मानव एक सामाजिक प्राणी है और सामाजिक प्राणी होने के नाते त्यौहार व उत्सव उसकी जिंदगी का अहम हिस्सा होते हैं। जो दलित बाबा साहब डॉ. आंबेडकर का अनुसरण कर बौद्ध धर्मावलंबी हो गए, वह हिंदुओं के त्यौहारों को मनाने या नहीं मनाने को लेकर उहा-पोह की स्थिति में रहते हैं। इसके कई कारण हैं।
जब कोई व्यक्ति धर्मांतरण करता है तो वह अपने नए धर्म के त्यौहार और उत्सव को मनाना शुरू करता है। साथ ही, पुराने धर्म के उत्सव और त्यौहार को मनाना बंद कर देता है। इसी प्रकार देवी-देवता आराध्य और पैगंबर भी बदल जाते हैं। इस तरह उन्हें एक अलग तरह के त्यौहारों की शृंखला मिलती है। लेकिन त्यौहारों को लेकर स्थिति भ्रम की रहती है, क्योंकि कई धर्मों के त्यौहार भी एक जैसे होते हैं। लेकिन अगर बौद्ध धर्म की बात करें तो इसमें कुछ विशेष त्यौहारों का जिक्र मिलता है। ये त्यौहार बौद्ध कैलेंडर या विक्रम संवंत पर आधारित है। जैसे– बुद्ध पूर्णिमा (बैशाख), लोसर (तिब्बती नव वर्ष), माघी पूर्णिमा, बुद्ध का परिनिर्वाण दिवस, सारिपुत्त और मोग्गलान का दिवस।
सनद रहे कि ये तिथियां विभिन्न बौद्ध समुदायों और देशों में भिन्न हो सकती हैं। ज्ञातव्य है कि नवबौद्धों को सामान्य तौर पर सिर्फ बुद्ध पूर्णिमा त्यौहार की जानकारी रहती है, शेष अन्य त्यौहारों के बारे में वे अनभिज्ञ रहते हैं।
इसी प्रकार कुछ त्यौहार ऐसे हैं जो मौसम और कृषि उपज पर आधारित होते हैं। इन त्यौहारों का संबंध किसी खास धर्म से नहीं होता है। लेकिन इन त्यौहारों को भी अलग-अलग धर्म के लोगों ने अपनी अलग-अलग धार्मिक मान्यताओं से जोड़ दिया। इस कारण इन त्यौहारों को मनाने का ढंग भी अलग-अलग होता है।
मूल सवाल यह है कि नवबौद्धों में इतना असमंजस क्यों है? इसकी एक वजह तो यह कि डॉ. आंबेडकर ने त्यौहारों को लेकर कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दिया है। यहां तक कि उनके द्वारा निर्धारित 22 प्रतिज्ञा में भी त्यौहारों का जिक्र नहीं मिलता है। डॉ. आंबेडकर द्वारा हिंदू धर्म को त्यागने का सबसे बड़ा कारण था– हिंदू धर्म में व्याप्त भेदभाव ऊंच-नीच और शूद्र व अछूत जातियों का शोषण। बाबा साहब धर्मांतरण के दौरान अपनी प्रतिज्ञा में इस बात को रेखांकित करते हैं कि वह हिंदू धर्म के देवी-देवताओं को नहीं मानेंगे और ब्राह्मणों के द्वारा कोई भी पूजा-पाठ नहीं करवाएंगे। अगर संस्कार की बात करें तो केवल एक संस्कार का जिक्र मिलता है। प्रतिज्ञा क्रमांक 6 में वह कहते हैं कि मैं पिंडदान नहीं करूंगा।
भारत में ऐसे बहुत सारे त्यौहार हैं, जो मौसम या कृषि पर आधारित हैं। इनमें ब्राह्मण का कोई दखल नहीं होता है। यह केवल फसल कटाई पर खुशी के त्यौहार हैं या फिर मौसम परिवर्तन के त्यौहार हैं। इन त्यौहारों को सिर्फ हिंदू धर्म के लोग ही नहीं, बल्कि बौद्ध, सिख, जैन और कबीर पंथी अपनी-अपनी मान्यता के हिसाब से मनाते हैं।
नवबौद्धों को भारतीय त्यौहारों को न मनाने के कारण निम्नांकित समस्याएं आती हैं–
- इन भारतीय त्यौहारों को न मनाने के कारण वे स्वयं को बहिष्कृत महसूस करते हैं।
- कई बार इन त्यौहारों को नहीं मनाने के कारण उन्हे पड़ोसियों के द्वारा निशाना बनाया जाता है और वह प्रताड़ित होते हैं।
- बौद्ध धर्म पर आधारित ऐसा कोई त्यौहार नहीं है, जिसमें नाचना, गाना और सजने-संवरने की कोई प्रथा है। इस कारण नवबौद्ध हिंदू धर्म के त्यौहारों को मनाने के लिए आकर्षित होते हैं और इसके ढेर सारे तर्क देते हैं।
