता में प्रयोग करता है। वे किस तरह जीवन-संघर्ष से जूझ रहे थे। यह अपने समाज और आलोचकीय दरिद्रता भी है कि ऐसे लोग साहित्य की परिदृश्य से दूर रह जाते हैं।
अवधारणा और सत्य
हीरालाल जी की मौत की सूचना मिलने के बाद फेसबुक से लेकर स्मृति सभा तक उनके बारे में कई सुनी-सुनाई बातें लिखी और कही गईं, जिनका सच से कोई दूर दूर तक का वास्ता नहीं था। जैसे कि हीरालाल को लेकर बहुत दीन-हीन छवि गढ़ी गई। फ्लोरिडा अमेरिका में रह रही उनकी बड़ी बेटी डॉक्टर गरिमा यादव साथी धर्मेंद्र यादव से फोन पर बताती हैं कि उनके पिता की मिठाई की दुकान ख़ूब चलती थी और वे लोग किसी तरह का दीन-हीन जीवन नहीं जी रहे थे। वे बताती हैं कि पिता ने उनलोगों को कभी कोई दिक्कत नहीं महसूस होने दिया, बहुत अच्छे से पढ़ाया और पाला-पोसा। उन लोगों ने जीवन में कभी कोई आभाव नहीं महसूस किया। वे आगे बताती हैं कि वे लोग जब भी दुकान पर जलेबी या कोई अन्य चीज लेने जाती थीं तो उन लोगों को भी अपनी दुकान पर 15-20 मिनट इंतज़ार करना पड़ता था। हर समय इतनी भीड़ उनकी दुकान पर हुआ करती थी, इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उनकी दुकान कितनी चलती थी।
हीरालाल को लेकर एक बात यह भी कही जाती है कि वे बहुत संकोची व्यक्ति थे। लेकिन हिंदुस्तानी अकादमी सिविल लाइंस में घटित यह घटना उस भ्रम को भी तोड़ देती है। कवि संतोष चतुर्वेदी बताते हैं कि हिंदुस्तानी अकादमी ने कविता पाठ का आयोजन किया था। जिन लोगों को कविता पाठ के लिए आमंत्रित किया गया था उनमें हीरालाल जी का नाम नहीं था। बावजूद इसके वह कविता पाठ के लिए मंच पर चढ़ गए। उन्होंने आयोजकों पर जातिवाद का आरोप लगाया कि सिर्फ़ सवर्ण कवियों को बुलाया गया है और दलित-बहुजन कवियों को कविता के मंच से दूर रखा गया है। इसके बाद हिंदुस्तानी अकादमी में उन्हें सुरक्षागार्ड द्वारा मंच से उतारकर परिसर से बाहर खदेड़ दिया गया। परिसर से बाहर निकाले जाते समय भी हीरालाल जी नारे लगा रहे थे।
परिवार को नहीं पसंद थी कविताई, साहित्यिक समाज को रखा घर-परिवार से परे
धर्मेंद्र यादव ने अहमद नियाज़ी साहेब से हीरालाल के कविता संग्रह में दर्ज़ उनका घर का पता हासिल किया और उसे खोजते हुए वो 16 सितंबर को दिवंगत हीरालाल के घर पहुंचे। हीरालाल जी दारागंज में निराला जी की मूर्ति के दक्षिणी गली में 100 मीटर की दूरी पर रहते थे। वहां धर्मेंद्र जी की मुलाकात मरहूम कवि की जीवनसाथी उमा जी से हुई जो थोड़ी देर पहले ही अमेरिका से वापिस अपने घर-शहर लौटी थीं। उमा जी धर्मेंद्र यादव को बताती हैं कि उऩ्होंने हीरालाल को बहुत समझाया कि पहले पैसा कमा लीजिए, धंधा जमा लीजिए, घर-द्वार बना लीजिए, बच्चों को सेटल कर दीजिए। जब इन सबसे फ़ारिग होइएगा तब कविताई करिएगा। कविताई बुढ़ापे का काम है। जवानी धनोपार्जन के लिए है।
इस बात की पुष्टि हीरालाल के कविता संग्रह की दूसरी कविता ‘जिंदग़ी भऱ’ से भी होती हैं। इसमें वह लिखते हैं–
“जब हमें जिंदगी मिली
दरवाज़े पर नेमप्लेट को टंगवाया
‘लॉकर’ की खोई चाभी को ढूंढ़ा
बच्चों को बड़ा किया
खुद को बूढ़ा
ज़िंदगी भर, जिंदगी के बारे में नहीं सोचा
ज़िंदग़ी भर
ज़िदग़ी नहीं जिया।”
“बच्चों को बड़ा किया, खुद को बूढ़ा”
– यह पंक्ति बताती है कि उऩ्होंने इसे जीवन भर शर्त की तरह पालन किया।
