‘चरथ भिक्खवे चारिकं बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकंपाय…’
(महावग्ग, विनयपिटक)
अर्थांत, भिक्षुओं! बहुजन के हित के लिए, बहुजन के सुख के लिए और संसार को सुख पहुंचाने के लिए निरंतर भ्रमण करते रहो।
‘साखी’ पत्रिका और प्रेमचंद साहित्य संस्थान, गोरखपुर के तत्वाधान में ‘चरथ भिक्खवे’ (बुद्ध जिस पथ पर गए उस पथ पर चलना) नाम की एक साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा का आगाज बीते 15 अक्टूबर, 2024 से किया गया। बुद्ध के प्रथम उपदेश और धर्मचक्र प्रवर्तन स्थल सारनाथ से आरंभ होकर यह यात्रा आगामी 25 अक्टूबर, 2024 को पुन: सारनाथ में समाप्त होगी। इस क्रम में यह यात्रा बोधगया, नालंदा, राजगीर, पटना, वैशाली, केसरिया, कुशीनगर, लुम्बिनी, श्रावस्ती, कपिलवस्तु, साकेत (अयोध्या) और कौशांबी से गुजरेगी।
इस सांस्कृतिक यात्रा के दौरान इन स्थलों पर विभिन्न आयोजन होंगे, जिनमें गोष्ठियां, काव्यपाठ तथा अन्य अनेक सांस्कृतिक-साहित्यिक आयोजन शामिल हैं। इस यात्रा के परिकल्पनाकार काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष, प्रेमचंद साहित्य संस्थान के अध्यक्ष तथा ‘साखी’ पत्रिका के संपादक प्रोफेसर सदानंद शाही हैं। प्रो. शाही छात्र जीवन से ही राजनीतिक, सामाजिक और साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय रहे हैं। इससे पहले उन्होंने ‘बुद्ध और कविता’ नामक एक आयोजन विभिन्न बौद्ध स्थलों पर किया था।
इस यात्रा का प्रयोजन क्या है? इसके बारे में वे बताते हैं कि “हम उन रास्तों पर चलें, जिन पर आज से लगभग ढाई हजार साल पहले गौतम बुद्ध चले थे। इसके दो अर्थ हैं– भौतिक और आध्यात्मिक। पहले अर्थ पर बात करते हैं। बुद्ध के जीवनकाल में ही सारनाथ, बोधगया, लुम्बिनी और श्रावस्ती जैसे स्थल बहुत प्रसिद्ध हो गए थे। वहां आने-जाने वाले लोगों का तांता लगा रहता था। इन स्थानों से देश के प्रमुख व्यापारिक मार्ग, नगर और गांव जुड़े हुए थे। हमें उस रास्ते पर जाकर देखना चाहिए कि बुद्ध और उनके अनुयायियों ने किस प्रकार यह यात्रा तय की होगी। इसके अलावा इस यात्रा का दूसरा पक्ष आध्यात्मिक है। हमें उन सद्गुणों और विचारों को आत्मार्पित करना होगा, जिसका उपदेश महात्मा बुद्ध ने दिया था। हमारी आपसदारी की भावना कहीं खोती जा रही है। आधुनिक समाज में हम एक-दूसरे से संवाद करना, मदद मांगने और सहयोग करने से हिचकिचाते हैं। हमें गौतम बुद्ध के जीवन से प्रेरणा लेकर अपने जीवन में करुणा और मैत्री का विकास करना चाहिए। आज हम पृथ्वी पर निवास तो करते हैं, लेकिन उससे नाता तोड़ लिया है। आप महात्मा बुद्ध की उस मुद्रा को याद करें, जिसे भूमिस्पर्श मुद्रा कहते हैं। इस मुद्रा में बुद्ध को शांतचित्त दिखाया जाता है। उनका दाहिना हाथ पृथ्वी को छू रहा है। वे प्रलोभनों के बावज़ूद विचलित नहीं हुए। यही समय है कि हम पृथ्वी को शांतचित्त होकर छूएं और अपने-आपको उन मूल्यों के प्रति समर्पित करें, जिसकी शिक्षा महात्मा बुद्ध ने दी थी।”
वहीं, इस यात्रा के बारे में बहुजन चिंतक प्रेमकुमार मणि ने मेटा (फेसबुक) के वॉल पर अपने पोस्ट में लिखा है– “आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व बुद्ध दुख से मुक्ति के अभियान पर ही निकले थे। संसार को उन्होंने दुखमय देखा। लेकिन उन्होंने उसे चुनौती के रूप में लिया। उस दुख से संघर्ष करने और मुक्त होने की एक प्राविधि बताई। उन्होंने किसी जादू-टोने द्वारा नहीं, एक वैज्ञानिक परिदृष्टि से दुनिया को देखा। प्रतीत्यसमुत्पाद की सैद्धांतिकी दी। यही उनका ज्ञान था।