- भारत में ऐसे बहुत सारे त्यौहार हैं, जो कृषि और मौसम पर आधारित हैं और इन त्यौहारों का आगाज तब से हुआ है, जब से कृषि अस्तित्व में आई। जैसे मकर संक्रांति, पोंगल, होली, दीपावली, बिहू, बैसाखी और नवाखाई आदि। इन्हें पूरे देश में अलग-अलग ढंग से और अलग-अलग नाम से मनाया जाता है। इसे मनाने के लिए किसी ब्राह्मण की आवश्यकता नहीं पड़ती है। कहीं-कहीं यह भी तर्क दिया जाता है कि यह त्यौहार भगवान बुद्ध के समय में भी मनाते रहे हैं, जिसे बाद में ब्राह्मणों के द्वारा कब्जा कर लिया गया।
- ज्यादातर नवबौद्ध, दलित और पिछड़े समाज के हैं, जो हजारों वर्षों से बहिष्कृत जीवन जीते आए हैं। आजादी के बाद से इनके बहिष्कार में कुछ कमी आई है। अब वह चाहते हैं कि सब लोगों के साथ घुलें-मिलें। इसलिए उनके साथ मिलकर उन्होंने त्यौहार मनाना प्रारंभ किया। उन्हें यह अच्छा लगता है कि वे लोग जो उनके साथ भेदभाव बरतते थे, अब उनके साथ हाथ मिला रहे हैं, उठते-बैठते हैं। अगर वे त्यौहारों को नहीं मनाते हैं या फिर हिंदू देवी-देवताओं के पूजन का विरोध करते हैं तो इन बौद्धो को फिर उसी प्रकार अलग-थलग पड़ जाने का डर सताता है।
- नवबौद्धों के ऊपर दोहरी मार होती है। वह गैर-बौद्धों (हिंदुओं) से तो उपेक्षित होते ही हैं। साथ ही, उनके समाज के वे लोग जिन्होंने बौद्ध धर्म नहीं स्वीकारा है, अभी भी हिंदू ही हैं, वह भी उन्हें बहिष्कृत कर देते है। आज यदि देखा जाए तो नवबौद्ध व्यक्ति को एक साथ बहुत सारी अड़चनों का सामना करना पड़ता है।
वैसे आंबेडकरवादी बौद्ध विचारधारा के लोग नए त्यौहारों को गढ़ रहे हैं, जिन्हें वे बहुजन त्यौहार कहते हैं। जैसे डॉ. आंबेडकर, सावित्रीबाई फुले, जोतीराव फुले, पेरियार, कांशीराम जैसे महापुरुषों की जयंती। इन नए त्यौहार में लोगों का जोश और उसका उत्साह देखने को मिलता है। ये सारे त्यौहार व्यक्तिगत ना होकर सामूहिक हैं। साथ ही, उन त्यौहारों को भी विचार के केंद्र में रखना चाहिए, जिनका हिंदू धर्म या किसी अन्य धर्म विशेष से कोई संबंध नहीं है। जैसे पोंगल, बैसाखी, नवाखाई, होली, दीवाली आदि त्यौहार। प्रसिद्ध चिंतक राजेंद्र पसाद सिंह अपने यूट्यूब चैनल में कहते है कि छठ पर्व पूरी तरह से बौद्ध धर्मावलंबियों का पर्व है, क्योंकि गौतम बुद्ध के प्रतीक के रूप में हाथी, धम्म चक्र, पीपल पत्ता सब मौजूद है। इसी प्रकार वे दीपावली समेत कई और त्यौहार को बौद्ध त्यौहार बताते है।
नवबौद्धों में असमंजस की एक वजह यह भी है कि बौद्ध धर्मावलंबी होने के बावजूद वे जातियों और उपजातियों में बंटे हैं। एक वजह यह भी कि हिंदू धर्म में बहुत सारे बौद्ध प्रतीकों को पूजा जाता है। और अब तो यह जानकारी सामने आ चुकी है कि हिंदू धर्म के अनेक देवताओं के रूप में बुद्ध की प्रतिमाओं को पूजा जा रहा है। बौद्ध धर्म ग्रंथ खुद्दकनिकाय में 461वीं जातक कथा के रूप में रामायण देखने को मिलता है, जहां राम एक बोधिसत्व के रूप में हैं।
उपलब्ध दस्तावेज और ग्रंथ यह बताते हैं कि हिंदू धर्म बौद्ध धर्म की शाखा महायान का ही अपभ्रंश रूप है। यानी हिंदू धर्म से ब्राह्मण वर्चस्व एवं पाखंड को हटा दें तो यह केवल बुद्ध धर्म की महायान की शाखा बनकर रह जाएगा। इस लिहाज से दलितों-पिछड़ों का बौद्ध धर्म स्वीकार करना अपने ही पुराने धर्म को वापस स्वीकार करने जैसा है। लेकिन इसके साथ ही प्राचीन कला और संस्कृति को भी बचाए रखना एक चुनौती है। इसीलिए अपने पूर्वजों के त्यौहार एवं उत्सव को भी बचाए रखना आवश्यक है। लेकिन यह कैसे पाखंडवाद तथा पूंजीवाद से मुक्त रह सके, इसका ध्यान रखना होगा।
(संपादन : राजन/नवल/अनिल)
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