प्रो. अनीता गोपेश बताती हैं कि वह एक बार हीरालाल जी से मिलने दारागंज गई थीं। उन्होंने कॉल करके हीरालाल जी से कहा कि वह दारागंज में ही हैं और उनके घर आना चाहती हैं तो इस पर उन्होंने कहा था कि आप अंदर नहीं आ पाएंगीं। बहुत घुमावदार गलियां हैं, जगह-जगह जाम है, अतः वो वापिस लौट जाएं। कमोवेश ऐसा ही कुछ अनुभव संतोष चतुर्वेदी जी का है। वो भी दावा करते हैं कि हीरालाल जी साहित्य समाज के लोगों को अपने घर परिवार से परे रखते थे। जहां तक मैं अनुमान लगा पाता हूं, इसका एक कारण संभवतः यह भी होगा कि उनका परिवार, खासकर उनकी पत्नी को यह सब पसंद नहीं था। उनके पास दो मोबाइल नंबर थे। दूसरे नंबर पर वे कभी कॉल नहीं उठाते थे, न ही कभी कॉलबैक करते थे।
मकान छोड़ने के साथ ही कारोबार भी छूट गया
इलाहाबाद नगर के ऊंचामंडी मोहल्ला में 1 जनवरी, 1949 में हीरालाल जी का जन्म हुआ था। उनकी माता का नाम सत्य देवी और पिता का नाम संगम लाल था। उनके परिवार में उनकी जीवनसंगिनी उमा देवी और बेटा अगम है। एमबीए डिग्रीदारी बेटा अगम दिल्ली स्थित एचडीएफसी बैंक में कार्यरत था, लेकिन कोविड काल में नौकरी जाने के बाद से संघर्षरत है। जबकि बड़ी बेटी गरिमा और छोटी बेटी नम्रता के विवाहित होने का जिक्र उऩ्होंने 2011 में प्रकाशित कविता संग्रह में परिचय के अंतर्गत किया है।
ऊंचामंडी, थाना कोतवाली मोहल्ला के जिस मकान में हीरालाल पैदा हुए थे, उसी मकान में उऩ्होंने लगभग 30 सालों तक मिठाई की दुकान चलाई। चूंकि इतना समय कोई व्यक्ति किसी किराये के मकान में रहे तो वो उस मकान पर मालिकाना हक़ का दावा कर सकता है। ऐसे कई केस हुए हैं। सज्जन होते हुए भी मकान मालिक के मन में संदेह था कि ये लोग उसके मकान पर क़ब्ज़ा कर सकते हैं। मुस्लिम समुदाय से आने वाले मकान मालिक ने अपना मकान खाली करवाने के लिए बाहुबली नेता अतीक अहमद से संपर्क साधा। अतीक के लोगों ने हीरालाल को धमकाते हुए कहा कि आज दोपहर तक खाली कर दो। इसके बाद उऩ्होंने ऊंचामंडी का वह मकान छोड़कर सीएमपी कॉलेज के सामने की कॉलोनी में शिफ्ट हो गये। यहां रहकर उन्होंने नमकीन और दालमोठ बनाने का कारोबार शुरू किया। फिर 76 मीरा गली दारागंज में रहने लगे। यह उनका अपनी निजी मकान है। साल 2011 में प्रकाशित कविता संग्रह में इसी मकान का पता दिया गया था।
आत्मकथ्य- ‘हीरा डोम से हीरा अहीर तक’
हीरालाल अपना पक्ष रखने के लिए हमारे सामने सशरीर तो नहीं हैं लेकिन वो अपनी कविताओं और विचार के ज़रिए हमारे सामने हैं। कविता संग्रह ‘कस् में हीरालाल’ में आत्मकथ्य ‘हीरा डोम से हीरा अहीर तक’ में वे अपने बारे में काफी कुछ बताते हैं–
‘हीरा डोम’ से ‘हीरा अहीर’ तक हिंदी की दलित कविता ने कितनी यात्रा तय की है, यह तो सुधीजन संग्रह पढ़कर बतायेंगे, लेकिन मुझको लगता है विचारों के मामले में मैं श्रद्धेय ‘हीरा होम’ से थोड़ा ज़रूर आगे आया हूं। वे अपने दुखों को दूर करने के लिये ईश्वर की शरण में जाते हैं। जबकि मुझको साफ दिखाई दे रहा है कि ‘ईश्वर कहीं नहीं है’। ‘देवी-देवता मानसिक निर्मितियां हैं’। ‘जातिभेद’ ब्राह्मणों द्वारा खोजा गया औजार है। दूसरों को नीचा दिखाने के लिए। मेरा यह भी मानना है कि आज का सारा साहित्यिक उपक्रम, ‘सवर्णों द्वारा सवर्णों के लिए है’।
सभ्य होने के क्रम में ईश्वर और देवी-देवताओं को जिन लोगों ने भी खोजा हो, लेकिन एक बात साफ है कि तब से लेकर आज तक भरपूर कमाई का जरिया रहा है यह ब्राह्मणों के लिए। मेरा यह भी मानना है कि बिना नास्तिक हुए समकालीन नहीं हुआ जा सकता। दरअसल, हम ‘ब्राह्मण-समय’ में रह रहे हैं। किसी भी दल का शासन हो, आमतौर पर शीर्ष-पुरुष ब्राह्मण ही होता है। असली खिलाड़ी वहीं हैं, हम सब दर्शक मात्र हैं। मेरा सारा साहित्यिक उद्यम इसी ब्राह्मणी घटाटोप के ख़िलाफ़ है।
