गत 20 नवंबर, 2024 को वी.टी. राजशेखर ने 93 साल की आयु में अपनी अंतिम सांस ली। उनकी मृत्यु से एक ओर मैं आहत और दुखी महसूस कर रहा हूं तो दूसरी ओर मेरे लिए यह उनके जीवन और उनकी विरासत का उत्सव मनाने का मौका भी है। वे पूरे भारत और उसके बाहर भी, मेरे जैसे कार्यकर्ताओं और लेखकों के दोस्त, मार्गदर्शक और हिम्मत और विश्वास की स्रोत थे। उन्हीं के कारण मेरी पुस्तक “व्हाई आई ऍम नॉट ए हिंदू” को सन् 2008 में लंदन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साउथ एशिया (एलआईएसए) पुरस्कार मिला था। वेस्टमिन्स्टर (ब्रिटिश संसद) में आयोजित अलंकरण समारोह में वे उपस्थित हुए और मेरा व्याख्यान भी सुना। उसके बाद हमदोनों ने लंदन में बढ़िया समय गुज़ारा। वैश्विक राजनीति पर खूब बातें चर्चा की और साथ मिलकर भोजन भी किया।
उन्होंने मेरी किताब की प्रशंसात्मक भूमिका लिखी और उसे अपनी ‘दलित वॉयस’ के पाठकों तक पहुंचाया। और वह भी तब जब मैं न तो उन्हें और न ही उनकी पत्रिका को जानता था। वे एक ऐसे व्यक्ति थे जो किसी मुद्दे पर आपसे असहमत होने पर आपसे लड़ पड़ेंगे। मगर जैसे ही चर्चा ऐसे मुद्दों की ओर मुड़ेगी, जिनमें परस्पर असहमति नहीं है, तो उनका व्यवहार तुरंत मित्रवत हो जाएगा। दलितों की मुक्ति के मसले पर उनके दृढ़ विचार इसलिए विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं क्योंकि वे कन्नड़ शेट्टी समुदाय, जिसे बंट भी कहा जाता है, से थे, और खांटी पत्रकार थे। वे ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ में काम कर चुके थे। वे अपने अंतिम दिनों तक दलितवाद के प्रति प्रतिबद्ध बने रहे। उनकी पीढ़ी तो छोड़िये, आज भी ऐसा कोई शूद्र बुद्धिजीवी नहीं है, जो अछूत प्रथा के खिलाफ और दलितों की मुक्ति के पक्ष में इतना ज़बरदस्त अभियान चला सके, जैसा उन्होंने चलाया।
वे कहते थे कि जब उन्होंने ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ से इस्तीफा देकर ‘द दलित वॉयस’ शुरू की तो उनके सभी मध्यमवर्गीय, उच्च जाति के दोस्त उनसे दूर हो गए। वे बेंगलुरु के अपने घर से अकेले ही पत्रिका के लिए लेखन, उसकी छपाई और वितरण का काम करते थे।
मंडल की खामोश क्रांति की शुरुआत से काफी पहले उन्होंने दलितवाद का वरण कर लिया था। उस समय उत्तर-आंबेडकर दलित लेखन और पठन-पाठन की अंग्रेजी भाषा में कोई परंपरा नहीं थी। ‘दलित’ शब्द को मीडिया जमात ने बस सुना भर ही था और वह भी दलित पैंथर मराठी साहित्य आंदोलन के कारण। वीटीआर उस समय बंबई में रिपोर्टर थे और शायद इसलिए उन्हें तुरंत यह अहसास हुआ कि एक पत्रिका शुरू कर ‘दलित’ शब्द को लोकप्रिय बनाना कितना महत्वपूर्ण होगा। मगर एक शूद्र शेट्टी के लिए यह निर्णय लेना और उसके नतीजे में सामाजिक अलगाव, विशेषकर अपने पत्रकार जगत में, झेलना निश्चित रूप से कठिन और यंत्रणापूर्ण रहा होगा।
मंडल के पूर्व के दौर में पत्रकार के रूप में एक अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर ‘दलित’ शीर्षक वाली पत्रिका निकालना कितना अनोखा काम रहा होगा, इसकी कल्पना की जा सकती है। इसी साल, 2024 में, जब राहुल गांधी ने अपने एक संवाददाता सम्मलेन में पूछा कि वहां मौजूद पत्रकारों में से कितने दलित, आदिवासी या ओबीसी हैं, तो एक भी हाथ नहीं उठा। यह हाल था एक प्रमुख राष्ट्रीय विपक्षी नेता की राष्ट्रीय प्रेस कांफ्रेंस का, जिसमें विदेशी मीडियाकर्मी भी उपस्थित थे!
