दलित साहित्य जड़ नहीं है। साहित्य की लगभग सभी विधाओं – फिर चाहे वह आत्मकथाएं हों, कहानियां हों, कविताएं हों या फिर नाटक व उपन्यास – में दलित साहित्यकारों ने बदलते हुए समाज का चित्रण किया है। फिर यह भी देखा जा रहा है कि इन विधाओं में जो रचनाएं रची जा रही हैं, उनमें केंद्रीय तत्व आंबेडकरवाद है। इसी तथ्य को सत्यापित करता है डॉ. पूरन सिंह का नया काव्य संग्रह– ‘हरे कांच की चूड़ियां’। इससे पहले भी उनके कई कहानी संग्रह, कविता संग्रह और लघुकथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें कहानी संग्रहों– ‘पथराई आंखों के सपने’, ‘साजिश’, ‘मजबूर’, ‘पिंजरा’, ‘हवा का रुख’, ‘रिश्ते’ के अलावा आठ लघुकथा संग्रह भी शामिल हैं।
भारत सरकार के वित्त मंत्रालय में वरिष्ठ अधिकारी रहे (अब सेवानिवृत्त) डॉ. पूरन सिंह की खासियत यह रही है कि वे बेहद सहज शब्दों में कहानियां कह जाते हैं। ‘हरे कांच की चूड़ियां’ कहानी संग्रह भी इनकी सहज कथाशैली का नमूना है। इस संग्रह की कहानियों के पात्र भी टूटते-बिखरते हैं पर हिम्मत नहीं हारते हैं और मानवीय संवदेनाओं को बचाए रखने की वकालत करते हैं। लेखक अपनी भूमिका में भी कहते हैं– “जीवन बहुत सरल नहीं है। इसमें बहुत दुख हैं, कष्ट हैं, परेशानियां हैं, जिनकी तुलना में सुख बहुत कम है। लेकिन दुखों से भागना भी तो कायरता ही है। सुख-दुख, उतार-चढ़ाव और हार-जीत से जूझना ही जीवन का पर्याय है।” (डॉ. पूरन सिंह, हरे कांच की चूड़ियां, कलमकार पब्लिशर्स, नई दिल्ली, पृष्ठ 7)
इस कहानी संग्रह की कहानियों में जाति के नाम पर कथित उच्च जातियों का दंभ है। साथ ही, निम्न जातियों पर दबंग जातियों द्वारा किए गए अत्याचार, सामाजिक अन्याय के प्रसंग भी। ‘नपुंसक’, ‘तुम लौट आओ मोहन लोधी’ और ‘शुद्धीकरण’ आदि कहानियां इसके उदाहरण हैं।
दरअसल, कहानीकार ने कुछ ऐसे चरित्रों को भी अपनी कहानियों में स्थान दिया है, जो बाबा साहब डॉ. आंबेडकर द्वारा तैयार संविधान की वजह से आगे बढ़ जाते हैं और अच्छी नौकरी पा जाने पर या कहिए कि अच्छी आर्थिक स्थिति हो जाने पर बाबा साहेब को नकारने लगते हैं और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को अपना लेते हैं। ‘सेकुलरिज्म’, ‘भटका हुआ राही’ और ‘मेरे अपने’ कहानियां इस बात की तस्दीक करती हैं।
जैसे ‘भटका हुआ राही’ कहानी का एक पात्र अपने छोटे भाई विवेक जो कि मुख्य पात्र है, से कहता है– “पागल हो गए हो तुम। दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा। कहां के बाबा साहेब। काहे का कारंवा। बाबा साहब को सिर्फ नौकरी लगने तक ही मानो। और ये बाबा साहब के चक्कर में रहोगे तो धोबी का कुत्ता घर का न घाट का वाली स्थिति हो जाएगी। … इस अंबेडकर-फंबेडकर के चक्कर को छोड़ो, अगर मैं इन चक्करों में पड़ता तो आज इस स्थिति पर नहीं पहुंचता। आज मेरा सोशल स्टेटस देखकर लोग दंग हैं। कोई नहीं जानता कि मैं राधे चमार का बेटा हूं। यहां के सारे लोग मुझे गुप्ता समझते हैं।” (वही, पृष्ठ 94-95)
दरअसल, डॉ. पूरन सिंह की कहानियां दलित समाज में बढ़ते जा रहे वर्चस्ववाद की तीखी आलोचना करती हैं। उदाहरण के लिए उनकी एक कहानी ‘मेरे अपने’ है। यह कहानी एक ऐसी दलित रामबाबू की है, जो धन-संपन्न होने और अच्छी नौकरी पाने के बाद ब्राह्मणवादी हो जाता है। वह बाबा साहब आंबेडकर को नौकरी पाने भर का साधन मानता है। फिर उनकी तस्वीर तक घर में नहीं रखता। वह खुद को दलित नहीं दिखाना चाहता क्योंकि समाज दलितों को इज्जत की नजर से नहीं देखता।
प्राय: देखा जाता है कि अक्सर दलित ब्राह्मण से नफरत करता है, क्योंकि वह ब्राह्मण और ब्राह्मणवाद को जाति-व्यवस्था के लिए दोषी मानता है। उसे यह लगता है कि उसके साथ जो जातिगत भेदभाव किया गया है, उसके पीछे यही व्यवस्था है। लेकिन वह ब्राह्मणवादियों की तरह संवेदनहीन नहीं होता। वह जाति से परे इंसानियत के नाते ब्राह्मण की मदद करने को तैयार हो जाता है। हालांकि कुछ समय उसके अंदर कशमकश चलती है। इस कशमकश को ‘बुद्धम् शारणम् गच्छामि’ कहानी में देखा जा सकता है– “देखो उन्होंने तुम्हारे या तुम्हारे पूर्वजों के साथ क्या किया या क्या कर रहे हैं, ये जरूरी नहीं है। जरूरी ये है कि आप उनके साथ क्या कर रहे हो।” (वही, पृष्ठ 102)
