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महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव : दलित राजनीति में बिखराव

भाजपा, अजीत पवार की एनसीपी और एकनाथ शिंदे की शिवसेना के साथ मिलकर उन जातियों को लुभाने की कोशिश कर रही है, जो पारंपरिक तौर पर आंबेडकरवादी आंदोलन का हिस्सा नहीं रही हैं। बता रहे हैं सैयद जै़ग़म मुर्तज़ा

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में इस बार कांटे का मुक़ाबला होने की उम्मीद है और सबकी नज़रे दलित वोटरों पर टिकी हैं। राज्य की 29 सीट अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं। लेकिन इनके अलावा भी लगभग 60 सीट ऐसी हैं, जहां दलित वोटर निर्णायक की भूमिका में हैं। दलितों की बड़ी आबादी जिस तरफ चली जाएगी, उसी गठबंधन की सरकार बनाने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी।

हालांकि जिस तरह राज्य के दलित महार, ग़ैर-महार और दलगत निष्ठाओं में बंटे हुए हैं, उसके मद्देनज़र इन वोटों में बिखराव की आशंका से भी इंकार नहीं किया जा सकता है।

महाराष्ट्र में दलित वोटरों की संख्या तक़रीबन 12 फीसदी है। यह संख्या देखने में कम लगती है, लेकिन जिस तरह यह वोटर ग़ैर-आरक्षित सीटों के नतीजों को प्रभावित करते हैं, उसके चलते कोई राजनीतिक दल इनकी अनदेखी करने का जोखिम नहीं उठा सकता। राज्य में लगभग पचास सीटें ऐसी हैं, जहां दलित समुदाय की आबादी 10-20 फीसदी के बीच है। इसके अलावा कम से कम पांच सीटों पर दलित कुल मतदाताओं के 22-23 फीसद तक हैं। इनमें नवबौद्ध यानि महार मतदाता कुल दलित आबादी के लगभग चालीस फीसदी हैं। इसमें अगर बाक़ी आंबेडकरवादी भी जोड़ लिए जाएं तो यह दलितों की लगभग आधी आबादी हो जाती है। इस लिहाज़ से यह ऐसा मतदाता समूह है, जो टुकड़ों में बंटी राज्य की राजनीति में काफी अहम भूमिका निभा सकता है।

यह बावजूद इसके कि आंबेडकरवादियों में बिखराव है, दलित मतदाताओं पर कई दलों की दावेदारी है, और स्थानीय नेता निजी महत्वाकांक्षा से घिरे हैं। यह भी एक अजीब इत्तेफाक़ है कि जिस राज्य में खुद डॉ. भीमराव आंबेडकर ने समता लाने के लिए तमाम दलित जातियों को एकजुट करने का आंदोलन किया, वहां दलित राजनीतिक बिखराव के सबसे ज़्यादा शिकार नज़र आते हैं।

रामदास आठवले और प्रकाश आंबेडकर

मसलन, महाराष्ट्र में रामदास आठवले के नेतृत्व वाली रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई-अठावले) और प्रकाश आंबेडकर के नेतृत्व वाली वंचित बहुजन अघाड़ी का दलित वोटरों पर सबसे बड़ा दावा है। मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी के लिए भी दलित मतदाताओं के एक वर्ग में ख़ासी सहानुभूति है। इस बार चंद्रशेखर की आज़ाद समाज पार्टी ने भी राज्य में उम्मीदवार उतारे हैं।

इनके अलावा जाति और स्थानीय समीकरणों के अनुसार सीपीआई, सीपीएम, कांग्रेस, एनसीपी, एमआईएम, भाजपा और शिवसेना उम्मीदवारों को भी दलित मतदाता वोट देते रहे हैं। इस लिहाज़ से देखा जाए तो लगता है कि दलित वोटर एकजुट होकर मतदान नहीं कर सकते।

लेकिन ऐसा नहीं है। हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में दलित वोटरों के एक बड़े समूह ने इंडिया गठबंधन के उम्मीदवारों को वोट दिया। इसकी एक बड़ी वजह संविधान पर मंडरा रहे ख़तरे और इसे लेकर किए गए कांग्रेस का प्रचार रही। नतीजे में महाविकास अघाड़ी (एमवीए) यानी कांग्रेस, उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी को उन सीटों पर भारी बढ़त मिली, जहां दलित मतदाता 15 फीसदी से अधिक हैं। ऐसी लगभग 90 सीटों में से एमवीए को 50 सीटों पर सीधी बढ़त हासिल थी। मुसलमान वोटरों के साथ मिलकर दलितों ने कई सीटों पर निर्णायक वोटिंग की। इससे राज्य की 48 में 30 लोकसभा सीटों पर एमवीए उम्मीदवार विजयी रहे।