उनके ज़माने से आज का जमाना अनेक मामलों में भिन्न है, लेकिन मनुष्य आज भी है, दुख आज भी है। बुद्ध ने दुख से सतत संघर्ष की बात की थी। दुख तो रहेगा। उससे संघर्ष भी रहेगा। चार अरिय सत्य हैं, तो आठ उपाय भी हैं। हिंसा और लोभ से उन्मत्त संसार में करुणा का भाव-विचार लेकर भिक्खुओं को आज भी विचरने की जरूरत है।”
वे आगे लिखते हैं कि “आज का दुख, आज की समस्याएं कहीं अधिक जटिल हैं। लेकिन क्या समाज इन दुखों के सामने बिछ जाये? नहीं। इसे हम दूर करेंगे का संकल्प करना है। हिंसा और नफरत की जगह करुणा और प्रेम का विस्तार करना है। इस चेतना-विस्तार के लिए ही यह यात्रा है।”
इतिहास के युवा अध्येता रमाशंकर सिंह लिखते हैं कि “चरथ भिक्खवे यात्रा भौतिक के साथ आंतरिक यात्रा भी है। मनुष्य के बनने की कहानी अत्यंत रोचक और प्रेरणादायक है। उसकी वर्तमान और वैचारिक उपलब्धियां यात्राओं की देन हैं। यात्राओं के क्रम में उसने पानी के बेहतर स्रोत और खाने योग्य सामग्रियां खोजीं। एक जगह से दूसरी जगह तक जाने और रात में अपने डेरे पर लौट आने या शाम हो जाए, तो वहीं डेरा बना लेने की प्रवृत्ति ने उसकी दुनिया बदल दी। प्रत्येक दिन पिछले दिन से ज्यादा चलने लगा। धीरे-धीरे चलने में एक सलीका आ गया। चलना, फिर सुस्ताना और फिर चल पड़ना – इसने यात्रा के शिल्प को जन्म दिया। इससे अछूती धरती पर चारों तरफ़ रास्ते बनने शुरू हुए। इन रास्तों पर मनुष्य ने अकेले में और समूह में चलना सीखा। समूह में चलने के कारण उसके अंदर का भय निकल गया। उसके जीवन में मनुष्य होने का सहज सामूहिक उल्लास आया।”
रमाशंकर सिंह आगे लिखते हैं कि “आधुनिक भारत में इसकी बहुत ही महत्त्वपूर्ण परिणति डॉ. बी.आर. आंबेडकर द्वारा अपने दो लाख अनुयायियों के साथ 14 अक्टूबर, 1956 में बौद्ध धर्म अपनाना था। इस समय राहुल सांकृत्यायन ने अपने पर्चे ‘नव-दीक्षित बौद्ध’ में लिखा कि–
‘इसमें कोई संदेह नहीं कि बाबासाहेब आंबेडकर ने भारत में एक बौद्ध पुनर्जागरण जन-आंदोलन की पहल करके देश की महानतम सेवा की है। इतिहास उन्हें इस अनूठी भूमिका के लिए कभी नहीं भूलेगा।’”
‘चरथ भिक्खवे’ को विश्लेषित करते हुए रमाशंकर सिंह लिखते हैं कि–
“बंधुता, स्वतंत्रता और समता, यह तीन शब्द थे जिनके कारण फ़्रांसीसी क्रांति का स्वागत हुआ था। लेकिन इसने समानता नहीं पैदा की। हम रुसी क्रांति का स्वागत करते हैं क्योंकि यह समता पैदा करना चाहती है, लेकिन इस बात पर ज्यादा जोर नहीं दिया जा सकता है कि समता के लिए समाज बंधुता और स्वतंत्रता का परित्याग ही कर दे। बंधुता या स्वतंत्रता के बगैर समता का कोई मूल्य ही नहीं होगा। ऐसा प्रतीत होता है कि तीनों एक साथ तभी रह सकते हैं जब कोई बुद्ध के बताए रास्ते पर चले।”
बहरहाल, प्रो. सदानंद शाही के नेतृत्व में इस यात्रा की बड़ी खासियत यह है कि इसमें बड़े पैमाने पर हिंदी प्रदेशों के साहित्यकार, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी शामिल हैं। हिंदी प्रदेशों में बड़े पैमाने पर सांस्कृतिक पिछड़ापन है। यहां पर फासीवादी राजनीति ने अपना गढ़ बना लिया है। इसलिए किसी भी सामाजिक परिवर्तन के लिए एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ज़रूरत है। निश्चित रूप से इसके लिए बुद्ध सबसे अधिक प्रेरक व्यक्तित्व हैं।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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