पहले भाग से आगे
श्रमण और संन्यासी
‘समण’ प्राकृत भाषा का शब्द है। इसके संस्कृत पर्याय ‘श्रमण’ की उत्पत्ति ‘श्रम’ से हुई है, जिसका अर्थ है– श्रम में लगे रहना। इसका आशय यह है कि जो तप-संयम में यथासामर्थ्य पुरुषार्थ करता है, उसे श्रमण कहते हैं। श्रमण हमेशा अपने लक्ष्य के साथ, उसकी दिशा की ओर गमन करता रहता है। वह किसी भी दिखावे या कर्मकांड से बचता है। जीवन के अंतिम लक्ष्य के रूप में हालांकि श्रमण भी ‘पूर्णत्व’ की खोज में रहता है। लेकिन इस ‘लंबी यात्रा’ के बीच वह सदैव इस कोशिश में रहता है कि पूरी मनुष्यता का कल्याण हो सके।
एक ओर ‘ब्राह्मण’ जहां ब्रह्ममय हो जाने को मोक्ष का दर्जा देता है; वहीं ‘श्रमण’ मानता है कि जीवन का परम उद्देश्य ब्रह्म की प्राप्ति न होकर लोकोपकारी ज्ञान तथा उसके लिए की जाने वाली साधना है। उसकी मदद से वह जीवन और दुख और क्लेशमय बनाने वाले कारकों को समझकर, उनके समाधान की दिशा में आगे बढ़ सकता है।
श्रमण को ‘शमन’, ‘समन’ आदि लिखा जाता है। इनमें शमन का अर्थ चित-वृत्तियों का निरोध, संयम, दमन आदि है, वहीं समन को समताभाव के अर्थ में लिया जाता है। वह हिंसा, परिग्रह आदि से सर्वथा परे श्रमणत्व में यकीन रखता है।[1] इसके मायने हैं सभी को अपने जैसा समझना, प्राणी मात्र के प्रति समभाव रखना। कुल मिलाकर श्रमणत्व में श्रम, सम और शम ये तीन मानव-मूल्य समाहित हैं। जो व्यक्ति आत्मानुशासन के बल पर तीनों को साध लेता है, वही श्रमण कहे जाने का अधिकारी होता है।
श्रमण परंपरा से निकले धर्मों में चार आश्रमों के बजाय केवल दो आश्रमों, गृहस्थ एवं संन्यास को ही मान्यता प्राप्त थी; उनमें भी संन्यास सर्वोपरि था। उसके लिए कोई उम्र निर्धारित नहीं की गई थी। बुद्ध और महावीर ने लगभग तीस वर्ष की अवस्था में प्रव्रज्या ग्रहण की थी। जबकि भगवती सूत्र में गोसालक ने दावा किया था कि उन्होंने कुमारावस्था में ही प्रव्रज्या (कौमारिक प्रव्रज्या) ग्रहण कर ली थी।[2] जैन साहित्य में निर्ग्रन्थ, शाक्य (बौद्ध), तापस, गैरिक और आजीवक (गोसालक मतानुयायी), पांच प्रकार के श्रमण बताए गए हैं। उनके श्रमणत्व की सार्थकता अपने ज्ञानानुभव तथा सद्प्रयासों द्वारा मानव जीवन को सर्वोच्च स्थान दिलाने से आंकी जाती है।
‘श्रमण’ की भांति ‘आश्रम’ की उत्पत्ति भी ‘श्रम’ हुई है। मगर ब्राह्मण ऋषियों के आश्रम उनके धार्मिक-सांस्कृतिक उपनिवेश जैसे थे। श्रम और श्रम-कौशल के भरोसे जीवनयापन करने वालों के प्रति वे हिकारत भरा नजरिया अपनाते थे।
संन्यास और शिव
इसके पहले के वर्णन में हमने देखा कि संन्यास वैदिक परंपरा का हिस्सा नहीं था। श्रमण परंपरा के दर्शनों की ओर से मिल रही चुनौती से निपटने के लिए करीब 1500 वर्ष पहले उसे ब्राह्मण-ग्रंथों में सम्मान मिला था। दूसरा स्थापित सत्य यह कि शिव अवैदिक देवता हैं। देवताओं की तिकड़ी में जगह उन्हें बहुत बाद में दी गई। क्या इन दोनों घटनाओं का आपस में कोई संबंध है? क्या संन्यास को वैदिक संस्कृति का अभिन्न हिस्सा सिद्ध करने के लिए शिव को देवताओं की तिकड़ी में जगह देना अपरिहार्य था?