वह अपने राजनीतिक और साहित्यिक पक्ष को स्पष्ट करते हुए आगे लिखते हैं–
इस देश में वर्ग भेद नहीं, वर्ण भेद है। वर्ग संघर्ष नहीं, वर्ण-संघर्ष की स्थितियां हैं। बहुत प्रसिद्ध उक्ति है– ‘साहित्य का पक्ष कमजोर का पक्ष है’। मैं कमज़ोर जाति का हूं। कमज़ोर जातियों के साथ खड़ा हूं। मेरा पक्ष बहुजन समाज पार्टी या समाजवादी पार्टी का पक्ष है। मुझको मुगालता नहीं है कि जो लोग आगे हैं पीछे चले जाएंगे, जो लोग पीछे हैं आगे चले जाएंगे, होगा यह कि अगड़ों में कुछ लोग पिछड़ जाएंगे, पिछड़ों में कुछ लोग आगे चले जाएंगे। जो मौजूदा पूंजीवाद है उसी को और पारदर्शी / लोकतांत्रिक और बहुजन हिताय बनाया जाय। आमतौर पर अमेरिका की बुराई होती है, लेकिन अमेरिका ने अपने दलितों-वंचितों के लिये बहुत कुछ किया है। सबके लिये समान अवसर का भी सिद्धांत सही नहीं है, क्योंकि समानता पहले से नहीं है इस समाज में।
यह बात बहुत नजदीक से देखा है कि आम हिंदू समाज मुस्लिमों से दोस्ती कर लेता है, लेकिन दलितों से नहीं। जातिभेद इतना अंदर तक घुसा दिया है इन लोगों ने कि जिनको वह नीच कहता है, उनको भी लगता है कि हो सकता है यही सही हो। पहले झूठ के सहारे कमाई यानि कि ईश्वर/देवी-देवता के नाम पर दूसरे झूठ के बल पर दूसरे को नीचे ढकेलना। यही लब्बोलुआब ब्राह्मणों का झूठ के बल पर पैसा भी बनाया और जाति क्रम में अपने को ऊपर रक्खा।
दूसरी तरफ श्रमशील जातियां, जो मेहनत की कमाई ईमानदारी से खाती रहीं, दोयम दर्जे की नागरिक थीं। ‘वे आदमी ही नहीं हैं’ इन स्थितियों में रही, पूरी दुनिया में जाति भेद कहीं और नहीं है। यह सब इन्हीं का किया धरा है, तुर्रा ऊपर से यह कि यह सब इन्होंने किया विनम्र/सहज/आत्मीय दिखते हुए/ आज भी बातचीत के दौरान यह बताना नहीं भूलता कि वह ‘सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण’ है, वह आपको बिना ‘नीच’ कहे नीचे ढकेल देता है। और तो और कुछ साहित्यकार अपने को अति श्रेष्ठ बताते हैं जातिक्रम में, तब माथा पीटने की (खुद का) मन करता है।
पढ़ने का शौक शुरू से था, लेकिन जब नई उमर थी, तब प्रयास किया तो कविता नहीं हुई, कहानी सधी नहीं। बाद में पैंतालिस की उम्र में कविता हो गई। अब बासठ साल की उम्र में कविता-संग्रह आपके सामने है। एक नसीहत करूंगा नये लिखने वालों से कि अगर आपको ‘कुछ हो जाय’ और आप रोज़गार से कमज़ोर हों तो आप अपने पर नियंत्रण रक्खें और साहित्य से दूरी बना लीजिये। साहित्य से या साहित्यिक जनों से अपनी परेशानियों को दूर करने में कोई मदद नहीं मिलेगी। ऐसा नहीं है कि साहित्य का क्षेत्र विचारकों का मुहल्ला है, विचारक होने के नाते सब बराबर हैं, आप साहब हैं या चपरासी, ‘काउंट’ किया जाएगा।
परेशानियों के कारण कविता से बाहर चला गया था, आदरणीय, ‘सर’ दूधनाथ सिंह जी फिर वापस लाये। आदरणीय सतीश अग्रवाल (साहित्य भण्डार) की अनुग्रह से संग्रह आपके सामने है। संग्रह के लिए जी छोटा था। न जाने वह दिन कब आयेगा? लेकिन श्रद्धेय ‘सर’ श्री दूधनाथ सिंह जी की कृपा दृष्टि पड़ने पर यह संभव हो गया। करोड़ों-करोड़ों धन्यवाद परम श्रद्धेय ‘सर’ श्री दूधनाथ सिंह जी को।
आखिर में उनकी एक कविता जिसका शीर्षक है– ‘ईश्वर’। इसमें वह लिखते हैं–
दुनिया में सारे दारुण दुखों का कारण रहा ईश्वर
हमेशा-हमेशा जितना खून बहा धरती पर
आधा ईश्वर के कारण बहा।
ईश्वर न होता तो
मंदिर न होते।
मंदिर न होते तो
ब्राहाण न होते।
ब्राहाण न होते तो
भेदभाव न होता आदमी से आदमी का।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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