भारत जैसे विविधता वाले देश-समाज में जहां हजारों सालों से एक ही श्रेष्ठि वर्गजाति के लोग सर्वोच्च शिखर पर रहते आए हों, वहां आज़ादी और संविधान को अंगीकार करने के बावजूद सामाजिक न्याय और समता के सिद्धांत को व्यावहारिक अर्थों में उस कथित श्रेष्ठि वर्ग के हितबद्ध समूह द्वारा स्वीकार कर पाना अत्यंत ही दुष्कर कार्य है। इसलिए इस ब्राह्मणवादी आधिपत्य के काल में उनका वर्चस्व और विशेषाधिकार बिना किसी संवैधानिक आरक्षण के आज भी सभी जगह व्याप्त है। तमाम प्रगतिशील संस्थानों में स्थानीय मूलवासी नेतृत्व को ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ कहकर दरकिनार कर सिरे से खारिज कर दिया जाता है। ऐसा ही एक वाकया देश में नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाली पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टी (पीयूसीएल) के छत्तीसगढ़ इकाई की गत 6-7 नवंबर, 2024 को रायपुर में संपन्न हुए राज्य अधिवेशन में उभरकर सामने आया।
विदित है कि छत्तीसगढ़, पीयूसीएल में सर्वाधिक लंबे समय तक महासचिव रहीं सुधा भारद्वाज जब सन् 2017 में दिल्ली में जाकर बस गईं, तब भी वह संगठन की प्रांतीय इकाई की महासचिव थीं। सन् 2018 में जब प्रांतीय इकाई में नेतृत्व परिवर्तन अवश्यम्भावी हो गया था, तब तक सुधा भारद्वाज शनिवारवाडा मामला, जिसे भीमा-कोरेगांव केस के रूप में बहु प्रचारित किया गया है, में गिरफ्तार कर ली गईं। सुधा भारद्वाज ने जेल में रहते हुए संदेश भेजा कि उनकी अनुपस्थिति में आसन्न कार्यकाल के लिए शालिनी गेरा को महासचिव मनोनीत किया जाय। इस बीच इलाहाबाद में पीयूसीएल का राष्ट्रीय महाधिवेशन हुआ, जहां छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधियों ने सुधा भारद्वाज के इस रीति से उत्तराधिकारी थोपने की कोशिश की निंदा की।
खैर, संगठन की प्रांती इकाई में नेतृत्व परिवर्तन हुआ और उत्तराधिकारी मनोनीत करने की सुधा भारद्वाज की मंशा नाकाम हो गई। हालांकि नवगठित राज्य कमेटी ने राजकीय दमन के विरुद्ध सुधा भारद्वाज के प्रति एकजुटता प्रकट करते हुए, उन्हें पीयूसीएल की महासचिव के रूप में तब भी मनोनीत किया था।
इसके पश्चात छत्तीसगढ़, पीयूसीएल में सुधा भारद्वाज के अनन्य समर्थक धड़े ने नए नेतृत्व को निशाने में लेना आरम्भ किया। नवगठित कार्यकारिणी के गतिविधियों, उनके द्वारा चिह्नित मुद्दों, उनके कार्यों और लेखन शैली को विशेष लक्ष्य करते हुए उन्हें निशाना बनाया जाने लगा। उनके नेतृत्व को अस्वीकार करते हुए एक-एक करके सुधा भारद्वाज के सभी समर्थक सदस्य सांगठनिक कार्यों से अलग होने लगे और व्हाट्सऐप तथा फेसबुक जैसे सोशल मीडिया के जरिए दलित-आदिवासी नेतृत्व को बदनाम और ट्रोल करने के काम में जुट गए। जो लोग बच गए, उन्होंने भी दलित-आदिवासी नेतृत्व के प्रति असहयोग का रुख अपनाया। इस क्रम में पूर्व संगठन सचिव द्वारा एक मनगढ़ंत पत्र लिखकर ‘आइडेंटिटी पॉलिटिक्स’ का मुद्दा उठाने की कोशिश की गई। नतीजतन पीयूसीएल के राष्ट्रीय महासचिव वी. सुरेश, मिहिर देसाई और हिमांशु कुमार को रायपुर आना पड़ा तथा सामंजस्य बिठाने की कोशिश की गई। सन् 2021 में पीयूसीएल के राज्य अधिवेशन ने पुनः इस दलित-आदिवासी नेतृत्व व टीम को आगामी कार्यकाल के लिए निर्वाचित किया। इसके बाद स्वाभाविक जान पड़ता है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं का यह सवर्ण गुट बेचैन हो उठा। उसके पास एक ही तरीका बच गया था– छत्तीसगढ़ में सुधा भारद्वाज के कार्यों और उसके प्रति लोगों के भावनात्मक लगाव को औज़ार के रूप में इस्तेमाल करना। उन लोगों ने ठीक वैसा ही किया।