वीटीआर उस समय अंग्रेजी पत्रकारिता की ब्राह्मणवादी दुनिया में शायद अकेले शूद्र रहे होंगे। इस तरह उन्होंने देश के मीडिया की जातिवादी दीवार को तोड़ा। उन्होंने मुझे बताया था कि मुख्यधारा के मीडिया में व्याप्त जातिवाद से निराश और कुंठित होकर उन्होंने ‘दी इंडियन एक्सप्रेस’ छोड़ा और एक क्रांतिकारी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया ताकि वे अपने विरोधियों से मुकाबला कर सकें।
उन्होंने भारत की उच्च जातीय पत्रकारिता से कभी समझौता नहीं किया। ‘दलित वॉयस’ शुरू करने के बाद उन्होंने कभी किसी अंग्रेजी राष्ट्रीय दैनिक के लिए नहीं लिखा। जब भी भारत की मीडिया पर चर्चा होती, वे उसमें व्याप्त जातिवाद की तीखी आलोचना देने लगते। वे कहते थे कि सभी उच्च जातीय भारतीय अखबार ‘टॉयलेट पेपर’ हैं। जब उन्हें पता चला कि मैं राष्ट्रीय अख़बारों में लेखन करता हूं तो उन्होंने मुझसे कहा, “अपने विचारों को ऊंची जातियों के लोगों को मत बेचो। वे लोग नहीं बदलेंगे।” मैंने उनकी बात हंस कर टाल दी, क्योंकि मैं मुख्यधारा के मीडिया में ज्यादा से ज्यादा लिखने और उससे जितना संभव हो उतना संवाद रखने में यकीन रखता था। हम दोनों में बहुत-से मतभेद थे। मगर उनकी मृत्यु तक हमारी दोस्ती में गर्माहट बनी रही।
वे दलित-ओबीसी एकता की बजाय दलित-मुस्लिम एकता के अधिक पक्षधर थे। वे कहते थे कि दलितों की तुलना में कहीं ज्यादा ओबीसी आरएसएस/भाजपा के लश्कर के साथ हो लेंगे। यद्यपि उन्होंने कभी इस्लाम कुबूल नहीं किया मगर वे एक धर्म के बतौर इस्लाम को बहुत पसंद करते थे।
उनकी पाकिस्तान यात्राओं के कारण उनका पासपोर्ट लंबे अरसे के लिए जब्त कर लिया गया था। वे यहूदीवाद के कट्टर विरोधी थे और यहूदियों के खिलाफ लेख लिखते रहते थे।
अपनी ज़िंदगी के आखिरी दौर में वे स्वास्थ्य कारणों से बेंगलुरु छोड़ कर मैंगलोर रहने चले गए थे। और उसके बाद से उनकी आवाज़ धीमी पड़ने लगी थी। मगर वे अपनी उम्र के आठवें दशक के अंत तक यात्राएं करते रहे। उनसे मेरी अंतिम मुलाकात 2016 में तब हुई थी, जब वे हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की संस्थागत हत्या के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में भाग लेने हैदराबाद आए थे। दुखद यह कि उन्हें विश्वविद्यालय परिसर में प्रवेश नहीं करने दिया गया। फिर भी विश्वविद्यालय के गेट पर काफी लंबे समय तक खड़े रहकर उन्होंने अपना विरोध जाहिर किया। यह थी दलितों के हितों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता।
वे हमेशा खादी का कुरता और पायजामा पहनते थे और एक आम कन्नड़ कांग्रेसी नेता दिखते थे। लेकिन असल में वे एक धर्मांतरित दलित बुद्धिजीवी थे।
इस साल की शुरुआत में, पॉल दिवाकर और उनकी एक टीम ने ‘दलित वॉयस’ का डिजिटलीकरण किया और उन्होंने वेबसाइट के उद्घाटन के लिए बेंगलुरु के इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट में आयोजित कार्यक्रम में मुझे आमंत्रित किया। दुखद कि मैं वहां नहीं जा सका। मगर कम से कम इस प्रसिद्ध दलित के जीते-जी यह काम हो गया।
हम वीटीआर जैसे दूसरे व्यक्ति की कल्पना नहीं कर सकते जो शूद्र जाति से होते हुए भी दलितवाद का वरण करे और अपनी पूरी ज़िंदगी दलितों की मुक्ति के लिए संघर्ष करे। उनकी ‘दलित वॉयस’ पूरी दुनिया में गूंजती थी – विशेषकर अफ्रीका और कई मुस्लिम देशों में।
उन्होंने एक लंबी जिंदगी जी और दुनिया के सबसे दमित तबके की मुक्ति के लिए अथक काम किया। हमें वीटीआर के जीवन, उनके विचारों और उनके लेखन का तब तक उत्सव मनाना चाहिए जब तक हम जिंदा हैं। अलविदा वीटीआर।
(यह आलेख पूर्व में अंग्रेजी में काउंटर करेंट द्वारा प्रकाशित व यहां हिंदी अनुवाद लेखक की सहमति से प्रकाशित, अनुवाद : अमरीश हरदेनिया, संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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