सिंधु सभ्यता से प्राप्त ‘योगी मुद्रा’ से प्रमाणित होता है कि भारत में आज से पांच हजार वर्ष पहले भी श्रमण सभ्यता विद्यमान थी। जैन उसे आदि तीर्थंकर ऋषभ से जोड़ते हैं, ब्राह्मण वैदिक देवता रुद्र से। लगभग सभी विद्वान इससे सहमत हैं कि ऋग्वेद आदि ग्रंथों में जिन वेद-बाह्य, पाषंडस्थ वातरश्ना श्रमणों तथा व्रात्यों का उल्लेख हुआ है– वे सिंधु सभ्यता के समय से चली आ रही श्रमण परंपरा के उत्तराधिकारी थे। आजीवक और जैन उन्हीं के अथवा उनके समानांतर श्रमण संघों के बौद्धकालीन प्रतिनिधि थे। बाहर से आए आर्यों का भारत-भूमि पर कदम रखते समय इन्हीं पुरातन आध्यात्मिक प्रतिनिधियों से सामना हुआ था। आर्यों का प्रमुख देवता इंद्र था। ‘जंगली’, भयानक, चीखने और भीषण नाद करने वाले उदार देवता के रूप में रुद्र की कल्पना उन्होंने कदाचित भारत आने के बाद की थी।[3] यह शिव की योगेश्वर अथवा पाशुपत छवि से कतई मेल नहीं खाती।
ब्राह्मणों की मेधा और कल्पनाशक्ति पर भरोसा करने वाला पूछ सकता है कि शिव यदि बाहरी थे तो उन्हें वैदिक परंपरा में शामिल करने की क्या जरूरत थी? 33 करोड़ देवताओं को कल्पना के बल पर रचने वाले ब्राह्मण क्या शिव जैसा ही एक और देवता नहीं गढ़ सकते थे? बिलकुल गढ़ सकते थे। लेकिन मूल समस्या जनता के भरोसे की थी। उस समय तक शैव धर्म सूदूर दक्षिण तक अपनी पैठ बना चुका था। वहां जनसमाज में शिव और उनके कुल के देवताओं की वैसी ही पैठ थी, जैसी उत्तर और उत्तर पूर्व भारत में श्रमण परंपरा के धर्मों की। शैव और श्रमण परंपरा के दर्शनों में आपसी तालमेल भी था। यही कारण है कि उत्तर भारत में जब आजीवक धर्म पर हमले बढ़े और संरक्षण के अभाव में आजीवक श्रमणों का इधर टिकना मुश्किल हो गया तो उन्हें दक्षिण में ही शरण मिली थी। लेकिन उत्तर भारत से उनका संपर्क नहीं टूटा था।
ऐतिहासिक स्रोतों से यह भी पता चलता है कि दक्षिण के आजीवकों का कश्मीर से गहरा संबंध था। सातवीं शताब्दी में चीन में तांग साम्राज्य के सम्राट ने अमरत्व (दीर्घजीवन) देने वाली औषध के जानकार लोकायत (आजीवक) को बुलाने के लिए अपने एक राजदरबारी को भारत भेजा था। वह अधिकारी कश्मीर पहुंचकर ऐसे ही एक लोकायती से मिला था। चीन चलने के प्रस्ताव पर लोकायती ने कहा था कि वह अमरत्व देने वाली औषध बनाना जानता है, लेकिन उसके लिए जिन घटकों की जरूरत पड़ेगी, उन्हें दक्षिण से लाना पड़ेगा। बहरहाल आजीवक दर्शन का नवोन्मेष तो दक्षिण की धरती पर ऐसा हुआ कि कुछ विद्वान तमिलभूमि को ही उसकी जन्मस्थली मानने लगे।
