जनसाधारण के पक्के इरादे और हर असफलता के बाद फिर से उठ खड़े होने की उनकी क्षमता के चलते, 15 नवंबर 2000 को बिहार के एक हिस्से को उससे तराश कर, झारखंड का गठन किया गया था। इस अहम सफलता के पीछे कई दशकों तक चला जनसंघर्ष था, जिसमें लोगों ने अपनी अलग पहचान और महत्वाकांक्षाओं को रेखांकित किया। यह जनसंघर्ष – जो इस क्षेत्र के मूलनिवासी समुदायों के सांस्कृतिक, आर्थिक एवं सामाजिक हाशियाकरण से उपजा था – झारखंड के लोगों के पक्के इरादों का दस्तावेज था। आदिवासियों के नेताओं, बुद्धिजीवियों और ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने एक ऐसे राज्य के निर्माण का सपना देखा था, जो इस इलाके की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की रक्षा करते हुए स्थानीय लोगों की विकास संबंधी ज़रूरतों को भी पूरा करेगा।
झारखंड का जनप्रतिरोध का लंबा और शानदार इतिहास है – बिरसा मुंडा के अंग्रेजों के खिलाफ क्रांतिकारी संघर्ष से लेकर शेख भिखारी अंसारी के बलिदान तक। मगर यह संघर्ष केवल अंग्रेजों से आज़ादी हासिल करने के लिए नहीं था। वरन् इसका एक उद्देश्य सामाजिक-सांस्कृतिक जड़ों को संरक्षित रखना भी था। स्वाधीनता के बाद बिहार के प्रशासन द्वारा सुनियोजित ढंग से इस क्षेत्र की सुध न लेने और इसका शोषण करने के कारण एक अलग राज्य की मांग ने जनता को लामबंद कर दिया।
पृष्ठभूमि
जीवंत संस्कृति और लंबे इतिहास की भूमि झारखंड इस समय एक चौराहे पर खडी है। यहां विकास तो हुआ है, मगर चुनौतियां कम नहीं हैं। करीब 3.3 करोड़ की कुल आबादी वाला झारखंड, नस्लीय विविधताओं की भूमि है। यहां की 26.21 प्रतिशत आबादी आदिवासी है, 12.08 आबादी प्रतिशत अनुसूचित जातियां हैं और शेष अन्य 61.71 प्रतिशत हैं। यहां भाषाई विविधता भी है। कुल आबादी का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा, हिंदी की विभिन्न बोलियां बोलता है और करीब 10 प्रतिशत की मातृभाषा बांग्ला है। झारखंड में धार्मिक विविधता भी है। करीब 67.8 प्रतिशत लोग हिंदू धर्म मानते हैं, 14.5 प्रतिशत इस्लाम में आस्था रखते हैं और करीब 13 प्रतिशत – अर्थात लगभग 42 लाख लोग – “अन्य धर्मों व मतों के हैं”, जिनमें आदिवासियों का सरना धर्म शामिल है। यहां ईसाईयों, जैनियों, बौद्धों और सिक्खों की मामूली आबादी भी है। (जनगणना 2011)
सन् 2000 में आदिवासी क्रांतिकारी बिरसा मुंडा की जयंती, 15 नवंबर, को अस्तित्व में आया झारखंड, एक विडंबनापूर्ण स्थिति का सामना कर रहा है। राज्य में खनिजों का विशाल भूमिगत भंडार है। यहां जमशेदपुर, रांची और धनबाद जैसे औद्योगिक केंद्र हैं, जिनमें टाटा स्टील, बोकारो स्टील प्लांट और सेंट्रल कोलफ़ील्ड्स जैसे भीमकाय औद्योगिक समूहों के कारखाने और खानें हैं। मगर स्थानीय लोग इसके लाभ से अछूते हैं और बेहतर जीवन की तलाश में अपने घर-गांव से पलायन करने के लिए मजबूर हैं।