हालांकि इससे पहले 2019 मे हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों पर ग़ौर करें तो लगता है कि दलित वोटर अविभाजित शिवसेना और भाजपा गठबंधन के साथ थे। इस चुनाव में शिवसेना-भाजपा गठबंधन को दलितों की निर्णायक आबादी वाली 88 सीटों में से 46 पर जीत मिली थी, जबकि कांग्रेस और अविभाजित एनसीपी को महज़ 33 सीटों से संतोष करना पड़ा था। लेकिन 2019 के चुनाव के बाद से राज्य में बहुत बदलाव आ चुका है। शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी विभाजन का शिकार बन चुकी हैं। न उद्धव ठाकरे के पास तीर कमान है और न शरद पवार के पास घड़ी। दोनों ही पार्टियों को मूल चुनाव चिह्न विद्रोह करके बने नए धड़ों को मिल चुके हैं। इसका नुक़सान लोकसभा में शरद पवार और उद्धव ठाकरे को उठाना भी पड़ा।

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अगर चुनाव आयोग ने उद्धव ठाकरे और शरद पवारे से चुनाव चिह्न न छीने होते तो एनडीए को राज्य में दस सीट भी मिलना मुश्किल हो जाता।

लेकिन इस बार चुनाव चिह्न के अलावा स्थानीय समीकरणों की भी अहम भूमिका रहेगी। एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना की भी इस बार दलित वोटरों के एक वर्ग पर दावेदारी रहेगी। भाजपा, अजीत पवार की एनसीपी और एकनाथ शिंदे की शिवसेना के साथ मिलकर उन जातियों को लुभाने की कोशिश कर रही है, जो पारंपरिक तौर पर आंबेडकरवादी आंदोलन का हिस्सा नहीं रही हैं। इनमें मतंग और वाल्मीकियों के अलावा महायुति (एनडीए) की नज़र उन उत्तर भारतीय प्रवासियों में मौजूद दलितों पर है, जो कामकाज के सिलसिले में यहां आकर बस गए हैं। मुंबई, नागपुर, ठाणे सहित दूसरे शहरी इलाक़ो में पासी, जाटव, डोम, वाल्मीकी, खटीक, कोरी जैसी जातियां अच्छी खासी संख्या में हैं। 2019 में राज्य की लगभग 35 विधानसभा सीट ऐसी थीं, जहां हार-जीत का फासला पांच हज़ार वोट से कम था। यक़ीनन ऐसी सीटों पर छोटे-छोटे वोटर समूह काफी अहम हो जाते हैं।

इस साल हुए लोकसभा चुनाव में प्रकाश आंबेडकर की वंचित बहुजन अघाड़ी (वीबीए) एक भी सीट जीत पाने में नाकाम रही। मौजूदा विधानसभा में उसके तीन सदस्य हैं। दूसरी तरफ रामदास आठवले भले ही भाजपा के सहयोग से राज्य सभा सांसद हैं, लेकिन लोकसभा या राज्य विधानसभा में उनकी पार्टी का कोई सदस्य नहीं है। वीबीए और आरपीआई(ए) के अलावा इस बार बहुजन समाज पार्टी को उम्मीद है कि उनका खाता खुल सकता है। हालांकि यह बात अभी दूर की कौड़ी नज़र आती है और क़यासों पर आधारित है। मौजूदा हालात में दलित वोटर दो ख़ेमों में बंटा हुआ दिख रहा है। एक वह है, जिसे आंबेडकरवाद के प्रभाव और बहुसंख्यक महार जाति से आने की वजह से आरक्षण, संविधान, शोषण, उत्पीड़न जैसे मुद्दे प्रभावित करते हैं, वह महाविकास अघाड़ी के साथ दिख रहा है। दूसरा वह वर्ग है, जो आरएसएस के प्रभाव में राष्ट्रवाद और हिंदुत्व का आड़ लेकर अपनी स्थिति सुधारना चाहता है, वह महायुति के साथ है। ऐसे में दलित पार्टियां सिर्फ उम्मीद कर सकती हैं कि दलित मतदाता दलित-अस्मिता और जातिगत आधार पर उन्हें वोट कर सकते हैं।

 (संपादन : राजन/नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

सैयद ज़ैग़म मुर्तज़ा

उत्तर प्रदेश के अमरोहा ज़िले में जन्मे सैयद ज़ैग़़म मुर्तज़ा ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से लोक प्रशासन और मॉस कम्यूनिकेशन में परास्नातक किया है। वे फिल्हाल दिल्ली में बतौर स्वतंत्र पत्रकार कार्य कर रहे हैं। उनके लेख विभिन्न समाचार पत्र, पत्रिका और न्यूज़ पोर्टलों पर प्रकाशित होते रहे हैं।

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