दक्षिण में अपने पैर जमाने तथा उत्तर भारत में आजीवक, जैन और बौद्ध दर्शनों की सामाजिक पैठ को कमजोर करने के लिए ब्राह्मणों के पास शिव के देवत्व को स्वीकारने और उसे अपनी परंपरा का हिस्सा बनाने के अलावा कोई और विकल्प ही नहीं था। वैसे भी जैन, बौद्ध और आजीवकों जैसे अहिंसा और नैतिकता प्रधान दर्शनों आगे ऋग्वेद के पुराने हिंसक और विलासी देवता टिकने वाले नहीं थे। विशेषकर इंद्र, जिसकी छवि कामलोलुप, घमंडी, विलासी और नशे में डूबे रहने वाले ऐसे देवता की थी; और काम नरहत्या तथा अनार्य निर्माणों का ध्वंस करना था। तिकड़ी के शेष दो देवताओं में विष्णु भी किसी काम के नहीं थे। वे हजारों-लाखों वर्षों में मनमर्जी से अवतार लेकर, धरती पर सबकुछ ठीक-ठाक करने का भरोसा देते थे; शेष समय क्षीरसागर में पत्नी लक्ष्मी के साथ रमण करते थे। ब्रह्मा पर अपनी ही पुत्री के साथ बलात्कार का आरोप था। समायोजन की प्रक्रिया में निशाना बना इंद्र। उसे प्रमुख देवताओं की श्रेणी से निकलकर शिव को ‘तिकड़ी’ में शामिल किया गया। पौराणिक ग्रंथों और लोकसाहित्य में उन्हें ऐसे देवता के रूप में दिखाया जाने लगा जो आमजन के सुख-दुख का पता लगाने के लिए मृत्यु लोक में घूमते रहते हैं। उन्हें मनाना आसान था। विष्णु और ब्रह्मा को मनाने के लिए जन्म-जन्मान्तर तक तपस्या करनी पड़ती थी। शिव को उनके प्रतीक पर बेलपत्र-फूल चढ़कर खुश किया जा सकता था। तिकड़ी में शामिल करने के बावजूद उन्हें देवलोक में नहीं बसाया गया। वैसे भी जब एक शूद्र गांव के भीतर नहीं बस सकता तो अनार्य देवता को स्वर्ग में जगह कैसे मिल सकती थी। तिकड़ी में केवल शिव ऐसे हैं जिनका निवासस्थल कैलाश पर्वत; यानी पृथ्वी पर बताया गया; जो जनसाधारण से ऊपर और स्वर्ग से बहुत-बहुत नीचे था।
एक तीर, तीन निशाने
यह एक दिन या कुछ वर्षों में अथवा किसी व्यक्ति के प्रयास से संपन्न होने वाली प्रक्रिया नहीं थी। इसकी शुरुआत कब हुई इसका पता लगाना भी मुश्किल है; लेकिन एक प्रमाण वराहमिहिर के ‘बृहज्जातक’ में देखा जा सकता है। वराहमिहिर ने आजीवक और ब्राह्मण यति को गृह-नक्षत्रों की एक समान युति का सुफल बताया है। ‘बृहज्जातक’ के अनुसार चार, पांच, छह या सात ग्रह एक ही स्थान पर एकत्र हो जाएं तो प्रव्रज्यायोग होता है। इसकी टीका करते हुए महीधर शर्मा ने लिखा है कि यदि मंगल बली हो तथा भगवा वस्त्रधारी बौद्ध, बुद्ध बली हो व एकदंडी और भिक्षु-यति एवं बृहस्पति बली हो तो जातक आजीवक-वैष्णव बनता है।[4] अन्य टीकाकार सीताराम झा के अनुसार बुद्ध बली हो तो आजीवक तथा गुरु बली हो तो यती यानी ब्राह्मण भिक्षु बनता है।[5] कदाचित यह पहला अवसर था जब किसी ब्राह्मण ग्रंथ में आजीवक, जैन और बौद्ध को सम्मान के साथ दर्शाया गया था।
शिव को देवताओं की तिकड़ी में शामिल करना, ब्राह्मणों के लिए बहुत लाभकारी सिद्ध हुआ। देखा जाए तो उस एक निर्णय से उन्होंने तीन मोर्चों पर फतह हासिल कर ली थी; वे थे–