अगर आर्थिक आंकड़ों की बात करें तो राज्य की प्रगति काफी प्रभावशाली नज़र आती है। जैसे, 2015-16 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 12.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई। मगर ज़मीनी सच्चाई इसके ठीक उलट है। राजनीतिक अस्थिरता, गहरे तक जड़ें जमाए सामाजिक पदक्रम और सरकार व जनता एवं केंद्र व राज्य सरकारों के बीच अविश्वास का भाव – ये सभी न्यायसंगत व समावेशी विकास की राह में रोड़े बने हुए हैं। छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट (1908) व संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (1949) जैसे ऐतिहासिक कानून आदिवासियों को उनकी ज़मीनों से वंचित किये जाने से रोकने के लिए बने थे, मगर ये अक्सर राजनीतिक वाद-विवाद के केंद्र में रहते हैं। जहां झारखंड के शहरी इलाके समृद्ध हो रहे हैं, वहीं ग्रामीण समुदाय सामाजिक-आर्थिक हाशियाकरण, सरकारी लोक-कल्याणकारी योजनाओं के सीमित कार्यान्वयन और विश्वास के सतत संकट जैसी समस्यायों से जूझ रहे हैं।
झारखंड में विकास के इस अंतर को पाटने के लिए ज़रूरी है एक सुविचारित दृष्टिकोण, जो राज्य के सांस्कृतिक चरित्र का सम्मान करते हुए, नागरिक-केंद्रित विकास को प्रोत्साहन दे। लंबे समय से चली आ रही शिकायतों का निराकरण, स्थानीय शासन व्यवस्था का सशक्तिकरण और समावेशी विकास को प्रोत्साहन – ये सभी कदम तुरंत उठाए जाने आवश्यक हैं। तभी झारखण्ड अपनी अपार संभावनाओं को हासिल कर सकेगा और भारत में टिकाऊ विकास के मॉडल के रूप में अपनेआप को स्थापित कर सकेगा।
झारखंड की सामाजिक-सांस्कृतिक बुनावट
झारखंड का समाज अपनी सहजीविता और समावेशिता के लिए जाना जाता है, जिसकी जड़ें उसकी अपनी विरासत में हैं। आदिवासी समुदाय, जो प्रदेश की आबादी का 26.21 फीसद हिस्सा हैं, लंबे समय से इस विरासत को संरक्षित रखे हुए है। मगर यहां एक महत्वपूर्ण तथ्य को ध्यान में रखा जाना ज़रूरी है – और वह यह कि यहां का सामाजिक-राजनीतिक नॅरेटिव अक्सर मुसलमानों सहित छोटे समुदायों के योगदान को नज़रअंदाज़ करता रहा है, जबकि ये सभी समुदाय राज्य के उद्भव की प्रक्रिया का अभिन्न अंग रहे हैं। इतिहास गवाह है कि मुसलमानों, जो राज्य की आबादी का 14.5 फीसद हिस्सा हैं, ने झारखंड में स्वाधीनता आंदोलन और उसके बाद अलग राज्य की मांग को लेकर चले आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शेख भिखारी अंसारी और नादिर अली जैसे लोग, राज्य के प्रति मुसलमानों की अटूट प्रतिबद्धता के प्रतीक हैं। मगर उनकी कुर्बानियों के बावजूद, मुसलमान प्रणालीगत हाशियाकरण के शिकार हैं, उनकी एक रूढ़िबद्ध सांप्रदायिक छवि गढ़ दी गई है और राजनीति में उनका प्रतिनिधित्व अल्प है। उदाहरण के लिए झारखंड आंदोलन में उनके योगदान के बावजूद संथाल परगना के बांग्ला-भाषी मुसलमानों पर बिना किसी आधार के बांग्लादेशी घुसपैठिया होने का लेबल चस्पा कर दिया गया है। बांटने वाली राजनीति इस तरह के नॅरेटिव को बढ़ावा दे रही है, जिससे राज्य की सामूहिक विरासत और उसकी सामाजिक एकजुटता पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। एक समावेशी और एकजुट समाज को प्रोत्साहन देने के लिए ज़रूरी है कि सभी समुदायों के योगदान को स्वीकार किया जाए और उसे मान्यता दी जाए।
प्रणालीगत चुनौतियां
झारखंड की राजनीति में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व में लगातार गिरावट आती जा रही है और महत्वपूर्ण निर्णय लेने की प्रक्रिया से इस समुदाय को अक्सर बाहर रखा जाता है। कुल आबादी का करीब 15 फीसद होने के बाद भी चुनावों में मुसलमानों को इस अनुपात में टिकट नहीं मिलते। 2019 की तुलना में, इस साल हो रहे विधानसभा चुनावों में मुसलमानों के प्रतिनधित्व में बड़ी कमी आई है। न्यायसंगत प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति का आभाव, न केवल प्रजातांत्रिक सिद्धांतों के बरखिलाफ है, वरन इससे मतदाताओं के एक बड़े हिस्से में अलगाव का भाव भी पैदा होता है।
सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए शिक्षा आवश्यक है। साथ ही, यह हर नागरिक का मूल अधिकार भी है। इसके बाद भी प्रणालीगत उपेक्षा के कारण शिक्षा के मामले में झारखंड के मुसलमान काफी पीछे छूट गए हैं। उच्च शिक्षा में मुसलमानों का सकल नामांकन अनुपात (ग्रोस एनरोलमेंट रेश्यो) चिंताजनक स्तर तक कम है। इसके अलावा कई नीतियों, जैसे 2022 में कार्यान्वित एक नीति, जिसके अंतर्गत मनमाने ढंग से उर्दू स्कूलों को सामान्य स्कूलों में बदल दिया गया था, ने भी मुसलमानों में अलगाव के भाव को और गहरा किया है। बेरोज़गारी और संसाधनों तक पहुंच का अभाव हाशियाकरण को और गंभीर बनाते हैं। कुशल उर्दू शिक्षकों को कोने में पटका जाना और उर्दू शिक्षकों के स्वीकृत पदों का दर्जा घटाने जैसे क़दम भी बताते हैं कि मुसलमानों की किस तरह से संस्थागत उपेक्षा की जा रही है।
झारखंड में विघटनकारी राजनीति का बोलबाला बढ़ता जा रहा है और दक्षिणपंथी ताकतें, दूसरे समुदाय के प्रति डर का भाव पैदा कर अपने एजेंडा को आगे बढ़ा रही हैं। इस तरह का ध्रुवीकरण, न केवल अल्पसंख्यकों का हाशियाकरण करता है, वरन् असली मुद्दों जैसे बेरोज़गारी, आर्थिक असमानता और कानून और व्यवस्था से जनता का ध्यान हटाता है। सामाजिक एकजुटता में किस तरह की कमी आ रही है, यह इससे साफ़ है कि मुसलमान अपने समुदाय के मोहल्लों में सिमटते जा रहे हैं, जिससे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और आर्थिक अवसरों तक उनकी पहुंच कम हो रही है। इस तरह का हाशियाकरण मुस्लिम समुदाय को तो प्रभावित कर ही रहा है, इससे प्रदेश का समग्र विकास भी प्रभावित हो रहा है।
जटिल परिवेश
खनिज संपदा की दृष्टि से झारखंड दुनिया के सबसे समृद्ध इलाकों में से एक है। मगर उसका मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) काफी निम्न है। संसाधनों की उपलब्धता और लोककल्याण के बीच यह असमानता, शासन के समक्ष उपस्थित चुनौतियों और प्रणालीगत अक्षमताओं को रेखांकित करती है। सांप्रदायिक राजनीति के उदय ने झारखंड के सामाजिक ताने-बाने को तार-तार कर दिया है। इसने एक पदक्रम को जन्म दिया है, जो समानता और न्याय के सिद्धांतों के खिलाफ है। आदिवासी समुदाय इस प्रांत की रीढ़ है। मगर औद्योगिक और अधिसंरचनात्मक परियोजनाओं के कारण आदिवासियों को विस्थापन और शोषण का सामना करना पड़ रहा है। इसी तरह, अल्पसंख्यकों की सुनियोजित उपेक्षा से राज्य की बहुलवादी चरित्र को हानि पहुंच रही है।
सन् 2000 में झारखंड राज्य के गठन के बाद से, अनेक नीतियों ने आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों समुदायों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर गहरा प्रभाव डाला है। आदिवासियों के मामले में स्थानीय निवासियों को उनकी ज़मीनों से वंचित किये जाने से रोकने के लिए बने छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट (1908) व संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (1949) जैसे कानून हैं। मगर इन कानूनों और इसी आशय की नीतियों के पालन में कोताही के चलते आदिवासियों को अपनी ज़मीनों से जुदा होकर विस्थापन का शिकार होना पड़ रहा है। इसके पीछे मुख्यतः खनन गतिविधियां हैं। गैर-आदिवासी समुदाय नगरीय क्षेत्रों में हुई आर्थिक प्रगति से लाभान्वित हुए हैं, मगर बेरोज़गारी उनकी एक बड़ी समस्या है। और साथ ही ग्रामीण इलाकों में वे आवश्यक सेवाओं तक पहुंच से वंचित हैं। संसाधनों के वितरण में विषमता के कारण विभिन्न सामाजिक समूहों में सामाजिक-आर्थिक असमानताएं बनी हुईं हैं।