कहानीकार ने इस संग्रह में लंबी कहानियों से परहेज किया है और सभी कहानियां लघुकथाओं के माफिक ही हैं, बस उनका आकार थोड़ा-सा बड़ा है। हिंदी साहित्य में ऐसे प्रयोग पहले भी किए जाते रहे हैं। यहां तक कि प्रेमचंद ने भी एक समय इसी तरह की कहानियों का लेखन किया। उदाहरण के लिए उनकी कहानी ‘गुरु मंत्र’ (1926), ‘बाबा जी का भोग’ (1926) आदि को देखा जा सकता है।
कहानीकार डॉ. पूरन सिंह ने अपने कहानी संग्रह की कुछ कहानियों में सामाजिक संबंधों पर भी दृष्टिपात किया है। कुछ ऐसे चरित्र भी हैं, जो अपनी हवस मिटाने के लिए जातिवाद की आड़ में रिश्तों की मर्यादा को भी लांघ जाते हैं। ‘वसूली’ एक ऐसी ही कहानी है। इस कहानी में सवर्ण जाति की ममता एक ऐसी विधवा युवती है, जिसके पति की मौत हनीमून के समय हिल स्टेशन पर घूमते समय फोटो खींचने के दौरान एक खाई में गिरकर हो जाती है। बाद में जब ममता अपनी मामी की प्रेगनेंसी के समय उनके घर काम में हाथ बंटाने जाती है तो उसका वहां मामा जी के जान-पहचान के एक दलित लड़के आशुतोष से प्रेम हो जाता है, जो धोबी समाज से आता है। वह आशुतोष से शादी करना चाहती है। लेकिन उसके घरवाले राजी नहीं होते। उसका मामा दलित लड़के से ममता की शादी कराने के एवज में ममता को खुद शारीरिक संबंध बनाने के लिए मजबूर करता है। इस तरह मामा अपनी भांजी को अपनी हवस का शिकार बना लेता है और ममता के घर वालों को राजी कर उसकी शादी आशुतोष से करा देता है।
‘खोइया’ कहानी में स्त्री विमर्श को दर्शाया गया है। इस कहानी में गालियों को केंद्रीय विषय बनाया गया है। इसमें महिला पात्र सवाल करती है कि पुरुषों के लिए गालियां क्यों नहीं होतीं।
हालांकि कई कहानियों में कहानीकार ने जल्दबाजी की है। लेकिन इस संग्रह की कहानियों को इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि इनमें विभिन्न सामाजिक विसंगतियों को दर्शाया गया है। जैसे कि शीर्षक कहानी ‘हरे कांच की चूड़ियां’ अधेड़ हो चुके पति-पत्नी के बीच आई दुराव की कहानी है। उनके संबंध तल्ख हो जाते हैं। एक दूसरे से कोई मतलब नहीं रखते।
दलित विमर्श के हिसाब से देखें तो ‘नपुंसक’ कहानी वर्तमान दौर में भी दलितों के ऊपर होने वाले अत्याचार की कहानी कहती है। हालांकि इस कहानी में कहानीकार ने यह भी दिखाया है कि ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता अपने जाति-समुदाय की महिलाओं के भी सगे नहीं होते। वे अपने घर की स्त्री को भी दोयम ही मानते हैं। यह कहानी गांव की सुरसती नाम की दलित महिला के बारे में है, जो घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं होने के कारण ठाकुर के खेत से आलू चुराती है। पकड़े जाने पर ठाकुर और गांव की पंचायत उसे नग्न कर गांव में घुमाने का निर्णय सुनाती है।
डॉ. पूरन सिंह अपनी कहानी ‘तुम लौट आओ मोहन लोधी’ के जरिए दलितों में बढ़ रहे ब्राह्मणवाद को दिखाया है। इस कहानी में मोहन नाम का एक दलित पूजा पाठ करता है। कथा वाचक बन जाता है। कुछ कथित उच्च जाति के लोग खासतौर पर ब्राह्मण इस बात से चिढ़ते हैं। उन्हें लगता है कि एक दलित उनकी आजीविका अपना रहा है। इसे वे बर्दाश्त नहीं कर पाते और एक षडयंत्र के तहत उसकी हत्या कर देते हैं।
ऐसी ही एक कहानी है– ‘शुद्धीकरण’। इस कहानी में झम्मन चमार ठाकुर साहब का कर्ज चुका नहीं पाता। ऐसी स्थिति में अधेड़ ठाकुर झम्मन की जवान बेटी सीता को अपनी हवस का शिकार बना लेता है। ठाकुर परिवार के लोग विरोध करते हैं। बाद में पंचायत बैठती है जिसमें पंडित शुद्धीकरण की बात कहता है। यह कहानी एक नया मोड़ तब लेती है जब सीता एक रात और ठाकुर की पत्नी की तरह रहने की बात कहती है। इसे पंचायत द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है। रात में वह ठाकुर की दुनाली बंदूक से हत्या कर देती है। इसे ही वह शुद्धीकरण कहती है।
समीक्षित संग्रह का नाम : हरे कांच की चूड़ियां
कहानीकार : डॉ. पूरन सिंह
प्रकाशक : कलमकार पब्लिसर्स प्रा.लि.
मूल्य : 225 रुपए
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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