- जनसाधारण में संदेश गया कि संन्यास वैदिक परंपरा का हिस्सा था और वैदिक ऋषि संन्यासियों जैसा ही निस्पृह अहिंसक, त्यागी और अपरिग्रही जीवन जीते थे।
- आमजन कभी आजीवक/लोकायत धर्म में विश्वास करता था, उसमें ब्राह्मण धर्म की पैठ बनने लगी। अत्यधिक दबाव पड़ने पर जब आजीवकों का दूसरे धर्मों में पलायन आरंभ हुआ तो उन्होंने अपने ही जैसे अवैदिक और भौतिकवादी जैन और बौद्ध दर्शन को अपनाने के बजाय शैव धर्म को चुना, जिसका पूरी तरह ब्राह्मणीकरण हो चुका था।
- शिव को तिकड़ी में शामिल करने का बड़ा लाभ उन्हें दक्षिण में मिला, जहां शिव को बहुत पहले से प्रधान देवता का दर्जा हासिल था। इससे वहां ब्राह्मणों के पैर जमने लगे। कौटिल्य ने आजीवक, जैन, बौद्ध आदि श्रमणों को घर आमंत्रित कर, भोज कराने पर सौ पण के दंड का प्रावधान किया था। ‘अर्थशास्त्र’ की रचना उत्तर-पश्चिम भारत में हुई थी। लेकिन इस नियम पर अमल हुआ दक्षिण भारत में। तीसरी शताब्दी से बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी के बीच के आधुनिक तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक आदि क्षेत्रों कम से कम 18 ऐसे अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं, जो वहां आजीवकों पर कर लगाए जाने की पुष्टि करते हैं। यही नहीं, उत्तर भारत में आजीवकों, जैनों और बौद्धों के प्रति जो ईर्ष्या थी, ब्राह्मणों के दक्षिण में मजबूत होने के साथ वहां भी पसरने लगी। उसका दुष्परिणाम था, सातवीं शताब्दी में शैव संत संबदनार और मंत्री के उकसावे पर पांड्य सम्राट द्वारा 8000 जैन मुनियों का कत्लेआम, जिसके चिह्न आज भी मदुरै के मीनाक्षी मंदिर सहित दक्षिण भारत के कई मंदिरों में रक्षित हैं।
शिव को तिकड़ी में लेने के बाद ब्राह्मणों द्वारा निरंतर पौराणिक लेखन-प्रक्षेपण और दर्जनों नए उपनिषद् लिखकर संन्यास को ब्राह्मण धर्म का अभिन्न हिस्सा बनाने की कोशिश की गई। हालांकि मिथकीय शास्त्रों के बाहर निकलकर वे गोसालक, बुद्ध या महावीर की टक्कर के एक भी श्रमण-दार्शनिक को जन्म नहीं दे सके।
(समाप्त)
संदर्भ :
[1] एमेए समणा मुत्ता जे लोए संति साहुणो, समण सूत्त, दशवैकालिक, 1.3
[2] कोमारियपव्वजाए, कोमारएणं बंभचेरवासेणं …, भगवतीसूत्र, 15.101
[3] स्तोमं वो अद्य रुद्राय शिक्वसे क्षयद्वीराय नमसा दिदिष्टन
एभिः शिवः स्ववां एवयावभिर्दिवः सिषक्ति स्वयशा निकामभिः, ऋग्वेद, 10.92.9
[4] एकस्थैश्चतुरादिभिर्बल युतैर्जाता: पृथग्वीर्यगै:
शाक्याजीविकभिक्षुवृद्धचरकानिर्ग्रन्थवन्याशना, बृहज्जातकम्, 15.1
[5] बृहज्जातक, सीताराम झा, टीका [1944 : 200]
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)