झारखंड के मुसलमानों का इतिहास, प्रतिरोध, पहचान और महत्वाकांक्षाओं के नॅरेटिव के साथ गुत्था हुआ है। स्वाधीनता संग्राम में भागीदारी से लेकर पृथक राज्य के पक्ष में आवाज़ उठाने तक उनका योगदान महत्वपूर्ण रहा है। समावेशी झारखंड के निर्माण के लिए यह ज़रूरी है कि इस सामूहिक विरासत को मान्यता दी जाए और उसे राज्य के विकासात्मक ढांचे का हिस्सा बनाया जाए।
आगे की राह
अपने गठन की 24वीं वर्षगांठ का उत्सव मनाता हुआ झारखंड आज एक चौराहे पर खड़ा है। उसे अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को बचाकर रखने और आधुनिकीकरण व समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए ज़रूरी कदम उठाने के बीच संतुलन कायम करना है। राज्य के समृद्ध भविष्य के लिए ज़रूरी है कि प्रणालीगत असमानताओं को समाप्त किया जाए, न्यायसंगत प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जाए और सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा दिया जाए।
राज्य के टिकाऊ विकास के लिए ज़रूरी है कि खनन के तरीकों में जवाबदेही सुनिश्चित की जाए और पर्यावरण की सुरक्षा और समुदाय की भलाई और उसके हितों को प्राथमिकता दी जाए।
इसे हासिल करने के लिए खनन से जुड़ी गतिविधियों का कड़ाई से नियमन ज़रूरी है। यह भी ज़रूरी है कि जिस इलाके से खनिजों का निष्कर्षण किया जा रहा है, वहां के लोग इससे लाभान्वित हों। उन्हें काम मिले और मुआवजा भी। और खनन से होने वाली आय का एक हिस्सा स्थानीय अधिसंरचना व शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं के विकास पर खर्च हो। फिर ऐसे तकनीकी और तरीकों का प्रयोग हो जिससे पर्यावरण को कम से कम नुकसान पहुंचे। साथ ही अर्थव्यवस्था का विविधीकरण हो और उसे केवल खनन तक सीमित नहीं रखा जाए। इससे स्थानीय आबादी को दीर्घकालीन, टिकाऊ समृद्धि हासिल हो सकेगी। आदिवासी और गैर-आदिवासी दोनों समुदायों के अधिकारों का सम्मान करने वाले समावेशी विकास को प्राथमिकता देना राज्य की प्रगति के लिए आवश्यक है।
इस समय झारखंड में चुनाव हो रहे हैं। मतदान का पहला चरण गत 13 नवंबर को हो चुका है और दूसरा व अंतिम चरण 20 नवंबर 2024 को है। नतीजे 23 नवंबर को घोषित किये जाएंगे। झारखण्ड के लोगों को एक ऐसी सरकार की ज़रूरत है जिसकी पहली प्राथमिकता उनकी भलाई हो और जो उन्हें मूलभूत सुविधाएं और अवसर उपलब्ध करवा सके। विकास के इस मॉडल में सभी जातियों, वर्गों, धर्मों और नस्लीय समूहों के लिए जगह होनी चाहिए।
(मूल अंग्रेजी से अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
फारवर्ड प्रेस वेब पोर्टल के अतिरिक्त बहुजन मुद्दों की पुस्तकों का प्रकाशक भी है। एफपी बुक्स के नाम से जारी होने वाली ये किताबें बहुजन (दलित, ओबीसी, आदिवासी, घुमंतु, पसमांदा समुदाय) तबकों के साहित्य, संस्कृति व सामाजिक-राजनीति की व्यापक समस्याओं के साथ-साथ इसके सूक्ष्म पहलुओं को भी गहराई से उजागर करती हैं। एफपी बुक्स की सूची जानने अथवा किताबें मंगवाने के लिए संपर्क करें। मोबाइल : +917827427311, ईमेल : info@forwardmagazine.in