देश के विभिन्न नामचीन सिविल सोसाइटी समूहों और भिन्न-भिन्न सम्मेलनों में यह झूठा नॅरेटिव फैलाया गया कि सुधा भारद्वाज को छत्तीसगढ़, पीयूसीएल से निष्कासित कर दिया गया है। जबकि हकीकत इसके विपरीत था। वास्तविकता यह है कि सुधा भारद्वाज 2024 तक लगातार महासचिव रहीं।
यह स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ पीयूसीएल में सुधा भरद्वाज का नेतृत्व अपने सांगठनिक कार्यशैली में संविदा और कॉलेजियम प्रणाली का पोषक रहा है। वह धीरे से जन-आंदोलनों के मध्य अपना पैठ बनाता है और एक योजना के मुताबिक छोटे-छोटे समूहों को मिलाकर एक साझा मंच तैयार करता है और फिर यकायक उन सब का स्वयंभू प्रतिनिधि बन कर अपना एजेंडा थोप देता है। इस तरह से भोले-भाले स्थानीय समुदायों के मध्य अपना आयातित एजेंडा स्थापित करने में सफल हो जाता है। श्रेणीबद्ध असमानता, अलोकतांत्रिक परंपरा और संस्कृति, यथास्थितिवाद और बर्बर ग्राम्य व्यवस्था के प्रति एक नागरिक अधिकार कार्यकर्ता व संगठन के रूप में इस गुट की रहस्यमयी चुप्पी हतप्रभ कर देनेवाली रही है।
ऐसा नहीं है कि इस संबंध में पीयूसीएल के राष्ट्रीय संगठन को समय-समय पर अवगत नहीं कराया गया है। ठीक तीन वर्ष पहले राज्य इकाई द्वारा केंद्रीय नेतृत्व को लिखा गया कि “आभास होता है कि जब से छत्तीसगढ़ पीयूसीएल व्यक्ति केंद्रित और अनेक संगठनों के समुच्चय होने से आगे जन केंद्रित होने की ओर अग्रसर हुआ है अथवा स्थानीय दलित-आदिवासी नेतृत्व और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को अपनाने की कोशिश हुई है, तबसे प्रांतीय संगठन के भीतर एक गुटबंदी का वातावरण बन गया है और इस आतंरिक प्रभावी कारकों ने कार्यरत नेतृत्व को कार्य करने में लगातार रोड़ा अटकाया है। राष्ट्रीय नेतृत्व के कुछ पदाधिकारियों ने प्रदेश के कुछ पदाधिकारियों को निशाना बनाते हुए उनके विरुद्ध आर्थिक बैरिकेड के रूढ़िवादी तरीके के इस्तेमाल करने की बात कही। यह सब ऐसे समय में हो रहा है जब राजकीय दमन अपने चरम पर है और भारतीय समाज में परंपरागत वर्चस्वशाली ताकतें भी नागरिक अधिकारों के खिलाफ अपने पूरी आक्रामकता के साथ काम कर रही हैं। इनका प्रसार और इनकी व्यापकता हर जगह है। एक समय तक ये ताकतें बहुत ही उदार और संयम के साथ काम कर रही थीं, लेकिन अब इनके साथ सीधे टकराव की परिस्थितियां निर्मित हो चुकी हैं। अफ़सोस कि छत्तीसगढ़ पीयूसीएल भी इससे अछूता नहीं रह गया है।”
असल में गैर-प्रांतीय तथा ब्राह्मणवादी ताकतें छत्तीसगढ़ में पीयूसीएल को मुख्यधारा बनाम बहिष्कृतों के दमन का प्रयोगशाला बनाने की कोशिश में जुटी हैं। सुधा भारद्वाज गुट ने दुर्ग-भिलाई केंद्रित जन-मुक्ति मोर्चा और बिलासपुर केंद्रित गुरुघासीदास सेवादार संघ के माध्यम से राज्य अधिवेशन में नियमों के विपरीत गैर-पीयूसीएल सदस्यों को शामिल करने का जबरदस्ती दबाव बनाया और नियमावली के विपरीत सदस्यों के एक-तिहाई उपस्थिति अनुपात के बिना मनमाने तरीके से कार्यकारिणी का चयन कर लिया। चुनाव के दौरान तो ऐसा मंजर भी देखने को मिला कि अध्यक्ष प्रत्याशी ने स्वयं चुनाव लड़ने से मना कर दिया, लेकिन उसे दबा दिया गया, जिसे राष्ट्रीय पर्यवेक्षक ने नज़रंदाज़ कर दिया। जब मतदान हुए तो वहां भी प्रत्याशी द्वारा अपने निकट प्रतिद्वंद्वी को वोट किया गया। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में बतौर राष्ट्रीय पर्यवेक्षक कविता श्रीवास्तव, जो स्वयं मौजूद थीं, ने किसी तरह का कोई आक्षेप नहीं किया और इसे घटित होने दिया। उन्होंने इसी साल गत मार्च के अधिवेशन में सदस्यों के जिस उपस्थिति व अनुपात नियमों का हवाला देकर राज्य अधिवेशन को स्थगित कर दिया था, उसी परिस्थिति की पुनरावृति में उन्होंने दोहरी नीति अपनाते हुए पक्षपात किया।
निवर्तमान कार्यकारिणी द्वारा पीयूसीएल के नाम से समानांतर गतिविधियों की शिकायत पर उन्होंने कहा कि “इस बारे में राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व अध्यक्ष प्रभाकर सिन्हा से मशविरा किया गया, जिस पर उन्होंने गैर-सांगठनिक गतिविधियों वाले शब्द के प्रयोग पर आपत्ति करते हुये घोर आश्चर्य व्यक्त किया है।”
यह तथ्यपूर्ण है कि इस राज्य अधिवेशन में बलोदाबाजार अग्निकांड और सैकड़ों दलितों की गिरफ्तारी और लंबे समय से सरकार द्वारा उन्हें जेल मे बंद रखने के राजकीय दमन के मुद्दे पर रायपुर में एक प्रेस वार्ता आयोजित किया जाना प्रस्तावित था। इस प्रस्ताव का गुरु घासीदास सेवादार संघ (जीएसएस) ने विरोध किया है। सवर्ण सामाजिक कार्यकर्ता और दलित-आदिवासियों में कुछ संपन्न हो चुके प्रतिनिधियों का यह समूह पीयूसीएल, छत्तीसगढ़ के सांगठनिक, कार्यरत कमेटी तथा आदिवासी-दलित नेतृत्व को विशेष लक्ष्य करते हुए उन्हें नीचा दिखाने, उसके कार्यों मे बाधा उत्पन्न करने, जान-बुझकर असहयोग के अनुकूल माहौल के इंतज़ार में बेसब्री से ताक रहा था। इस गुट ने इस मौके को तुरंत लपक लिया। मेट्रो सिटी में बैठे सवर्ण सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा छत्तीसगढ़ के स्थानीय दलित-आदिवासी और महिला नेतृत्व को हाशिये पर धकेलने के लिए मुक्ति मोर्चा और जीएसएस (ये दोनों संगठन अपने व्यावहारिक चरित्र में सवर्ण उन्मुख और दलीय राजनीतिक महत्वाकांक्षा से परे नहीं हैं) का गंठजोड़ एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया गया है। फलत: अब छत्तीसगढ, पीयूसीएल दीगर संगठनों का एक उपनिवेश भर रह गया है।
यह कहने की जरूरत नहीं है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं के वेश मे जन-आंदोलनों के मध्य प्रतिक्रियावादियों की घुसपैठ हो चुकी है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आदिवासी क्षेत्रों में गैर-हिंदू धर्मों पर पाबंदियों के फरमानों और आदिवासी ईसाईयों के मृत व दफ़न शवों को कब्रगाहों से निकालकर गांव की पारंपरिक सीमा से बाहर निकाल फेंकने की घटनाओं में परिलक्षित होता है। हमने देखा कि 2018 के छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में किस तरह से ये ताकतें एक राजनीतिक दल विशेष के लिए जन-आंदोलनों तथा जन-संघर्षों के मुद्दों को उस पार्टी विशेष के घोषणापत्र बनाने के लिये कवायदों में जुटी थीं। इनका विशेष जोर और मकसद केवल राज्य सत्ता के दमन के खिलाफ जन-संघर्षों को एकजुट और संगठित करना है। हालांकि मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई संवैधानिक अड़चन है, लेकिन बहुसंख्यक धर्म-सत्ता, जाति-सत्ता, पितृसत्ता पर इनकी मंशा और रहस्यमयी चुप्पी पर सवाल तो उठता ही है।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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